गोस्वामी तुलसीदास – जीवन परिचय, कृतियां और भाषा शैली

Tulsidas

प्रश्न 1. गोस्वामी तुलसीदास का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख कृतियों का उल्लेख कीजिए।

गोस्वामी तुलसीदास भक्तिकाल की सगुण भक्तिधारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। उनका रामकथा पर आधारित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ एक विश्वविख्यात रचना है। जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्श चरित्र के माध्यम से मानव को नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी गई है। उनके काव्य में भक्ति, ज्ञान एवं कर्म की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है। तुलसी का काव्य लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत है तथा उसमें समन्वय की विराट चेष्टा की गई है। हिन्दी काव्य में तुलसी सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तो उन्हें ऐसा महान कवि मानते हैं जो कवियों का मापदण्ड बन चुके हैं।

तुलसीदास का जीवन परिचय

तुलसीदास के जन्म संवत् तथा जन्म स्थान के सम्बन्ध में पर्याप्त विवाद है। उनके जीवन परिचय को जानने के लिए महात्मा रघुवरदास द्वारा रचित ‘तुलसी चरित’, शिवसिंह सरोज’ नामक हिन्दी साहित्य का इतिहास ग्रन्थ और प्रसिद्ध रामभक्त रामगुलाम द्विवेदी की मान्यताओं का ही आधार ग्रहण किया जाता रहा है। तुलसी के विषय में यह दोहा प्रचलित है-

पन्द्रह सौ चौवन बिसे, कालिन्दी के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धर्यो शरीर।

इसके आधार पर तुलसीदास का जन्म संवत् 1554 विक्रमी (अथात् 1498 ई.) में स्वीकार किया जाता है किन्तु यह इसलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि तब उनकी आयु 126 वर्ष बैठती है, जो उचित नहीं लगती। अधिकांश विद्वान तुलसी का जन्म संवत् 1589 (अर्थात 1532 ई.) स्वीकार करते है जो अधिक तर्कसंगत भी है। यद्यपि इनके जन्मस्थान के विषय में विवाद है फिर भी प्रामाणिक रूप में इनका जन्म बांदा जिले के राजापर ग्राम में हआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता हुलसी था। ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न तुलसीदास अपने शैशव से ही अपने माता-पिता के संरक्षण से वंचित हो गए थे। कवितावली के –

‘मात पिता जग जाइ तज्यो बिधि हू न लिख्या कछु भाल भलाई’

से ज्ञात होता है कि तुलसी का बचपन अनेक आपदाओं में व्यतीत हुआ। ऐसे अनाथ बालक का नरहरिदास जैसे गुरु का वरदहस्त प्राप्त हो गया। इन्हीं की कृपा से तलसी को वेद, पुराण और अन्य शाश्त्रो के अध्ययन और अनुशीलन का अवसर मिला।

इनका विवाह दीनबन्धु पाठक की रूपवती पुत्री रत्नावली से हुआ। अपनी पत्नी के रूपाकर्षण में बँधकर तुलसी सब कुछ भूल गए। एक दिन पत्नी ने उनकी भर्त्सना की जिससे कि उनका प्रेम राम की ओर लग गया। सम्बत् 1680 (अर्थात् सन् 1623 ई.) में तुलसी ने अपना शरीर त्याग दिया।

सम्बत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर।

तुलसीदास की रचनाएं

तुलसीदास की प्रमुख रचनाएं हैं- १. रामचरितमानस, २. विनयपत्रिका, ३. कवितावली, ४. गीतावली, ५. बरवै रामायण, ६. रामलला नहछु, ७. रामाज्ञा प्रश्नावली, ८. दोहावली, ९. वैराग्य सन्दीपनी, १०. जानकी मंगल, ११. पार्वती मंगल, १२. कृष्ण गीतावली आदि।

रामचरितमानस

रामचरितमानस मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन-चरित्र को दर्शाने वाला श्रेष्ठ महाकाव्य है, जिसमें तुलसी ने भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन, भक्ति और कवित्व का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया है। इस महाकाव्य की रचना अवधी भाषा में तथा दोहा-चौपाई शैली में की गई है।

रामचरितमानस की रचना संवत् 1631 (1574 ई.) में अयोध्या में प्रारम्भ हुई और उसे 2 वर्ष 7 माह में समाप्त किया। रचना कौशल, प्रबन्ध पटुता एवं सह्रदयता आदि सारे गुणों का समावेश रामचरितमानस में है।

रामचरितमानस महाकाव्य में 7 काण्ड है- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड। तुलसी को कथा के मार्मिक स्थलों की बहुत अच्छी पहचान थी।

रामचरितमानस में तुलसीदास केवल कवि के रूप में ही नहीं अपित उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं। वास्तव में यह ग्रन्थ व्यवहार का दर्पण है। इसमें विभिन्न चरित्रों के माध्यम से मानव व्यवहार का आदर्श रूप प्रस्तुत किया गया है। राम का जो स्वरूप इस महाकाव्य में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। तुलसी के राम शक्ति, शील एवं सौन्दर्य के भण्डार हैं तथा वे लोकरक्षक हैं।

अन्य रचनाएं

  1. विनयपत्रिका – विनयपत्रिका तुलसी का सर्वोत्तम गीतिकाव्य है। विनयपत्रिका में आर्त भक्त के हृदय की भावूकता का साकार रूप परिलक्षित होता है। तुलसी की भक्ति भावना का पूर्ण परिपाक विनयपत्रिका में देखा जा सकता है।
  2. कवितावली – कवितावली ब्रजभाषा में रचित काव्य है, जिसमें कवित्त-सवैयों में रामकथा का सरस गायन हुआ है।
  3. गीतावली – ‘गीतावली’ में भी गेय पदों में रामकथा कही गई है।
  4. दोहावली – दोहावली में दोहों के माध्यम से तुलसी ने भक्ति, नीति, प्रेम आदि का विवेचन किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने गोस्वामी तुलसीदास के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा है- “गोस्वामी जी का प्रादुर्भाव हिन्दी काव्य के क्षेत्र में एक चमत्कार समझना चाहिए। हिन्दी काव्य की शक्ति का पूर्ण प्रसार इनकी रचनाओं में पहले-पहल दिखाई पड़ा। इनकी भक्ति रस भरी वाणी जैसी मंगलकारिणी मानी गई वैसी और किसी की नहीं। आज राजा से रंक तक के घर में गोस्वामी जी का रामचरितमानस विराज रहा है और प्रत्येक प्रसंग पर इनकी चौपाइयां कही जाती हैं।”

प्रश्न 2. “तुलसीदास का सम्पूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।” इस कथन पर प्रकाश डालिए।

अथवा

“अपने युग की विषम परिस्थितियों में तुलसीदास जी ने समन्वय की विराट चेष्टा की है।” इस कथन की तर्क पूर्ण समीक्षा कीजिए।

अथवा

तुलसीदास जी के लोकनायकत्व पर सारगर्भित विचार व्यक्त कीजिए।

तुलसीदास जी का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ, जब समाज के हर क्षेत्र में विषमता, द्वेष और वैमनस्य व्याप्त था। धर्म, दर्शन, समाज सभी क्षेत्रों में टकराव थे। ऐसे विषम वातावरण में तुलसी जैसे महापुरुष की आवश्यकता थी जो समन्वय स्थापित कर सके। विरोध दूर करके पारस्परिक भेद-भाव को मिटाकर समरसता उत्पन्न करना ही समन्वय है।

आचार्य हजारी प्रसाद जी ने तुलसी को लोकनायक मानते हुए कहा है, “लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके। तुलसी का सम्पूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।”

तुलसी ने अपने महाकाव्य रामचरितमानस में अनेक क्षेत्रों में समन्वय का प्रयास किया, जिन्हें निम्न प्रकार समझा जा सकता है :

शैवों एवं वैष्णवों का समन्वय

तुलसी के समय में शैवों एवं वैष्णवों का संघर्ष चलता था। शिवजी के उपासक अपने आराध्य को बड़ा मानते थे विष्णु को छोटा, तो दूसरी ओर वैष्णव लोग विष्णु को बड़ा
मानते थे और शिवजी को छोटा। तुलसी ने इसका विरोध किया और विष्णु के अवतार राम से कहलवाया :

सिव द्रोही मम दास कहावा।
सो नर मोहि सपनेहुं नहिं भावा।।

दूसरी ओर शंकर जी ने राम को अपना इष्ट देव मानते हुए कहा है :

सोइ मम इष्ट देव रघुवीरा।
सेवत जाहि सदा मुनिधीरा।।

सगुण और निर्गुण का समन्वय

तुलसी ने सगुण और निर्गुण में भी समन्वय किया है। जो परमात्मा निर्गुण और निराकार है, वही भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर सगुण साकार हो जाता है। इन दोनों में कोई भेद नहीं:

अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।

भक्ति और ज्ञान का समन्वय

तुलसीदास जी यद्यपि भक्त थे, किन्तु वे ज्ञान मार्ग की अवहेलना ही करते। उनके अनुसार दोनों मागों से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु भक्ति मार्ग अपेक्षाकृत
सरल है, जबकि ज्ञान मार्ग कठिन है। वे लिखते हैं:

भगतहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।।

दार्शनिक क्षेत्र में समन्वय

तुलसीदास ने अद्वैतवाद एवं द्वैतवाद का समन्वय करके एक नवीन दर्शन विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया। वे लिखते हैं:

कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ जुगल प्रबल कोइ मानै,
तुलसीदास परिहरै तीन भ्रम सो आपन पहिचानै।

राजा और प्रजा का समन्वय

तुलसी ने राजा और प्रजा के समन्वय पर भी बल दिया। राजा के कर्तव्य एवं आदर्श राज्य-व्यवस्था की परिकल्पना उन्होंने ‘रामराज्य’ वर्णन के अन्तर्गत की है। दूसरी ओर प्रजाजन राज्य के लिए अपना सब कछ बलिदान करने वाले हों, ऐसी उनकी धारणा है।

साहित्यिक क्षेत्र में समन्वय

तुलसी ने अवधी एवं ब्रजभाषा दोनों में काव्य रचना की। रामचरितमानस अवधी में लिखा तो विनयपत्रिका, दोहावली, कवितावली आदि में ब्रजभाषा का प्रयोग किया। उन्होंने सभी शैलियों में काव्य लिखे।

इस विवेचन से स्पष्ट है कि तुलसी का सम्पूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। वे समन्वयवादी होने के कारण एक सच्चे लोकनायक भी थे।

प्रश्न 3. तुलसीदास की भक्ति-भावना पर अपने विचार प्रतिपादित कीजिए।

अथवा

तुलसी की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए।

तुलसीदास भक्तिकाल की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। वे राम के भक्त थे। वे राम के शील, शक्ति और सौन्दर्य पर मुग्ध थे। यही कारण है कि उन्होंने अपने और राम के बीच सेवक-सेव्य भाव को स्वीकार किया है। तुलसीदास का कहना था कि :

सेवक सेव्य भाव बिनु, भव न तरिय उरगारि।

तुलसी ने सारा जीवन राम के चरणों में समर्पित कर दिया। उनकी भक्ति ‘दास्य-भाव’ की है। ‘राम’ उनके सर्वस्व हैं। तुलसी राम का ‘गुलाम’ है। तुलसी की भक्ति अपने आराध्य में अनन्य भाव की है। मेघों के प्रति जो भाव चातक का है, वही तुलसी का भी है।

एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।
एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास।।

तुलसी ने अपने लघुत्व को और राम के महत्व को पहचाना था, इसलिए उनकी भक्ति-भावना में दृढ़ता आ गई थी। अपनी हीनता को स्वीकार करते हुए वे कहते है-

राम सों बड़ौ है कौन, मोसो कौन छोटो।
राम सो खरौ है कौन, मोसो कौन खोटो।।

तुलसी की भक्ति-भावना की विशेषताएं

दास्य भावना

तुलसी राम के प्रति पूर्ण समर्पित थे। राम उनके स्वामी थे और वे राम के गुलाम अथवा दास थे। दास होने से तुलसी की भक्ति में दीनता अधिक है। अनुनय-विनय से अपने उद्धार की बात प्रायः अपने इष्ट से कहते हैं। यथा :

तू दयालु दीन हौं, तू दानि हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी तू पाप पुंज हारी।

तुलसी तो राम का ऐसा चाकर है, जिसने राम के दरबार में अपने पूरे जीवन का पट्टा लिख रखा है –

“हम चाकर रघवीर के पटो लिखो दरबार।”

अनन्यता की भावना

तुलसीदास श्रीराम के अतिरिक्त किसी और में अनन्य भाव नहीं रखते। वे तो राम को ही अपना सर्वस्व मानते हैं। कहा गया है कि तुलसीदास एक बार तो कृष्ण मन्दिर में गए और कृष्ण की मूर्ति के समक्ष बोले :

का बरनों छवि आजु की भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक जब नवे धनुष बान लेउ हाथ।

और देखिए श्रीकृष्ण भी अपने जन के कारण रघुनाथ बन गए। तुलसी की भक्ति में पपीहे की सी दृढ़ता और एकनिष्ठता है। तुलसी को तो अपने राम के बल पर ही विश्वास और भरोसा है।

सम्पूर्ण समर्पण का भाव

तुलसी राम के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। राम ने अनेक पापियों का उद्धार कर दिया है। अतः वे मेरा भी अवश्य उद्धार कर देंगे। तुलसी समाज और परिवार के लोगों के नाते भी राम से ही मानते हैं, स्वयं को जीव और राम को ब्रह्म स्वीकार करते हैं:

ब्रह्म तू हौं जीव तू ठाकुर हौं चेरी।
तात मात गुरु सखा तू सब विधि हितू मेरौ।

निष्काम भक्ति

तुलसी की भक्ति निष्काम थी। उन्हें संसार की किसी भी वस्तु के प्राप्त होने की इच्छा नहीं थी। वे तो केवल राम के चरणों में बैठकर उद्धार चाहते थे।

तुलसी चाहत जन्म भरि राम चरन अनुराग।

इष्ट से सर्वाधिक प्रेम

तुलसी अपने इष्टदेव राम को ही सबसे प्रिय मानते थे। राम से विमुख लोगों से वे दूर रहना चाहते थे :

जाके प्रिय न राम बैदेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही।

कल्याणकारी भावना

तुलसी की भक्ति में सभी जीवों के कल्याण की कामना है। यह कल्याण राम की भक्ति बिना असम्भव है। राम के अलावा मन यदि और किसी को चाहता है तो वह मूढ़ है।

परिहरि राम भगति सुर-सरिता आस करत ओसकन की।

अवतारवादी भावना

तुलसी के राम अवतार धारण करते रहते हैं। वे विष्ण के साक्षात् अवतार हैं। जब पृथ्वी पर अधिक पाप बढ़ जाते हैं तथा धर्म की हानि होती है तब प्रभु मनुष्य का रूप धारण करके पापियों से पृथ्वी को मुक्त करते हैं :

जब-जब होय धरम के हानी।
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।
तब-तब प्रभु धरि मनुज सरीरा।
हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।

नाम स्मरण की महत्ता

तुलसी ने राम-नाम के स्मरण के महत्व को स्वीकार किया है। नाम स्मरण के लिए प्राणियों को संकेत भी दिया है :

रामु जपु, राम जपु, रामु जपु बाबरे।
घोर भव नीर निधि, नाम निज नाव रे।।

इस प्रकार तुलसीदास ने एक सरल भक्ति-पद्धति को अपनाया था। कर्म और ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को श्रेष्ठ माना था। निर्गुण को स्वीकारते हुए भी उसका विरोध नहीं किया था। उनकी भक्ति का मूल आधार तो दैन्य ही था, साथ ही आत्म-परिष्कार के लिए अन्य विशेषताओं का भी समावेश हआ था।

प्रश्न 4. ‘भायप भगति’ को स्पष्ट करते हुए इसके आधार पर भरत के चरित्र पर प्रकाश डालिए।

अथवा

“भरत के चारित्रिक गुणों एवं शील की सराहना राम ने किन शब्दों में की है”। ‘भरत महिमा’ नामक काव्यांश के आधार पर इसकी समीक्षा कीजिए।

अथवा

भरत महिमा गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति का मनोरम उदाहरण है- पठित काव्य के आधार पर समीक्षा कीजिये।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड का प्रसंग ‘भरत महिमा’ शीर्षक से काव्यांजलि में संकलित किया गया है। “चित्रकूट में राम को वापस अयोध्या लौटा ले जाने के लिए भरत जी अयोध्यावासियों के साथ आए हैं। वे चाहते हैं कि राम अयोध्या लौट चलें और अयोध्या का राजपाट संभालें। पर राम इसे नीति विरुद्ध मानकर भरत जी को अपनी पादुकाएँ देकर अयोध्या भेज देते हैं।” इस अंश को यहाँ ‘भरत महिमा’ शीर्षक से संकलित किया गया है। इस अंश में राम और भरत के पारस्परिक स्नेह भाव तथा भरत के उदात्त चरित्र पर प्रकाश पडता है।

भायप भगति का अर्थ

भायप भगति का शाब्दिक अर्थ है- भाई के प्रति भक्ति भाव अर्थात् भरत की राम के प्रति भ्रातृ भक्ति एवं राम का भरत के प्रति स्नेह भाव। यह प्रसंग इतना पावन है कि इसका वर्णन करने एवं सुनने से दुख एवं पाप नष्ट हो जाते हैं। ग्रामीण बालाएं कहती हैं कि हमने आज भरतजी को देखकर अपने नेत्र सार्थक कर लिए।

तुलसी ने राम और भरत के माध्यम से उत्कृष्ट प्रेम का उदाहरण हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। राज्य की आकांक्षा न भरत को है, न राम को। कोई भी उसे लेने को तैयार नहीं है। स्वार्थपरता एवं लोभ लालच से युक्त वर्तमान समाज में उनका यह आचरण अनुकरणीय है।

भरत का चरित्र

तुलसी ने भरत को एक आदर्श भाई के रूप में चित्रित किया है जो उदात्त गुणों से सम्पन्न है। राम को भरत के शील पर इतना विश्वास है कि जब लक्ष्मण यह आशंका व्यक्त करते हैं कि शायद भरत को राजमद हो गया है और वे निष्कंटक राज्य करने के लिए हम लोगों को अपने रास्ते का काँटा समझकर सेना सहित हमसे युद्ध करने यहाँ आए हैं तो राम उनकी शंका को निर्मूल करते हुए कहते हैं-

भरतहि होइ न राजमद विधि हरि हरपद पाइ।
कबहुंकि काँजी सींकरनि छीर सिन्धु बिनसाइ।।

भरत को राजमद नहीं हो सकता भले ही उन्हें ब्रह्मा, विष्णू या महेश का पद ही क्यों न दे दिया जाए। क्या कभी खटाई की कुछ बूंदों से क्षीर सागर विनष्ट हो सकता है ? भले ही अन्धकार सूर्य को निगल ले, पृथ्वी अपने स्वाभाविक गुण क्षमा को त्याग दे, पर भरत को राजमद नहीं हो सकता।

राम के प्रति स्नेहभाव

भरत के हृदय में राम के प्रति अगाध अनुराग एवं भक्तिभाव है। राम मिल जाएँगे तो सारे दुःख कट जाएँगे। सारा समाज स्नेह रूपी मदिरा से छका हुआ है। तुलसी ने इस दशा का वर्णन इन पंक्तियों में किया है:

सकल सनेह सिथिल रघुवर के।
गए कोस दुइ दिनकर ढरकें।।

भरत को मार्ग में मिलने वाले व्यक्ति जब राम की कुशलता के बारे में बताते हैं तो वे उन्हें राम के ही समान प्रिय लगते हैं:

जे जन कहहिँ कुसल हम देखे।
ते प्रिय राम लखन सम लेखे।

निरभिमानी व्यक्ति

भरत के चरित्र में निरभिमानता का गुण विद्यमान है। अहंकार एवं राजमद से वे कोसों दूर हैं। राम इस सम्बन्ध में लक्ष्मण को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि संसार में चाहे सारे असम्भव कार्य सम्भव हो जावें पर भरत को अभिमान नहीं हो सकता।

गोपद जल बूढहिं घट जोनी।
सहज छमा बस छाड़हि छोनी।।

अर्थात भले ही गाय के खर से बने गड्ढे में भरे जल में अगस्त्य ऋषि डूब जावें और पृथ्वी अपने सहज स्वाभाविक गुण क्षमा को त्याग दे, पर भरत को अभिमान और राजमद नहीं हो सकता।

शीलवान एवं सदाचारी

भरत के शील की प्रशंसा राम ने बार-बार की है। वे लक्ष्मण से शील की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-

लखन तुम्हार सपथ पितु आना।
सुचि सुबन्यु नहिं भरत समाना।।
भरत हंस रविबंस तड़ागा।
जनमि कीन्ह गुन दोष विभागा।।

हे भाई लक्ष्मण! मैं तम्हारी सौगन्ध और पिता की आन मानकर कहता हूँ कि भरत जैसा पवित्र और भला भाई कोई और हो नहीं सकता। उन्होंने इस रघुकुल में उत्पन्न होकर इसे धन्य कर दिया है। वस्तुतः वे सूर्यवंश रूपी इस तालाब के ऐसे हंस हैं जिन्होंने गुण-दोष को अलग-अलग कर दिया है। राम भरत के गुण और शील का कथन करते हुए थकते नहीं हैं। वे प्रेम के सागर में मग्न हैं।

आदर्श भाई

भरत एक आदर्श भाई है। उन्हें अपनी माता कैकेयी का आचरण अनुचित लगा अतः उन्होंने उसका प्रायश्चित करने का निश्चय किया और वे राम को अयोध्या लौटा लाने के उद्देश्य से चित्रकूट गए। उन्हें यह भय और आशंका सता रही थी कि कही राम उन्हें भी इस षड्यन्त्र में शामिल न समझ लें और उनका त्याग न कर दें। किन्तु उन्हें राम की प्रभुता, शिष्टता और स्नेह पर विश्वास है। वे जानते हैं कि राम उनके हृदय की बात समझेंगे। राम मुझे मलिन मन वाला समझकर त्याग दें या सेवक समझकर सम्मान करें, मुझे तो हर हाल में उन्हीं की शरण लेनी है :

जौ परिहरहि मलिन मनु जानी।
जौ सनमानहिं सेवकु मानी।।

भरत के लिए तो राम ही सर्वस्व हैं, जिनके लिए वे पिता के द्वारा दिए गए राज्य को छोड़कर चित्रकूट में राम को लौटा लाने के लिए जा रहे हैं।

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि भरत का चरित्र आज के नवयुवकों के लिए आदर्श है। स्वार्थ से भरी इस दुनिया में भरत जैसा भाई मिलना कठिन है। निश्चय ही भरत का चरित्र हम सबके लिए प्रेरक है। उनका चरित्र ‘भायप भगति’ का आदर्श उदाहरण है। इसीलिए तुलसी कहते हैं:

भायप भगति भरत आचरनू।
कहत सुनत दुःख दूषन हरनू।।

अर्थात् भरत का चरित्र भ्रातृ प्रेम का आदर्श है जिसके बारे में कहने-सुनने से व्यक्ति के दुःखों का हरण हो जाता है। निश्चय ही यह प्रसंग अत्यन्त प्रेरक एवं प्रेरणास्पद है।

प्रश्न 5. “तुलसी की रचनाओं में लोकमंगल का स्वर मुखरित हुआ है” सिद्ध कीजिए।

गोस्वामी तुलसीदास का काव्य लोकमंगल की भावना से रचा गया है। रामचरितमानस में वे यह स्वीकार करते हैं कि कीर्ति, कविता और ऐश्वर्य वही उत्तम है जो गंगा के समान सबका हित करने वाली हो :

कीरति भनिति भूति भल सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥

जो कविता लोकमंगल का विधान नहीं कर सकती, वह किसी काम की नहीं है। तुलसी का समग्र काव्य लोकमंगल की भावना से युक्त है। तुलसी के राम, तथा राम का नाम भी अमंगल का विनाश करके मंगल का विधान करता है। यथा-

मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवह सो दसरथ अजिर बिहारी।।

दशरथ के आँगन में क्रीड़ाएं करने वाले वे राम मेरे ऊपर कृपा करें जो अमंगल के विनाशक एवं मंगल के विधायक हैं।

तुलसी का रामचरितमानस व्यवहार का दर्पण है। उनके राम मर्यादा पुरुषोत्तम एवं आदर्श चरित्र हैं। वे एक आदर्श स्वामी, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श शिष्य हैं और अपने आचरण से सबको प्रभावित करते हैं। तुलसी के रामचरितमानस में परोपकार एवं अन्य मानवीय मूल्यों पर बहुत बल दिया गया है। यथा :

परहित सरिस धरम नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

अर्थात् परोपकार के समान धर्म नहीं है तथा परपीड़न के समान नीचता कोई नहीं है। रामचरितमानस में राजा के कर्तव्यों का बोध कराया गया है तथा रामराज्य वर्णन के द्वारा राज्य व्यवस्था का स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी रहती है वह नरक का अधिकारी होता है :

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नर अवसि नरक अधिकारी।

रामराज्य में सब सुखी थे, सब लोग परस्पर प्रेमभाव से रहते थे, कोई दुखी नहीं था। सारी जनता अपने-अपने धर्म के अनुकूल आचरण करती थी :

दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि व्यापा।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहि स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

रामचरितमानस में समन्वय की विराट चेष्टा है। धर्म, दर्शन, समाज सभी क्षेत्रों में वे समन्वय पर बल देते हैं। उनके काव्य में शैव और वैष्णव का समन्वय है, ज्ञान और भक्ति का समन्वय है, राजा और प्रजा का समन्वय है तथा निर्गुण और सगुण का समन्वय है। तुलसी के राम धर्म के रक्षक, असुरों के संहारक, शरणागत वत्सल एवं अन्य सभी श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न सदाचारी नायक हैं। वे धर्म की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं :

जब-जब होइ धरम की हानी।
बाढ़हि असुर अधम अभिमानी॥
तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥

रामचरितमानस जहाँ हमें मानव व्यवहार की शिक्षा देता है, वहीं असत्य एवं अन्याय पर सत्य एवं न्याय की विजय भी दिखाता है। राम सदाचार एवं सत्य के प्रतीक हैं तो रावण असत्य एवं दुराचार का प्रतीक है। समाज में सत्पथ के अनुयायी विजयी हों तथा कुपथगामी पराजित हों यही तुलसी की कामना है और यही उन्होंने अपनी रचनाओं में दिखाया है। निश्चय ही तुलसी के काव्य का मूल स्वर लोकमंगलकारी है।

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