आरक्षण नीति – आरक्षण की समस्या – निबंध, हिन्दी

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‘आरक्षण नीति’ से मिलते जुलते शीर्षक इस प्रकार हैं-

  • आरक्षण
  • आरक्षण की समस्या
  • आरक्षण : अभिशाप या वरदान
  • आरक्षण के गुण-दोष
  • आरक्षण की राजनीति
  • आरक्षण : एक सामाजिक न्याय
AARAKSHAN KI SAMASYA - AARAKSHAN NITI

निबंध की रूपरेखा

  1. प्रस्तावना
  2. आरक्षण का अर्थ
  3. आरक्षण : सरकारी दायित्व
  4. आरक्षण और राजनीति
  5. आरक्षण के दुष्परिणाम
  6. आरक्षण में आरक्षण
  7. महिला आरक्षण
  8. आरक्षण : उचित या अनुचित
  9. उपसंहार

आरक्षण नीति – आरक्षण की समस्या

प्रस्तावना

प्रत्येक राष्ट्र का यह कर्तव्य एवं दायित्व है कि वह अपने सभी नागरिकों को विकास के समान अवसर बिना किसी भेदभाव के प्रदान करे, किन्तु जो शोषित, दलित एवं दमित वर्ग के नागरिक हैं उन्हें ‘आरक्षण’ के माध्यम से उन्नति के अवसर प्रदान करे। इसी अवधारणा के अनुरूप ‘आरक्षण’ को भारतीय संविधान में स्थान दिया गया।

आरक्षण का अर्थ

आरक्षण का सामान्य अर्थ है- सुरक्षित करना। सरकार द्वारा जब किसी विशेष जाति या वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों, शिक्षा संस्थानों या विधायी संस्थाओं में एक निश्चित प्रतिशत में स्थान सुरक्षित कर दिए जाते हैं तब इस सुविधा को ‘आरक्षण की सुविधा‘ कहा जाता है। संविधान में लोकसभा तथा विधानसभाओं में एक निश्चित प्रतिशत में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कुछ संसदीय एवं विधानसभा क्षेत्र इस प्रकार के चिह्नित किए गए हैं जहाँ केवल अनुसूचित जाति के उम्मीदवार ही खड़े हो सकते हैं, ऊंची जाति के प्रत्याशी को वहाँ से चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त नहीं है।

इस प्रकार संविधान में कुछ विशेष जातियों को जो समाज में दलित, दमित, शोषित, आर्थिक दृष्टि से कमजोर, सामाजिक दृष्टि से दुर्बल थीं, उन्हें संरक्षण प्रदान किया और आरक्षण के माध्यम से उस वर्ग के लोगों को विकास का अवसर प्रदान किया।

आरक्षण : सरकार का दायित्व

सरकारी नौकरियों में भी अनुसूचित जाति के लोगों को 18 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा प्राप्त है। इस प्रकार की सुविधा उन्हें संविधान लागू होने के समय से ही उपलब्ध है और यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि समाज में इसका विरोध उस स्तर पर कभी नहीं हुआ जैसा वर्तमान समय में आरक्षण का विरोध हो रहा है। लोककल्याणकारी सरकार का यह दायित्व है कि वह अब विकास के समान अवसर प्रदान करे और यदि कोई कमजोर वर्ग का है। जैसे दलित, दमित और शोषित है तो उसे ऊपर उठने में उसकी सहायता करे। यह भी निर्विवाद सत्य है कि आरक्षण की इस सुविधा का लाभ अनुसूचित जातियों में से किसी एक विशेष जाति के सदस्यों ने अधिक उठाया है। उनकी आर्थिक, सामाजिक तरक्की भी हुई है, किन्तु शेष जातियाँ इसका भरपूर लाभ नहीं उठा सकीं।

आरक्षण और राजनीति

कालान्तर में आरक्षण एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है। पिछड़ी जातियों ने भी अपनी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की सुविधा की माँग उठाई और अन्ततः काँग्रेस सरकार ने वी. पी. मंडल की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया, जिसे पिछड़ी जातियों को राज्यवार चिह्नित करने एवं आरक्षण का प्रतिशत निर्धारित करने का काम सौंपा गया। मण्डल आयोग ने अपनी जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी। उसे अव्यावहारिक समझते हए तथा उसके दूरगामी दुष्परिणामों पर विचार करते हुए ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया।

बहुत दिनों तक वह रिपोर्ट अनदेखी पड़ी रही। बाद में श्री वी. पी. सिंह देश के प्रधानमन्त्री हुए तब भारतीय जनता पार्टी ने मन्दिर-मस्जिद के मुद्दे को लेकर जनता का भावनाआ को भड़का,
दिया और राजनीतिक लाभ की स्थिति प्राप्त कर ली। उनकी राजनीति की काट करने के लिए एवं जनता का ध्यान इस मुद्दे से हटाने के लिए श्री वी. पी. सिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए पिछड़ी जाति के लोगों को 27 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा प्रदान कर दी। राजनीतिक लाभ उठाने के लिए उत्तर प्रदेश का पिछली भाजपा सरकार ने आरक्षण में भी आरक्षण की सुविधा हेतु अध्यादेश जारी किया, किन्तु न्यायालय ने उसके क्रियान्वयन पर रोक लगा रखी है।

आरक्षण के दुष्परिणाम

आरक्षण एक राजनीतिक निर्णय था, अतः इसके दूरगामी दुष्परिणाम परिणाम हुए। सवर्ण छात्रो विशेषकर बेरोजगारों में इसके प्रति तीव्र आक्रोश उत्पन्न हआ और अनेक स्थानों पर छात्रों ने प्रदर्शन किए, जुलूस निकाले, रोड जाम किए, तोड़फोड़ करते हुए सरकारी सम्पत्ति को हानि पहँचाई, स्कूल-कॉलेजों में हड़तालें कीं तथा अति तो तब हो गई, जब आरक्षण के विरोध में कई छात्रों ने आत्मदाह करते हुए अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ली।

भारतीय राजनीति की यह विडम्बना ही कही जाएगी कि आजादी के पचपन वर्षों के बाद भी हम एक ऐसे जाति विहीन समाज की स्थापना करने में असफल रहे, जहाँ योग्यता के आधार पर विकास के समान अवसर प्रत्येक नागरिक को उपलब्ध हों। एक सवर्ण छात्र योग्यता सूची में स्थान पाकर भी नौकरी नहीं कर पाता, किन्तु दूसरा छात्र अयोग्य होते हुए भी केवल इस आधार पर वह नौकरी हथिया लेता है कि वह आरक्षित वर्ग का है। इन्हीं कारणों से सवर्ण छात्रों में आक्रोश उत्पन्न हुआ, पढ़ाई-लिखाई और योग्यता के प्रति उनकी आस्था कम कर दी गई, उन्होंने अपनी डिग्रियाँ जला डाली और वे निराशा के गर्त में डूब गए। हद तो तब हो गई जब आरक्षण का लाभ पदोन्नतियों में भी दिया जाने लगा। सेवा अवधि कम होने पर भी एक आरक्षित वर्ग का व्यक्ति सवर्ण का ‘बॉस’ बनकर अपनी धौंस दिखाने से बाज नहीं आता।

न्यायालय ने भी सरकार की आरक्षण नीति को उचित बताया, किन्तु ‘क्रीमी लेयर’ अर्थात सम्पन्न वर्ग से सम्बन्धित लोगों को इस लाभ से वंचित कर दिया तथा यह भी व्यवस्था की गई कि किसी भी स्थिति में कल आरक्षण पचास प्रतिशत से ऊपर नहीं दिया जा सकता।

भारत के हर राज्य में आरक्षित वर्ग के अन्तर्गत अलग-अलग जातियाँ हैं। यह भी झगडे का कारण है। एक राज्य में कोई जाति आरक्षित वर्ग में है तो दूसरे राज्य में नहीं है। आरक्षण ने जातिवाद को बढ़ावा दिया है तथा इससे जातीय विद्वेष में वृद्धि हुई है। आरक्षण की सुविधा प्राप्त जातियाँ स्वयं को विशिष्ट अनुभव करके सवर्णों के प्रति वितृष्णा एवं तिरस्कार का भाव प्रदर्शित करती हैं।
अब आरक्षण को राजनीति का मुद्दा बनाया जा रहा है। कुछ पार्टियाँ जाति के आधार पर वोट माँगती हैं क्योंकि उनका वोटरों से यही कहना होता है कि हमने ही तुम्हें आरक्षण की सुविधा दिलाई है। भोली-भाली जनता उन्हें अपनी जाति का मसीहा मानकर वोट देने को विवश हो जाती है।

आरक्षण में आरक्षण

उत्तर प्रदेश में आरक्षण की नई नीति लागू करते हुए पूर्ववर्ती सरकार द्वारा एक अध्यादेश जारी कराया गया था जिसमें आरक्षण के भीतर आरक्षण प्रदान किया गया है। देखा यह गया है कि
पिछडे वर्गों में आरक्षण का सर्वाधिक लाभ यादवो, अहीरों ने उठाया है तथा अनुसूचित वर्ग में जाटवों ने यह सुविधा सर्वाधिक उठाई है। व्यापक सर्वेक्षण के आधार पर सरकार ने अति पिछड़ों एवं अति दलितों के लिए आरक्षण सुविधा का प्रतिशत सुनिश्चित किया है जिससे उक्त सुविधा का लाभ केवल जागरूक पिछड़े वर्ग या जागरूक अनुसूचित जाति के अलावा अन्य लोग भी उठा सकें। किन्तु उत्तर प्रदेश की पूर्व मायावती सरकार ने ‘आरक्षण में आरक्षण‘ को समाप्त कर दिया है और पुरानी व्यवस्था पुनः लागू कर दी है।

भाजपा सरकार वर्तमान में प्रत्येक उच्च पदों पर सवर्णो को तैनात कर रही है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में आप 90% उच्च पदों पर आपको सवर्णों का ही बोलबाला मिलेगा। अंततः कहा जा सकता है वर्तमान में भाजपा सरकार गोपनीय नीति से सवर्णों को सम्पन्न बनाने का कार्य कर रही है। जिससे समाज में 60 के दशक वाली स्थिति उत्पन्न होने में अब अधिक समय नहीं लगेगा।

महिला आरक्षण

सरकार ने महिला आरक्षण का भी प्रावधान किया है। यद्यपि अभी तक संसद में सीटों की संख्या महिलाओं के लिए आरक्षित करने हेतु बिल पास नहीं हो सका है, तथापि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के मुद्दे पर अनेक राजनीतिक दल सहमत हैं, भले ही वे व्यावहारिक रूप में इस सिद्धान्त पर अमल नहीं कर रहे हैं।

पंचायती राज व्यवस्था में यह महिला आरक्षण प्रदान किया जा रहा है। अब वहाँ निर्धारित प्रतिशत में महिलाओं के लिए स्थान सुनिश्चित किए गए हैं। इसका व्यापक प्रभाव भी दिखाई देने लगा है। पंचायतों, नगरपालिकाओं में अब महिलाएँ चुनकर आ रही हैं और अपनी सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर रही है।

आरक्षण : उचित या अनुचित

आरक्षण का सिद्धान्त यद्यपि अनूचित नहीं है तथापि इसका आधार ‘जातिगत‘ न होकर ‘आर्थिक स्तर‘ होना चाहिए। जो गरीब हैं, उनसे अधिक दलित और कोई नहीं है। ऐसे लोगों का आरक्षण देकर वास्तव में हम ‘दरिद्रनारायण‘ की सेवा कर सकेंगे। आर्थिक दृष्टि से विपन्न सवर्ण भी आरक्षण का उतना ही अधिकारी है, जितना पिछड़ी जाति या अनुसूचित जाति का विपन्न व्यक्ति। क्रीमी लेयर वाले दलित एवं पिछड़ी जाति के लोग अपनी अधिक आमदनी के कारण आरक्षण की सुविधा से वंचित कर दिए जाने चाहिए तभी वास्तविक गरीबों को इसका लाभ मिल सकेगा।

उपसंहार

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सरकार को अपनी आरक्षण नीति पर पुनर्विचार करते हुए कुछ विशेष वर्गों एवं जातियों को ही यह सविधा नहीं देनी चाहिए अपितु आरक्षण की परिधि में उन सवर्णों को भी लाना चाहिए जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं। यही न्याय का तकाजा है और तभी आरक्षण नीति सफल होगी और समाज में आरक्षण के कारण उत्पन्न असन्तोष को भी तभी समाप्त किया जा सकेगा।

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