‘मेरा प्रिय लेखक मुंशी प्रेमचंद’ से मिलते जुलते शीर्षक इस प्रकार हैं-
- प्रिय लेखक पर निबंध
- उपन्यास-सम्राट
- कहानीकार मुंशी प्रेमचंद
- साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद
निबंध की रूपरेखा
मेरा प्रिय लेखक मुंशी प्रेमचंद
प्रस्तावना
हिन्दी साहित्याकाश में देदीप्यमान अनेक नक्षत्रों में मुंशी प्रेमचंद उस सूर्य की भांति है जो अपने आलोक से अज्ञान रूपी अन्धकार का निरन्तर विनाश कर रहा है। उनकी उद्देश्यपर्ण क्रतियां मानव समाज को सभ्यता के सोपान पर ले जाने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही हैं। वे गरीबों के पक्षधर, शोषण के विरोधी एवं नैतिक मूल्यों के समर्थक एक ऐसे लेखक हैं जिनकी कृतियां मील का पत्थर सिद्ध हुई हैं।
प्रेमचंद का महान उपन्यास ‘गोदान’ अपने विस्तृत कलेवर में महाकाव्य जैसी उदात्तता एवं उद्देश्यपूर्णता को समाविष्ट किए हुए है। यही कारण है कि विश्व की प्रमुख भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है और यह सबके द्वारा सराहा गया है। प्रेमचंद अपनी कहानियों एवं उपन्यासों के कारण मेरे भी प्रिय लेखक हैं।
मुंशी प्रेमचंद एक साधारण गरीब परिवार में जन्मे थे इसीलिए एक भुक्तभोगी की व्यथा-कथा उनके साहित्य में सर्वत्र देखने को मिलती है। गरीबी और संघर्षों से उत्पन्न भावोन्मेष रूपी अमृत का वितरण उन्होंने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से जन-जन की आत्मा तक पहुंचाया और उसे परम तृप्ति प्रदान की।
उन्होंने मात्र आदर्शोन्मुखी यथार्थ का ही चित्रण नहीं किया, अपितु विषयगत शुष्कता एवं पाठकीय मनोविज्ञान के अनुसार मनोरंजन की सामग्री भी यथास्थान पिरोकर कुशल लेखकीय कर्तव्य का भी निर्वाह किया है।
जीवन-परिचय
उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्म, 31 जुलाई 1880 को, काशी के समीप ‘लमही’ नामक ग्राम में हुआ था। आपकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम अजायबराय था। आपकी बाल्यावस्था बड़े ही अभाव में व्यतीत हुई फिर भी परिश्रम और लगन के साथ अध्ययन करके एण्ट्रेन्स की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद आपने इण्टर का अध्ययन प्रारम्भ किया, किन्तु परीक्षा में असफल हो जाने कारण अध्ययन छोड़ दिया।
आपका विवाह बचपन में ही हो चुका था जो आपके अनुरूप नहीं था, अतः शिवरानी देवी के साथ दूसरा विवाह किया। जब आप मात्र आठ वर्ष के थे तभी मां का देहान्त हो गया। आपका वास्तविक नाम धनपतराय था, किन्तु साहित्य जगत में प्रेमचंद नाम से प्रवेश किया।
आपकी आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण परिवार का भरण-पोषण भी बडी कठिनाई से हो पाता था, अतः जीवन के कार्य क्षेत्र में अध्यापक बनकर प्रवेश किया। इसके बाद आप स्कूलों के सब-डिप्टी-इंस्पेक्टर हो गये। स्वास्थ्य खराब रहने के कारण इस पद से त्यागपत्र दे दिया और पुनः अध्यापक हो गये। आपने अध्ययन कार्य करते हुए ही बी. ए. और एम. ए. की परीक्षाएं उत्तीर्ण की।
असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हो जाने पर आप स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े और नौकरी को त्याग दिया परिणामस्वरूप आपकी आर्थिक स्थिति पुनः दयनीय हो गयी। सन् 1931 ई. में कानपुर के ‘मारवाडी विद्यालय’ में पुनः अध्यापक हो गये। कुछ दिनों तक प्रधान-अध्यापक रहने के बाद विद्यालय के प्रबन्धकों से मतभेद होने के कारण यहां से भी त्यागपत्र देकर चले गये।
आप में साहित्यिक प्रतिभा जन्मजात थी, अतः विद्यार्थी जीवन से ही लिखना प्रारम्भ कर दिया था। आरम्भ में आप नवाबराय नाम से उर्दू में कहानी तथा उपन्यास लिखते थे। स्वतन्त्रता संग्राम के उस युग में ‘सोजेवतन‘ नामक कृति ने क्रान्ति की ऐसी आग लगाई कि अंग्रेज सरकार ने भयभीत होकर इस रचना को जब्त कर लिया।
इसके बाद सन् 1914 में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से आपने ‘प्रेमचंद‘ नाम धारण कर हिन्दी साहित्य में पदार्पण किया। साहित्यिक जीवन में प्रवेश के साथ सर्वप्रथम आपने ‘मर्यादा‘ नामक पत्रिका का सम्पादन किया। डेढ़ वर्ष तक इस पत्रिका का सम्पादन करने के बाद ‘काशी विद्यापीठ’ में प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक्त हो गये।
निर्धनता के कारण प्रेमचंद का स्वास्थ्य बहुत गिर चुका था जिसके कारण प्रतिभासम्पन्न सरस्वती का यह सपूत सन् 1936 में इस भौतिक संसार से सदैव के लिए विदा हो गया।
साहित्यिक परिचय
मुंशी प्रेमचंद ने बचपन से ही अभावग्रस्त जीवन की त्रासदी को झेला था, अतः सर्वहारा के प्रति उनकी पीड़ा स्वाभाविक थी। उनके कथा-साहित्य में यह पीड़ा स्वाभाविक रूप से जलेबी में रस
के समान पिरोयी हुई प्रतीत होती है।
आपने हिन्दी कथा-साहित्य को एक नया मोड़ दिया। आपसे पूर्व कथा-साहित्य तिलस्म की भूल-भुलैयों में पड़ा स्वप्न-लोक की सैर कर रहा था। उसमें जनसाधारण की समस्याओं को हल करने
का कोई प्रयास नहीं था। वह स्वप्नलोक और विलास की धरा से नीचे उतरना ही नहीं जानता था। ऐसी स्थिति में मुंशी प्रेमचंद ही थे जिन्होंने कथा-साहित्य में जनसामान्य की पीड़ा को उकेरा।
सर्वप्रथम चरित्र-प्रधान उपन्यासो की परम्परा का श्रीगणेश आपके द्वारा ही हुआ। आपने लगभग एक दर्जन उपन्यास और 300 कहानियों की रचना की। इसके साथ ही ‘मर्यादा‘, ‘माधुरी‘, ‘हंस‘ एवं ‘जागरण‘ नामक पत्र अपने बल पर निकाले और सम्पादन भी किया। बाद में ‘हंस‘ पत्रिका का सम्पादन दिल्ली से श्री राजेन्द्र यादव ने किया था, 28 अक्टूबर 2013 को उनकी म्रत्यु हो गई।
मुंशी प्रेमचंद को आधुनिक साहित्य का जनक कहा जाता है। आपने कथा-साहित्य में युगान्तरकारी परिवर्तन करके एक नये युग का सूत्रपात किया, परिणामस्वरूप कलम के इस सिपाही को भारतीय साहित्य-जगत ‘उपन्यास-सम्राट’ की उपाधि से विभूषित किया गया।
रचनाएं
मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं से हिन्दी-साहित्य की जो समृद्धि की वे इस प्रकार है-
1. कहानी
मुंशी प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ कहानियां लिखीं जिनमें कफन, पंच परमेश्वर, नमक का दरोगा, बड़े भाई साहब, परीक्षा, शंखनाद, शतरंज के खिलाड़ी, मन्त्र, पूस की एक रात, दो बैलों की जोड़ी आदि प्रसिद्ध कहानियां हैं।
इन कहानियों के लगभग 24 संग्रह प्रकाशित हो चुके है जिनमें – ‘ग्राम जीवन की कहानियां’, ‘नवनिधि’, ‘कुत्ते की कहानी, ‘प्रेम प्रसून’, ‘प्रेम पचीसी’, ‘प्रेम-चतुर्थी’, ‘मनमोदक’, ‘मान सरोवर’ (आठ भाग), सप्त सरोज’, ‘समर-यात्रा’, ‘प्रेम-गंगा’, ‘सप्त-सुमन’, ‘अग्नि-समाधि’ आदि। इन कहानियों में बाल विवाह, रिश्वत, भ्रष्टाचार, दहेज-प्रथा आदि विविध समस्याओं के चित्रण के साथ समग्र ग्राम्य-जीवन का यथार्थ चित्रण भी किया है।
2. उपन्यास
प्रेमचंद को ‘उपन्यास-सम्राट की उपाधि प्रदान की गयी है। आपक उपन्यासों में जीवन की विविध समस्याओं का चित्रण हुआ है। आपके द्वारा लिखित ‘गोदान’ हिन्दी ही नहीं अपितु विश्व की महत्वपूर्ण कृति है। इसको किसान-जगत का महाकाव्य तक कह दिया जाता है।
‘गोदान‘ तथा ‘गबन‘ उपन्यासों पर फिल्में भी बन चुकी हैं। आपके प्रमुख उपन्यास हैं- ‘गोदान’, ‘सेवा-सदन’, ‘रंग-भूमि’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘निर्मला’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘मंगलसूत्र (अपूर्ण)’।
3. नाटक
प्रेमचंद द्वारा लिखित ‘कर्बला’ ‘मंगाम’ ‘प्रेम की वेदी’ एवं ‘रूठी रानी’ नाटकों में राष्ट्रीयता, हिन्दू-मुस्लिम एकता और मानव-प्रेम के सर्वत्र दर्शन होते हैं।
4. सम्पादन
प्रेमचंद ने ‘मर्यादा’ ‘माधुरी’ ‘हंस’ एवं ‘जागरण’ आदि पत्रिकाओं को अपने धन से निकाला और सम्पादन किया इनके निकालने में उन्हें आर्थिक क्षति भी उठानी पड़ी।
5. निबन्ध संग्रह
‘साहित्य का स्वरूप’, ‘कुछ विचार’ निबन्धों से उनकी जनवादी दृष्टि का परिचय मिलता है।
भाषा-शैली
प्रेमचंद जो कुछ लिखते थे उसे जनता तक पहुंचाना चाहते थे अतः उनकी भाषा सहज, सरल एवं बोलचाल की है। शैली विषयानुकल बदलती रहती है। आरम्भ में आप उर्दू में लिखा करते थे। बाद में द्विवेदीजी के प्रभाव में आकर ‘प्रेमचंद‘ नाम से हिन्दी में लिखने लगे। आपकी भाषा के दो रूप प्राप्त होते हैं-
- एक वह रूप है जिसमें संस्कृत भाषा के तत्सम रूपों का बाहुल्य है जैसे “मृणालिनी का कामना तरु क्या पल्लव और पुष्प से रंजित हो उठा?” और
- दूसरा वह जिसमें उर्दू, संस्कृत और हिन्दी के व्यावहारिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। जैसे- “अरे साहब, कब्र में पड़ी हुई लाशें जिन्दा हो गयी हैं। ऐसे बाकमाल
पड़े हुए हैं।” अथवा “ऐसी साफ सुथरी जमीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न दे।“
दोनों ही रूपों में सहजता एवं सरलता का भी ध्यान रखा गया है जिससे पाठक के प्रति विचार-संप्रेषण आसान हो सके। आपने जनसाधारण की भाषा में लिखा है, उसमें प्रौढ़ता और प्रांजलता के साथ-साथ सहज प्रवाह, माधुर्य और लालित्य विद्यमान है। मुहावरों का प्रयोग जहां भाषा में चार-चांद लगाता है, वहीं उसे जन सामान्य के अन्तःस्थल तक पहुंचाने में मदद भी करता है।
उपसंहार
आप सच्चे गांधीवादी और देशभक्त थे। समाज में व्याप्त विषमताओं से लड़ना अपना पुनीत कर्तव्य समझा, इसीलिए आप जनता के सच्चे प्रतिनिधि साहित्यकार के रूप में याद किए जाते हैं। आपने यथार्थ को आदर्श की ओर मोड़कर जहां विसंगतियों पर प्रहार किया वहीं समाज को उचित मार्गदर्शन भी दिया।
अतः प्रेमचंदजी सदैव उच्चकोटि के साहित्यकार के रूप में याद किये जायेंगे। यदि हम उन्हें हिन्दी साहित्याकाश का प्रेम तत्व से निर्मित चन्द्रमा (प्रेमचंद) कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रेमचंद का गोदान और गोदान का पास होरी भी प्रेमचंद की भाँति अमर हो गए है। प्रेमचंद हिन्दी के उन लेखकों में हैं जिन पर हम गर्व कर सकते हैं क्योंकि उनका कृतित्व सोद्देश्य एवं लोकमंगलकारी था।
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