अनुकरण शब्द यूनानी भाषा के Mimesis (मिमेसिस) के समानार्थी रूप में प्रयुक्त हुआ है। ‘मिमेसिस’ का अंग्रेजी अनुवाद है – ‘Imitation’। हिन्दी में अनुकरण अंग्रेजी के Imitation शब्द से रूपान्तर होकर आया है। अनुकरण का सामान्य अर्थ है- नकल या प्रतिलिपि या प्रतिछाया, जबकि अधिगम के सन्दर्भ में अनुकरण का अर्थ है- किसी पाठ या कठिन कार्य को सीखने के लिए अध्यापक या किसी अन्य छात्र का अनुसरण करना।
अनुकरण द्वारा सीखना (Learning by Imitation Method)
सीखने की प्रभावशाली विधियों में छात्रों के अनुकरण द्वारा सीखने को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया जाता है। सामान्य रूप से बालकों को आपने माता-पिता की नकल करते हुए या शिक्षक की नकल करते हुए देखा होगा। अनेक बालक अपने साथी की भी नकल करते हैं।
अनेक अवसरों पर छात्र जब किसी अभिनेता या नेता से प्रभावित होता है तो वह उसकी गतिविधियों एवं रहन-सहन को सीखता है। इस प्रकार की स्थिति में जो अधिगम की प्रक्रिया सम्पन्न होती है उसे हम अनुकरण द्वारा सीखना कहते हैं।
विद्यालय में यह प्रक्रिया व्यापक रूप से सम्पन्न होती है। जब शिक्षक छात्रों को गणित, हिन्दी एवं विज्ञान सम्बन्धी तथ्यों को करके बताता है तो अनुकरण के द्वारा वह उन क्रियाओं को सम्पन्न करता है। बालक में अनुकरण का गुण स्वाभाविक रूप से पाया जाता है।
घर-परिवार एवं परिवेश में विविध प्रकार की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक प्रक्रियाओं को बालक अनुकरण द्वारा ही सीखता है। अनुकरण द्वारा सीखने को एक प्रभावशाली अधिगम विधि माना जाता है।
अनुकरण किसी बालक द्वारा उस स्थिति में किया जाता है जब वह क्रिया उसे अच्छी लगती हो। इस प्रकार अनुकरण द्वारा किया गया अधिगम विविध कौशलों एवं स्थायित्व से युक्त होता है।
अनुकरण का सिद्धांत
अनुकरण के सिद्धांत के प्रतिपादक मनोवैज्ञानिक हैगार्ट को माना जाता है। अनुकरण एक सामान्य प्रवृत्ति है, जिसका प्रयोग मानव दैनिक जीवन की समस्याओं के सुलझाने में करता है। अनुकरण में हम दूसरों को क्रिया करते हुए देखते हैं और वैसा ही करना सीख लेते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि अनुकरण के द्वारा भी सीखा जा सकता है। यह सिद्धांत मानव में अधिक सफल हुआ है। विस्तार से पढ़ें – अनुकरण का सिद्धांत
अनुकरण द्वारा सीखने की प्रभावशीलता सम्बन्धी तथ्य (Effectiveness Related Factors of Learning by Imitation Method)
अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया के विविध लाभ, उपयोगिता एवं महत्त्वपूर्ण तथ्य ही इसको प्रभावशील अधिगम विधियों में सम्मिलित करते हैं। इस विधि को प्रभावशाली बनाने सम्बन्धी तथ्यों एवं लाभों का वर्णन निम्न रूप में किया जा सकता है-
1. रुचिपूर्ण अधिगम (Interested learning)
बालक उन गतिविधियों का अनुकरण करता है जो कि उसको अच्छी लगती हैं क्योंकि बालक कठिन एवं अरुचिपूर्ण गतिविधियों से दूर रहता है। बालक शिक्षक का अनुकरण करने का प्रयास करता है जो कि उसको अच्छा लगता है।
उस शिक्षक की गतिविधियों एवं शिक्षक से दूर रहता है जो कि उसको अच्छा नहीं लगता। इस प्रकार बालक अपनी रुचिपूर्ण गतिविधियों का अनुकरण करके रुचिपूर्ण अधिगम करता है।
2. आदर्श ज्ञान को सीखना (Learning to idealistic knowledge)
छात्र आदर्श ज्ञान को सीखने का प्रयास करता है; जैसे– एक शिक्षक अभिताभ बच्चन को अपना आदर्श मानता है, वहीं दूसरा छात्र ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को आदर्श मानता है तो वह उनकी उन गतिविधियों को आत्मसात् करता है, जिनके कारण उनको समाज में सम्मान प्राप्त हुआ था।
इस प्रकार छात्रों को आदर्श ज्ञान की प्राप्ति होती है क्योंकि वह महत्त्वहीन तथ्यों को सीखने का प्रयास नहीं करता।
3. प्रत्येक क्रिया को सीखने के अवसर (Opportunities to learning everyone activity)
अनुकरण द्वारा व्यक्ति प्रत्येक क्रिया को सीखने के अवसर प्राप्त करता है। बालक सुबह से शाम तक घर-परिवार एवं विद्यालय में विविध प्रकार की क्रियाओं को देखता है तथा उनका अनुकरण करता है। ये क्रिया शैक्षिक रूप में, सामाजिक रूप में, नैतिक रूप में एवं मानवीय रूप में देखी जाती हैं।
जैसे– एक बालक विद्यालय के बाहर एक अन्धे व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा सड़क पार कराते हुए देखता है तो वह उसका अनुकरण करके सामाजिक सहायता के गुण को सीखता है।
4. कौशल विकास के सरल अवसर (Easy opportunity to skill development)
अनुकरण विधि के माध्यम से छात्र को विभिन्न प्रकार के कौशल सीखने के अवसर प्राप्त होते हैं। जैसे– बालक अपने परिवार एवं समाज में अपने से बड़े व्यक्तियों के कार्य एवं व्यवहार का अनुकरण करके सामाजिक कौशल सीखता है वहीं विद्यालय में शिक्षक एवं अपने वरिष्ठ साथियों का अनुकरण करके शैक्षिक कौशल सीखता है।
5. त्रुटि का अभाव (Lack of error)
अनुकरण द्वारा सीखने में त्रुटि की सम्भावना बहुत कम हो जाती है क्योंकि बालक उस क्रिया का अनुकरण करता है जो उसको रुचिपूर्ण लगती है तथा वह उस क्रिया को ध्यानपूर्वक देख चुका होता है। यदि इसके बाद भी कीं त्रुटि की सम्भावना होती है तो शिक्षक उसकी सहायता करता है।
जैसे– गुणा, जोड़, भाग एवं अन्य शैक्षिक क्रियाओं का अनुकरण छात्र शिक्षक के अनुसार ही करता है। इस अनुकरण में त्रुटि की सम्भावना का अभाव पाया जाता है।
6. क्रिया के प्रति विश्वास (Faith to activity)
बालक को जब क्रिया के प्रति पूर्ण विश्वास हो जाता है जब ही उसका अनुकरण करता है; जैसे– एक छात्र शिक्षक को प्रयोगशाला में ऑक्सीजन गैस बनाते हुए देखता है, गणित के प्रश्न करते हुए देखता है तथा अन्य छात्रों को भी ऐसा करते हुए देखता है।
इसके बाद जब उसे पूर्ण विश्वास हो जाता है कि ये सभी क्रियाएँ सही एवं प्रशंसा के योग्य होती हैं तब वह अपनी रुचि के अनुसार उनमें क्रियाओं को सीखना प्रारम्भ करता है अर्थात् अनुकरण करता है।
7. सीखने के अनेक अवसर (Many opportunity of learning)
सीखने के अनेक अवसर अनुकरण द्वारा ही प्राप्त होते हैं। बालक द्वारा विद्यालय एवं सामाजिक परिवेश में अनेक प्रकार की क्रियाओं को सम्पन्न होते हुए देखा जाता है। ये क्रियाएँ अनेक क्षेत्रों से सम्बन्धित होती हैं।
इन सभी क्रियाओं में से बालक अपनी रुचि एवं उपयोगी क्रियाओं का अधिगम करता है।
8. सामाजिक व्यवस्था का ज्ञान (Knowledge of social system)
अनुकरण विधि में बालक को सामाजिक व्यवस्था का ज्ञान सम्भव होता है। समाज में सम्पन्न होने वाले अनेक कार्यक्रमों में बालक भाग लेता है तथा वह अन्य व्यक्तियों को सामाजिक क्रियाओं को सम्पन्न करते हुए देखता है तो एक ओर उसको सामाजिक व्यवस्था का ज्ञान होता है वहीं दूसरी ओर वह सामाजिक कौशलों को व्यापक रूप से अनुकरण द्वारा सीखने का प्रयास करता है।
9. रुचिपूर्ण अवसर (Interesting opportunities)
अनुकरण विधि में बालक के ऊपर किसी प्रकार का दबाव अनुकरण के लिये नहीं होता। बालक को जो भी क्रियाएँ अच्छी लगती हैं या बालक जिन क्रियाओं को सीखने के लिये अभिप्रेरित होता है उन्हीं क्रियाओं को सीखता है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बालक इसमें उन क्रियाओं का ही अनुकरण करता है जो कि उसके लिये रुचिपूर्ण होती हैं।
10. सांस्कृतिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों का ज्ञान (Knowledge of cultural and familial relationship)
सांस्कृतिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों का ज्ञान भी इस विधि के माध्यम से सम्भव होता है। अनुकरण द्वारा सीखने का प्रारम्भ बालक अपने परिवार से ही प्रारम्भ कर देता है। माता-पिता एवं बड़े भाई-बहन के माध्यम से पारिवारिक सम्बन्धों का अनुकरण प्रारम्भ कर देता है।
दूसरी ओर विविध प्रकार के सांस्कृतिक सम्बन्धों में अपने बड़ों को भाग लेते हुए देखकर उनका अनुकरण करने लगता है। इस प्रकार दोनों क्षेत्रों का ज्ञान सम्भव होता है।
अनुकरण द्वारा सीखने की विधि के दोष (Demerits of Learning by Immitation Method)
अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया के अन्तर्गत अनेक प्रकार के दोष पाये जाते हैं, जिनका वर्णन निम्न रूप में किया जा सकता है-
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अनुकरण द्वारा सीखने में बालक प्रत्येक क्रियाकलाप का ज्ञान वास्तविक रूप में नहीं कर पाता क्योंकि कोई व्यक्ति किसी क्रिया को बार-बार बालक के समक्ष इस रूप में प्रस्तुत नहीं करता कि कोई बालक उसको सीख रहा है। इस प्रकार का ज्ञान आधा-अधूरा होता है।
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अनेक अवसरों पर बालक अपने बड़ों से गलत आदतों को सीख जाते हैं। इसलिये गलत सामाजिक व्यवस्था में रहने वाले छात्रों में अनेक दोष आ जाते हैं।
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छात्रों द्वारा गलत आदतों को सीख लिया जाता है क्योंकि उनमें सही एवं गलत का चुनाव करने की क्षमता नहीं होती; जैसे-फिल्मों से लड़ाई करने की प्रक्रिया का सीखना।
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अनुकरण द्वारा सीखने की विधि की आदर्श व्यवस्था उपलब्ध होनी चाहिये जो कि हमारे विद्यालयों में नहीं मिल पाती तथा ये विधि पूर्ण प्रभावी नहीं हो पाती।
अनुकरण द्वारा सीखने की विधि को प्रभावशाली बनाने में शिक्षक, विद्यालय एवं परिवार की भूमिका
Role of Teacher, School and Family to Make Effective Learning by Imitation Method
अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया विद्यालय एवं विद्यालय से बाहर भी अनवरत् रूप से चलती है। इसलिये इसमें शिक्षक, विद्यालय एवं परिवार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि इन सभी के द्वारा अपने दायित्वों का पालन किया जाता है तो ये विधि पूर्णतः प्रभावी रूप से कार्य करती है।
इस विधि को प्रभावी बनाने में विद्यालय, शिक्षक एवं परिवार की भूमिका निम्न रूप में हो सकती है-
1. आदर्श व्यवहार (Ideal behavior)
इस विधि के लिये यह आवश्यक है कि शिक्षक एवं परिवार में बड़े व्यक्तियों को आदर्श व्यवहार का प्रदर्शन करना चाहिये क्योंकि जब शिक्षक का व्यवहार आदर्श रूप में होगा तो कक्षा का प्रत्येक छात्र अपने शिक्षक को आदर्श मानते हुए उसका अनुकरण करेगा तथा उसके द्वारा सम्पन्न की जाने वाली क्रियाओं को सीखेगा।
इस प्रकार छात्र द्वारा सीखी जाने वाली प्रत्येक क्रिया उचित एवं आदर्शयुक्त होगी।
2. आदर्श वातावरण (Ideal environment)
अनुकरण विधि की सफलता के लिये आवश्यक होता है कि कक्षा एवं विद्यालय का वातावरण आदर्श युक्त होना चाहिये जिससे बालक जो भी अनुकरण करता है। वह सार्थक रूप में होगा। विद्यालय का वातावरण ही उसको सही प्रकार के शैक्षिक एवं जीवन सम्बन्धी कार्यों को सीखने का अवसर प्रदान करेगा।
विद्यालय में वे सभी प्रकार के क्रियाकलाप सम्पन्न होने चाहिये जो कि उसको अनुकरण करने के लिये प्रेरित करते हों; जैसे– विद्यालय में खेल के मैदान, उद्यान, प्रयोगशाला एवं पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं द्वारा शिक्षण किया जा सकता है।
3. नियन्त्रित व्यवहार (Controlled behaviour)
शिक्षक एवं विद्यालय के सभी कर्मचारियों का व्यवहार नियन्त्रित होना चाहिये। क्रोधपूर्ण व्यवहार, अमानवीय व्यवहार एवं अनैतिक व्यवहार करने से प्रत्येक छात्र पर गलत प्रभाव पड़ सकता है।
इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यवहार पर नियन्त्रण रखना चाहिये। नियन्त्रित एवं शिक्षक का उचित व्यवहार ही छात्रों में सकारात्मक व्यवहारगत परिवर्तन कर सकता है।
4. शिक्षाकेन्द्रित वातावरण (Education centred environment)
विद्यालय का वातावरण शिक्षाकेन्द्रित होना चाहिये, जिससे बालक के समक्ष उन्ही क्रियाओं का प्रदर्शन हो सके जो कि शिक्षा से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार की क्रियाओं में से बालक अपनी रुचि एवं उपयोगी क्रियाओं का अनुकरण करने लगेगा। इस प्रकार शिक्षाकेन्द्रित वातावरण प्रत्येक स्थिति में छात्र को अधिगम के लिये प्रेरित करेगा। (बाल केंद्रित शिक्षा)
5. सामाजिक वातावरण (Social environment)
विद्यालय का वातावरण सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप होना चाहिये, जिससे बालक सामाजिक गुणों को अनुकरण के माध्यम से सीख सकें। जैसे– एक शिक्षक दूसरे शिक्षक का सहयोग करता है तथा प्रधानाध्यापक के आदेशों का पालन करता है तो इसका प्रभाव छात्रों पर भी पड़ेगा।
प्रत्येक छात्र आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार करेगा तथा उन सामाजिक गुणों को सीखने का प्रयास करेगा जो कि उसके विद्यालय, घर एवं समाज में देखने को मिलते हैं। इस प्रकार बालक का विकास एक सामाजिक प्राणी के रूप में होगा।
6. सांस्कृतिक वातावरण (Cultural environment)
विद्यालय में समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होना चाहिये तथा बालकों को समाज में सम्पन्न होने वाले प्रत्येक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये जिससे छात्रों में सांस्कृतिक कार्य के प्रति प्रेम जागृत हो तथा छात्र सांस्कृतिक व्यवस्था सम्बन्धी गुण एवं कार्यों को सीख सकें।
7. विद्यालय का नैतिक वातावरण (Moral environment of school)
विद्यालय के नैतिक वातावरण के अन्तर्गत विद्यालय में उन कार्यक्रमों का आयोजन होना चाहिये जो कि नैतिकता का विकास करते हैं। इसके साथ-साथ महापुरुषों की जीवनी के बारे में बताना चाहिये, जिससे छात्र उनका अनुकरण करके परोपकार, प्रेम, दया एवं सहानुभूति जैसे नैतिक गुणों को सीख सकें।
8. मानवीय वातावरण (Human being environment)
विद्यालय का वातावरण मानवीय गुणों से युक्त होना चाहिये। विद्यालय में किसी भी धर्म, जाति एवं लिंग के आधार पर कोई भी भेदभावपूर्ण वातावरण नहीं होना चाहिये। इससे छात्रों में मानवता के प्रति प्रेम उत्पन्न होगा तथा धर्म एवं जाति से ऊपर उठकर उसकी सोच मानवीय गुणों को सीखने के लिये अग्रसर होगी।
9. चहुंमुखी विकास का वातावरण (Environment of all-round development)
विद्यालय में चहुँमुखी विकास से सम्बन्धित वातावरण होना चाहिये, जिससे बालक का कोई पक्ष विकसित होने से वंचित न रह सके। अनुकरण विधि के लिये वातावरण का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है क्योंकि जिस प्रकार का वातावरण होगा छात्र ठीक उसी प्रकार की क्रियाओं का अनुकरण करेगा।
इसलिये विद्यालय, घर, परिवार एवं समाज के प्रत्येक व्यक्ति का यह दायित्व होता है कि चहुंमुखी विकास का वातावरण सृजित किया जाये जिससे बालक का विकास चहुँमुखी रूप में हो सके तथा अनुकरण की विधि को प्रभावशाली बनाया जा सके।
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