खेल प्रविधि (Play Technique)
खेल प्रविधि के जन्मदाता यूरोप के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री श्री काल्डवेल कुक हैं। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल ने खेल को एक सामान्य स्वाभाविक प्रवृत्ति कहा है और लिखा है कि “खेल एक स्वाभाविक आनन्ददायक एवं जन्मजात शक्ति है।“
अत: पाठशालाओं में खेल का बड़ा महत्त्व है। खेल से शारीरिक विकास, सामाजिक भावना का विकास और नेतृत्व शक्ति का विकास तो होता ही है, साथ ही छात्र अनुशासनप्रिय भी होता है तथा मानसिक तनावों से मुक्त होता है।
खेल या खेल सम्बन्धी क्रियाओं के शिक्षात्मक पहलुओं एवं क्रियाओं द्वारा सीखने के सिद्धान्त से जो कुछ भी छात्र सीखता है, वह ज्ञान अधिक सुदृढ़ होता है तथा छात्र उसे शीघ्रता से नहीं भूलता।
रायबर्न के अनुसार खेलों का प्रयोग पाठशाला में निम्नलिखित अर्थों से लिया जा सकता है:-
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शिक्षा सम्बन्धी खेल,
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ऐसी क्रियाएँ जिनमें खेल सम्बन्धी भावना पायी जाय।
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अनेक प्रकार की रचनात्मक क्रियाएँ,
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नाटकीकरण ।
प्रारम्भिक चर्चाओं में पढ़ना-लिखना खेल द्वारा भली-भाँति सिखाया जा सकता है। छोटे बच्चे खेलों में रुचि लेते हैं।
अत: अध्यापन में अग्रलिखित प्रकार से शिक्षा सम्बन्धी खेलों का बड़ा महत्त्व है:-
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शिक्षा को रोचक बनाने वाले खेल,
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विविधता युक्त खेल तथा
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सीखने की क्रिया में सहायक खेल।
शैक्षणिक खेल साधन हैं, साध्य नहीं, यदि अधिकता में न हों अन्यथा छात्र के लिये कार्य की श्रेणी में आ जायेंगे। शैक्षणिक खेलों से नवीन बातें तो सीखी जाती हैं साथ ही सीखी हुई बातों का अभ्यास भी होता है। इस पद्धति का उपयोग छोटी कक्षाओं में अधिक उपयुक्त होता है। माध्यमिक कक्षाओं में भी रूखे और क्लिष्ट विषयांगों को खेलों के माध्यम से सिखाया जाता है।
शिक्षक का कर्तव्य है कि वह समय-समय पर शिक्षण सम्बन्धी खेलों का आयोजन करे। प्राथमिक स्तर पर खेल प्रविधि के माध्यम से ही शिक्षा प्रदान की जाय।
बालकों को शुद्ध उच्चारण करने, नये शब्दों का निर्माण करने, वाद-विवाद, वर्तनी, लेख, रिक्त स्थानों की पूर्ति तथा शब्दों को जोड़ने-तोड़ने आदि के अभ्यास के लिये शिक्षण सम्बन्धी खेलों का आयोजन किया जाय।
“सभी विषयों का शिक्षण खेल प्रविधि से किया जाता है।”, इस सिद्धान्त के प्रतिपादक थे हेनरी कोल्डवेल कुक (Henry Coldwell Cook)। उन्होंने साहित्य का शिक्षण वाद-विवाद और कार्य द्वारा कराने की बात कही थी।
अभिनय भी एक प्रकार का खेल है। अभिनय खेल प्रविधि पर निर्भर है। खेल के माध्यम से शिक्षा देने की बात अब इतनी सामान्य हो गयी है कि इसका प्रयोग परम्परागत शिक्षण प्रणालियों में भी किया जाता है और नवीन शिक्षण प्रणालियों में भी।
नवीन शिक्षण प्रणालियों में मॉण्टेसरी, डाल्टन योजना, प्रोजेक्ट मैथड और बेसिक शिक्षा प्रणालियाँ ऐसी हैं, जिनसे भाषा, गणित, समाजशास्त्र और विज्ञान आदि का शिक्षण किया जाता है।
खेल बालकों की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। यदि इस प्रवृत्ति का शिक्षण में लाभ उठाया जाय और इसे शिक्षा में उचित स्थान दिया जाय तो बालक सहज ही में शिक्षा ग्रहण कर लेते हैं। खेल द्वारा कठिन से कठिन कार्य बालक आनन्द तथा उत्साह से करता है।
खेल द्वारा भाषा शिक्षण रुचिकर एवं स्थायी होता है। खेल की भावना को नाटक, वाद-विवाद, सामूहिक चर्चा, लिखना, पढ़ना, वर्तनी, शब्द निर्माण आदि अनेक क्रियाओं के प्रयोग में लाया जा सकता है। वस्तुओं से खिलाते-खिलाते बालकों को नये शब्द सिखा दिये जाते हैं। गीत गवाते-गवाते वाक्य बनाना सिखाया जाता है।
वर्तनी सिखाने के लिये वर्तनी के शब्द बनाना, अशुद्ध शब्दों को शुद्ध करना, विलोम शब्द सम्बन्धी प्रतियोगिताएँ आयोजित करना, वचन, लिंग, काल के बदलने के खेल खिलाना तथा रिक्त स्थान पूर्ति के खेल खिलाना आदि ऐसी क्रियाएँ हैं, जिनसे भाषा शिक्षण में खेल की भावना उत्पन्न की जाती है।
खेल द्वारा की गयी क्रियाएँ बालकों को रुचिकर प्रतीत होती हैं। अरुचिकर क्रियाओं को भी शिक्षण की यह रीति रोचक बना देती है। खेल में बालक अपने उत्तरदायित्व को समझता है।
इस प्रकार खेल द्वारा शिक्षा, रुचि, स्वतन्त्रता और उत्तरदायित्व के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित होती है। यदि हम विद्यालय को आकर्षक तथा शिक्षण कार्य को मनोरंजक बनाना चाहते हैं तो फ्रॉबेल के कथनानुसार विद्यालय को ऐसा स्थान बनाना होगा, जहाँ बालक उस ओर उत्साह से जाने की इच्छा प्रकट करें, जिस रुचि में खेल के मैदान में जाते हैं।