स्वाधीनता का महत्व – स्वतन्त्रता: पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं

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  • स्वाधीनता का महत्व
  • परतन्त्रता : एक अभिशाप
  • स्वतन्त्रता : हमारा जन्मसिद्ध अधिकार
  • पराधीनता की पीड़ा
  • पराधीनता का दर्द
  • पराधीनता मृत्यु है
Swadhinata - स्वतन्त्रता : हमारा जन्मसिद्ध अधिकार

निबंध की रूपरेखा

  1. प्रस्तावना
  2. पराधीन का अर्थ
  3. पराधीनता : एक अभिशाप
  4. स्वाधीनता का अर्थ
  5. स्वाधीनता की आवश्यकता
  6. पराधीनता के प्रकार
  7. उपसंहार

स्वाधीनता का महत्व – स्वतन्त्रता

प्रस्तावना

गोस्वामी तुलसीदास ने अपने महाकाव्य रामचरितमानस में पराधीनता को अभिशाप बताते हुए कहा है :

“पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।”

अर्थात् पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। यद्यपि यह अर्द्धाली उन्होंने शिव-पार्वती विवाह के अवसर पर पार्वती की माता के मुख से इस रूप में कहलवाई है :

कत विधि सृजी नारि जग माहीं।
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।।

अर्थात् “पता नहीं विधाता ने नारियों को संसार में क्यों निर्मित किया? यदि निर्मित किया था तो उन्हें पराधीन नहीं करना था, क्योंकि पराधीन को तो स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता।”

यह पंक्ति यहाँ नारी की अधीनता की मार्मिक पीड़ा को व्यक्त करती है, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में इस पंक्ति का अर्थ अधिक व्यापक है। यह पंक्ति स्वतन्त्रता के महत्व को प्रतिपादित करती है। तुलसी ने प्रकारान्तर से यहाँ व्यक्ति को स्वतन्त्रता एवं स्वाधीनता के प्रति जागरूक किया है।

पराधीन का अर्थ

पराधीन का शाब्दिक अर्थ है- दूसरे के अधीन रहना। जिस व्यक्ति की अपनी कोई आशा-आकांक्षा न हो, जो दूसरों के इशारे पर कार्य करने को विवश हो, जिसे दूसरे के बनाए नियमों का के लिए बाध्य किया जाए वह पराधीन कहा जाता है। पराधीन व्यक्ति भी होता है और राष्ट्र भी।

भारतवर्ष को बहुत लम्बे समय तक अंग्रेजों के शासन में रहकर पराधीन रहना पड़ा। पराधीन व्यक्ति या राष्ट्र का स्वाभिमान नष्ट हो जाता है, उसकी इच्छाओं का दमन कर दिया जाता है, पग-पग पर अपमान झेलने को विवश होना पड़ता है। भारतीयों की इस दशा को देखकर ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा था :

हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी?
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।।

अर्थात् हमारा अतीत क्या था, वर्तमान क्या है और भविष्य क्या होगा, इस पर मिल बैठकर विचार करने की आवश्यकता है। भारत का अतीत गौरवशाली रहा है, जिसे पराधीनता के काल में अपमानित होना पड़ा।

पराधीनता : एक अभिशाप

पराधीनता वस्तुतः एक अभिशाप है। मानव ही नहीं पशु-पक्षी भी पराधीन रहने में सुख नहीं पाते। तोते को भले ही सोने के पिंजड़े में रखा जाए, किन्तु अवसर पाते ही वह उस पिंजड़े से उडकर खुली हवा में साँस लेना पसन्द करता है।

पराधीनता व्यक्ति के विवेक को कुण्ठित करती है, इच्छा-शक्ति को समाप्त करती है तथा उसके व्यक्तित्व को दबा देती है। ऐसे व्यक्ति का आत्मविश्वास एवं आत्म सम्मान नष्ट हो जाता है और उसे पग-पग पर ठोकर लगती है। इसीलिए कहा गया है :

“पारतन्त्र्यं महादुःखम् स्वातन्त्र्यं परमं सुखम्”

अर्थात् परतन्त्रता सबसे बड़ा दुख है और स्वतन्त्रता परम सुख है।

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का कथन है-
क्या मैं अपने देश ही में गुलामी करने के लिए जिन्दा रहूँ? नहीं ऐसी जिन्दगी से मर जाना अच्छा।
मन में जब स्वाधीनता की ललक होती है तभी निडरता के साथ क्रान्तिकारी बालक चन्द्रशेखर न्यायालय में अपना नाम ‘आजाद’ और पिता का नाम ‘स्वतन्त्र’ बता सकता है। वस्तुतः पराधीनता मृत्यु है। पराधीनता की पीड़ा को वे ही जानते हैं जिन्होंने गुलाम भारतवर्ष में अपमान भरी हुई जिन्दगी जी है।

हमारी वर्तमान पीढ़ी का यह सौभाग्य है कि वह गुलाम भारत में पैदा नहीं हुई। उसने स्वतन्त्र भारत में जन्म लिया है। यह स्वतन्त्रता हमें बड़े संघर्षों से मिली है अतः उसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। एक कवि के निम्न शब्दों में यही प्रेरणा दी गई है :

हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के।
मेरे देश के बच्चो इसे रखना सम्भाल के।।

स्वाधीनता का अर्थ

स्वाधीनता का अर्थ है- आजादी, अर्थात् गुलामी से मुक्ति, किन्तु स्वाधीनता निरंकुशता नहीं है। स्वाधीन व्यक्ति को भी नियमों कानूनों का पालन करना पड़ता है। ये कानून वह स्वयं अपने
लिए बनाता है। ‘स्वाधीन’ का शाब्दिक अर्थ है स्व + अधीन, अर्थात अपने अधीन होना।

स्वतन्त्र भारत में हमें मताधिकार प्राप्त है। इस मत का प्रयोग करके हम विभिन्न स्तरों पर अपना प्रतिनिधि चुनते हैं और ये प्रतिनिधि विधायी संस्थाओं में जाकर नियम-कानून बनाते हैं जिनका पालन करना हमारा दायित्व है। ध्यान रहे कि स्वतन्त्रता का तात्पर्य स्वच्छन्दता नहीं है।

स्वाधीनता की आवश्यकता

व्यक्ति एवं राष्ट्र को अपना विकास करने के लिए स्वाधीन होना परम आवश्यक है। स्वाधीनता के अभाव में कोई व्यक्ति या राष्ट्र उन्नति नहा कर सकता। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र
ने इस पीड़ा की अभिव्यक्ति निम्न पंक्तियों में की है :

अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेस चलि जात यहै अति ख्वारी॥

भारत के महान नेताओं ने स्वतन्त्रता के लिए महान संघर्ष किया। गाँधी. तिलक, नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस तथा क्रान्तिकारी दल के सदस्यों चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव ने देश के लिए अपनी कुर्बानी देकर आजादी प्राप्त की। तिलक ने नारा दिया :

स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

पराधीनता के प्रकार

पराधीनता कई प्रकार की होती है यथा राजनीतिक पराधीनता, आर्थिक पराधीनता, सांस्कृतिक पराधीनता, आदि। गुलामी चाहे जिस रूप में हो वह त्याज्य है।

  • राजनीतिक पराधीनता– जब कोई देश राजनीतिक रूप से दूसरों के अधीन हो तथा विश्व की कोई बड़ी ताकत उसे राजनीतिक निर्णय लेने हेतु अपने दबाव में रख रही हो तो उसे राजनीतिक पराधीनता कहते हैं।
  • आर्थिक पराधीनता– यदि कोई गरीब राष्ट्र किसी सम्पन्न राष्ट्र द्वारा दिए गए ऋण के बोझ से दबा हो तो वह भी स्वतन्त्र निर्णय ले पाने में अक्षम होता है, यह आर्थिक पराधीनता का स्वरूप है।
  • सांस्कृतिक पराधीनता– यदि एक राष्ट्र अपनी संस्कृति को दूसरे पर बलपूर्वक थोप रहा हो तो यह सांस्कृतिक पराधीनता है।

प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र प्रभुता सम्पन्न तथा आत्मनिर्णय करने में सक्षम होना चाहिए, किन्तु आज विश्व की महाशक्ति अमेरिका अपनी शक्ति एवं धन के बल पर अनेक राष्ट्रों को राजनीतिक एवं आर्थिक पराधीनता के शिकंजे में जकड़े हुए है।

उपसंहार

स्वाधीनता व्यक्ति एवं राष्ट्र के विकास की आवश्यक शर्त है। पराधीनता की बेडियों को काटना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। एक अंग्रेज विचारक का यह कथन पूर्णतः सत्य है : “It is better to reign in hell than to be a slave in heaven.” अर्थात् स्वर्ग में दास बनकर रहने की अपेक्षा नरक में स्वाधीन बनकर रहना अच्छा है।

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