स्त्रोत-सन्दर्भ प्रविधि – अर्थ, सोपान, गुण एवं दोष

Srot Sandarbh Pravidhi

स्त्रोत-सन्दर्भ प्रविधि (Source Reference Technique)

स्रोत-सन्दर्भ एक प्रभावशाली शिक्षण प्रविधि है। इस प्रविधि का अर्थ स्पष्ट करने से पूर्व यह आवश्यक है कि ‘स्रोत‘ और ‘संदर्भ‘ शब्द का अर्थ समझा जाय। सर्वप्रथम हम स्रोत और तत्पश्चात संदर्भ के अर्थ के बारे में चर्चा करेंगे।

स्रोत का अर्थ

स्रोत एक प्रकार के ज्ञान एवं सूचनाओं का वह प्रमाणित मूल है जो किसी घटना या व्यक्ति से सम्बन्धित होने के कारण उस घटना या व्यक्ति के सम्बन्ध में हमें प्रामाणिक जानकारी प्रदान करता है।

इस प्रविधि का प्रयोग इतिहास पर प्रकाश डालने के लिये किया जाता है। यह सम्भव नहीं है कि कोई भी साहित्यकार अतीतकालीन घटनाओं का अपने वर्तमान काल में अवलोकन कर सके। ऐसी दशा में उसके लिये आवश्यक हो जाता है कि वह अतीतकालीन साहित्य के स्रोतों को अपने अध्ययन का आधार बनाये। ये स्रोत दो भागों में विभाजित किये जा सकते हैं:-

  1. मौलिक स्रोत– मौलिक स्रोतों में आते हैं- स्मारक, सिक्के, यन्त्र-वस्तु, मानवकंकाल, आज्ञा-पत्र, आदेश, फरमान, संविधान, सन्धियाँ एवं न्यायालयों के निर्णय आदि।
  2. सहायक स्रोत– इसके अन्तर्गत पुस्तकें, जीवन-चरित्र, आत्म-कथाएँ एवं यात्राविवरण आदि आते हैं।

शिक्षण में विभिन्न स्रोतों का उपयोग निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है:-

  1. पाठ के आरम्भ में छात्रों में जिज्ञासा जागृत करने के लिये।
  2. पाठ का विकास करने के लिये भी इनका प्रयोग किया जा सकता है।
  3. किसी साहित्यिक स्रोत को छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करके उस पर अध्यापक अनेक प्रश्न कर सकता है।
  4. साहित्यिक घटनाओं की समीक्षा के लिये भी स्रोतों का उपयोग करना आवश्यक हो जाता है।

सन्दर्भ का अर्थ

स्रोतों के पश्चात् सन्दर्भ का अर्थ समझना आवश्यक है। मूल स्रोतों की जो व्याख्या की जाती है, वे एक प्रकार के सन्दर्भ हैं। अन्य शब्दों में, “सन्दर्भ से तात्पर्य उन प्रामाणिक ग्रन्थों या मौलिक स्रोतों की विषय-वस्तु से है, जिनका निरूपण गहन अध्ययन एवं अनुसन्धान के पश्चात् किया जाता है। वास्तव में स्रोत-सन्दर्भ ऐसे मूल साधन हैं, जिनके आधार पर हम भूत, वर्तमान आदि को भली प्रकार समझ सकते हैं।”

उदाहरण के लिये, सूरदास के पदों अथवा कबीर के दोहों का छात्रों को ज्ञान कराने के लिये स्रोत-सन्दर्भ के रूप में प्रभावशाली ढंग से उल्लेख किया जा सकता है। इसी प्रकार ‘अशोक महान्‘ का पाठ पढ़ाते समय अशोक के विभिन्न शिलालेखों को छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत कर उन्हें पढ़कर सुनाया जा सकता है।

स्रोत-सन्दर्भ प्रविधि के सोपान (Steps of source reference technique)

स्रोत सन्दर्भ प्रविधि में निम्नलिखित सोपानों का प्रयोग किया जाता है:-

  1. सर्वप्रथम अध्यापक द्वारा शिक्षण विषयवस्तु का चयन करना।
  2. तत्पश्चात् विषयवस्तु से सम्बन्धित स्रोतों का चयन करना।
  3. स्रोतों के चयन के पश्चात् अध्यापक द्वारा उनका अध्ययन करना।
  4. प्रस्तुतीकरण की प्रविधि का चयन।
  5. पाठ की प्रस्तावना का आरम्भ।
  6. स्रोतों का प्रस्तुतीकरण तथा उन्हें छात्रों से कक्षा में पढ़वाना।
  7. स्रोत-सन्दर्भ से ज्ञात होने वाली सामग्री पर अध्यापक द्वारा छात्रों से प्रश्न करना।
  8. विषयवस्तु पर वार्तालाप कर निष्कर्ष निकलवाना।
  9. श्यामपट्ट सारांश लिखना।
  10. छात्रों से पुनरावृत्ति के प्रश्न करना।
  11. अन्त में छात्रों को गृहकार्य प्रदान करना।

स्रोत-सन्दर्भ प्रविधि के गुण (Merits of source reference technique)

स्रोतसन्दर्भ प्रविधि के गुण निम्नलिखित हैं:-

  1. यह प्रविधि छात्रों को प्रामाणिक ज्ञान प्रदान करती है।
  2. इससे छात्रों में तुलना करने एवं निर्णय लेने आदि शक्तियों का विकास होता है।
  3. छात्रों में विषय के उच्च स्तरीय अध्ययन एवं शोध कार्य के प्रति रुचि जागृत होती है।
  4. यह प्रविधि छात्रों को गहन अध्ययन के लिये प्रेरित करती है।
  5. इससे स्वाध्याय एवं अध्ययन की प्रवृत्ति का विकास होता है।
  6. मूल पदार्थों या स्रोतों की उपस्थिति से शिक्षण रोचक एवं प्रभावशाली हो जाता है।