बाल विकास की प्रकृति (Nature of Child Development)
प्राणी के गर्भ में आने से लेकर पूर्ण प्रौणता प्राप्त होने की स्थिति ही मानव विकास है। पिता के सूत्र (Sperms) तथा माता के सूत्र (Ovum) के संयोग (यौन सम्पर्क) से जीवोत्पत्ति होती है।
बालक लगभग 9 माह अर्थात् 280 दिन तक माँ के गर्भ में रहता है और तब से ही उसके विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। उसके सभी अंग धीरे-धीरे पुष्ट तथा विकसित होने लगते हैं, जब भ्रूण विकसित होकर पूर्ण बालक का स्वरूप ग्रहण कर लेता है तो प्राकृतिक नियमानुसार उसे गर्भ से पृथ्वी पर आना ही पड़ता है तब बालक के विकास की प्रक्रिया प्रत्यक्ष रूप में विकसित होने लगती है।
बालक के विकास पर वंशानुक्रम के अतिरिक्त वातावरण का भी प्रभाव पड़ने लगता है।
मुनरो के शब्दों में, “परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था, जिसमें बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाती है।”
बाल विकास का अर्थ किसी बालक के मोटे-पतले या बड़े तथा भारयुक्त होने से नहीं है, अपितु परिपक्वता की ओर निश्चित परिस्थितियों में बढ़ने से है। यह एक प्रगतिशील तथा विकसित परिवर्तन की बढ़ती हुई स्थिति है। यह एक प्रगतिशील दिशा है, जो निरन्तर अबाध गति से चलती रहती है और जिसमें तनिक भी विराम नहीं है। यह एक निरन्तर गतिशील प्रक्रिया है। जिसमें विकास के उच्चतर प्रगतिशील तत्त्व विद्यमान रहते हैं।
गैसेल के अनुसार, “विकास सामान्य प्रयत्न से अधिक महत्त्व रखता है, विकास का अवलोकन किया जा सकता है और किसी सीमा तक इसका मापन एवं मूल्यांकन भी किया जा सकता है, जिसके तीन रूप होते हैं-(1) शरीर निर्माण, (2) शरीरशास्त्र एवं (3) व्यवहार के चिह्न।”
किसी बालक के व्यवहार के चिह्न, उसके विकास के स्तर एवं शक्तियों की विस्तृत रचना करते हैं।
पढ़िए मनोविज्ञान या बाल मनोविज्ञान और बाल विकास के अन्य चैप्टर:
- बाल विकास
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