- गोस्वामी तुलसीदास
- लोकनायक तुलसीदास
- अपना प्रिय कवि
- रामचरितमानस के रचयिता
- अमर कवि तुलसीदास
निबंध की रूपरेखा
- जीवन परिचय
- रचनाएँ
- महाकाव्य रामचरितमानस
- समन्वयवादी दृष्टिकोण
- व्यापक विषय क्षेत्र
- अद्भुत प्रतिभा के धनी
- लोकप्रिय कवि
- युगचित्रण
- तुलसी के राम
- तुलसी की भक्ति पद्धति
- उपसंहार
मेरा प्रिय कवि : तुलसीदास
हिन्दी साहित्याकोश में जगमगाते हुए अनेक नक्षत्रों में से गोस्वामी तुलसीदास की चमक सबसे निराली है। भक्तिकाल के इस महाकवि ने अपनी कालजयी कृतियों से जो अमर ख्याति प्राप्त की है, वह बहुत कम कवि ही प्राप्त कर पाते हैं। वे मेरे प्रिय कवि हैं, क्योंकि उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से जो उपदेश दिए वे लोकमंगल का विधान करने वाले हैं।
जीवन परिचय
गोस्वामी तुलसीदास का जन्म संवत् 1589 वि. (सन् 1532 ई.) में राजापूर में हुआ, यद्यपि कुछ अन्य विद्वान इनका जन्म संवत् 1554 तथा जन्मस्थान सोरों भी बताते हैं। जनश्रुति के अनसार इनके पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी था। ‘रत्नावली‘ से इनका विवाह हुआ था।
कहते हैं कि ये अपनी पत्नी से इतना प्रेम करते थे कि एक बार जब वह भाई के साथ मायके चली गई तो उसी दिन उसे लेने ससुराल पहुँच गए। इस पर रलावली ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा– ‘लाज न आयी आपको दौरे आयहु नाथ‘। उसने यह भी कहा कि यदि इतना प्रेम राम से होता तो आपका उद्धार हो जाता। रत्नावली की यह बात उन्हें लग गयी और वे राम के अनन्य भक्त बनकर काव्य रचना में प्रवृत्त हो गए। तुलसीदास की मृत्यु संवत् 1680 वि. में हई थी।
रचनाएँ
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित जो प्रामाणिक रचनाएं बतायी जाती हैं उनकी संख्या बारह है। इन रचनाओं के नाम हैं- रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्ण गीतावली, वरवै रामायण, वैराग्य संदीपनी, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, रामाज्ञा प्रश्न और रामलला नहछु। इनमें से पांच रचनाए अत्यन्त महत्वपूर्ण है और कवि की कीर्ति का अक्षय आधार हैं।
महाकाव्य रामचरितमानस
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के रूप में एक ऐसा महाकाव्य हिन्दी को दिया है, जो विश्व साहित्य में हिन्दी को गौरवपूर्ण स्थान दिलाने में समर्थ है। अपनी उदात्त रचना शैली, उपदेशात्मकता, समन्वयवादी प्रवृत्ति एवं विलक्षण काव्य सौन्दर्य के कारण यह रचना हिन्दी साहित्य की महानतम उपलब्धि बन गई है। रामकथा पर आधृत इस महाकाव्य में तुलसी ने राम के रूप में एक ऐसे आदर्श चरित्र की सृष्टि की है जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनुकरणीय बन गया है। वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श योद्धा और आदर्श पति हैं। उनका चरित्र जनरंजनकारी होने के साथ-साथ लोकमंगलकारी भी है।
तुलसी राम शक्ति, शील और सौन्दर्य के भण्डार हैं। तुलसीदास ने ‘विनयपत्रिका’ में ‘निष्काम भक्ति’ का प्रतिपादन करते हुए मानवीय मूल्यों की स्थापना की है। एक व्यक्ति के रूप में तुलसी कितने महान थे, इसका पता विनय-पत्रिका के अध्ययन से चलता है। कवितावली में ‘सवैया’ छन्द में रामकथा की सरस अभिव्यक्ति ‘मुक्तक’ काव्य के रूप में हुई है, जबकि गीतावली में पदशैली में रामकथा को अभिव्यक्त किया गया है। तुलसीदास वस्तुतः तत्वक धनी थे। वे एक साथ ही कवि, भक्त, उपदेशक, सुधारक और मनीषी विद्वान थे।
समन्वयवादी दृष्टिकोण
तुलसीदास ने अपने समन्वयवादी दष्टिकोण का परिचय भी अपनी रचनाओं में दिया है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने समन्वय की विराट चेष्टा की है। ज्ञान और भक्ति का समन्वय, शैव
और वैष्णव का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, राजा और प्रजा का समन्वय करते हुए उन्होनें कहा है-
गावहिं मुनि पुराण बुध वेदा।।
इसी प्रकार शैव और वैष्णव का समन्वय करते हुए वे कहते हैं-
सो नर मोहि सपनेहुं नहिं भावा।।
गोस्वामीजी ने वास्तविक अर्थ में एक लोकनायक की भूमिका का निर्वाह किया क्योंकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में –
व्यापक विषय क्षेत्र
तुलसीदास का विषय क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। उन्होंने जीवन के किसी अंग विशेष का चित्रण न करते हुए उसकी समग्रता का चित्रण किया। वे मर्यादावादी कवि थे अतः उनकी कृतियों में लोकधर्म एवं मर्यादा का निर्वाह बराबर किया जाता रहा है। उनकी रचनाओं में भक्ति, धर्म, संस्कृति एवं साहित्य का अद्भुत संगम हुआ है।
तुलसी अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। यद्यपि उन्होंने अपनी काव्य रचना का उद्देश्य ‘स्वान्तः सुखाय’ माना है तथापि वे लोकमंगलकारी कविता को ही श्रेष्ठ मानने के पक्षधर हैं और उसी काव्य को महान मानते हैं जो गंगा के समान सर्वहितकारी हो-
सुरसरि सम सब कहं हित होई।।
अद्भुत प्रतिभा के धनी
तुलसीदास साहित्यशास्त्र के पण्डित थे, यही कारण है कि रामचरितमानस में उच्चकोटि का साहित्यिक सौन्दर्य भी व्याप्त है। तुलसीदास ने अपने इस ग्रन्थ में ज्ञान, भक्ति, दर्शन, वैराग्य,
ईश्वर, जीव आदि का जो विवेचन किया है वह उनके पाण्डित्य का परिचायक है। उनका अध्ययन क्षेत्र व्यापक था, उन्होंने वेदों, पुराणों, उपनिषदों का गहन अध्ययन किया था और इन सभी का सार रामचरितमानस में प्रस्तुत किया।
तुलसी की अद्भुत प्रतिभा का परिचय इस बात से भी मिलता है कि उन्होंने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य शैलियों में काव्य रचना की। जायसी की ‘दोहा-चौपाई शैली’ में ‘रामचरितमानस’ लिखा, रहीम की ‘बरवै शैली’ में ‘बरवै रामायण’ लिखी, सूर की ‘पद शैली’ में ‘गीतावली’ लिखी, कबीर की ‘दोहा शैली’ में ‘दोहावली’ लिखी।
वे अवधी और ब्रजभाषा दोनों में काव्य रचना की सामर्थ्य रखते थे। ‘रामचरितमानस’ उन्होंने अवधी भाषा में लिखा जबकि ‘विनयपत्रिका’ और ‘कवितावली’ की रचना ब्रज भाषा में उसी प्रवीणता से की। वे संस्कृत भाषा के भी विद्वान थे।
लोकप्रिय कवि
तुलसी जितने अधिक लोकप्रिय विद्वानों में हैं, उतने ही जनसाधारण में भी हैं। बड़े-बड़े विद्वान जहां ‘रामचरितमानस’ पर प्रवचन देते हैं, वही जनसाधारण भी रामचरितमानस से अत्यन्त प्रभावित लोगो को सैकडों चौपाइयां कण्ठस्थ हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ की रचना आज से लगभग 1438 वर्ष पहले हुई थी तथापि यह अब भी प्रासंगिक बना हुआ है। अपनी महत्ता के कारण यह ग्रन्थ मानव धर्म का सन्दर्भ यश बन गया है। मनुष्य को कैसा आचरण करना चाहिए, मानव धर्म का क्या स्वरूप है, मानवता के क्या लक्षण है इसे जानने के लिए रामचरितमानस का अध्ययन अपरिहार्य है।
तुलसी का यह ग्रन्थ आज अपनी पवित्रता के कारण हिन्दुओं के पूजाघरों में प्रतिष्ठित है। इसके अखण्ड पाठ कराए जाते हैं और इसे पढ़ने से मन को शान्ति प्राप्त होती है। क्या यह एक कवि की सफलता का मानदण्ड नहीं है।
युग चित्रण
तुलसीदास ने अपने समय में व्याप्त बुराइयों की ओर इंगित करते हुए उत्तरकाण्ड में ‘कलियुग’ की विशेषताओं का निरूपण किया है और ‘रामराज्य’ की परिकल्पना करते हुए आदर्श शासन
व्यवस्था का प्रारूप निर्धारित किया है। यद्यपि कुछ अलोचकों ने तुलसी को ब्राह्मण समर्थक कहकर उनकी निन्दा की है और उनके नारी सम्बन्धी विचारों को भी वर्तमान युग के अनुरूप नहीं माना है तथापि उनकी महत्ता पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता। निर्विवाद रूप में तुलसी जैसे महाकवि के कारण हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल को स्वर्णयुग माना गया है।
तुलसी के राम
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में जिस राम की परिकल्पना की है, वे लोकरक्षक एवं मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं। वे ईश्वर के अवतार हैं तथा उन्होंने धर्म की स्थापना एवं अधर्म के विनाश के लिए मानव शरीर धारण किया है। तुलसी कहते हैं-
बाढहि असुर अधम अभिमानी॥
तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥
तुलसी ने राम के रूप में एक आदर्श चरित्र की परिकल्पना की है। उनका चरित्र अनुकरणीय है एवं मानव मात्र के लिए प्रेरक है। तुलसी के राम शक्ति, शील एवं सौन्दर्य से समन्वित एक ऐसे महापुरुष हैं जो अपने उदात्त चरित्र से जन-जन को मोहित करते हैं। वे धर्म के साक्षात् स्वरूप है।
तुलसी की भक्ति पद्धति
तुलसी की भक्ति में शरणागति एवं प्रपत्ति भाव की प्रधानता है। वे राम के अनन्य भक्त है। तुलसी की भक्ति दास्यभाव की है। वे स्वयं को सेवक तथा राम को अपना स्वामी मानते हैं।
उनकी मान्यता है कि प्रभ के प्रति निष्काम भक्ति से ही जीव को सुख मिलता है। वे कहते हैं-
जनम-जनम रति राम पद यह वरदान न आन।।
उपसंहार
तुलसी अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न विलक्षण कवि थे। उन्होंने रामचिरतमान के रूप में ऐसा महान काव्य ग्रन्थ हिन्दी को प्रदान किया है जिसने जन-जन को प्रभावित किया है। वे सही अर्थों में भारत के प्रतिनिधि कवि कहे जा सकते हैं।
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