शिक्षण अधिगम में प्रभावशाली सम्प्रेषण
Effective Communication in Teaching Learning
शिक्षण एवं अधिगम की प्रक्रिया के लिये प्रभावशाली सम्प्रेषण हेतु मानवीय संसाधन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है जिसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है:-
1. प्रधानाचार्य की भूमिका (Role of principal)
शिक्षण अधिगम की सफलता के लिये अत्यधिक आवश्यक है उपयुक्त विषयों का चुनाव। इन विषयों के शिक्षण के लिये उचित और योग्य अध्यापकों के बीच कार्य का बँटवारा, छात्रों के मानसिक, शारीरिक और नैतिक विकास के लिये आवश्यक क्रियाकलापों का चयन, पाठ्य-पुस्तकों का चयन तथा शैक्षणिक सामग्री तथा उपकरणों का एकत्रीकरण, इन सभी कार्यों में प्रधानाध्यापक को अपने सहयोगी अध्यापकों से सम्प्रेषण करना चाहिये।
जितना अधिक सम्प्रेषण प्रधानाध्यापक अपने अध्यापकों के साथ स्थापित कर सकेगा शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया उतनी ही सफल होगा। यदि प्रधानाचार्य यह समझे कि जिस कार्य में वह लगा हुआ है अथवा जिन उद्देश्यों की पूर्ति वह करना चाहता है उसी कार्य और उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति में उसके साथी अध्यापक भी लगे हुए हैं तो वह आदेशात्मक सम्प्रेषण के स्थान पर निर्देशात्मक सम्प्रेषण अपनाकर उनका सहयोग अवश्य ही प्राप्त कर सकता है।
प्रभावशाली सम्प्रेषण की स्थापना के लिये वह शिक्षकों को उनके अच्छे कार्य के लिये उनकी प्रशंसा करता है। दूसरे व्यक्तियों के सामने वह किसी अध्यापक की आलोचना नहीं करता है। इससे अध्यापकों और प्रधानाचार्य के मध्य आत्मीय एवं मधुर सम्बन्ध विकसित होते हैं, जो कि प्रभावशाली सम्प्रेषण के लिये आवश्यक हैं।
इसके अतिरिक्त प्रधानाचार्य अच्छे सम्प्रेषण के लिये अध्यापक गोष्ठियों के संचालन पर विशेष बल देता है ताकि सभी को अपने-अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिल सके। गोष्ठी में सभी अध्यापकों को अपनी बात कहने का उचित अवसर दिया जाता है।
2. अध्यापक की भूमिका (Role of teacher)
अध्यापक को अपने शिष्यों के साथ प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्ण सम्प्रेषण करना चाहिये तभी वह विद्यार्थियों एवं अपने साथियों का विश्वास तथा सहयोग प्राप्त कर सकता है तथा कक्षा में प्रेम, स्नेह तथा सहयोग के आधार पर प्रभावशाली सम्प्रेषण स्थापित कर सकता है। अच्छा कण्ठ स्वर अध्यापक के सम्प्रेषण में प्रभावशीलता लाता है।
यदि अध्यापन के समय उसके स्वर में स्पष्टता तथा माधुर्य होगा तो छात्रों को विषय सरलता के साथ समझ में आ जायेगा। अतः अध्यापक को सदैव सरल तथा रोचक भाषा का प्रयोग करना चाहिये। उसे क्लिष्ट तथा जटिल भाषा का प्रयोग करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये।
अध्यापक के लिये यह आवश्यक है कि वह इतने उच्च स्वर में बोले कि उसकी आवाज कक्षा के समस्त छात्र सरलता के साथ सुन सकें। तभी वह अपने छात्रों के साथ प्रभावशाली सम्प्रेषण स्थापित कर सकता है।
इसके अतिरिक्त सम्प्रेषण की प्रभावशीलता के लिये शिक्षक का व्यवहार छात्रों के लिये संयमित होना चाहिये, जिससे छात्र अपनी समस्या को शिक्षक के समक्ष प्रस्तुत कर उसका समाधान पा सकें।
शिक्षक को बालकों को भी अपनी बात कहने का पूर्ण अवसर प्रदान करना चाहिये, जिससे वे अपनी बात प्रकट कर सकें। इस प्रकार सम्प्रेषण शिक्षण अधिगम में सार्थक और प्रभावी बन जायेगा।
पाठ्यवस्तु को स्वाभाविक तथा तार्किक रूप में व्यवस्थित करना शिक्षक का प्रथम कर्त्तव्य है। पाठ्यवस्तु के विभिन्न सोपान बना लेने चाहिये परन्तु उसकी अपनी पूर्णता में विभाजन का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये। उनमें तारतम्य हो, आगे आने वाले सोपान आभास पहले सोपान से ही मिल जाये।
सोपानों के विभाजन में तारतम्य टूटन ने पाये, इसका ध्यान सदैव रखना चाहिये। इसका उद्देश्य ही इस विषय का स्पष्टीकरण करता है। स्पष्टीकरण के पश्चात् सदैव सम्पूर्ण सोपानों को समवेत कर दिया जाता है ताकि पाठ को सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करने में विद्यार्थियों को सहायता मिले।
पाठ के विभाजन के विषय में एक विद्वान् ने कहा है, “यह विभाजन इस ढंग से होना चाहिये कि प्रत्येक सोपान स्वयं में पूर्ण इकाई और साथ-साथ आगे आने वाले सोपान से सम्बन्धित; अर्थात् प्रत्येक सोपान अपने पूर्व के सोपान से उत्पन्न होता प्रतीत हो।“
दूसरे शब्दों में, प्रत्येक सोपान के अन्त में आगे आने वाले सोपान का आभास अथवा संकेत मिलता रहे। इसके लिये हम ऐसे बोध प्रश्न भी करते हैं जिनके उत्तरों से पाठ को समझ लेने या ग्रहण कर लेने का अवसर मिलता है।
किसी वातावरण के सम्पर्क से प्राणी अपने व्यवहारों में जो परिवर्तन लाता है, वही सीखना है। सीखना एक क्रियाशील प्रक्रिया है। मानव पर उसके चारों ओर के वातावरण का प्रभाव पड़ता है। उसकी रुचि, झुकाव, निपुणता, योग्यता एवं श्लाघा शक्ति सही सीखने की प्रक्रिया की उपज है।
अच्छे सम्प्रेषण में अच्छे प्रश्नों का चयन कर उन्हें पूछना चाहिये। शिक्षण की निपुणता किसी सीमा तक प्रश्नोत्तर पर आधारित होती है।
कोलविन (Colvin) के शब्दों में, “वास्तव में प्रश्न सबसे अच्छा उत्तेजक है और यह शिक्षक को शीघ्र उपलब्ध हो जाता है।“
इसी प्रकार पार्कर (Parker) ने प्रश्न का महत्त्व प्रदर्शित करते हुए लिखा है, “प्रश्न आदत, कौशल स्तर के ऊपर समस्त शैक्षणिक क्रिया की कुन्जी है।“
प्रश्नों की सहायता से पाठ आगे बढ़ता है तथा वह बालकों को प्रेरित (Motivate) करके उनका ध्यान वस्तु की ओर केन्द्रित करता है। इसके लिये वह विषयवस्तु के प्रति बालकों की जिज्ञासा तथा रुचि को जाग्रत करता है, जिससे कि उसकी रुचि पाठ के प्रति बनी रहे।
सम्प्रेषण में ऐसे प्रश्न पूछे जाने चाहिये, जो बालकों की रुचि, प्रवृत्तियों तथा भावनाओं को लिये हों। बालकों को कक्षा में सजग बनाया जाना चाहिये ताकि वे उनकी प्रकृति समझ सकें। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सम्प्रेषण की भाषा शुद्ध एवं स्पष्ट हो, स्वर स्थिर हो, प्रश्न सरल एवं स्पष्ट हों, सार्थक हों, सामयिक एवं कक्षा वातावरण के अनुकूल हों, अन्य आवश्यक परिस्थितियों को स्थान दिया गया हो तथा छात्र ध्यान केन्द्रित कर पाते हों।
एक सफल शिक्षण श्रेष्ठ सम्प्रेषण पर आधारित है, वह तभी सार्थक एवं उपयोगी है। यदि हम उपरोक्त बतायी गयी बातों को ध्यान में रखें तो इससे न केवल पाठ की रोचकता बढ़ेगी अपितु अधिगम का अनुपात भी बढ़ेगा। एक अच्छे सम्प्रेषण में श्रेष्ठ शिक्षण की आशा की जाती है।
अधिगम से इसका सीधा सम्बन्ध है, इसकी निम्न विशेषताएँ हैं:-
1. छात्रों के पूर्व अनुभवों का ध्यान
शिक्षण से पूर्व शिक्षक को छात्रों को पूर्वानुभव का ज्ञान कराना चाहिये। अच्छी शिक्षण कला में छात्रों के पूर्व ज्ञान पर विशेष बल और ध्यान दिया जाता है। पूर्व ज्ञान के आधार पर बालकों को नवीन ज्ञान देना ही शिक्षण की सफलता का प्रतीक है।
2. निर्देशात्मकता
अच्छे शिक्षण में सम्प्रेषण आदेशात्मक न होकर निर्देशात्मक होता है। शिक्षक अपने कौशल से ही ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करता है जिसके अनुसार छात्र सहज ही गुण ग्रहण करने की ओर झुकता है।
3. अच्छी योजना
सम्प्रेषण का विषय, समय, शिक्षोपकरण तथा इनमें प्रयोग की जाने वाली शिक्षण पद्धति आदि मिलकर योजना बनती है। उसका शिक्षण कौशल उसकी श्रेष्ठ पाठ योजना पर निर्भर करता है। शिक्षण में सम्प्रेषण प्रणालीबद्ध या सुव्यवस्थित होना चाहिये।
4. उचित पथ प्रदर्शन
सम्प्रेषण शिक्षण का वह भाग है जिसमें शिक्षक के निर्देश शिक्षार्थी के लिये पथ प्रदर्शन का कार्य करते हैं। सम्प्रेषण के समय सामाजिक वातावरण होना चाहिये।
5. जनतन्त्रात्मकता
कक्षा में सामाजिक एवं जनतन्त्रात्मक वातावरण होना चाहिये, ऊँच-नीच की भावना से परे समता भाव से शिक्षण कराना चाहिये।
6. बालकों की कठिनाइयों का निदान
कोई बालक किसी विषय में सफल होता है तो किसी में असफल। अध्यापक बालकों की कठिनाइयों को दूर करने का प्रयत्न करता है। अच्छे शिक्षण में बालकों की कठिनाइयों का निदान होता है।
7. उपचारपूर्ण होना
अच्छा शिक्षण उपचारपूर्ण होता है। अध्यापक उनकी भूलों को बताकर उन्हें सुधारता है। नवीनतम् विधियों की जानकारी रखने वाला कुशल अध्यापक बालकों की व्यक्तिगत एवं सामूहिक कठिनाइयों का उत्तम उपचार करने में समर्थ होता है।
3. लिपिक वर्ग की भूमिका (Role of clerk group)
विद्यालय में लिपिक वर्ग की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि विद्यालय के अभिलेख सम्बन्धी कार्यों को इस वर्ग के द्वारा ही पूर्ण किया जाता है। लिपिक के अभाव में विद्यालय के प्रबन्धकीय एवं प्रशासकीय कार्य सम्पन्न नहीं हो सकते क्योंकि इनके द्वारा प्राप्त आदेशों को फाइल में रखना तथा नवीन प्रस्तावों को फाइल तैयार करना आदि कार्य सम्पन्न किये जाते हैं।
यदि लिपिक वर्ग प्रधानाचार्य, शिक्षकों तथा अन्य कर्मचारियों एवं छात्रों के साथ अच्छा सम्प्रेषण रखता है तो निश्चित रूप से विद्यालय की शिक्षण अधिगम प्रक्रिया सुचारु रूप से और सुगमता से चलती है।
अच्छे और प्रभावशाली सम्प्रेषण के लिये लिपिक वर्ग का विद्यालय के अन्य मानवीय संसाधनों के साथ मधुर एवं मानवीय सम्बन्ध स्थापित होने चाहिये। लिपिक वर्ग को प्रधानाचार्य एवं प्रबन्धक के आदेशों का पालन करना चाहिये, जिससे कि वे उनके प्रति मधुर व्यवहार करें।
छात्र यदि अपनी अभिलेख सम्बन्धी कोई समस्या अथवा नवीन अभिलेख बनवाने के लिये लिपिकों के पास जायें तो छात्रों की समस्या का समाधान उन्हें स्नेहपूर्वक करना चाहिये और उनके साथ संयमित रूप में अच्छी प्रकार से बात करनी चाहिये।
लिपिकों को अभिलेख तैयार करते समय स्पष्टता एवं पारदर्शिता से कार्य करना चाहिये, जिससे कि प्रत्येक व्यक्ति, शिक्षक एवं छात्र का अभिलेख सही प्रकार से तैयार हो क्योंकि गलत अभिलेख से तनाव एवं विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है जिसका सम्प्रेषण प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
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