पाठ प्रस्तावना कौशल (Skill of Introducing a Lesson)
प्रस्तावना का अर्थ– प्रस्तावना कक्षा में प्रथम कार्य है। पढ़ाने के लिये अध्यापक की प्रस्तावना अच्छी रही तो पाठ की सफलता सुनिश्चित हो जाती है। कहते भी हैं कि यदि कार्य की अच्छी शुरुआत हो जाती है तो आधा काम बन जाता है।
प्रस्तावना (Introduction) क्या है?
शिक्षण हेतु– पाठ्यांश के वास्तविक शिक्षण से पूर्व उसकी प्रस्तावना करना आवश्यक है। यह प्रस्तावना है क्या? इसे समझने की दृष्टि से आप कल्पना करें कि आपको किसी अपरिचित व्यक्ति से मिलना आवश्यक है और आपने उसे पहले कभी देखा भी नहीं। ऐसी स्थिति में आप एक ऐसे व्यक्ति की तलाश करते हैं जो आपका नजदीकी होने के साथ-साथ हितैषी भी है। आप इस व्यक्ति को अपने साथ चलने हेतु निवेदन करते हैं।
वह या तो आपके साथ जाकर आपका परिचय उस व्यक्ति से करा देता है और यदि किसी कारण से वह आपके साथ नहीं जा सकता तो आपका परिचय पत्र में लिखकर आपको दे देता है कि उस पत्र को ले जाकर आप उस व्यक्ति से मिल लें।
यहाँ पर आपका परिचित एवं हितैषी व्यक्ति स्वयं मिलकर अथवा पत्र के माध्यम से आपके विषय में उस अपरिचित व्यक्ति को जो कुछ बताता है, वही आपका परिचय या कार्य कराने से पूर्व की प्रस्तावना या भूमिका (Introduction) है। यह भूमिका, परिचित एवं अपरिचित को परस्पर जोड़ने की एक कड़ी है।
शिक्षण में भी ऐसा ही होता है। जो कुछ पढ़ाया जाना है वह विषयवस्तु की दृष्टि से विद्यार्थियों के लिये अज्ञात (Unknown) है। इस अज्ञात अथवा अनसमझी बात को शिक्षक, अपने विद्यार्थियों को स्वतन्त्र रूप से भी बता सकता है और यह भी कर सकता है कि वह इस बात का पता लगाये कि विद्यार्थी क्या जानते हैं और क्या नहीं? जो कुछ विद्यार्थी जानते और समझते हैं उसी के माध्यम से नयी बात, अर्थात् पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु को उसके साथ जोड़ दिया जाय।
ऐसा करने से न केवल समझायी जाने वाली विषयवस्तु सरलता से उनकी समझ में आ जाती है; अपितु उनकी पूर्व जानकारी के साथ इस प्रकार स्थायी रूप से जुड़ जाती है कि विद्यार्थी उसे प्रायः कम ही भूलते हैं।
इस प्रकार विद्यार्थियों द्वारा पूर्वार्जित ज्ञान या जानकारी के माध्यम से नवीन या अनजानी जानकारी को जोड़ना ही पाठ की प्रस्तावना (Introduction) कहलाती है।
अधिगम का सम्बन्ध चेतन मन या मस्तिष्क से है, परन्तु विद्यार्थी हों या बड़े उनके अचेतन मन में कुछ न कुछ विचार चलते ही रहते हैं। ऐसी स्थिति में अचेतन मन में चल रहे विचारों को बाहर निकालकर उनके स्थान पर उन विचारों को लाना होता है जो पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु से सम्बन्धित होते हैं।
यह परिवर्तन कहने मात्र से नहीं होता; अपितु विद्यार्थियों को कोई न कोई ऐसी बात कहनी पड़ती है जो देखने या सुनने में अच्छी लगे या रोचक हो अथवा जिस पर विचार करने के पश्चात् ही प्रतिक्रिया व्यक्त की जा सके या यदि वह प्रश्न हो तो उसका उत्तर दिया जा सके।
ऐसा करने से मन या मस्तिष्क में नये तथा पहले से चल रहे विचारों में परस्पर द्वन्द्व होता है। इस द्वन्द्व में जो विचार कमजोर होता है वह निकल जाता है तथा नया विचार शक्तिशाली होने के कारण उसका स्थान ग्रहण कर लेता है।
प्रस्तावना का उद्देश्य भी यही है कि विद्यार्थियों के मन एवं मस्तिष्क में चल रहे विचारों को स्थान पर पढ़ाये जाने वाली विषयवस्तु से सम्बन्धित विचारों को स्थापित किया जाय। इस दृष्टि से पाठ की प्रस्तावना सदैव-
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विद्यार्थियों की पूर्व जानकारी चित्र आदि पर आधारित।
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सुनने की दृष्टि से रोचक तथा
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विचार करने की दृष्टि से विचार प्रधान होनी ही चाहिये।
साथ ही पाठ की प्रस्तावना विद्यार्थियों में जिज्ञासा (Curiosity) उत्पन्न करने वाली होनी चाहिये। यह जिज्ञासा किसी एक प्रकार से नहीं अपितु अनेकों प्रकार से की जा सकती है। प्रस्तावना पूर्व ज्ञान पर भी आधारित हो सकती है तो शिक्षण के विभिन्न साधनों का भी उपयोग किया जा सकता है।
प्रस्तावना की परिभाषा
“शिक्षक पाठ पढ़ाने के पूर्व छात्रों का ध्यान पाठ की ओर ले जाने के लिये जो भी क्रियाकलाप करता है उसे प्रस्तावना कहते हैं।“
इस कौशल से छात्र नया पाठ पढ़ने के लिये तैयार किये जाते हैं। इसके द्वारा उनकी पाठ के प्रति रुचि बढ़ायी जाती है और जिज्ञासा जगायी जाती है। इससे छात्रों का अधिगम अधिक होता है। पाठ की प्रस्तावना एक कला है और अच्छी प्रस्तावना करने वाला शिक्षक एक कलाकार।
बालक का ध्यान कई प्रकार से नया पाठ पढ़ाने के लिये तैयार किया जाता है; जैसे– प्रश्न पूछकर, विषय की व्याख्या करके, कहानी सुनाकर, कविता सुनाकर, चित्र दिखाकर आदि।
प्रस्तावना के लक्षण
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प्रस्तावना छात्रों में उत्साह, रुचि और पाठ को पढ़ाने के लिये प्रेरणा जागृत करने वाली होनी चाहिये।
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नये ज्ञान को पूर्व ज्ञान से जोड़ने में प्रस्तावना ठीक होती है।
प्रस्तावना कौशल के घटक
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कथनों एवं प्रश्नों का छात्रों के पूर्व ज्ञान से सम्बन्ध।
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कथनों एवं प्रश्नों का मूल पाठ तथा उसके उद्देश्यों से सम्बन्ध।
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कथनों एवं प्रश्नों में शृंखलाबद्धत्ता।
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छात्र स्तर के उपयुक्त उपकरणों एवं साधनों का चयन एवं प्रयोग।
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उपयुक्त एवं समुचित अवधि के विस्तार।
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छात्र ध्यान एवं रुचि आकर्षण।
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छात्रों को अभिप्रेरित करने की क्षमता।
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अध्यापक में उत्साह एवं सजगता।
प्रस्तावना कौशल का मूल्यांकन (Evaluation of Introduction Skill)
प्रस्तावना की प्रभाविता कि शिक्षक ने विद्यार्थियों को पाठ की ओर अभिमुख करने में कितनी अधिक या कम सफलता प्राप्त की-इसका अनुमान लगाना बिल्कुल सम्भव नहीं। इसका पता लगाने हेतु मूल्यांकन आवश्यक है। मूल्यांकन की आवश्यकता केवल प्रस्तावना के साथ ही जुड़ी हो- ऐसा बिल्कुल नहीं है। यह हटकर की जाने वाली क्रिया एवं कार्य के साथ सम्बद्ध है। चाहे वह शिक्षण हो अथवा अन्य कोई कार्य।
परन्तु मूल्यांकन भी अनुमान के आधार पर अथवा मूल्यांकन कर्त्ता की व्यक्तिगत मान्यताओं के आधार पर हो-यह ठीक नहीं। उसमें व्यक्तिनिष्ठता (Subjectivity) आ जाती है जो मूल्यांकन की निष्पक्षता की दृष्टि से ठीक नहीं।
मूल्यांकन यथासम्भव वस्तुनिष्ठ (Objective based) ही होना चाहिये और यह तभी सम्भव है जब किसी भी क्रिया या कार्य का मूल्यांकन उस कार्य या क्रिया से सम्बन्धित निर्धारित मापदण्डों के आधार पर हो। ये मापदण्ड भी क्रियाओं एवं कार्यों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग होंगे।
शिक्षण से सम्बन्धित विभिन्न कुशलताओं मूल्यांकन हेतु उन सभी कुशलताओं के मापदण्ड अलग-अलग होंगे। यहाँ यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि यदि कोई क्रिया किसी निर्धारित मापदण्डों पर खरी नहीं उतरती है तो वही उसकी कमियों को बताकर पुनः उसका अभ्यास उस समय तक कराना होगा जब तक कि उस क्रिया या कार्य को करने वाला (यहाँ पर शिक्षक अथवा छात्राध्यापक) उसमें कुशलता अर्जित नहीं कर लेता।
सूक्ष्म-शिक्षण (Micro-teaching) भी इसी अवधारणा पर आधारित है। सूक्ष्म-शिक्षण का मूल्यांकन भी आवश्यक है ताकि उसके आधार पर उपयुक्त, सुझाव देकर प्रस्तावना को प्रभावी बनाया जा सके।