‘परोपकार : एक मानवीय धर्म’ से मिलते जुलते शीर्षक इस प्रकार हैं-
- परोपकार
- जीवन का उद्देश्य परोपकार
- परमारथ के कारने सज्जन धरा सरीर
- मानव जीवन में परोपकार का महत्व
- परोपकार : मानवीय धर्म
- वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
निबंध की रूपरखा
परोपकार : एक मानवीय धर्म
प्रस्तावना
गोस्वामी तुलसीदास ने अपने ग्रन्थ श्री रामचरितमानस में लिखा है :
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।।
अर्थात् परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं है तथा परपीड़न से अधिक बड़ी कोई नीचता नहीं है। यह पंक्ति परोपकार के महत्व को प्रतिपादित करती हुई हमें स्वार्थ को त्यागने एवं परमार्थ की ओर प्रवृत्त करने का काम करती है।
परोपकार और मानव
परोपकार एक मानवीय गुण है जो पशुओं में नहीं पाया जाता। पशु की प्रवृत्ति तो अपना पेट भरना है किन्तु मानव की मानवता स्वार्थ को त्यागकर परोपकार करने में है। यदि उसमे इस प्रवृत्ति का विकास नहीं हुआ तो वह भी पशु तुल्य ही है। कविवर मैथिलीशरण गुप्त कहते है :
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।
जिनमें परोपकार की वृत्ति नहीं है, वे सामाजिक प्राणी नहीं हो सकते। परोपकार का भाव रखने वाले व्यक्ति के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। तुलसी कहते हैं –
तिन्ह कहैं जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
प्रकृति और परोपकार
मानव जिस प्रकृति के सान्निध्य में रहता है, वह भी हमें परोपकार की शिक्षा देती हैं। सूर्य सबको प्रकाश देता है, नदियां सबको जल देती हैं, बादल जल की बर्षा करते हैं और वृक्ष अपने फल दूसरों को देते हैं। सच तो यह है कि सत्पुरुषों ने परमार्थ के कारण ही शरीर धारण किया है। रहीम के अनुसार :
परमारथ के कारनै साधुन धरा सरीर।।
प्रकृति में सबका कल्याण करने की जो प्रवत्ति विद्यमान है उससे हमें भी परोपकार की शिक्षा लेना चाहिए।
परोपकार के उदाहरण
हमारे इतिहास-पुराण तो परोपकार की गाथाओं से भरे पड़े हैं। वृत्रासुर नामक असुर का संहार करने के किए महर्षि दधीचि ने अपनी हडियां तक इन्द्र को दे दी थी। इन्द्र ने उनसे वज्र का निर्माण किया और वृत्रासुर का वध करके मानव एवं देवजाति की रक्षा की।
महाराज हरिश्चन्द्र महान परोपकारी थे। राजा शिवि ने कबूतर की प्राणरक्षा के लिए अपने शरीर का मांस दिया, गुरु गोविन्द सिंह ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने पुत्रों का बलिदान कर दिया, ईसा मसीह ने लोकहित के लिए शूली पर चढ़ना स्वीकार किया।
महादानी कर्ण ने अपने कवज कुण्डल दे दिए तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए चन्द्रशेखर, भगतसिंह, रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी कुर्बानी दे दी।
हमारे सभी महापुरुषों का जीवन परोपकार की जीती-जागती मिसाल है। कविवर मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में :
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।”
परोपकार से लाभ
परोपकार की भावना हृदय को सात्विक एवं उदात्त बनाती है। परोपकारी व्यक्ति को परोपकार करके असीम सुख एवं आनन्द मिलता है। महाभारत में कहा गया है कि परोपकार से बड़ा कोई
पुण्य नहीं है और परपीड़न से बड़ा कोई पाप नहीं है :
वेदों पराणों शास्त्रों, स्मृतियों में एक ही उपदेश मिलता है कि दूसरों को सुख देने से सुख मिलता है और दुख देने से दुख मिलता है :
सुख दीन्हें सुख होत है, दुख दीन्हें दुःख होय।।
परोपकारी व्यक्ति ‘सर्वभूत हित’ के लिए कार्य करता है। उसका हृदय स्वार्थ के संकुचित घेरे को त्यागकर प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण में लीन हो जाता है। परोपकार से ही भ्रातृत्व, सदभाव एवं विश्वबन्धुत्व की भावना विकसित होती है। परोपकार व्यक्ति को महान बनाता है, लोकप्रिय बनाता है और समाज में वह आदर का पात्र बन जाता है।
उपसंहार
परोपकार मानवता का लक्षण है, मानवीय धर्म है। परोपकार की वृत्ति में सबके कल्याण की भावना निहित है। समाज में जितने अधिक परोपकारी व्यक्ति होंगे, वह उतनी ही प्रगति करेगा, यह ध्रुव सत्य है। समाज में सुख-शान्ति का विकास भी परोपकार की वृत्ति से होता है। परोपकार धर्म का सबसे बड़ा तत्व है अतः हमें प्रकृति से प्रेरणा लेकर परोपकार को अपने जीवन में अवश्य अपनाना चाहिए। स्वार्थ को त्यागकर परमार्थ की ओर अग्रसर रहकर ही व्यक्ति ‘सज्जन’ की श्रेणी में आ सकता है।
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