पर्यावरण (Environment) – परिभाषा, विशेषताएँ, प्रकार, संरचना और संघटक

पर्यावरण की कार्यप्रणाली प्राकतिक संसाधनों से संचालित होती है तथा पर्यावरण के तत्त्वों में पार्थिव एकता का विद्यमान है। पर्यावरण हमारी पृथ्वी पर जीवन का आधार है, जो न केवल मानव अपितु विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों के उद्भव, विकास एवं अस्तित्व का आधार है। सभ्यता के विकास से वर्तमान युग तक मानव ने जो प्रगति की है, उसमें पर्यावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

पर्यावरण से तात्पर्य

जीवधारियों एवं वनस्पतियों के चारों ओर जो आवरण है, वह पर्यावरण कहलाता है। पर्यावरण शब्द की उत्पत्ति फ्रेंच शब्द Environ से हुई है, जिसका अर्थ है- आवृत्त या घिरा हुआ। पर्यावरण जैविक (Biotic) तथा अजैविक (Abiotic) अवयवों का सम्मिश्रण है, जो जीवों को अनेक प्रकार से प्रभावित करता है।

पर्यावरण के कुछ कारक संसाधन के रूप में कार्य करते है. जबकि दूसरे कारक नियन्त्रक का कार्य करते है। कुछ विद्वानों ने पर्यावरण को मिल्यू (Milieu) से भी सम्बोधित किया है, जिसका अर्थ चारों ओर के वातावरण का समूह होता है।

पर्यावरण को विभिन्न विषयों में इकोसफियर (Ecosphere), प्राकृतिक वास (Habitat), जीवमण्डल (Geosphere) जैसी शब्दावली से भी जाना जाता है।

साधारण अर्थों में, “पर्यावरण उन परिस्थितियों तथा दशाओं (भौतिक दशाओं) को प्रदर्शित करता है, जो किसी एकल जीव या जीव समह को चारों ओर से आवृत्त (Cover) करती हैं तथा उसे प्रभावित करती है।”

पर्यावरण की मुख्य विशेषताएँ

पर्यावरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • जैविक एवं अजैविक तत्त्वों के योग को पर्यावरण कहते हैं।
  • जैविक विविधता (Biodiversity), प्राकृतिक वास तथा ऊर्जा (Energy) किसी पर्यावरण के मख्य तत्त्व होते हैं। पर्यावरण में समय तथा स्थान के साथ परिवर्तन होता रहता है।
  • पर्यावरण जैविक एवं अजैविक पदार्थों के कार्यात्मक (Functional) सम्बन्ध पर आधारित होता है।
  • पर्यावरण की कार्यात्मकता (Functioning) ऊर्जा संचार पर निर्भर करती है।
  • पर्यावरण अपने जैविक पदार्थों (Organic Matter) का उत्पादन करता है, जो विभिन्न स्थानों पर अलग अलग होता है। पर्यावरण सामान्यतः पारिस्थिातका सन्तुलन स्थापित करने की ओर अग्रसर रहता है।
  • पर्यावरण एक बन्द तन्त्र है। इसके अन्तर्गत प्राकृतिक पर्यावरण तन्त्र स्वतः नियन्त्रक क्रियाविधि जिसे होमियोस्टेटिक क्रियाविधि (Homeostatic Mechanism) कहते हैं, के द्वारा नियन्त्रित होता है।

पर्यावरण के प्रकार

पर्यावरण एक जैविक एवं भौतिक संकल्पना है इसलिए इसके अन्तर्गत केवल प्राकृतिक वातावरण को ही नहीं बल्कि मानवजनित पर्यावरण जैसे-सामाजिक व सांस्कृतिक पर्यावरण को भी शामिल किया जाता है।
सामान्यत: पर्यावरण को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है

(i) प्राकृतिक पर्यावरण

प्राकृतिक पर्यावरण (Natural Environment) के अन्तर्गत वे सभी जैविक (Organic) एवं अजैविक (Inorganic) तत्त्व शामिल है, जो पथ्वी पर प्राकतिक रूप में पाए जाते हैं। इसी आधार पर प्राकृतिक पर्यावरण को जैविक एवं अजैविक भागों में बाँटा जाता है। जैविक तत्वों में सक्ष्म जीव, पौधे एवं जन्तु शामिल ह तथा अजैविक तत्त्वों के अन्तर्गत ऊर्जा, उत्सर्जन, तापमान, ऊष्मा प्रवाह, जल, वायुमण्डलीय गैसें, वायु, अग्नि, गुरुत्वाकर्षण, उच्चावच एवं मृदा शामिल है।

(ii) मानव निर्मित पर्यावरण

मानव निर्मित पर्यावरण (Man-Made Environment) के अन्तर्गत वे सभी स्थान सम्मिलित हैं, जो मानव ने कृत्रिम (Artificial) रूप से निर्मित किए हैं। अत: कृषि क्षेत्र, औद्योगिक शहर, वायुपत्तन, अन्तरिक्ष स्टेशन आदि मानव निर्मित पर्यावरण के उदाहरण हैं। जनसंख्या वृद्धि एवं आर्थिक विकास के कारण मानव निर्मित पर्यावरण का क्षेत्र एवं प्रभाव बढ़ता जा रहा है।

(iii) सामाजिक पर्यावरण

सामाजिक पर्यावरण (Social Environment) में सांस्कृतिक मूल्य एवं मान्यताओं को सम्मिलित किया जाता है। पृथ्वी पर भाषायी, धार्मिक रीति-रिवाजों, जीवन-शैली आदि के आधार पर सांस्कृतिक पर्यावरण (Cultural Environment) का निर्माण होता है। राजनीतिक, आर्थिक एवं धार्मिक संस्थाएँ या संगठन, सामाजिक पर्यावरण का हिस्सा होने के साथ-साथ यह निर्धारित करते हैं कि पर्यावरणीय संसाधनों का उपयोग कैसे किया जाएगा और किन लाभों के लिए किया जाएगा।

पर्यावरण की संरचना

पृथ्वी पर पाए जाने वाले पर्यावरण की संरचना का निर्माण निम्नलिखित चार वर्गों से मिलकर होता है-

Paryavaran Ki Sanrachna

(i) स्थलमण्डल

पृथ्वी का लगभग 29% भाग स्थलमण्डल (Lithosphere) है, जो अधिकांश, जीव-जन्तुओं तथा पेड़-पौधों का सार है। इसमें पठार, मृदा, खनिज, पहाड़, चट्टानें आदि शामिल हैं। जीवों को स्थलमण्डल दो प्रकार से सहायता करता है। एक तरफ वे इन जीवों को आवास उपलब्ध कराते है, तो दूसरी तरफ जीव चाहे स्थलीय हो या जलीय, उसके लिए खनिज का स्रोत स्थलमण्डल ही होता है।
इसके दो भाग होते हैं- शैल एवं मृदा। शैल स्थलमण्डल का संगठित एवं प्रायः कठोर भाग हैं। मृदा का निर्माण तब होता है, जब शैलों का अपने स्थान से अपक्षयन (Weathering) होता है। मृदा का निर्माण मूल शैल, जलवायु, सजीवों, समय तथा स्थलाकृतियों के मध्य पारस्परिक क्रियाओं द्वारा होता है।

(ii) जलमण्डल

जलमण्डल (Hydrosphere) पर्यावरण का महत्त्वपूर्ण घटक है, क्योंकि यह पृथ्वी पर स्थलीय व जलीय जीवन को सम्भव बनाने वाला प्रमुख कारण है। जलमण्डल के अन्तर्गत धरातलीय व भूमिगत जल को सम्मिलित किया गया।

पृथ्वी पर स्थित जल अनेक रूपों में पाया जाता है. जैसे- महासागर (Ocean), झीलें (Lakes), बांध (Dam), नदियां (Rivers), हिमनद (Glacier), स्थल के नीचे स्थित भू-गार्भिक जल (Surface Water)।

जीव जल को अपनी विभिन्न उपापचय (Metabolism) प्रक्रियाओं के लिए प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त जीवद्रव्य (Protoplasm) का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटक जल ही है।

जलमण्डल पर अधिकांश लवणीय जल है, जोकि सागरों व महासागरों में स्थित है और मानव के लिए प्रत्यक्ष रूप से उपयोगी नहीं है। अलवणीय/स्वच्छ जल का संग्रहण (Storage) मुख्यत: नदियां, हिमनदियों व भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है। पथ्वी पर उपयोग हेतु उपलब्ध अलवण जल कुल जल का मात्रा का 1% से भी कम है।

(iii) वायुमण्डल

वायुमण्डल (Atmosphere) जीवन के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटक है, इसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। वायुमण्डल में विभिन्न प्रकार की गैसें पाई जाती है जिसमें ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाई-ऑक्साइड महत्त्वपूर्ण हैं।

Vayumandal Me Gaso Ki Percentage/Pratishat Matra

वायुमण्डल (Atmosphere) को निम्न भागों में विभाजित किया जाता है-

क्षोभमण्डल

क्षोभमण्टल (Tronosphere) वायुमण्डल की सबसे निचला पत होती है, जो ध्रवों पर 8 किमी तथा विषवत रेखा पर 18 किमी की ऊँचाई तक पाई जाती है। इस मण्डल में तापमान क गिरने की दर 165 मी की ऊचाई पर 1°C तथा किमी की ऊँचाई पर 6.4°C होती है।

क्षोभमण्डल में वायु मण्डल की कुल राशि का 90% भाग पाया जाता है। आँधी, बादल, वर्षा आदि प्राकृतिक घटनाएँ मण्डल में घटित होती हैं। धरातलीय जीवों का सम्बन्ध इसी मण्डल से होता है। इसी के अन्तर्गत भारी गैसों, जलवाष्प तथा धूलिकणों का अधिकतम भाग रहता है। इस मण्डल की ऊँचाई सर्दी की अपेक्षा गर्मी में अधिक हो जाती है। इस मण्डल की ऊपरी सीमा को क्षोभ सीमा (Tropopause) भी कहते हैं।

समतापमण्डल

समतापमण्डल (Stratosphere) वायुमण्डल में क्षोभमण्डल के ऊपर पाया जाता है। इसकी ऊँचाई विषवत रेखा पर 18 किमी से लेकर 50 किमी तक पाई जाती है। इस मण्डल में ओजोन (Ozone) परत पाई जाती है, इसलिए इसे ओजोनोस्फीयर (Ozonosphere) भी कहा जाता है।

मध्यमण्डल

मध्यमण्डल (Mesosphere) की ऊँचाई 50 से 80 किमी तक होती है तथा यहाँ तापमान में एकाएक गिरावट जाती है। मध्यमण्डल में ऊँचाई के साथ तापमान में ह्रास होता जाता है। इसकी ऊपरी सीमा -90°C द्वारा निर्धारित होती है, जिसको मेसोपाज (Mesopause) कहते हैं।

तापमण्डल

मध्यमण्डल (80 किमी.) के ऊपर वाला वायुमण्डलीय भाग (अनिश्चित ऊंचाई तक) तापमण्डल (Thermosphere कहलाता है। इसमें ऊँचाई के साथ तेजी से तापमान बढ़ता जाता है। इस मण्डल का तापमान अत्यधिक होने के बावजूद गर्मी महसूस नहीं होती है, क्योंकि इस ऊँचाई पर गैसें अत्यधिक विरल (Dispersed) हो जाती है और बहुत कम ऊष्मा को ही रख पाती हैं।

इस मण्डल के दो भाग है:-

  1. आयनमण्डल – मध्यमण्डल के ऊपर 80 से 640 किमी तक आयनमण्डल (Ionosphere) का विस्तार होता है। इसमें विद्युत आवेशित कणों की अधिकता होती है। इसी भाग में विस्मयकारी विद्युतीय व चुम्बकीय घटनाएँ घटित होती हैं, तथा ब्रह्माण्ड किरणों (Cosmic Rays) का परिलक्षण होता है। रेडियो तरंगें इसी मण्डल से परावर्तित होकर संचार को सम्भव बनाती है। यदि यह मण्डल ने होता तो रेडियो तरंगें भूतल पर न आकर आकाश में असीमित ऊँचाई तक चली जाती। आयनमण्डल तापमण्डल का सबसे निचला भाग है।
  2. बाह्यमण्डल – बाह्यमण्डल (Exosphere) का विस्तार 640 किमी. से ऊपर होता है। इस मण्डल के बाद वायुमण्डल अन्तरिक्ष में विलीन हो जाता है।

(iv) जैवमण्डल

जैवमण्डल (Biosphere) पृथ्वी का वह हिस्सा है जहाँ जीवन सम्भव है। इसके अन्तर्गत निचला वायुमण्डल, स्थलमण्डल एवं जलमण्डल, जहाँ जीवित जीव पाए जाते हैं को शामिल किया जाता है अर्थात जैवमण्डल ऐसा क्षेत्र होता है जहाँ वायुमण्डल, स्थलमण्डल एवं जलमण्डल आपस में मिलते हैं।

जैवमण्डल में समुद्र तल से 200 मीटर नीचे तक एवं 6000 मीटर की ऊँचाई तक जीवन सम्भव है। उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों तथा ऊँचे पर्वतों एवं गहरे महासागरों में पाई जाने वाली विषम जलवायु जीवन को सम्भव नहीं होने देती है। अत: इन क्षेत्रों में जैवमण्डल अनुपस्थित होता है।

जैवमण्डल में सूर्य से प्राप्त ऊर्जा जीवन को सम्भव बनाती है, जबकि जीवों की पोषकों की आपूर्ति वायु जल एवं मृदा से होती है। जैवमण्डल में जीवों का वितरण समान नहीं है, क्योकि ध्रुवीय क्षेत्रों में कुछ ही जीव पाए जाते हैं, जबकि विषुवतीय वर्षा वनों में अत्यधिक जीव प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

पर्यावरण के संघटक

पर्यावरण अनेक तत्त्वों का समूह है तथा प्रत्येक तत्त्व का इसमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राकृतिक पर्यावरण के तत्त्व ही पारिस्थितिकी के भी तत्त्व हैं, क्योंकि पारिस्थितिकी का एक मूल घटक पर्यावरण है।
सामान्य स्तर पर पर्यावरण के तत्त्वों को जैविक एवं अजैविक दो समूहों में वर्गीकृत किया जाता है-

  1. जैविक घटक
  2. अजैविक घटक

1. जैविक घटक

पर्यावरण के जैविक घटकों के अंतर्गत पौधों, प्राणियों (मानव, जंतु, परजीवी, सूक्ष्मजीव आदि) एवं अवघटकों (Decomposer) को शामिल किया जाता है। पारितंत्र के जैविकीय घटक अजैविक पृष्ठभूमि में परस्पर क्रिया करते हैं और इनमें प्राथमिक उत्पादक (स्वपोषी) एवं उपभोक्ता (परपोषी) आते हैं।

प्राथमिक उत्पादक (Primary Producers) या स्वपोषी (Autotroph)

प्राथमिक उत्पादक जीव, आधारभूत रूप में हरे पौधे, कुछ खास जीवाणु एवं शैवाल (Algae), जो सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में सरल अजैविक पदार्थों से अपना भोजन स्वयं बना सकते हैं। वे स्वपोषी (Autotroph) अथवा प्राथमिक उत्पादक (Primary Producers) कहलाते हैं।

उपभोक्ता (Consumers) या परपोषी (Heterotrophs)

उपभोक्ता वे जीव जो स्वयं अपना भोजन नहीं बना सकते एवं अन्य जीवों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, उन्हें परपोषी (Heterotrophs) अथवा उपभोक्ता (Consumers) कहते हैं। इनके पुनः तीन उपवर्ग होते हैं

  1. प्राथमिक उपभोक्ता – ये शाकाहारी (Herbivores) जन्तु होते हैं।
  2. द्वितीयक उपभोक्ता – ये मांसाहारी (Carnivores) जन्तु होते हैं।
  3. तृतीयक उपभोक्ता या सर्वाहारी (Omnivores) – इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से मनुष्य आता है, क्योंकि यह शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों को खाता है।

वियोजक या अपघटक (Decomposers)

वियोजक/अपघटक (Decomposers) ये सक्ष्मजीव होते हैं, जो मृत पौधों जन्तुओं तथा जैविक पदार्थों को वियोजित (सड़ाना-गलाना) करते हैं। इस क्रिया के दौरान ये अपना भोजन भी निर्मित करते हैं तथा जटिल कार्बनिक (जैविक) पदाथा का एक-दूसर से पृथक कर उन्हें सामान्य बनाते हैं जिनका स्वपोषित, प्राथमिक उत्पादक हरे पौधे पनः उपयोग करते हैं। इनमें से अधिकांश जीव सुक्ष्म बैक्टीरिया तथा कवक (Fungi) के रूप म मृदा में रहते हैं।

2. अजैविक घटक

पर्यावरण के अजैविक घटकों में प्रकाश, वर्षण, तापमान, आर्द्रता एवं जल, अक्षांश, ऊँचाई, उच्चावच आदि शामिल होते है। पर्यावरण के प्रमुख अजैविक घटक इस प्रकार हैं:-

  • प्रकाश (Light) हरे पौधों के लिए प्रकाश आवश्यक है, जिसके द्वारा वे प्रकाश संश्लेषण करते हैं। सभी प्राणी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में हरे पौधों द्वारा निर्मित भोजन पदार्थ पर ही निर्भर होते हैं। सभी जीवों के लिए सूर्य से आने वाला प्रकाश (सौर ऊर्जा) ही ऊर्जा का अन्तिम स्रोत है।
  • वर्षण (Precipitation) कोहरा, वर्षा, हिमपात अथवा ओलावृष्टि, का एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अजैविक कारक है। अधिकांश जीव सीधे अथवा परोक्ष रूप में किसी-न-किसी प्रकार से वर्षण पर निर्भर होते हैं, जो अधोभमि से होता है। वर्षण की मात्रा अलग-अलग होती है, जो इस प्रकार निर्भर है कि आप पृथ्वी पर कहाँ हैं।
  • तापमान (Temperature) यह पर्यावरण का महत्त्वपूर्ण घटक है, जो जीवों की उत्तर जीविता (Survival) को वृहद रूप से प्रभावित करता है। जीव अपनी वृद्धि हेतु एक निश्चित सीमा तक के तापमान को ही बर्दाश्त कर सकते हैं। उस सीमा से कम या अधिक तापमान की स्थिति में जीवों की वृद्धि रूक जाती है।
  • आर्द्रता एवं जल (Humidity and Water) अनेक पौधों तथा प्राणियों के लिए वाय में नमी का होना अति आवश्यक है, जिससे वे सही कार्य कर सकें। कुछ प्राणी केवल रात में ही अधिक सक्रिय होते हैं, जब आर्द्रता अधिक होती है। जलीय आवास पर, रसायन तथा गैस की मात्रा में होने वाले परिवर्तनों का तथा गहराई में अन्तर आने का प्रभाव पड़ता है।
  • अक्षांश (Latitude) जैसे-जैसे हम विषुवत् रेखा से उत्तर या दक्षिण की ओर बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे सूर्य का कोण भी सामान्यत: छोटा होता जाता है, जिससे औसत तापमान गिरता जाता है।
  • ऊँचाई (Altitude) विभिन्न ऊँचाइयों पर वर्षण तथा तापमान दोनों में भिन्नता पाई जाती है। वर्षण आमतौर से ऊँचाई के साथ बढ़ता जाता है, लेकिन चरम ऊचाइया पर यह कम हो सकता है।
  • उच्चावच (Relief) भू-आकार या उच्चावच पर्यावरण का एक अति महत्त्वपर्ण तत्त्व है। सम्पूर्ण पृथ्वी का धरातल या उच्चावच विविधता से युक्त है। यह विविधता महाद्वीपीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक देखी जा सकती है। सामान्यतः उच्चावच के तीन स्वरूप- पर्वत, पठार एवं मैदान हैं।

पर्वत पर एवं मैदान में भी विस्तार, ऊंचाई, संरचना आदि की क्षेत्रीय विविधता होती है तथा अपरदन एवं अपक्षय क्रियाओं से अनेक भू-रूपों या स्थलाकृतियों का जन्म हो जाता है; जैसे-कहीं मरुस्थलीय स्थलाकृति है, तो कहीं चूना प्रदेश की और यदि एक और हिमानीकृत है, तो दूसरी ओर नदियों द्वारा निर्मित मैदानी डेल्टाई प्रदेश।

पर्यावरणीय अध्ययन (Environment Study)

पर्यावरण के अध्ययन को पर्यावरणीय अध्ययन कहा जाता है। पर्यावरणीय अध्ययन एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, जीव विज्ञान, कृषि, जन-स्वास्थ्य आदि अध्ययन की अनेकों शाखाएँ शामिल हैं।

पर्यावरणीय अध्ययन के कारण

पर्यावरणीय अध्ययन निम्नलिखित कारणों से महत्त्वपूर्ण है:-

  • पर्यावरण में जीवन के प्रत्येक स्वरूप की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है, चाहे वह छोटा हो या बडा।
  • अतः पृथ्वी पर मानव जीवन के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि जैव-विविधता को संरक्षित किया जाए। इसके लिए पर्यावरण का अध्ययन आवश्यक है।
  • प्रकृति की संरचना विशिष्ट है तथा इसकी प्रत्येक क्रिया और कार्य का एक निश्चित उद्देश्य होता है। यह कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष रूप से मानवीय जीवन को प्रभावित करती है और इसमें थोडा-सा परिवर्तन मानव जीवन पर बड़ा संकट पैदा कर सकता है। ऐसे में पर्यावरणीय संरचना का ज्ञान आवश्यक है।
  • पर्यावरण का अध्ययन जनसंख्या एवं संसाधनों के मध्य अनुकूलतम सम्बन्धों की स्थापना हेतु आवश्यक है।
  • पर्यावरण के अध्ययन द्वारा पर्यावरणीय जागरूकता का प्रसार कर सतत विकास (Sustainable Development) एवं आर्थिक उन्नति को बढ़ाया जा सकता है।

पर्यावरणीय अध्ययन के विषय क्षेत्र

वर्तमान समय में पर्यावरण के सम्बन्ध में निम्नलिखित विषयों का विशेष रूप से अध्ययन किया जा रहा है:-

  • मानव द्वारा पर्यावरण में हो रही तापमान वृद्धि तथा वायुमण्डल में तापमान वृद्धि तथा जलवायु परिवर्तन।
  • ओजोन परत का ह्रास तथा महानगरों तथा अन्य स्थानों पर वायु प्रदूषण।
  • प्राकृतिक आपदाओं का अध्ययन तथा मानव द्वारा जंगलों का विनाश।
  • जैविक विविधता का ह्रास।
  • संसाधनों का सदुपयोग तथा उनका संरक्षण।
  • प्राकृतिक संसाधनों का लेखा-जोखा तैयार करना तथा जैविक विविधता का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुँचाना।

मानव एवं पर्यावरण

भूगोल में प्राय: मानव तथा पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है। अमेरिका के प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता एलेन सी-सेम्पल के अनुसार, “मानव अपने पर्यावरण की उत्पत्ति है।” (Man is the product of Earth or his Environment.)

भूगोलविदों द्वारा मानव एवं पर्यावरण के सम्बन्ध में कई विचारधाराओं/अवधारणाओं का प्रतिपादन किया गया है, जो इस प्रकार हैं:-

  • निश्चयवादी (Determinism) या नियतिवादी – 1859 ई. में प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) के अनुसार, मानव अपने पर्यावरण में संघर्ष करके वर्तमान स्वरूप में पहुँचा है। भूगोल में डार्विन के संघर्ष सिद्धान्त का सर्वप्रथम एफ रेटाजिल (F. Ratzel) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ऐन्थरोपोज्योग्राफी (Anthropogiography) में किया था। रेटाजिल महोदय ने मानव एवं पर्यावरण के सम्बन्ध में निश्चयवादी विचारधारा (Determinism) को जन्म दिया।
  • सम्भववादी (Possibilism) – भूगोलविद् मानते हैं कि मानव अपनी आवश्यकतानुसार पर्यावरण में परिवर्तन करने में सक्षम है। अत: वे मानव को अधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। इस विचारधारा के प्रवर्तक विडाल-डी-लाब्लाश है।
  • नवनिश्चयवाद – वर्तमान में इन दोनों विचारधाराओं से अलग, लेकिन सम्मिलित रूप नवनिश्चयवाद (Neo-Determinism) को अधिक महत्त्व प्रदान किया जा रहा है, जो मानव व पर्यावरण के मध्य सन्तुलन का महत्त्व देकर सतत विकास (Sustainable Development) का आधार तैयार करता है। नवनिश्चयवाद को रूको और जाओ नियतिवाद भी कहा जाता है। इस विचारधारा के जनक ग्रीफिथ टेलर है।

मानव पर पर्यावरण का प्रभाव

विश्वका प्रामाण तथा नगरीय जनसंख्या प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से भौतिक पर्यावरण से प्रभावित होटी है। पर्यावरण का भौतिक तत्त्व में सबसे अधिक प्रभाव जलवायु का मानव समाज और उनकी जीवन-शैली पर पड़ता है। इसके अन्तर्गत मध्य एशियायी क्षेत्रों तथा अफ्रीका एवं अन्य विषम जलवाय वाले क्षेत्रों में वहाँ का पर्यावरण वहाँ निवास करने वाले लोगों के जीवन स्पष्ट तौर पर प्रभावित करता है।

जैसे- मध्य एशियायी क्षेत्रों के लोग पशु-चारण के द्वारा तथा कालाहारी तथा कांगो बेसिन के लोग शिकार तथा पारम्परिक कृषि एवं ध्रुवीय क्षेत्रों के लोग बर्फ के घरों (इग्लू) में रहने के साथ ही उन क्षेत्र में पाए जाने वाले जन्तुओं जीवों के सहारे जीवन-यापन करते हैं। इसके अतिरिक्त जलवायु का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से प्रजातियों (Reces) के रंगरूप, आँख, नाक, शरीर की बनावट, बाल, ठोढी, कपाल तथा चेहरे की आकृति पर पड़ता है।

पर्यावरण पर मानव का प्रभाव

पर्यावरण पर मानव के प्रभाव को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है— प्रत्यक्ष प्रभाव और अप्रत्यक्ष प्रभाव

प्रत्यक्ष प्रभाव

प्रत्यक्ष प्रभाव के अन्तर्गत सुनियोजित तथा संकल्पित प्रकार के प्रभाव सम्मिलित होते हैं, क्योंकि मनुष्य किए जाने वाले कार्यों के परिणामों से अवगत रहता है। उदाहरण- भूमि उपयोग में परिवर्तन, नाभिकीय कार्यक्रम, मौसम रूपान्तर कार्यक्रम, निर्माण तथा उत्खनन आदि। प्रत्यक्ष प्रभाव अल्पकाल में परिलक्षित हो जाते हैं तथा दीर्घकाल तक पर्यावरण को प्रभावित करते रहते हैं। ये परिवर्तनीय (Reversible) भी होते हैं।

अप्रत्यक्ष प्रभाव

इसके अन्तर्गत वे प्रभाव आते हैं, जो पहले से सोचे अथवा नियाजित (Planned) नहीं होते है। उदाहरण के लिए औद्योगिक विकास हेतु किए जाने वाले कार्यो के प्रभाव। शीघ्र परिलक्षित नहीं होते। इनमें से अधिकांश प्रदूषण तथा पर्यावरण अवनयन (Environment Degradation) से सम्बान्धत होते हैं। ये पारिस्थितिक तन्त्र में ऐसे परिवर्तन ले आते हैं, जो मानव के लिए घातक होते हैं।

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