बाल केन्द्रित अधिगम उपागम
Child Centered Learning Approach
एक समय था जब बालक की अपेक्षा पाठ्यक्रम को अधिक महत्त्व दिया जाता था परन्तु शिक्षण अधिगम में मनोविज्ञान के प्रवेश से अब बालक को महत्त्व दिया जाने लगा है। अब बालक की क्षमताओं, रुचियों तथा रुझानों को विशेष महत्त्व दिया जाता है और उसकी अधिगम प्रक्रिया में इन बिन्दुओं का ध्यान रखा जाता है।
बाल केन्द्रित अधिगम का उद्देश्य बालक का चहुँमुखी विकास करना है। बाल केन्द्रित अधिगम की प्रमुख विशेषता बालक की प्रधानता है। इसके अन्तर्गत बालक की रुचियों, प्रवृत्तियों तथा क्षमताओं को ध्यान में रखकर ही सम्पूर्ण अधिगम प्रक्रिया का आयोजन किया जाता है।
वर्तमान समय में बालकों के सर्वांगीण विकास का उद्देश्य प्रत्येक अधिगम कार्यक्रम में निहित होता है। विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों के माध्यम से बालकों में सांस्कृतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं मानवीय विकास का मार्ग प्रशस्त किया जाता है। इस प्रकार बालकों के सर्वांगीण विकास हेतु अनेक प्रकार के उपायों के माध्यम से उनका अधिगम सम्भव होता है।
बाल केन्द्रित अधिगम उपागम द्वारा प्रभावशाली अधिगम के सन्दर्भ में की जाने वाली प्रक्रिया को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है:-
1. बाल केन्द्रित अधिगम का महत्त्व (Importance of child centered learning)
वर्तमान समय में बालक केन्द्रित अधिगम के महत्त्व में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। चूंकि अधिगम व्यवस्था का प्रमुख उद्देश्य बालकों का सर्वांगीण विकास करना है, इसीलिये बालकों के चहुंमुखी विकास हेतु अनेक प्रकार के अधिगम उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है तथा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये अनेक प्रकार के उपाय किये जाते हैं।
इस प्रकार शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाने का प्रयास किया जाता है। अत: बाल केन्द्रित उपागम अधिगम प्रक्रिया में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है।
2. बालकों की क्रियाशीलता को महत्त्व (Importance to activities of children)
अधिगम प्रक्रिया में बालकों की क्रियाशीलता को विशेष महत्त्व दिया जाता है। मनोवैज्ञानिकों एवं शिक्षाशास्त्रियों का मानना है कि जब तक बालक शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्रियाशील नहीं होगा तब तक वह अपने अधिगम स्तर को उच्च नहीं बना सकता, न ही शिक्षण अधिगम प्रक्रिया क्रियाशील हो सकती है।
इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु अधिगम प्रक्रिया में उन सामग्रियों अथवा क्रियाओं का समावेश किया जाता है, जिनसे छात्र अधिक से अधिक क्रियाशील हो सकें। इस प्रकार हम उसी अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली कह सकते हैं, जिसमें बालकों को शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्रियाशील रखा जाता है।
3. रुचिपूर्ण शिक्षण अधिगम (Interesting teaching learning)
वर्तमान समय में यह माना जाता है कि जब तक बालक अधिगम प्रक्रिया एवं शैक्षिक क्रियाकलापों प्रक्रिया में उस सामग्री और गतिविधि का प्रयोग किया जाता है, जिससे बालकों में अधिगम व्यवस्था के प्रति रुचि विकसित हो; जैसे– पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का प्रयोग एवं शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग आदि।
इस प्रकार से एक ओर तो बालक अधिगम के प्रति आकर्षित होता है वही दूसरी ओर अधिगम-प्रक्रिया में भी सरल और सार्थक बन जाती है।
4. प्रभावी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया (Effective teaching learning process)
प्रभावी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की स्थिति उत्पन्न करना व मान शिक्षा प्रणाली का प्रमुख उद्देश्य है। अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिये यह आवश्यक होता है कि शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाय। बालकों के मानसिक एवं आयु वर्ग का ध्यान रखा जाय तथा उनकी पसन्द का भी ध्यान रखा जाय।
इन व्यवस्थाओं के लिये अधिगम प्रक्रिया में विभिन्न प्रकार की सामग्री एवं क्रियाओं का समावेश किया जाता है। इस प्रकार बालक का उचित विकास होता है और शिक्षण अधिगम-प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के उद्देश्य की पूर्ति भी होती है।
5. बालक का सर्वांगीण विकास (All round development of child)
बालकों के सर्वांगीण विकास के उद्देश्य की पूर्ति के सन्दर्भ में किये जाने वाले प्रयासों के कारण भी अधिगम प्रक्रिया का विकास तीव्र गति से सम्भव हुआ है क्योंकि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये स्वास्थ्य शिक्षा, शारीरिक एवं मानसिक विकास से सम्बन्धित क्रियाओं को व्यापक स्थान प्रदान किया गया है।
पूर्व प्राथमिक स्तर से ही बालकों की अधिगम प्रक्रिया में उन सभी तथ्यों का समावेश किया जाता है, जो कि बालक के चहुंमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार अधिगम प्रभावशाली बनता है और बालकों का सर्वांगीण विकास सम्भव होता है।
6. कौशलात्मक विकास (Skill development)
कौशलात्मक विकास के सन्दर्भ में भी अधिगम प्रक्रिया सम्पन्न होती है। वर्तमान समय में कौशलात्मक ज्ञान को विशेष महत्त्व प्रदान किया जाता है क्योंकि औद्योगिक एवं भौतिक विकास का प्रमुख साधन कौशलात्मक विकास ही है। व्यवहार में विभिन्न प्रकार के तकनीकी ज्ञान को कौशलात्मक ज्ञान की श्रेणी में माना जाता है।
इसलिये बालकों को पूर्व प्राथमिक स्तर से ही मिट्टी के खिलौने बनाना, पेड़-पौधे लगाना एवं विभिन्न प्रकार के खेल कौशलों को सिखाया जाता है। इस प्रकार बालक विभिन्न कौशल सीखते हैं और उनकी अधिगम प्रक्रिया सार्थक होने लगती है।
7. सामाजिक विकास (Social development)
वर्तमान समय में सामाजिक समरसता के विकास की दृष्टि से भी छात्रों को परिपक्व बनाने का प्रयास किया जाता है। इसके लिये पूर्व प्राथमिक स्तर से ही अधिगम व्यवस्था में उन क्रियाओं को स्थान प्रदान किया जाता है जो कि बालकों में सामाजिक गुणों का विकास करती हैं; जैसे– समूह में सम्पन्न पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ, सामूहिक गतिविधियों पर आधारित अधिगम एवं खेल आधारित शिक्षण अधिगम प्रक्रिया आदि।
इन सभी को अधिगम प्रक्रिया में स्थान मिलने से बालकों में सामाजिक गुण- प्रेम, सहयोग एवं परोपकार आदि का विकास होता है।
8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास (Development of scientific attitude)
समाज में अनेक प्रकार की रुढ़िवादिता एवं परम्पराओं के विद्यमान होने के कारण बालकों पर इसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। बालकों में रुढ़िवादिता एवं अस्वास्थ्यप्रद परम्पराओं को रोकने के लिये वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास किया जाना आवश्यक है।
इसके लिये बालकों को पूर्व प्राथमिक स्तर से ही विज्ञान विषय का ज्ञान तथा अधिगम में ऐसी क्रियाओं का समावेश जो कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करती हैं, आवश्यक होता है।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि बाल केन्द्रित उपागम एक ऐसा दृष्टिकोण है, जिसके द्वारा बालक को अधिगम प्रक्रिया का मुख्य आधार बनाया गया है।
अधिगम प्रबन्ध बालक की आवश्यकताओं, रुचियों एवं क्षमताओं के आधार पर किया जाता है। प्रत्येक बालक की योग्यता एवं सीखने की गति भिन्न होती है। अत: बालक केन्द्रित अधिगम में विभिन्न तकनीकों का सहारा लिया जाता है और बालक को सक्रिय ढंग से रहना सिखाया जाता है।
बाल केन्द्रित शिक्षण
Child Centered Teaching
बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षण का केन्द्र बिन्दु बालक होता है। इसके अन्तर्गत बालक की रुचि, प्रवृत्ति तथा क्षमता को ध्यान में रखकर शिक्षण प्रदान किया जाता है। बाल केन्द्रित शिक्षण में व्यक्तिगत शिक्षण को महत्त्व दिया जाता।
- इसमें स्वाभाविक रूप से विकसित अनुशासन स्थापित होता है।
- इसमें बालक का व्यक्तिगत निरीक्षण कर उसकी दैनिक कठिनाइयों को करने का प्रयास किया जाता है तथा बालक को स्वावलम्बी बनाकर उसमें स्वतन्त्रता की भावना उत्पन्न की जाती है।
बालक चुने गये साधनों में से अपनी इच्छानुसार किसी भी साधन का चुनाव कर सकता है। चुने हुए साधन प्राप्त होने पर बालक उस साधन के साथ सन्तोष प्राप्त होने तक कार्य कर सकता है। इस प्रकार किये गये कार्य से बालक को मानसिक सन्तोष और शान्ति का अनुभव होता है। इस अनुभव से बालक का शारीरिक एवं मानसिक उत्साह उत्पन्न होने में सहायता मिलती है।
बाल केन्द्रित शिक्षण जीवन की शिक्षण प्रणाली है। अत: एक विकसित शिशु से एक विकसित प्रौढ़ बनाने के लिये जो कार्य मूलत: सीखना आवश्यक है उन सभी क्रिया प्रणालियों का समावेश इस शिक्षण में किया गया है। बाल केन्द्रित शिक्षण पूर्णत: मनोवैज्ञानिक है।
बाल केन्द्रित शिक्षण का महत्त्व निम्नलिखित कारणों से है:-
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बालक प्रधान शिक्षण– बाल केन्द्रित शिक्षण का विशिष्ट महत्त्व यह है कि इसमें बालक को सबसे अधिक प्रधानता दी जाती है। इसमें बालक की रुचियों और क्षमताओं को ध्यान में रखकर ही सम्पूर्ण शिक्षण का आयोजन किया जाता है।
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सरल और रुचिपूर्ण– बाल केन्द्रित शिक्षण अत्यन्त सरल और रुचिपूर्ण है। यह बालक को सरल ढंग से नवीन ज्ञान रुचिपूर्ण तरीके से प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण साधन है।
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आत्माभिव्यक्ति के अवसर– बाल केन्द्रित शिक्षण में पालकों को आत्माभिव्यक्ति के अवसर प्राप्त होते हैं।
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ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण पर बल– बाल केन्द्रित शिक्षण में ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण पर विशेष बल दिया जाता है। वास्तव में ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण से ही मस्तिष्क का विकास होता है।
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व्यावहारिक और सामाजिक– बाल केन्द्रित शिक्षण बालक को व्यावहारिकता और सामाजिकता की शिक्षा प्रदान करता है।
बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक की भूमिका
The Role of Teacher in Child Centered Teaching
बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक बालकों का सहयोगी, सेवक तथा मार्गदर्शक के रूप में होता है। वह बालकों का सभी प्रकार से मार्गदर्शन करता है और विभिन्न क्रियाकलापों को क्रियान्वित करने में सहायता करता है। शिक्षक को शिक्षण के यथार्थ उद्देश्यों के प्रति पूर्णतया सजग रहना चाहिये।
शिक्षक का उद्देश्य बालकों को केवल पुस्तकीय ज्ञान प्रदान करना मात्र ही नहीं होता वरन् बाल केन्द्रित शिक्षण का महानतम् लक्ष्य बालक का सर्वोन्मुखी विकास करना है, इसलिये शिक्षक को इस उद्देश्य की पूर्ति में बालक की अधिक से अधिक सहायता करनी चाहिये।
यह कहना पूर्णतया सत्य है कि-“शिक्षक वह धुरी है जिस पर बाल केन्द्रित शिक्षण कार्यरत है।” बाल केन्द्रित शिक्षण की सफलता शिक्षक की योग्यता पर निर्भर करती है।
प्राचीन भारत में शिक्षक को ईश्वर के पश्चात् द्वितीय स्थान प्रदान किया जाता था। बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक माली के सदृश पौधों के समान बालकों का पोषण करके उनका शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक विकास करता है। शिक्षक ही बालक को पशु प्रवृत्ति से निकालकर मानवीय प्रवृत्ति की ओर उन्मुख करता है।
इस प्रकार बाल केन्द्रित शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य को एकता का मूल आधार कहा गया है। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह बालकों को इस तथ्य को बोध कराये कि वे स्वयं परम् शक्ति के अंश मात्र हैं।
बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक को स्वतन्त्र रहते हुए यह निर्णय लेना चाहिये कि बालक को क्या सिखाना है? उसके अनुसार ही स्थानीय पर्यावरण का चयन, पाठ्यक्रम, शाला समय, शाला दैनिक कार्यक्रम आदि का निर्णय स्थानीय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिये।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक की मार्गदर्शक के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है बिना शिक्षक के मार्गदर्शन के शिक्षण अपंग हो जाता है।
शिक्षक केन्द्रित शिक्षण
Teacher Centered Teaching
शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। समस्त शिक्षण कार्यक्रम शिक्षक को केन्द्र मानकर आयोजित किये जाते हैं। इससे बालकों के अन्दर भयनिर्मित बाह्य अनुशासन स्थापित किया जाता है। यह सामूहिक कक्षा शिक्षण पर आधारित है।
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इसमें बालक को आत्म-प्रकाशन का अवसर नहीं मिल पाता।
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इस शिक्षण में छात्र अध्ययन के लिये स्वतन्त्र नहीं होता।
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इस शिक्षण मे शिक्षण और निरीक्षण पर पूर्णतः शिक्षक का हस्तक्षेप रहता है।
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इसमें बालक की क्षमता और रुचि का ध्यान नहीं रखा जाता।
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इस शिक्षण में बालक अध्ययन के लिये स्वतन्त्र नहीं होता। उसे वही पढ़ना होता है जो शिक्षक चाहता है।
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शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में बालक को आत्माभिव्यक्ति का अवसर नहीं मिलता।
इस शिक्षण में सभी प्रयोगात्मक कार्य शिक्षक स्वयं करता है फलस्वरूप बालक में आत्म-निर्भरता तथा आत्मविश्वास की भावना का विकास नहीं होता। शिक्षक केन्द्रित शिक्षण पूर्णत: अमनोवैज्ञानिक है।
बाल केन्द्रित शिक्षण और शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में अन्तर
Distinguish between child centered teaching and teacher centered teaching
बाल केन्द्रित शिक्षण और शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में अन्तर हम निम्नलिखित बिन्दुओं की सहायता से स्पष्ट कर सकते हैं:-
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बाल केन्द्रित शिक्षण में बालक की आवश्यकता, रुचि एवं क्षमता को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। दूसरी ओर, शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक सर्वोपरि है।
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बाल केन्द्रित शिक्षण में शैक्षणिक कार्यक्रम का मुख्य आधार विद्यार्थी होता है। दूसरी और शिक्षक केन्द्रित शिक्षण के शैक्षणिक कार्यक्रम पूर्व नियोजित होते हैं जो छात्र को अरुचिकर लगते हैं।
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बाल केन्द्रित शिक्षण बालकों के अनुभवों पर आधारित होता है। अतः यह रुचिकर एवं उत्साहवर्द्धक होता है। इससे बालकों की सृजनात्मकता का विकास होता है किन्तु शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में बालक की सृजनात्मक शक्ति का विकास नहीं हो पाता।
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बाल केन्द्रित शिक्षण बच्चों में अनुशासन, स्वावलम्बन एवं अध्यवसाय जैसे गुण विकसित करता है किन्तु शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में बालक में स्वानुशासन, स्वावलम्बन, श्रम तथा स्वाध्याय जैसे गुण विकसित नहीं हो पाते।
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बाल केन्द्रित शिक्षण में मूल्यांकन साथ-साथ होता है परन्तु शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ नहीं होता।
इससे सृजनात्मकता का प्रायः अभाव रहता है। बालक को नियोजित रास्ते पर चलने के लिये विवश कर दिया जाता है अन्यथा असफल घोषित कर दिया जाता है।
बाल केन्द्रित शिक्षण एवं बाल केन्द्रित उपागम में भेद
Difference between Child Centered Teaching and Child Centered Approach
बाल केन्द्रित शिक्षण बालक की रुचियों, प्रवृत्तियों तथा क्षमताओं को ध्यान में रखकर आयोजित किया जाता है जबकि बाल केन्द्रित उपागम इस शिक्षण प्रक्रिया का विश्लेषण करने की एक तर्कपूर्ण विधि है, जो बाल केन्द्रित शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाती है।
उपागम में बाल केन्द्रित शिक्षण के सभी पक्षों एवं अंगों का समावेश रहता है; जैसे- छात्र, शिक्षक, विषयवस्तु, शैक्षणिक सामग्री, शिक्षण प्रणाली, शिक्षण प्रविधि, भौतिक परिवेश एवं शैक्षिक उद्देश्यों का मूल्यांकन।
बाल केन्द्रित शिक्षण में बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण सम्मान करते हुए उसके सर्वांगीण विकास का प्रयास किया जाता है। उसकी सृजनात्मकता का विकास किया जाता है। इस शिक्षण में बालक की अन्तःशक्तियों के विकास को पूर्ण अवसर प्रदान किया जाता है। पाठ्यक्रम, पाठ्य सामग्री, समय, स्थान तथा मूल्यांकन पद्धतियाँ बच्चों के अनुकूल रखी जाती हैं।
बाल केन्द्रित उपागम एक दृष्टिकोण है जिसके द्वारा बालक को शैक्षणिक कार्यक्रम का मुख्य आधार बनाया गया है शिक्षक को नहीं। पाठ्यक्रम का निर्माण छात्र की आवश्यकताओं, रुचियों एवं क्षमताओं के आधार पर किया जाता है।
प्रत्येक बालक की योग्यता एवं उसके सीखने की गति भिन्न होती है। अत: बाल केन्द्रित शिक्षण में विभिन्न तकनीकों का सहारा लिया जा सकता है। बालक को सार्थक ढंग से सक्रिय रहना सिखाया जाना चाहिये।
इस हेतु विद्यालय में अनौपचारिक वातावरण का निर्माण करना होगा, पूर्व तैयारी एवं योजना बनानी होगी और बालकों को कार्य करने की स्वतन्त्रता देनी होगी।
साथ ही निरीक्षण, पर्यवेक्षण एवं मूल्यांकन की धारणाओं में भी परिवर्तन करना होगा और बालक की पूर्ण सहभागिता को स्वीकार करना होगा कि पाठ्यक्रम, शिक्षण सामग्री, विद्यालय, मूल्यांकन तथा समस्त व्यवस्थाएँ बालक के लिये हैं, न कि बालक इनके लिये।