शिक्षण के उद्देश्य – शिक्षण के सामान्य, विशिष्ट उद्देश्यों का वर्गीकरण, निर्धारण और अंतर

Shikshan Ke Uddeshya

शिक्षण के उद्देश्य (Aims of Teaching)

शिक्षण एक कला है। व्यापक अर्थ में शिक्षण व्यक्ति के जीवन में निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। बालक प्रत्येक स्थान पर और प्रत्येक व्यक्ति से कुछ न कुछ सीखता है किन्तु शिक्षण का उद्देश्य बालकों को किसी विषय का ज्ञान देना मात्र ही नहीं है, शिक्षण के विभिन्न उद्देश्य भी हैं।

  1. शिक्षण के सामान्य उद्देश्य (General Aims of Teaching)
  2. शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य (Specific Aims of Teaching)

शिक्षण के सामान्य उद्देश्य (General Aims of Teaching)

शिक्षण के सामान्य उद्देश्यों को निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है:-

  1. शिक्षण का उद्देश्य बालकों को उनके जीवन से सम्बन्धित उपयोगी ज्ञान प्रदान करना है।
  2. शिक्षण का उद्देश्य बालक की मानसिक शक्तियों का विकास करना है। मानसिक शक्तियों के विकास से ही बालक उत्तम नागरिक बन सकता है।
  3. शिक्षण का उद्देश्य बालकों को सीखने के लिये प्रेरित करना है। यदि बालकों में सीखने के प्रति प्रेरणा नहीं होगी तो वे अपने कार्य में रुचि नहीं लेंगे।
  4. बालकों की प्रवृत्तियाँ पशुवत् होती हैं। शिक्षण का उद्देश्य इनका शोधन करना होता है।
  5. शिक्षण का उद्देश्य बालकों की कठिनाइयाँ दूर करना होता है।
  6. शिक्षण का उद्देश्य बालकों का मार्ग प्रर्शन करना है। बालकों का उचित मार्गदर्शन करना, उनकी रुचियों को ठीक मार्ग ले जाने के लिये आवश्यक होता है। शिक्षक अपने ज्ञान तथा अनुभव से बालकों का मार्ग प्रदर्शन करता है।
  7. शिक्षण का उद्देश्य बालकों में आत्मविश्वास उत्पन्न करना है। शिक्षण बालकों में आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न करता है। आत्मविश्वास की भावना बालकों को जीवन में सफल बनाती है।
  8. शिक्षण का उद्देश्य बालकों को सहयोग से रहना सिखाना है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में रहना होता है। अत: बालक को सहयोग का पाठ पढ़ाया जाना आवश्यक है।
  9. शिक्षण का उद्देश्य बालक को यह सिखाना है कि वह वातावरण के साथ किसी न किसी प्रकार की प्रतिक्रिया अवश्य करता है। शिक्षण बालक को वातावरण से समायोजन करना सिखाता है।
  10. शिक्षण का उद्देश्य बालकों के संवेगों को प्रशिक्षित करना है। शिक्षण संवेगों को स्पष्ट करता है तथा संवेगों पर नियन्त्रण रखना सिखाता है।
  11. शिक्षण का उद्देश्य बालकों को क्रियाशीलता के अवसर प्रदान करना है। शिक्षण में क्रियाशीलता का विशेष महत्त्व है। शिक्षक को विद्यालय में क्रियाशीलता का वातावरण बनाये रखना चाहिये।
  12. शिक्षण का उद्देश्य बालकों को प्रगति मार्ग पर ले जाना है। शिक्षण प्रगतिशील होता है। शिक्षण के माध्यम से बालक की व्यक्तिगत और मानसिक प्रगति का प्रयास किया जाता है।

शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य (Specific Aims of Teaching)

कहा जाता है कि, “कारण के बिना कार्य नहीं होता” सत्य भी यही है। यदि ‘भूख‘ नहीं होती तो प्राणी भोजन की तलाश में इधर से उधर नहीं भागते फिर तो यह भी हो सकता है कि सभी प्राणी प्रजातियों में सर्वश्रेष्ठ मनुष्य, सबसे अधिक आलसी और निकम्मा सिद्ध होता।

मैक्डूगल के अनुसार, भोजन की तलाश (Food seeking) मूल-प्रवृत्ति है, किन्तु यह तभी उभरती है जब ‘भूख’ (Appetite) लगती है। भूख को ही ‘संवेग‘ कहते हैं।

ठीक इसी प्रकार जिज्ञासा (Curiosity) भी एक मूल प्रवृत्ति है तथा इसका जागरण तभी होता है जब मनुष्य को कोई भी बात अद्भुत नजर आती है, अच्छी लगती है, भाती है। अच्छा लगने और भाने के भी अलग-अलग कारण हो सकते हैं।

शिक्षा प्राप्ति भी एक कार्य है। अतः इसके पीछे भी अलग-अलग कारण हो सकते हैं। कोई किसी कारण से पढ़ना चाहता है तो कोई किसी अन्य कारण से। कोई डॉक्टर बनना चाहता है तो कोई इन्जीनियर तो कोई कुछ अन्य।

ऐसा क्यों है? इसके पीछे भी अलग-अलग कारण हो सकते हैं। कोई पैसा कमाना चाहता है तो कोई अन्त: मन से समाज की सेवा करना चाहता है आदि-आदि। इन्हीं अलग-अलग कारणों को हम उस कार्य को करने के पीछे निहित उद्देश्यों (Aims) की संज्ञा देते हैं।

उद्देश्य प्राय: व्यापक ही होते हैं, किन्तु जब किसी सीमित क्षेत्र या विषय-विशेष अथवा वस्तु विशेष तक की सीमित जानकारी से जुड़ जाते हैं तब इन्हें विशिष्ट उद्देश्य (Objectives) कहा जाता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि-

किसी कार्य को करने के पीछे निहित कारणों को उद्देश्य तथा उस कार्य को सम्पन्न करने हेतु उसकी विविध पक्षीय क्रियाओं पर पूर्व-चिन्तन तथा निश्चयन को विशिष्ट उद्देश्य कहते हैं।

इस दृष्टि से शिक्षा क्यों दी जाये? इसके पीछे निहित कारणों को उद्देश्य (Aims) तथा पढ़ाया क्यों जाये? तथा जो पढ़ाया जाये उसे कैसे पढ़ाया जाये? इन दोनों प्रश्नों के उत्तरों पर आधारित क्रियान्विति पक्ष पर पूर्व-चिन्तन तथा निश्चयन को उस पाठ विशेष को पढ़ाने के विशिष्ट उद्देश्य (Objectives) कहते हैं।

इसी प्रकार अन्य मनोवैज्ञानिकों ने भी विशिष्ट उद्देश्यों को अपने-अपने शब्दों में अलग-अलग परिभाषित किया है। उनमें से बैंजामिन एस. ब्लूम द्वारा दी गयी परिभाषा को उद्धृत करके हम आगे दे रहे हैं-

बैंजामिन एस. ब्लूम (Benjamin, S. Bloom) तथा साथियों के विचार से –

Educational objectives are not only the goals towawhich the curriculum is shaped and towawhich instruction is guided but they are also the goals that provide the detailed specification for the construction and use of evaluative technique.

अर्थात्– शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य मात्र वे लक्ष्य नहीं हैं, जिनके आधार पर पाठ्यक्रम को मूर्त रूप तथा अनुदेशन हेतु मार्गदर्शन दिया जाता है, अपितु वे मूल्यांकन तकनीक की संरचना तथा उपयोग हेतु विस्तृत विशिष्टीकरण प्रदान करने के लक्ष्य भी हैं।

इस परिभाषा से पूर्णतया स्पष्ट है कि किसी भी पाठ से सम्बन्धित विशिष्ट उद्देश्यों का सम्बन्ध जहाँ एक ओर पाठ्यक्रम तथा अनुदेशन से होता है वहीं दूसरी ओर मूल्यांकन तकनीकों आदि के निश्चयन तथा उपयोग से भी होता है।

सामान्य उद्देश्यों का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है जबकि विशिष्ट उद्देश्य किसी विशिष्ट लक्ष्य (Goal) की प्राप्ति तक सिमट जाते हैं।

शिक्षण के सामान्य उद्देश्य में तो इन बातों पर विचार करना है कि किस आयु के बच्चों को क्या सिखाया जाये? जो सिखाया जाये वह किस प्रकार सिखाया जाये, कौन-सी ऐसी बात है जिनको वे किसी भी प्रकार पहले से ही जानते हैं तथा जो पढ़ाई जाने वाली विषयवस्तु से मेल खाती हैं, जिनके माध्यम से विषयवस्तु को भलीभाँति समझाया जा सके।

कौन-सी बात चित्रों के माध्यम से बताई जाये और कौन-सी उदाहरणों, दृष्टान्तों आदि के माध्यम से? यही नहीं विषयवस्तु वही होते हुए यदि उदाहरण आदि स्थानीय क्षेत्र से दिये जायें तो उसे समझना सरल हो जाता है। कथनों में आवश्यकता पड़ने पर यदि स्थानीय शब्दों का प्रयोग किया जाये तो निश्चित रूप से विषयवस्तु को विद्यार्थियों द्वारा जानना तथा समझना सरल एवं बोधगम्य हो जाता है।

सफल तथा प्रभावी शिक्षण की दृष्टि से विषयवस्तु से सम्बन्धित उद्देश्यों का निर्धारण उसे समझाने की विधियों, युक्तियों तकनीकों आदि तथा स्थानीय परिस्थितियों सभी पर पूर्व चिन्तन तथा क्रियान्विति के समय ध्यान रखना आवश्यक है तो शिक्षण के पश्चात् यह पता लगाना भी आवश्यक है कि पाठ की विषयवस्तु से सम्बन्धित उद्देश्यों की पूर्ति या प्राप्ति किस सीमा तक हुई? यदि नहीं हुई तो क्या कारण रहे? शिक्षण में कहाँ, क्या कमी रह गयी तथा उसे कैसे दूर किया जाये?

इन सभी दृष्टियों से यदि देखा जाये तो शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य (Objectives) निम्नलिखित प्रकार होंगे:-

  1. विद्यार्थियों में उनकी आयु को ध्यान में रखते हुए, अपेक्षित व्यवहार परिवर्तनों का निश्चयन।
  2. उद्देश्यों के अनुरूप विषयवस्तु का चयन (यदि विषयवस्तु) पूर्व निर्धारित हो तो इस उद्देश्य के निर्धारण की आवश्यकता नहीं है।
  3. विषयवस्तु की सरलता अथवा दुरूहता तथा विद्यार्थियों की ग्राह्य-क्षमता को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त शिक्षण-विधियों का चयन करना।
  4. विषयवस्तु के कठिन अंशों को किस प्रकार विद्यार्थियों को समझाया जाये-इस पर विचार करना।
  5. विद्यार्थियों की आयु, ग्राह्य-क्षमता आदि तथा विषयवस्तु को ध्यान रखते हुए उपयुक्त उदाहरणों, दृष्टान्तों (यदि स्थानीय क्षेत्र से हो तो और भी अच्छा) आदि पर पूर्व चिन्तन।
  6. शिक्षण के समय वास्तविक शिक्षण से पूर्व कक्षा व्यवस्था को ठीक करना ताकि सभी विद्यार्थी शिक्षण का अधिकतम लाभ उठा सकें।
  7. शिक्षण के समय सभी विद्यार्थियों को बोलने का अपनी बात कहने तथा शंकाओं के समाधान हेतु समुचित समय देना।
  8. कक्षानुशासन की दृष्टि से शिक्षण के साथ-साथ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से विद्यार्थियों की कक्षागत गतिविधियों का ध्यान रखना।
  9. विषयवस्तु सम्बन्धी जानकारी को भलीभाँति समझाना तथा व्यवहार से जोड़ना।
  10. व्यवहार परिवर्तन पर आधारित मूल्यांकन करना।
  11. यदि मूल्यांकन के आधार पर यह पता चले कि पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हुई है तो उसके कारणों का पता लगाना और अन्ततः।
  12. जहाँ जो कमी रह गयी है उसे दूर करते हुए अपने शिक्षण में वांछित सुधार करना।

विशिष्ट उद्देश्यों के निर्धारण की आवश्यकता (Need of Assessment of Specific Aims)

किसी भी कार्य एवं क्रिया के महत्त्व (Importance), आवश्यकता (Need) तथा उपयोगिता (Utility) में भाषायी अन्तर अवश्य है। आशयगत कोई अन्तर नहीं। आशय की दृष्टि से जो बात हमारी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, उसे जानने और समझने की हमें आवश्यकता (Need) है तथा वह हमारे लिये उपयोगी (Useful) भी। इस दृष्टि से शिक्षण पूर्व पाठ से सम्बन्धित विशिष्ट उद्देश्यों का निर्धारण हमारे लिये इसलिये आवश्यक/महत्त्वपूर्ण/उपयोगी है ताकि-

  1. शिक्षक शिक्षण से सम्बन्धित विद्यार्थियों के शैक्षिक स्तर, बौद्धिक क्षमता आदि सभी बातों का ध्यान रखते हुए पाठ्यवस्तु पर आधारित उद्देश्यों का निर्धारण कर सके।
  2. शिक्षक शिक्षण की सभी विधियों, तकनीकों, युक्तियों आदि पर पढ़ाने से पूर्व विचार कर सके।
  3. पढ़ाते समय एक ओर उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़े ताकि शैक्षणिक क्रियाओं में भटकाव तथा विषय-वस्तु को समझाने हेतु विषयान्तर तथा अनर्गल बातों से बचा रहे।
  4. विषय-वस्तु से सम्बन्धित कठिन अंशों पर विद्यार्थियों से विचार प्रधान प्रश्न पूछकर उनकी बौद्धिक क्षमता के समुचित विकास में सहायक सिद्ध हो सके।
  5. विद्यार्थियों की शंकाओं का उनकी सन्तुष्टि के अनुसार उचित समाधान कर सके।
  6. विद्यार्थियों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाने में सफल सिद्ध हो सके।
  7. स्व-मूल्यांकन के आधार पर शिक्षक अपनी कमियों का पता लगाकर अपने शिक्षण में सुधार कर सकता है।

विशिष्ट उद्देश्यों के निर्धारण के आधार (Bases of Assessment of Specific Aims)

शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्यों के निर्धारण के कई आधार हो सकते हैं क्योंकि सभी विद्यार्थियों के बौद्धिक स्तर, शैक्षिक स्तर, क्षेत्र, वर्ग आदि कई बातों को ध्यान में रखते हुए सभी को पढ़ाने हेतु समान उद्देश्य निर्धारित किये जा सकें, यह कभी भी सम्भव नहीं। अत: शिक्षण के उद्देश्यों के निर्धारण के निम्नलिखित आधार हैं:-

1. विद्यार्थियों की आयु

विद्यार्थियों की आयु का शिक्षण के उद्देश्यों के निर्धारण से क्या सम्बन्ध है? इसे समझने की दृष्टि से इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि छोटे बालक किन बातों को अधिक तथा कैसे सीखते हैं? पुन: ज्यों-ज्यों उनकी आयु बढ़ती जाती है त्यों-त्यों उनके सीखने की विषय-वस्तु तथा सीखने की क्रियाओं में क्या अन्तर आने लगता है?

इन दोनों बातों पर विचार करें तो बहुत छोटे बालक पहले उन बातों को सीखते हैं जो उन्हें दिखाई देती हैं। उसके पश्चात् ज्यों-ज्यों वे बोलने लगते हैं त्यों-त्यों उनके सीखने में सुनी हुई बातों को जानने के प्रति रुचि बढ़ती जाती है। वे शब्दों को समझने लगते हैं। यह क्रम उनकी आयु में वृद्धि होने के साथ-साथ आगे से आगे चलता ही रहता है।

इस दृष्टि से पूर्व प्राथमिक स्तर पर उन्हें पढ़ाने के जो उद्देश्य निर्धारित किये जायें वे वस्तुओं, फलों, सब्जियों आदि के मूर्त रूप, रंग आकार तक सीमित रहें तो आगे बढ़ने पर उनके उपयोग, स्वास्थ्य आदि की दृष्टि से उनके महत्त्व पर आधारित होने चाहिये।

2. विद्यार्थियों का बौद्धिक विकास

बालकों की बुद्धि का विकास एक निश्चित सीमा तक आयु के बढ़ने के साथ-साथ होता है। इस दृष्टि से छोटे बच्चों की ग्राह्य क्षमता कम होती है तो किशोरों तथा युवाओं की अपेक्षाकृत अधिक। पहले वे केवल मूर्त वस्तुओं आदि को ही जाने पाते थे, आयु वृद्धि के साथ-साथ बुद्धि तथा बुद्धि के विकास के साथ-साथ वे अमूर्त तत्त्वों की अवधारणाओं को भी समझने लगते हैं।

अत: माध्यमिक स्तर पर अमूर्त अवधारणाओं को स्पष्ट किया जाय, तो ठीक रहता है। इस दृष्टि से अवबोध (Understanding) का उद्देश्य उसी स्तर पर निर्धारित किया जाना चाहिये जिस स्तर पर वे उसकी विषयवस्तु को आत्मसात् कर सकते हैं।

3. लैंगिक विभिन्नता

प्रारम्भिक अवस्था में बालक-बालिकाएँ केवल लड़की-लड़के की पहचानगत अन्तर को तो समझते हैं उससे आगे कुछ नहीं, परन्तु धीरे-धीरे ज्यों ही वे किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं त्यों ही, वे अपने अस्तित्वगत अन्तर को भी समझने लगते हैं।

इस दृष्टि से प्रारम्भिक स्तर पर उनकी पढ़ाई में कोई विशेष अन्तर नहीं होता, लेकिन बड़े होने पर उनमें शारीरिक, रुचिगत आदि कई प्रकार के अन्तर स्पष्ट झलकने लगते हैं। इस दृष्टि से उन दोनों के शिक्षणगत विषयों के चयन में अन्तर आ जाता है तो व्यवहार परिवर्तन की दृष्टि से उद्देश्यों के निर्धारण में भी।

4. वर्गगत अन्तर

वर्गगत अन्तर की दृष्टि से यहाँ हमारा आशय सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र आदि किसी से भी न होकर वर्गीकरण के आधार की दृष्टि से है। बालकों अथवा व्यक्तियों के व्यक्तित्व के जितने भी पहलू शरीर, बुद्धि, मन, आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति आदि की दृष्टि से जिस आधार को लिया जाय उसी आधार पर उस पहलू को कई वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

उदाहरण-स्वरूप शरीर को ही लें तो कोई कद की दृष्टि से छोटा है तो कोई बड़ा; कोई स्वस्थ है तो कोई रोगी; कोई शारीरिक अंगों की दृष्टि से पूर्ण है, तो कोई विकलांग। विकलांगता में भी किसी को आँखों से दिखाई नहीं देता तो कोई बोलने तथा सुनने में असमर्थ है।

इसी प्रकार बौद्धिक आधार पर कोई प्रखर बुद्धि है तो कोई मन्द बुद्धि तथा कोई सामान्य बुद्धि वाला। इन सभी के लिये शिक्षा एवं शिक्षण के उद्देश्य तथा आवश्यकतानुरूप क्रियाविधि भी अलग-अलग होंगी।

5. शिक्षा की वैयक्तिक आवश्यकता

मनोवैज्ञानिक तथा शाश्वत सत्य तो यही है कि सृष्टि के रचयिता की रचना इतनी विचित्र है कि कभी भी दो व्यक्ति यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चे भी सभी दृष्टियों से सर्वथा समान नहीं होते। कहीं शारीरिक भिन्नताएँ हैं तो कहीं बुद्धिगत तथा कहीं मनोगत आदि प्रकार की विभिन्नताएँ होती ही हैं। इन्हीं विभिन्नताओं के परिणामस्वरूप रुचियाँ तथा आवश्यकताएँ भी अलग-अलग होती हैं। इन्हीं दृष्टियों से कोई कुछ पढ़ना चाहता है तो कोई कुछ।

जिसके लिये अर्थ (धन) ही सब कुछ है वह अर्थोपार्जन की दृष्टि से शिक्षा प्राप्त करता है तो जिसे अर्थ से तंग आकर ईश्वर की इस विचित्र सृष्टि के रहस्यों को जानने की जिज्ञासा है, वह दर्शनशास्त्र (Philosophy) तथा विज्ञान (Science) का अध्ययन करना चाहता है इसी प्रकार अन्य।

कहने का आशय यह है कि आवश्यकताओं आदि को ध्यान में रखते हुए किसी को किसी प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता है तो किसी को किसी अन्य प्रकार की। इस दृष्टि से शिक्षा के उद्देश्य तो अलग होते ही हैं, शिक्षण के उद्देश्यों के निर्धारण में भी इन सब बातों का ध्यान रखना पड़ता है; क्योंकि शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति अन्ततोगत्वा शिक्षण के माध्यम से ही होती है। इस दृष्टि से शिक्षा एवं शिक्षण के उद्देश्य परिवर्तित होते रहते हैं।

सारांशतः, शिक्षण के उद्देश्यों के निर्धारण के कई अलग-अलग आधार हो सकते हैं, जिन्हें जिसे, शिक्षा दी जा रही है, मूल रूप में उसे तथा गौण रूप में परिस्थितियाँ वातावरण आदि को ध्यान में रखते हुए निर्धारित किया जाता है।

शिक्षण के सामान्य तथा विशिष्ट उद्देश्यों में अन्तर (Difference between General and Specific Objectives of Teaching)

शिक्षण के सामान्य (General) तथा विशिष्ट उद्देश्यों (Objectives) को हम मोटे रूप में ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं। सामान्य रूप में जिन उद्देश्यों का सम्बन्ध सामान्यतया सभी की शिक्षा से होता है तब ये सामान्य कहलाते हैं, किन्तु जब किसी निश्चित लक्ष्य के निर्धारण के साथ इनकी पूर्ति का प्रयत्न किया जाता है तब ये विशिष्ट उद्देश्य बन जाते हैं।

उदाहरण के लिये, सभी को शिक्षा के समान अवसर प्रदान करना शिक्षा का सामान्य उद्देश्य है तो किसी वर्ष विशेष में किसी वर्ग विशेष (स्त्री, पिछड़े हुए आदि) की दृष्टि से शिक्षितों के प्रतिशत को एक निश्चित सीमा तक प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित करना विशिष्ट उद्देश्य है।

इसी प्रकार शिक्षण की दृष्टि से किसी विशिष्ट विषय से सम्बन्धित उद्देश्य-सामान्य उद्देश्य होते हैं तो पाठ्यांश की गहराई में जाकर उसके गहन अध्ययन से सम्बन्धित उद्देश्य विशिष्ट उद्देश्य कहलाते हैं, परन्तु दुर्भाग्यवश शिक्षण सम्बन्धी पुस्तकों में कही सामान्य उद्देश्यों को विशिष्ट बता दिया गया है तो कहीं विशिष्ट उद्देश्यों को सामान्य।

ब्लूम के अनुसार शिक्षण उद्देश्यों का वर्गीकरण (Bloom’s Taxonomy of Teaching Aims)

ब्लूम (Benjamin, S. Bloom) तथा साथियों के एक लम्बे अध्ययन के पश्चात् शैक्षिक उद्देश्यों का जो वर्गीकरण किया गया है, वह सर्वथा नया हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है। उद्देश्यों के अपने इस वर्गीकरण का भी अपना इतिहास है। सन् 1948 में बोस्टन (अमेरिका) के मनोविज्ञान संघ द्वारा इस सम्बन्ध में कार्य करने के प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान की गयी। तत्पश्चात् ब्लूम तथा साथियों ने इस क्षेत्र में शोधकार्य किया तथा ४ वर्ष के पश्चात् 1956 में इसे प्रकाशित किया गया। तब से यह यथावत् चला आ रहा है।

ब्लूम तथा साथियों की शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण के सम्बन्ध में मान्यता है कि यह वर्गीकरण यथासम्भव है-

  1. शैक्षिक, तार्किक तथा मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है।
  2. यह वर्गीकरण सुसंगत है ताकि प्रत्येक व्यवहार को संगति तथा क्रमबद्धता के आधार पर अभिव्यक्त किया जा सके।
  3. पूर्व निर्णयों तथा मूल्यों पर आधारित नहीं है जिससे ताकि व्यवहार का विश्लेषण तथा विवेचना सरलता से की जा सके।

इस आधार पर ब्लूम तथा साथियों ने हर जगह व्यवहार शब्द का प्रयोग किया है। अत: ज्ञान से व्यवहार तक पहुँचने की दृष्टि से शैक्षिक उद्देश्यों को निम्नलिखित तीन क्षेत्रों अथवा अनुक्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है:-

  1. संज्ञानात्मक क्षेत्र/अनुक्षेत्र/स्तर (Cognitive Domain)
  2. भावात्मक क्षेत्र/अनुक्षेत्र/स्तर (Affective Domain)
  3. मन: चालित/क्रियात्मक क्षेत्र/अनुक्षेत्र/स्तर (Psychomotor Domain)

यहाँ यह स्पष्ट करना समीचीन रहेगा कि ब्लूम तथा साथियों द्वारा लिखित तथा संपादित पुस्तक – “Taxonomy of objectives” Part-I, (Cognitive Domain) तथा Part-II (Affective Domain) में प्रथम दो अनुक्षेत्रों का उल्लेख तो मिलता है तीसरे क्षेत्र का नहीं।

पुस्तक के भाग भी दो ही हैं लेकिन यह भी सत्य है कि शिक्षा एवं शिक्षण के उद्देश्यों का सम्बन्ध विद्यार्थियों के व्यवहार परिवर्तन से भी है; यह भी एक अनुक्षेत्र होना ही चाहिये। इस दृष्टि से इस अनुक्षेत्र का उल्लेख सिम्पसन (Simpson) द्वारा किये गये उद्देश्यों के वर्गीकरण में मिलता है तथा भारतीय संस्थितियों में एन. सी. ई. आर. टी. के तत्कालीन निदेशक डॉ. आर. एच. दुबे (Dr. R. H. Dave) के चिन्तन आधारित शोध में भी प्राप्य है।

इन तीनों क्षेत्रों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है:-

1. संज्ञानात्मक क्षेत्र के शैक्षिक उद्देश्य (Teaching Aims of Cognitive Domain)

संज्ञानात्मक क्षेत्र के शैक्षिक उद्देश्यों के सम्बन्ध में ब्लूम तथा साथियों ने स्पष्ट रूप से लिखा है- “The cognitive domain include those objectives which deals with the recall or recognition of knowledge and the development of intellectual abilities.

अर्थात्– संज्ञानात्मक क्षेत्र/अनुक्षेत्र के अन्तर्गत वे उद्देश्य आते हैं जिनका सम्बन्ध ज्ञान के पुनर्स्मरण, पुनर्पहिचान तथा बौद्धिक योग्यताओं के विकास से है।

इस क्षेत्र/अनुक्षेत्र के शैक्षिक उद्देश्यों को पुन: उपक्षेत्रों के रूप में क्रमबद्ध किया गया है; जिन्हें अग्रलिखित रूप में स्पष्ट किया जा रहा है:-

1. ज्ञान (Knowledge)– इसके अन्तर्गत-किसी प्रतिमान, संरचना अथवा ढाँचे की व्यवस्था सम्बन्धी विशिष्टताओं एवं आवश्यकताओं, विधियों एवं प्रक्रियाओं का छात्रों द्वारा पुनर्स्मरण करना आता है। जैसे-

  1. शब्दों, तथ्यों तथा घटनाओं आदि को अच्छी तरह जानना।
  2. परम्पराओं, प्रवृत्तियों तथा उनके अनुक्रम, वर्गीकरण तथा श्रेणियाँ एवं तथ्यों के आधार आदि को जानना।
  3. सिद्धान्तों, सामान्य रूपों, परिभाषाओं आदि की जानकारी सभी ज्ञान के अन्तर्गत आते हैं।

2. बोध या अर्थग्रहण (Comprehension)– यह बोध का निचला स्तर है जो तथ्यों आदि की गहराई को समझने की दृष्टि से आवश्यक है। इसके अन्तर्गत (शाब्दिक) अनुवाद; निर्वचन (Interpretation) आदि आते हैं।

3. ज्ञानोपयोग (Application)– इसके अन्तर्गत-किन्हीं विशिष्ट तथा सूक्ष्म बातों (तत्त्वों) का उपयुक्त सन्दर्भो में अनुप्रयोग आता है।

4. विश्लेषण (Analysis)– विश्लेषण में किसी तथ्य अथवा बात को बोधगम्य बनाने की दृष्टि से छोटे-छोटे अंशों में विभाजित करके समझना/समझाना आता है।

5. संश्लेषण (Synthesis)– समझाने के पश्चात् किसी निष्कर्ष पर पहुँचना तथा नियमों का निर्धारण इसी उपवर्ग के अन्तर्गत आता है।

6. मूल्यांकन (Evaluation)– इस उपवर्ग के अन्तर्गत यह पता लगाना कि पूर्व निर्धारित शिक्षण उद्देश्यों की पूर्ति अथवा प्राप्ति हुई अथवा नहीं शिक्षण का प्रयास कितना सार्थक तथा उपयोगी रहा आदि-आता है।

2. भावात्मक क्षेत्र के शिक्षण उद्देश्य (Teaching Aims of Affective Domain)

उद्देश्यों के भावात्मक क्षेत्र का सम्बन्ध छात्र-छात्राओं के भावना पक्ष में वांछित परिवर्तन लाने से है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत छात्र-छात्राओं की रुचियाँ (Interests), अभिवृत्तियाँ (Attitudes), जीवन-मूल्य (Life-values) आदि आते हैं।

इसी को बैंजामिन, एस. ब्लूम (Benjamin, S. Bloom) तथा उसके साथियों डेविड कीथ्वल (David, R. Keathwohl) तथा बीम, मासिया (Bertram, B. Masia) ने अपनी पुस्तक “Taxonomy of objectives” के भाग-2 Affective Domain (भावात्मक क्षेत्र) की पृष्ठ संख्या 7(सात) पर इस प्रकार व्यक्त किया है-

Objectives which emphasize a feeling tone an emotion or a degree of acceptance or rejection in the literature expressed as interests attitudes, appreciations, values and emotional sets or biases (come under affective domain of the taxonomy).

अर्थात्– भावात्मक उद्देश्य, वे उद्देश्य हैं जो किसी के प्रति अनुभूति-लहजा, संवेग या स्वीकृति अथवा अस्वीकृति की मात्रा को प्रदर्शित करते हैं। साहित्य में इन्हीं को रुचियाँ, अभिवृत्तियाँ, श्लाघा, जीवन-मूल्य, सांवेगिक-समुच्चय अथवा अभिनति कहते हैं।

संज्ञानात्मक क्षेत्र की भाँति इस क्षेत्र में कौन-कौन से उद्देश्य आते हैं, इसका उल्लेख नीचे किया जा रहा है:-

1. अधिग्राह्यता (Receiving)– इस अनुक्षेत्र के अन्तर्गत मूल रूप से यह बात आती है कि सीखने वाले की किसी वस्तु, बात, घटना, व्यक्ति आदि के विषय में जानकारी प्राप्त करने के प्रति किसी प्रकार जिज्ञासा (Curiosity) उत्पन्न की जाय कि वह उस जानकारी को अपने लिये उपयोगी समझकर उसे जानने तथा समझने के प्रति उत्सुक हो।

2. अनुक्रिया (Responding)– इस अनुक्षेत्र के अन्तर्गत सीखने वाले की अधिग्राह्यता के प्रति अनुक्रिया समाहित है; अर्थात् इसमें इस बात का ध्यान रखा जाता है कि सीखने वाले विद्यार्थी अथवा छात्र किस प्रकार दत्तचित्त होकर किसी बात को सीखने का प्रयास करें, ताकि किसी बात को सीखना उसके लिये अधिकतम संतुष्टि प्रदायक हो।

3. मूल्यन (Valuing)– इसके अन्तर्गत किसी भी जीवन मूल्य या मूल्यों को स्वीकार करना, किसी मूल्य या दृढ़ विश्वास (Conviction) को किसी भी दृष्टि से प्राथमिकता देना तथा उसके प्रति प्रतिबद्धता आती है।

4. संप्रत्ययीकरण (Conceptualization)– संप्रत्ययीकरण के अन्तर्गत मूलतः किसी मूल्य विशेष की अवधारणा को भलीभाँति समझना आता है। इसके लिये तीन बातें आवश्यक हैं-

  1. मूल्य की अवधारणा या सम्प्रत्यय को समझने हेतु दूसरों के साथ विचार-विमर्श करना।
  2. मूल्य के पीछे निहित आधार अथवा सिद्धान्त को समझना तथा
  3. अन्य जीवन-मूल्यों के साथ उस मूल्य विशेष की तुलना।

5. व्यवस्था (Organization)– यथार्थतः मूल्य-विशेष का संप्रत्ययीकरण तथा उसका संगठन-दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं। अत: दोनों को एक ही उपवर्ग के अन्तर्गत भी रखा जा सकता है। फिर भी, संगठन के अन्तर्गत भी मूलतः तीन बातें ही आती हैं। ये तीन बातें हैं-

  1. जीवन-मूल्यों को परस्पर व्यवस्थित करना।
  2. उन सभी जीवन-मूल्यों में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करना तथा
  3. उन मूल्यों में से सर्वाधिक प्रभावी तथा व्यापक जीवन मूल्य को पहचानना।

6. मूल्य अथवा मूल्य संसृष्टि के आधार पर मूल्य विशेषीकरण (Characterization by a Value or Value Complex)– मूल्य विशेषीकरण के अन्तर्गत विद्यार्थी-

  1. स्वयं के अन्दर पहले से ही अवस्थित मूल्यों को संगठित करता है।
  2. इसी आधार पर उसका व्यवहार नियन्त्रित किया जाता है, तथा
  3. अन्त में यह मूल्य भी उसके विश्वासों (beliefs) तथा अभिवृत्तियों के साथ जुड़ जाता है।

संज्ञानात्मक क्षेत्र के उद्देश्यों की प्रक्रिया के जितने भी अनुक्षेत्र हैं, उनके आधार पर विद्यार्थी तथ्यों की गहराई को समझकर अपने व्यवहार में ढालना चाहने लगते हैं। यह तब तक सम्भव नहीं; जब तक भावना नहीं बदले यथार्थतः व्यवहार की जन्मदायिनी भावनाएँ ही होती हैं।

विद्यार्थी की आस्थाएँ विश्वास आदि सभी भावनाओं पर ही आधारित होते हैं जो प्रायः परिवर्तित होते रहते हैं किन्तु, जब वे आस्थाएँ, विश्वास तथा अभिवृत्तियों में प्रदर्शित प्रक्रिया के अनुसार जीवन मूल्यों (Life values) में परिवर्तित हो जाती है तो वे व्यवहार का अंग बन जाती हैं और तभी व्यवहार में वांछित परिवर्तन आता है जो अधिगम (Learning) तथा शिक्षा (Education) का मूलोद्देश्य भी है।

जीवन-मूल्यों पर आधारित व्यवहार कभी भी अवांछित नहीं होता। इसीलिये भावना में यदि सकारात्मक तथा वांछित परिवर्तन लाना है तो वह जीवन-मूल्यों पर ही आधारित होना चाहिये।

3. मन: चालित/क्रियात्मक क्षेत्र के शिक्षण उद्देश्य (Teaching Aims of Psychomotor Domain)

जैसा कि शैक्षिक उद्देश्यों के विभिन्न क्षेत्रों/अनुक्षेत्रों को स्पष्ट करने से पूर्व कहा गया कि इस क्षेत्र के उद्देश्यों का उल्लेख भले ही ब्लूम द्वारा निर्धारित उद्देश्यों के वर्गीकरण विज्ञान में न मिले, परन्तु, उद्देश्यों के वर्गीकरण का यह एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है।

इसके सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि- “The psychomotor domain of objectives includes those objectives which deal with manual and motor.

अर्थात्– विशिष्ट उद्देश्यों के मन: चालित क्षेत्र का सम्बन्ध उन उद्देश्यों से है जो शारीरिक तथा स्नायुविक कुशलताओं के साथ सम्बद्ध हैं।

इसी दृष्टि से इस क्षेत्र के उद्देश्यों को भी अलग-अलग उपक्षेत्रों में क्रमबद्ध रूप में नीचे प्रदर्शित किया जा रहा है:-

1. अनुकरण (Imitation)– इस क्षेत्र के अन्तर्गत विद्यार्थियों द्वारा, शिक्षक द्वारा की जाने वाली तथा लिपि सम्बन्धी अन्य क्रियाओं को अनुकरण द्वारा सीखना तथा उनका अभ्यास आता है।

2. जोड़-तोड़ का हस्त कौशल/प्रहस्तन (Manipulation)– इसके अन्तर्गत किसी कार्य को पूर्ण किये जाने की जितनी भी सम्भावित क्रियाएँ हो सकती हैं, उनमें से सर्वाधिक उपयुक्त क्रिया का चयन आता है।

3. सुनिश्चितता/यथार्थता (Precision)– इसके अन्तर्गत किसी भी कार्य को सम्पन्न की जाने वाली क्रिया का कार्य सम्पन्नता हेतु बार-बार उपयोग किया जाता है; ताकि इस बात का ध्यान रखा जा सके कि की जाने वाली क्रिया सही तथा स्वयं में पूर्ण हो तथा उस कार्य को सम्पन्न किये जाने हेतु अन्य सभी सह क्रियाएँ परस्पर सानुपातिक हों।

4. उच्चारण (Articulation)– ‘उच्चारण’ से यहाँ आशय ‘Pronunciation’ से न होकर उन क्रियाओं के परस्पर समन्वय, क्रमबद्धता तथा सुसम्बद्धता से है जो उस कार्य की क्रियान्विति में सहायक सिद्ध होती है।

5. नैसर्गिकीकरण या स्वाभाविकीकरण(Naturalization)– इसके अन्तर्गत यह सत्य आता है कि किसी भी कार्य को बार-बार करते-करते उसकी कमियों को दूर करते हुए अभ्यास करते-करते उसकी समस्त क्रियाओं को करने में कार्य करने वाला इतना अभ्यास हो जाता है, जैसे वे क्रियाएँ स्वतः ही हो रही हों; अर्थात् वे समस्त क्रियाएँ उसके व्यवहार का स्वाभाविक अंग बन जाती हैं।

तीनों ही क्षेत्रों के शैक्षिक उद्देश्यों के वर्गीकरण विज्ञान को यदि ध्यान में रखा जाय तो यह स्पष्ट है कि इन सभी का आपस में गहरा सम्बन्ध है। विषयवस्तु की जानकारी के अभाव में, उसका समझना (Understanding) सम्भव नहीं तो विषयवस्तु को समझने के प्रभाव में भावना परिवर्तन और अन्ततोगत्वा सम्बन्धित विषयवस्तु का व्यवहार तथा जीवन में उपयोग एवं परिवर्तन भी सम्भव नहीं। अब इसी सन्दर्भ में थोड़ा भारतीय चिन्तन पर विचार करें।

भारतीय दर्शन के अनुसार शिक्षण उद्देश्यों का वर्गीकरण (Taxonomy of Teaching Aims according to Indian Philosophy)

पश्चिमी विचारधारा के अनुसार उद्देश्यों का वर्गीकरण, जिसे हम सर्वाधिक प्रामाणिक भी मानते हैं और उद्देश्यों का निर्धारण भी इसी आधार पर करते हैं, किन्तु यदि भारतीय चिन्तन के आधार पर शिक्षा एवं शिक्षण के उद्देश्यों पर विचार किया जाय तो भारतीय विचारधारा के आधार पर हमारा अपना विचार भी यही है कि जब तक कोई बात भली-भाँति समझ में न आ जाय तब तक उसका सही और सार्थक उपयोग सम्भव नहीं।

भारतीय विचारधारा के अनुसार जानकारी का नाम ज्ञान’ है ही नहीं, एक लोक प्रचलित लोकोक्ति के अनुसार- पढ़े-लिखे लोग भी जब विवेक से काम नहीं लेते तब उनके लिये यही कहा जाता है- “पढ़ा है, पर गुना नहीं

अर्थात् पढ़ने-लिखने के पश्चात् भी विवेकशीलता जैसे गुणों का विकास न हो तो वह पढ़ना-लिखना बेकार है। कहने का आशय यह है कि पढ़े-लिखे व्यक्तियों को विवेकशील होना ही चाहिये।

अतः भारतीय चिन्तन में अपने राष्ट्रीय ग्रन्थ-श्रीमद्भगवद्गीता को ही लें तो उसमें तीन प्रकार की योग साधना का उल्लेख है- योग साधन के ये तीन प्रकार हैं-

ज्ञानयोग → भक्ति योग→ कर्मयोग

गीता के विस्तार में न जाकर यहाँ यह बताना ही पर्याप्त है कि अर्जुन को महाभारत युद्ध से पूर्व युद्ध की इच्छा वाले अपने सम्बन्धियों तथा परिचितों को मारकर राज्य सुख न भोगने की मोहवश जो इच्छा जाग्रत होती है, उसी का समाधान भगवान कृष्ण ने अर्जुन द्वारा उठाई गयी शंकाओं तथा स्वाभाविक प्रश्नों का सहज भाव से उत्तर देते हुए गीता में किया है।

कक्षा में भी ठीक यही स्थिति होती है। शिक्षक को कृष्ण की भूमिका निभानी पड़ती है तो शिक्षार्थी या शिक्षार्थियों को अर्जुन की।

गीता के ज्ञान पर जो कुछ भी अर्जुन ने शंकाएँ उठाई हैं- वे सभी शिक्षण का ज्ञानात्मक पक्ष हैं। सब कुछ समझने के पश्चात् अर्जुन का मोह भंग होना समूचे परिदृश्य को ध्यान में रखते अवबोधित ज्ञान का भावपक्ष तथा अन्त में भगवान कृष्ण के सफल मार्गदर्शन (Guidance) में युद्धरत होकर शत्रुओं का संहार करना क्रियात्मक (Conative) पक्ष है। इस प्रकार गीता में जिन तीनों योग साधनाओं को समझाया गया है, उसकी आवश्यकता कक्षा में भी है।

इस आधार पर पूरी तरह स्पष्ट है कि शैक्षणिक उद्देश्यों के निर्धारण में विश्व के महानतम् ग्रन्थ ‘गीता‘ ब्लूम तथा साथियों के उद्देश्यों के “वर्गीकरण विज्ञान” से कहीं आगे हैं।

सुविचारित तथा शाश्वत भी है; क्योंकि उसका सम्बन्ध तर्क पर आधारित है। साथ ही तर्क का सम्बन्ध बौद्धिक प्रखरता तथा सर्वपक्षीय ज्ञान से होता है। यही नहीं महाकवि जयशंकर प्रसाद का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘कामायनी’ भी ‘ज्ञान’, ‘भावना’ तथा ‘कर्म’-तीनों के समन्वय पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक आधार पर लिखा गया महाकाव्य है।

कहने का आशय यह है कि भारतीय चिन्तन किसी प्रकार भी पश्चिमी चिन्तन से पीछे नहीं; अपितु समय, सोच आदि सभी आधारों पर आगे है।

विषयों के अनुसार शिक्षण उद्देश्यों का वर्गीकरण (Taxonomy of Teaching Aims according to Subjects)

जितने भी शिक्षण विषय हैं, उन्हें मोटे रूप से निम्नलिखित वर्गों में बाँटा जा सकता है-

  1. मानविकी वर्ग के शिक्षण उद्देश्य
  2. शुद्ध विज्ञानों के शिक्षण उद्देश्य
  3. सामाजिक विज्ञानों के शिक्षण उद्देश्य

1. मानविकी वर्ग के शिक्षण उद्देश्य (Teaching Aims of Humanities Class)

मानविकी वर्ग के शिक्षण उद्देश्य निम्नलिखित प्रकार हैं:-

1. ज्ञान (Knowledge)– भाषायी पाठों को विषयवस्तु को पढ़ाना उतना सरल नहीं है, जितना अन्य विषयों की विषयवस्तु को पढ़ाना। कारण स्पष्ट है। साहित्य में चाहे उसका सम्बन्ध गद्य, पद्य आदि किसी भी विधा से क्यों न हो, उसमें भाषायी क्लिष्टता की व्याख्या की आवश्यकता होती ही है।

अत: इसके अन्तर्गत पढ़ायी जाने वाली विषय-वस्तु तो बाद में आती है, उससे पूर्व तो उस विषय-वस्तु में आये हुए कठिन शब्दों आदि के उच्चारण और अर्थ को स्पष्ट करना होता है जो उस विषय-वस्तु को सीखने में सहायक सिद्ध होते हैं। इस प्रकार भाषायी पाठों को पढ़ाने हेतु-उद्देश्य भी दो वर्गों में बँट जाते हैं-

  1. भाषा-तत्त्वों की जानकारी,
  2. विषयवस्तु का ज्ञान ।

भाषा तत्त्वों की जानकारी के अन्तर्गत– (1) उच्चारण की क्लिष्टता वाले शब्द, (2) वर्तनी, (3) अर्थ की दृष्टि से कठिन शब्द, (4) शब्दों के विविध रूप- सन्धि, समास, उपसर्ग, प्रत्यय आदि के मूल शब्द/पद के साथ मिलने वाले शब्द, (5) वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ, (6) विलोम शब्द, (7) लोकोक्तियाँ, (8) मुहावरे आदि सभी आ जाते हैं जिनका स्पष्टीकरण विषय-वस्तु को समझने की दृष्टि से आवश्यक है। अतः इन सभी से सम्बन्धित बातों को स्पष्ट करना भाषा तत्त्वों की जानकारी के अन्तर्गत आयेगा।

विषय-वस्तु का ज्ञान– विषय-वस्तु की जानकारी अथवा ज्ञान के अन्तर्गत- (1) पाठ्यांश से सम्बन्धित तथ्यों की जानकारी, (2) घटनाओं की तिथि, स्थान, काल सम्बन्धित व्यक्ति तथा अन्य कारकों,कारणों आदि की जानकारी, (3) क्षेत्रीय रीति-नीति परम्पराओं आदि की जानकारी, (4) विषयवस्तु, यदि किन्हीं सिद्धान्तों आदि पर आधारित है तो उनकी जानकारी आदि आते हैं।

2. अवबोध (Understanding)– इसके अन्तर्गत-

  1. मिलते-जुलते शब्दों में अर्थगत अन्तर या समानता,
  2. कठिन शब्दों, पदों, वाक्यांशों, वाक्यों आदि का भावगत अर्थ तथा अर्थ की गहनता को समझना।
  3. भावगत तथा भाषायी अनुवाद,
  4. गुण-दोषों की पहचान एवं व्याख्या आती है।

3. रुचि (Interest)– रुचि का सम्बन्ध मूलतः पाठ्यांश को समझने से है। कक्षागत शिक्षण में इसका सर्वाधिक महत्त्व है; क्योंकि रुचि के अभाव में विषयवस्तु अथवा किसी भी बात को समझना सम्भव नहीं। यह तभी सम्भव है, जब पाठ्यांश को समझाने हेतु शिक्षक द्वारा जो उदाहरण दिये जायें अथवा चित्र आदि दिखाये जायें, वे सभी उनकी आयु के अनुसार रुचियों के अनुरूप हों।

4. अभिवृत्ति (Attitude)– अभिवृत्ति का सम्बन्ध मनोगत भावों में सकारात्मक परिवर्तन आने से है और यह तभी आता है, जब पाठ्यांश स्वतन्त्र रूप में पूर्ण अर्थ देने वाला हो अथवा घटना एवं नीति प्रधान पाठों में समूची विषय-वस्तु समझ ली जाय। यद्यपि आवश्यक नहीं सभी पाठ्यांशों की विषय-वस्तु को समझने के पश्चात् मनोवृत्ति पनपे ही पनपे।

फिर भी, एक बात तो निश्चित है कि जब विद्यार्थियों की अभिवृत्ति सकारात्मक होगी तो वे पाठ्यांश को ध्यानपूर्वक समझने का प्रयास करेंगे और यदि नकारात्मक अभिवृत्ति होगी तो वे पाठ्यवस्तु को समझने का प्रयास ही नहीं करेंगे। नाटक, कहानी आदि के साथ मनोवृत्ति पनपने का सीधा सम्बन्ध है।

5. ज्ञानोपयोग (Application)– इसके अन्तर्गत भाषा तत्त्वों एवं विषयवस्तु की जानकारी तथा उपयोग अवबोध के आधार पर (1) कठिन शब्दों के वाक्य प्रयोग, (2) सन्धि, समास, उपसर्ग, प्रत्यय आदि के आधार पर नये शब्दों की संरचना तथा इनसे युक्त शब्दों का विग्रह, (3) लोकोक्तियों तथा मुहावरों का प्रयोग, (4) अर्जित ज्ञान का परिस्थितियों के अनुरूप प्रयोग एवं उपयोग, (5) उच्चारण शुद्धि, (6) वर्तनी तथा वाक्य शुद्धि आदि का अभ्यास आदि आते हैं।

6. कौशल (Skill)– यह ज्ञानोपयोग के बाद की स्थिति है। शिक्षक द्वारा प्रदत्त जानकारी का उपयोग ज्ञानोपयोग के अन्तर्गत आता है तो अपने विवेक या सूझ-बूझ के साथ अर्जित ज्ञान का उपयोग कौशल के अन्तर्गत आता है। यह कुशलता सभी क्रियाओं में सम्भव है। भाषायी कुशलता अर्जित करने पर विद्यार्थी में अग्रलिखित अन्तर स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं-

(i) मौखिक अभिव्यक्ति की दृष्टि से

  1. वह विचारों को मौखिक रूप से अभिव्यक्त करना सीख लेता है।
  2. शब्दों के उच्चारण में शुद्धता आ जाती है।
  3. यति-गति, आरोहअवरोह, विराम-चिन्हों आदि का ध्यान रखते हुए वह गद्य, पद्य, नाटक आदि को पढ़ सकता है।
  4. कविता को लयपूर्वक पढ़ सकता है।
  5. शब्दों को किसी वाक्य में उचित स्थान पर प्रयोग करना सीख लेता है।

(ii) इसी प्रकार-लिखित अभिव्यक्ति की दृष्टि से

  1. सुन्दर लिखने की दृष्टि से अक्षरों को सानुपातिक ढंग से लिखने लगता है।
  2. शब्दों एवं वाक्यांशों का सही व व्यवस्थित रूप से प्रयोग करने लगता है।
  3. विभिन्न प्रकार के वाक्यों की शुद्ध संरचना करने लगता है।
  4. लिखित अभिव्यक्ति में सामासिक पदों, सन्धियुक्त शब्दों, लोकोक्तियों, मुहावरों का प्रयोग करते हुए शुद्ध भाषा में अपने विचारों को लिखकर अभिव्यक्त कर सकता है।
  5. लिखित अभिव्यक्ति में मौलिकता, स्पष्टता तथा सुग्राह्यता भी आ जाती है।

(iii) काव्य श्लाघा की दृष्टि से

  1. गूढ़ या गहन अर्थ वाले गद्य पाठों को पहचानने और उनकी प्रशंसा करने लगता है।
  2. किसी अंश में निहित भाव की अनुभूति करने लगता
  3. कविता का रसास्वादन करने लगता है।
  4. कविता या गद्य या किसी भी विधा में व्यक्त शैली की श्लाघा करने लगता है।
  5. साहित्य की विभिन्न विधाओं-गद्य, पद्य, निबन्ध, कहानी आदि के गुण-दोषों को पहचानने का प्रयास करने लगता है।

2. शुद्ध विज्ञानों के शिक्षण उद्देश्य (Teaching Aims of Positive Sciences)

गणित, भौतिक विज्ञान, रसायन शास्त्र, जीव विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, गृह विज्ञान आदि सभी शुद्ध विज्ञानों के विषयों के अन्तर्गत आते हैं। इन सभी विषयों के शिक्षण में ज्ञान (Knowledge) की अपेक्षा अवबोध (Understanding) तथा ज्ञानोपयोग (Application) की अपेक्षा कौशल (Skill) कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं।

जहाँ तक रुचि (Interest) एवं अभिवृत्ति (Attitude) के उद्देश्यों का सम्बन्ध है उनके अभाव में पाठ की विषय-वस्तु को जानना तथा समझना दोनों ही असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। इन विषयों के पाठों को समझने के पश्चात् यह वृत्ति तो स्वाभाविक रूप में पनपने लगती ही है कि हर परम्परा आदि को तर्क की कसौटी पर कसा जाय। इसी का नाम वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific view) तथा आधार संगत, या तर्कसंगत आधार पर किसी बात के सोचे जाने को वैज्ञानिक चिन्तन (Scientific Thinking) कहते हैं।

शुद्ध विज्ञानों के शिक्षण के उद्देश्यों के निर्धारण में किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिये, इसका उल्लेख आगे किया जा रहा है:-

1. ज्ञान (Knowledge)– ज्ञान के उद्देश्यों की पूर्ति होने के पश्चात् विद्यार्थी-

  1. वैज्ञानिक शब्दावली (Terms), अवधारणाओं (Concepts), संकेत चिह्नों (Symbols), परिभाषाओं (Definitions), सूत्र (Formula) नियम, (Laws) आदि का ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
  2. समीकरणों, नियमों आदि को जानने लगता है।
  3. सम्बन्धित सूत्रों, आकृतियों तथा चिह्नों आदि को पहचानने लगता है।

2. अवबोध (Understanding)– इस उद्देश्य के पूर्ण होने पर विद्यार्थी-

  1. तथ्यों, परिभाषाओं, पदों, सिद्धान्तों, सूत्रों, नियमों, क्रियाओं आदि में समानता तथा असमानता की खोज के आधार पर उनमें तुलना करने लगता है।
  2. पारस्परिक सम्बन्ध (Relationship), विभेदीकरण (Discrimination), वर्गीकरण (Classification), सामान्यीकरण (Generalization), सत्यापन (Verification), उदाहरण (Examples) देना, चयन (Selection) करना अशुद्धियों का पहचानना (Error detection), गलतियों को दूर करना तथा निर्वचन (Interpretation) की क्षमता अर्जित करने लगता है।

3. ज्ञानोपयोग (Application)– ज्ञानोपयोग सम्बन्धी विशिष्ट उद्देश्यों के अन्तर्गत मूलतः विषय-वस्तु को समझने के पश्चात् उस जानकारी अथवा ज्ञान का व्यवहार रूप में उपयोग करना आता है। इस दृष्टि से शुद्ध विज्ञानों से सम्बन्धित पाठों को पढ़ाये जाने हेतु किसी तथ्य के सम्बन्ध में अपनी कल्पना करना, धारणा निर्मित करना, किसी निष्कर्ष पर पहुँचना, तथ्यों का विश्लेषण एवं संश्लेषण (Analysis and synthesis), किसी समस्या के वास्तविक कारणों का पता लगाना उसके समाधान की संभावनाओं पर विचार करना आदि आते हैं।

इस प्रकार तथ्यों का चयन (Selection), एकत्रीकरण (Collection), परिकल्पना (Hypothesis), स्व-निर्णय (Self-judgement), तथ्यों पर आधारित निष्कर्षों का सत्यापन (Verification), अपने निजी सुझाव (suggestions), पूर्व धारणा (Predictions) प्रश्नों को हल करना (Solutions), अनुवाद (Translation), तथा निर्वचन (Interpretation) करना आदि सभी आते हैं।

4. कौशल (Skill)– इस उद्देश्य की पूर्ति अर्जित ज्ञान का अपनी सूझ-बूझ के साथ उपयोग करना आता है। इस दृष्टि से-किसी तथ्य का बारीकी से अवलोकन (Observation), कार्य निष्पादन (Performance), आलेखन (Recording) आदि किसी से भी हो सकता है। इन कुशलताओं के अर्जन के पश्चात् विद्यार्थी –

  1. किसी परिभाषा या मापन के उपकरण में कोई कमी है तो उसे पूरा करने का प्रयास कर सकता है।
  2. जिन उपकरणों का प्रयोग कर रहा है, उनकी कमी को देख और उसका पता लगा सकता है।
  3. जहाँ कमियाँ हैं, उनमें संशोधन कर सकता है।
  4. किसी बात की सही स्थिति को पहचानने लगता है।
  5. अपने विवेक से स्वयं कार्य कर सकता है।
  6. गणना ठीक प्रकार से कर सकता है।
  7. डायग्राम (Diagram) को सही रूप में बना सकता है।
  8. अपना स्वयं का निर्णय लेने लगता है।
  9. जो कुछ देखता, समझता और करता है, उसका आलेख भी स्वयं तैयार करने लगता है।

5. रुचि (Interest)– रुचि के अभाव में शिक्षण अधूरा ही रहता है क्योंकि विद्यार्थी जब तक किसी बात को जानने और समझने में रुचि नहीं लेता तब तक वह न तो किसी बात को समझ ही पाता है और न ही अर्जित ज्ञान का उपयोग कर पाता है। इसीलिये शिक्षक द्वारा शिक्षण को रुचिकर बनाना आवश्यक है क्योंकि रुचि उत्पन्न होने पर ही विद्यार्थी-

  1. किसी बात को जानने तथा समझने का प्रयास करता है।
  2. स्वयं, पाठ्यांश से सम्बन्धित चित्रों के माध्यम से विषय-वस्तु को समझने का प्रयास भी करता है तथा स्वयं चित्र बनाने में भी रुचि लेने लगता है।
  3. ऐसे स्थानों को देखना पस-द करता है, जहाँ से विज्ञान सम्बन्धी कोई जानकारी प्राप्त हो सके।
  4. प्रकृतिजन्य, फूल-फल तथा पेड़-पौधों आदि की जानकारी के साथ-साथ अन्य जीवों के सम्बन्ध में भी जानकारी लेने में रुचि लेता है।
  5. निर्जीव पदार्थों में ही पत्थर, आदि में निहित गुणों की तलाश करने लगता है।
  6. यदि कहीं से कोई वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है तो उसे लिख लेता है।
  7. टेलीविजन पर डिस्कवरी (Discovery), नेशनल ज्योग्राफिक (National Geographic) जैसे चैनलों एवं यू. जी. सी., एन. सी. ई. आर. टी. तथा मुक्त विश्वविद्यालयों द्वारा चलाये जा रहे शैक्षिक कार्यक्रमों को देखने और सुनने तथा रेडियो स्टेशनों द्वारा प्रसारित कार्यक्रमों को सुनने में रुचि लेने लगता है।

6. मनोवृत्ति (Attitude)– शिक्षा प्राप्ति में यों तो विद्यार्थी व्यक्तित्व के सभी अंग सहायक सिद्ध होते हैं, परन्तु सर्वाधिक प्रभावित करने वाले तीन अमूर्त तत्त्व हैं- बुद्धि, मन तथा चेतना। मनोवृत्ति का सम्बन्ध मन से है तथा मन की अलग-अलग वृत्तियाँ होती हैं। इन्हीं वृत्तियों के आधार पर विद्यार्थी में सद्गुण पनपते हैं तो दुर्गुण भी।

शिक्षा का सम्बन्ध दुर्गुणों को दूर कर सद्गुणों का विद्यार्थी में विकास करने से है। इसी को व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाना कहते हैं। अत: सकारात्मक मनोवृत्ति के पनपने पर शुद्ध विज्ञानों से सम्बन्धित पाठों को पढ़ने से पूर्व सभी बातों को समझने हेतु तथा पाठ को समझने के पश्चात् मनोभावों में जो परिवर्तन आ सकते हैं, वे हैं-

  1. प्रत्येक तथ्य के पीछे निहित तथ्यों को खोजना।
  2. प्रचलित परम्पराओं आदि के पीछे निहित आधार की तलाश करना।
  3. दूसरों के तर्क आधारित विचारों को सुनना तथा समझना।
  4. नये विचारों आदि को उचित महत्त्व देना।
  5. तर्कसंगत ढंग से समझाने वाले शिक्षकों तथा सामान्य जनों सभी को उचित सम्मान देना तथा उनकी बातों को ध्यानपूर्वक सुनना एवं समझना।
  6. किसी सम्बन्ध में कोई भी निर्णय लेने से पूर्व उसके परिणामों आदि पर तर्कसंगत ढंग से विचार करना।
  7. अपने ही विचारों पर पुनर्विचार करना आदि आते हैं।

3. सामाजिक विज्ञानों के शिक्षण उद्देश्य (Teaching Aims of Social Sciences)

इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र आदि सभी विषय सामाजिक विज्ञानों के अन्तर्गत आते हैं। इनसे सम्बन्धित उद्देश्यों का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार होगा-

1. ज्ञान (Knowledge)– इस उद्देश्य के अन्तर्गत- तथ्य, घटनाएँ, अवधारणाएँ, तिथियाँ/तारीखें, प्रवृत्तियों तथा उनका अनुक्रम (Sequence), सूचनाएँ, नाम, चित्र, चार्ट संकेत, चिह्न आदि सभी, जिनका सम्बन्ध उस पाठ्यांश से है आते हैं। अत: इन उद्देश्यों के पूरा होने पर विद्यार्थी-

  1. सम्बन्धित तथ्यों, घटनाओं आदि को जानने लगते हैं, जान जाते हैं।
  2. वह पुनर्स्मरण के आधार पर जानी हुई बातों को बताने में सक्षम बनता है।
  3. सम्बन्धित पाठ की विषय-वस्तु को दुहरा सकता है।

2. अवबोध (Understanding)– इस उद्देश्य की पूर्ति होने पर विद्यार्थी-

  1. गूढ़ शब्दों की व्याख्या करने लगता है।
  2. घटनाओं तथा तथ्यों के पीछे निहित आधार को समझने लगता है।
  3. उनमें अन्तर तथा समानता को समझने लगता है।
  4. विषय-वस्तु आदि में कहीं कोई कमी दिखाई दे तो उसको भी समझने लगता है।
  5. केवल ऊपरी जानकारी तक सीमित न रहकर विषय की गहराई को भी समझने लगता है।

3. ज्ञानोपयोग (Application)– इस उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात्, विद्यार्थी-

  1. अर्जित ज्ञान का उपयोग करने में सक्षम बनता है।
  2. तथ्यों एवं घटनाओं के अन्तर एवं साम्य को समझकर उनके विश्लेषण तथा संश्लेषण में समर्थ बनता है।
  3. वह पाठ्य-वस्तु से सम्बन्धित गूढ़ बातों की व्याख्या करने लगता है।
  4. सम्बन्धित घटनाओं की आवृत्ति करने में सक्षम बनता है।
  5. अर्जित ज्ञान को अपने शब्दों में अभिव्यक्त करने लगता है।
  6. अर्जित ज्ञान के अनुरूप अपने व्यवहार में परिवर्तन करने का प्रयास करता है।
  7. अतीत की तुलना वर्तमान से करने लगता है।
  8. अतीत की जो अच्छी बातें आज के समय में भी उतनी ही अधिक उपयोगी हैं तो उन्हें रूढ़ि समझकर त्यागता नहीं अपितु स्वयं भी उन्हें व्यवहार में ढालने का प्रयास करता है।
  9. मौखिक या लिखित अभिव्यक्ति के रूप में अर्जित ज्ञान का उपयोग करने लगता है।

4. कौशल (Skill)– इस उद्देश्य के पूर्ण होने पर विद्यार्थी-

  1. प्रकरण या पढ़ायी जाने वाली विषय-वस्तु से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण बातों, स्थानों आदि को अपने ढंग से उपयोग में लाता है।
  2. विषय से सम्बन्धित चित्र, मॉडल आदि को स्वयं ही बनाने का प्रयास करने लगता है।
  3. परम्पराओं आदि का वैज्ञानिक आधार खोजने का प्रयास करता है।
  4. सम्बन्धित प्रश्नों का संक्षिप्त, तर्कसंगत तथा सारगर्भित उत्तर अपने ही शब्दों में देने का प्रयास करने लगता है।
  5. पठितांश के गुण-दोषों को परखने का प्रयास करने लगता है।
  6. अच्छी बातों को व्यवहार में ढालने का प्रयास करने लगता है।

5. रुचि (Interest)– इस उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात् छात्र-

  1. विषय की गहराई में जाने हेतु, पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित अन्य प्रामाणिक पुस्तकों का अध्ययन करने में रुचि लेने लगता है।
  2. पुस्तकालय में जाकर प्रसिद्ध इतिहास, भूगोल या अन्य सामाजिक महत्त्व के विषयों में सम्बन्धित सामान्य जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करता है।
  3. पत्र-पत्रिकाओं के पढ़ने में रुचि लेता है।
  4. इन विषयों के सम्बन्ध में कहीं अन्य-संगोष्ठियों आदि प्रबुद्ध शिक्षकों या शिक्षकों अथवा अन्य सक्षम व्यक्तियों से पूछकर अपनी शंकाओं का समाधान करता है।

6. अभिवृत्ति (Attitude)– इस उद्देश्य के पूर्ण होने पर छात्र-

  1. सामाजिक रीति-नीतियाँ, परम्पराओं को मात्र रूढ़ियाँ न समझकर उनका तर्कसंगत आधार खोजने का प्रयास करने लगता है।
  2. उसमें तथ्यों का वैज्ञानिक आधार खोजने की प्रवृत्ति पनपती है।
  3. अपने व्यवहार को भी इसी कसौटी पर कसने का प्रयास करता है।
  4. कुप्रवृत्तियों को छोड़ने तथा सद्वृत्तियों को व्यवहार में ढालने का प्रयास बनाता है।
  5. मूल्य आधारित जीवन जीने का मन बनाने का प्रयास करता है।
  6. समाज में रहकर सामाजिक रीति-नीतियों के अनुसार चलने का प्रयास करता है।

7. श्लाघा (Appreciation)– इस उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात् विद्यार्थी-

  1. विषय को समझने के पश्चात् रीति-नीति, परम्पराओं के भौगोलिक आधार तथा ऐतिहासिक महत्त्व को समझकर उनकी सराहना करने लगता है।
  2. वैज्ञानिक आधार पर निर्धारित परम्पराओं आदि को ध्यान में रखते हुए भारतीय सामाजिक रीति-नीतियों तथा सांस्कृतिक परम्पराओं को निर्धारित करने वालों के शाश्वत् चिन्तन की तथा इनके निर्धारक चिन्तकों, ऋषि-महर्षियों आदि की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करता है।
  3. वर्तमान परिस्थितियों में अच्छे विचारकों के तर्कसंगत विचारों को सराहने लगता है।

शिक्षण उद्देश्यों के कुछ अन्य वर्गीकरण (Some other Classifications of Teaching Aims)

ब्लूम (Bloom) के अतिरिक्त राबर्ट (Robert), माइकेल (Michael), स्टोन्स (Stones), एण्डरसन (Anderson) आदि ने भी शैक्षिक उद्देश्यों का वर्गीकरण अपने-अपने ढंग से अलग-अलग दिया है जो अति संक्षेप में इस प्रकार है-

1. रॉबर्ट (Robert) के अनुसार

संज्ञानात्मक (Cognitive) उद्देश्य छ: प्रकार के होते हैं-

  1. प्रत्यास्मरण,
  2. अन्तर बताना,
  3. पुनर्पहिचान,
  4. वर्गीकरण,
  5. प्रभावीकरण, तथा
  6. उत्पादन।

2. माइकेल (Michall)

माइकेल (Michall) ने शैक्षिक उद्देश्यों को मोटे रूप से दो वर्गों में विभक्त किया है-

  1. संकल्पनात्मक (Hypothetical),
  2. अभिव्यक्त (Manifested)।

(i) संकल्पनात्मक (Hypothetical)– उद्देश्यों के अन्तर्गत- (1) ज्ञान, (2) अवबोध, (3) उत्प्रेरणा, (4) बौद्धिक योग्यताएँ तथा (5) शैक्षिक चर (Variables) आते हैं।

(ii) अभिव्यक्त (Manifested)– उद्देश्यों के अन्तर्गत- (1) ज्ञान, (2) अवबोध, (3) अभिवृत्ति तथा (4) बौद्धिक योग्यताएँ-ये चार प्रकार के उद्देश्य आते हैं।

यहाँ ज्ञान तथा अवबोध– दोनों ही संकल्पनात्मक उद्देश्यों के अन्तर्गत भी आये हैं तो अभिव्यक्त उद्देश्यों के अन्तर्गत भी इसको समझने की आवश्यकता है। इसे समझने की दृष्टि से संकल्पनात्मक उद्देश्यों का सम्बन्ध मूलतः विषय-वस्तु की जानकारी देने तथा समझाने से है तो अभिव्यक्त उद्देश्यों की दृष्टि से इनका सम्बन्ध ज्ञानोपयोग (Application) पर आधारित है।

इसी प्रकार शैक्षिक चरों का आशय अर्जित ज्ञान तथा शिक्षा के स्तर आदि की परिवर्तनशीलता से है तो बौद्धिक योग्यताओं से आशय बुद्धि के विभिन्न तत्त्वों शब्द प्रवाह (Word fluency), व्याख्या (Comprehension), वरिम सम्बन्ध (Spatial ability), आंकिक योग्यता (Numerical ability), प्रत्यक्ष ज्ञान (Perceptual ability), स्मृति (Memory) तथा तर्क (Reasoning) से।

3. एण्डरसन (Anderson) तथा स्टोन्स (Stones) के विचार

एण्डरसन (Anderson) तथा स्टोन्स (Stones) के विचार से शिक्षण उद्देश्यों के तीन आधार होने चाहिये। ये तीन आधार हैं –

  1. विषय-वस्तु,
  2. उद्देश्यों के प्रकार तथा
  3. उद्देश्यों का स्तर।

इस प्रकार उद्देश्यों के वर्गीकरण अलग-अलग मनोवैज्ञानिकों तथा शिक्षाशास्त्रियों की दृष्टि और भी हो सकते हैं, परन्तु मूल बात ध्यान में रखने की यही है कि उद्देश्यों का निर्धारण शिक्षण को एक आधार प्रदान करने की दृष्टि से किया जाय, ताकि शिक्षक का शिक्षण उद्देश्य आधारित (Objective based) हो तथा वह शिक्षण के समय इधर-उधर की अनर्गल बातों से बचते हुए विभिन्न क्रियाओं चित्र दिखाना, उदाहरण या दृष्टान्त देना, सम्बन्धित विषय-वस्तु को समझाने तथा निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति से सम्बद्ध हों।

शिक्षण का अर्थ, प्रकृति, विशेषताएँ, सोपान तथा उद्देश्य (Meaning, Nature, Characteristics, Steps and Aims of Teaching):-

  1. शिक्षण (Teaching) – शिक्षण की परिभाषा एवं अर्थ
  2. छात्र, शिक्षक तथा शिक्षण में सम्बन्ध
  3. शिक्षण की प्रकृति
  4. शिक्षण की विशेषताएँ
  5. शिक्षा और शिक्षण में अन्तर
  6. शिक्षण प्रक्रिया – सोपान, द्विध्रुवीय, त्रिध्रुवीय, सफल शिक्षण
  7. शिक्षण प्रक्रिया के सोपान
  8. द्विध्रुवीय अथवा त्रिध्रुवीय शिक्षण
  9. शिक्षण के उद्देश्य – शिक्षण के सामान्य, विशिष्ट उद्देश्यों का वर्गीकरण, निर्धारण और अंतर

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