रहीम का जन्म 17 दिसंबर 1556 को लाहौर में हुआ था। उनके पिता का नाम बैरम खां और माता का नाम सुल्ताना बेगम था। उनकी पत्नी का नाम महाबानू बेगम था। 1576 में उन्हें गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया गया। मात्र 28 वर्ष की उम्र में अकबर ने उन्हें खानखाना की उपाधि से सम्मानित किया। अकबर के नौ रत्नों में रहीम अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो कलम और तलवार दोनों में पारंगत थे। उनकी मृत्यु 1 अक्टूबर 1627 को हुई।
रहीम के जीवन की अन्य प्रमुख घटनाएँ निम्न हैं:
विषय | विवरण |
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पूरा नाम | अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना |
जन्म | 17 दिसंबर, 1556 ई. |
जन्म स्थान | लाहौर (अब पाकिस्तान में) |
पिता | बैरम ख़ाँ |
माता | सुल्ताना बेगम |
धार्मिक प्रवृत्ति | इस्लाम |
भाषा | हिंदी (अवधी, ब्रजभाषा), फ़ारसी |
कविता शैली | दोहा |
प्रसिद्ध रचनाएँ | रहीम दोहावली, बरवै नायिका भेद, नगर शोभा |
प्रेरणा स्रोत | श्रीकृष्ण भक्ति, भक्ति आंदोलन |
सम्बन्ध | अकबर के नवरत्न |
मृत्यु | 1627 ई. |
विशेष योगदान | भक्ति काल के प्रसिद्ध कवि, नीति और प्रेम पर आधारित दोहों की रचना |
संदेश | मानवता, सदाचार, विनम्रता और प्रेम का प्रचार |
वर्ष | घटना |
1561 ई. | रहीम के पिता की हत्या गुजरात के पाटन नगर में हुई, जिसके बाद उनका पालन-पोषण अकबर ने किया। |
1572 ई. | अकबर ने रहीम को पाटन की जागीर प्रदान की। |
1576 ई. | गुजरात विजय के बाद रहीम को गुजरात का सूबेदार बनाया गया। |
1579 ई. | रहीम को ‘मीर अर्जु’ का पद दिया गया। |
1584 ई. | अकबर ने रहीम को ‘खानखाना’ की उपाधि और पंचहजारी का मनसब प्रदान किया। |
1604 ई. | रहीम को दक्षिण का पूरा प्रशासनिक अधिकार मिला। |
1623 ई. | रहीम ने शाहजहाँ के विद्रोह में उनका साथ दिया। |
1625 ई. | क्षमा मांगने पर रहीम को पुनः ‘खानखाना’ की उपाधि दी गई। |
1626 ई. | 70 वर्ष की आयु में रहीम की मृत्यु हो गई। |
रहीम के दोहे: प्रेम, नीति और जीवन का अद्वितीय संगम
“रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून” ऐसे ही रहीम के दोहे आपने स्कूल या कॉलेज की हिंदी साहित्य की किताबों में जरूर पढ़े होंगे। अब्दुल रहीम खानखाना, जिन्हें रहीम के नाम से जाना जाता है, के दोहे हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। उनकी सरल भाषा, गहरी नीतियां और सौंदर्यपूर्ण शैली उनके दोहों को अनोखा बनाती हैं। रहीम के दोहे जीवन के विभिन्न पहलुओं को सहजता से प्रस्तुत करते हैं। आइए उनके कुछ प्रेरणादायक दोहों पर नजर डालते हैं, जो आज भी जीवन की गहरी सीख देते हैं।
रहीम के 10 दोहे: हिंदी में पढ़ें Rahim Poems
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥
इस दोहे में रहीम दास जी ने पानी शब्द को तीन अलग-अलग अर्थों में प्रयोग किया है। पहला अर्थ विनम्रता का है, जो मनुष्य को श्रेष्ठ बनाता है। दूसरा अर्थ आभा या चमक का है, जो मोती को मूल्यवान बनाती है। तीसरा अर्थ जल का है, जिसके बिना आटा गूंथकर उसकी उपयोगिता नहीं बनती। रहीम का संदेश है कि मनुष्य को भी अपने व्यवहार में सदा विनम्रता रखनी चाहिए, क्योंकि इसके बिना उसका महत्व कम हो जाता है।
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढे अँधेरो होय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि दीये और कुपुत्र का स्वभाव समान होता है। दीया शुरुआत में तेज़ उजाला करता है, लेकिन जैसे-जैसे तेल कम होता है, अंधेरा फैलने लगता है। उसी प्रकार कुपुत्र भी शुरुआत में कुछ अच्छा प्रतीत होता है, परंतु जैसे-जैसे समय बीतता है, वह अपने बुरे कर्मों से परिवार और समाज के लिए अंधकारमय स्थितियां पैदा कर देता है।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय॥
रहीम कहते हैं कि प्रेम के धागे को कभी झटके से मत तोड़ो क्योंकि टूटने के बाद वह दोबारा जुड़ नहीं पाता। अगर जोड़ भी दिया जाए, तो उसमें गांठ पड़ जाती है, जिससे पहले जैसी मधुरता नहीं रहती।
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि॥
रहीम समझाते हैं कि किसी वस्तु की कीमत उसकी उपयोगिता पर निर्भर करती है, न कि उसकी कीमत या आकार पर। जिस कार्य में सूई की ज़रूरत हो, वहाँ तलवार काम नहीं आ सकती। हर वस्तु का अपना विशिष्ट महत्त्व है।
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दिनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।
रहीम कहते हैं कि ग़रीब व्यक्ति सहायता की उम्मीद से सबकी ओर देखता है, लेकिन उसे कोई नहीं देखता। जो व्यक्ति ग़रीब की ओर प्रेम और सहानुभूति से देखता है और उसकी मदद करता है, वह भगवान के समान दयालु माना जाता है।
टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥
सज्जन लोग यदि नाराज़ हो जाएँ तो उन्हें बार-बार मनाना चाहिए, क्योंकि उनके रिश्ते मूल्यवान होते हैं। जैसे टूटी माला के मोतियों को फेंकने के बजाय उन्हें फिर से पिरो लिया जाता है, वैसे ही अच्छे संबंधों को सहेजना चाहिए।
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं॥
रहीम कहते हैं कि भीख माँगना आत्म-सम्मान खोने जैसा है, जो जीते जी मरने के समान है। लेकिन जो व्यक्ति माँगने वाले को सहायता देने से इंकार कर देता है, वह पहले ही मरा हुआ माना जाता है क्योंकि उसमें दया और करुणा का अभाव होता है।
रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ॥
रहीम बताते हैं कि जैसे आँसू आँखों से बहकर दिल का दर्द जाहिर कर देते हैं, वैसे ही जिसे घर से बाहर कर दिया जाता है, वह घर के रहस्य दूसरों के सामने प्रकट कर ही देता है। दुःख और उपेक्षा इंसान को भीतर से तोड़ देते हैं।
दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं॥
रहीम कहते हैं कि कौआ और कोयल देखने में एक जैसे लगते हैं, लेकिन उनकी पहचान उनकी आवाज़ से होती है। वसंत ऋतु में कोयल की मधुर ध्वनि से उनका भेद स्पष्ट हो जाता है। इसी प्रकार, व्यक्ति की पहचान उसके गुण और वाणी से होती है, न कि उसकी बाहरी रूप-रंग से।
समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात॥
रहीम बताते हैं कि हर चीज़ का समय निर्धारित होता है—पेड़ पर फल आने और झड़ने का भी। उसी तरह, मनुष्य की स्थिति भी समय के अनुसार बदलती रहती है। इसलिए दुःख के समय निराश न हों, क्योंकि समय बदलना तय है।
रहीम दास के दोहे अर्थ सहित Rahim ke Dohe
निज कर क्रिया रहीम कहि, सीधी भावी के हाथ।
पांसे अपने हाथ में, दांव न अपने हाथ॥
अर्थ: रहीम कहते हैं कि मनुष्य के हाथ में केवल कर्म करना होता है, लेकिन परिणाम भाग्य के अनुसार मिलता है। जैसे चौपड़ खेलते समय पांसे तो फेंकते हम हैं, लेकिन क्या दांव लगेगा, यह हमारे बस में नहीं होता।
जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घट जाहिं।
गिरधर मुरलीधर कहें, कुछ दुख मानत नाहिं॥
अर्थ: रहीम कहते हैं कि किसी बड़े व्यक्ति को छोटा कहने से उसकी महानता कम नहीं होती। जैसे भगवान श्रीकृष्ण को प्रेम से मुरलीधर कहने पर भी उनकी महिमा में कोई कमी नहीं आती।
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेहंदी को रंग॥
अर्थ: रहीम कहते हैं कि परोपकारी लोग धन्य हैं, क्योंकि उनका जीवन दूसरों की सेवा में बीतता है। जैसे फूल बेचने वाले के हाथों में फूल की खुशबू बस जाती है, वैसे ही परोपकार से उनका जीवन भी खुशबूदार हो जाता है।
रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जीवन में बुरे समय में धैर्य रखना चाहिए और शांत रहकर इंतजार करना चाहिए। यह समय का चक्र है-जैसे ही अच्छे दिन आएंगे, परिस्थिति बदलने में देर नहीं लगेगी।
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि मनुष्य को सोच-समझकर व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि यदि किसी कारण से बात बिगड़ जाए, तो उसे सुधारना कठिन हो जाता है। जैसे एक बार दूध फट जाए तो उसे मथकर मक्खन नहीं निकाला जा सकता।
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग॥
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि अच्छे स्वभाव वाले मनुष्य बुरी संगति में भी अपनी अच्छाई बनाए रखते हैं। जैसे ज़हरीले सांप चंदन के पेड़ से लिपटे रहने पर भी उसकी सुगंध और गुणों को नहीं बिगाड़ सकते।
वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर॥
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि जैसे वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते और नदियाँ अपना जल खुद के लिए नहीं रखतीं, वैसे ही सज्जन पुरुष अपना जीवन हमेशा दूसरों की भलाई और परोपकार के लिए समर्पित कर देते हैं।
खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय॥
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि जैसे खीरे के कड़वेपन को दूर करने के लिए उसका सिरा काटकर नमक से घिसा जाता है, वैसे ही कटु वचन बोलने वाले को कठोर शब्दों का सामना करने से ही सीख मिलती है और उसका व्यवहार सुधरता है।
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि जैसे वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते और तालाब अपना पानी स्वयं नहीं पीता, उसी तरह सज्जन व्यक्ति भी अपने अर्जित धन और संसाधनों का उपयोग सदैव दूसरों के हित में करते हैं। उनका जीवन परोपकार के लिए ही होता है।
रहिमन मनहि लगाईं कै, देख लेहूँ किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायण बस होय॥
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि मन की एकाग्रता से किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त की जा सकती है। जैसे मनुष्य यदि सच्चे मन से ईश्वर को पुकारे, तो वह ईश्वर को भी अपने वश में कर सकता है। मन की दृढ़ता ही हर सफलता की कुंजी है।
रहीम दास के दोहे हिन्दी में अर्थ सहित
रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय॥
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि विपत्ति के समय में ही सच्चे मित्र और शुभचिंतक पहचाने जाते हैं। कठिनाइयों के बीच जो आपके साथ खड़े रहें, वही आपके वास्तविक हितैषी होते हैं। विपत्ति हमें सच्चाई को पहचानने का अवसर प्रदान करती है।
रहिमन नीर पखान, बूड़े पै सीझै नहीं।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं॥
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि जैसे पत्थर पानी में डूबा होने के बावजूद भी नरम नहीं होता, वैसे ही अज्ञानी व्यक्ति को कितना भी ज्ञान दिया जाए, वह उसकी बुद्धि में नहीं समा पाता। मूर्खता का त्याग किए बिना समझ विकसित नहीं हो सकती।
राम न जाते हरिन संग से न रावण साथ।
जो रहीम भावी कतहूँ होत आपने हाथ॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जो होना तय है, उसे कोई नहीं रोक सकता। अगर होनी पर नियंत्रण होता, तो राम सोने के हिरण के पीछे न जाते और सीता का हरण भी न होता। यह दोहा सिखाता है कि नियति के आगे मनुष्य विवश होता है।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि एक समय में केवल एक कार्य पर ध्यान देना चाहिए। यदि एक साथ कई लक्ष्यों को पाने की कोशिश करेंगे, तो सफलता नहीं मिलेगी। जैसे पौधे की जड़ में पानी देने से ही वह फूल-फल देता है, उसी तरह एकाग्रता से कार्य करने पर ही सफलता मिलती है।
रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि अपने दुखों को अपने तक ही सीमित रखना चाहिए, क्योंकि संसार में लोग सहानुभूति देने के बजाय दूसरों के दुख का मजाक उड़ाने में अधिक रुचि रखते हैं। अपने कष्टों को छिपाकर सहन करना ही बुद्धिमानी है।
छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि बड़े व्यक्ति का गुण क्षमाशीलता में होता है। छोटे लोग यदि अनुचित व्यवहार करें भी, तो बड़े व्यक्ति को क्षमा करना चाहिए। जैसे भृगु द्वारा लात मारे जाने पर भी भगवान विष्णु मुस्कराते रहे, उनकी महानता में कोई कमी नहीं आई।
रहिमन कुटिल कुठार ज्यों करि डारत द्वै टूक।
चतुरन को कसकत रहे समय चूक की हूक॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि कटु वचन कुल्हाड़ी की तरह होते हैं, जो रिश्तों को तोड़ देते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति कठिन परिस्थिति में भी शांत रहता है और कड़वी बातें कहने से बचता है, क्योंकि सही समय पर दिया गया उत्तर ही सबसे उपयुक्त होता है।
धन दारा अरू सुतन सों लग्यों है नित चित्त।
नहि रहीम कोउ लरवयो गाढे दिन को मित्त॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि मनुष्य को अपना मन हमेशा धन, संतान और सामर्थ्य में नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि ये सब संकट के समय साथ नहीं देते। ईश्वर का ध्यान ही एकमात्र सहारा है, जो हर विपत्ति में मदद करता है।
पुरूस पूजै देबरा तिय पूजै रघुनाथ।
कहि रहीम दोउन बने पड़ो बैल के साथ।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि पति-पत्नी के अलग-अलग विश्वास और पूजा-पद्धतियां होने से गृहस्थ जीवन में तालमेल बैठाना मुश्किल हो जाता है। गृहस्थ जीवन तभी सुखमय होता है जब दोनों के विचार और व्यवहार में संतुलन हो और वे एक-दूसरे के विश्वास का सम्मान करें।
आदर घटे नरेस ढिग बसे रहे कछु नाॅहि।
जो रहीम कोरिन मिले धिक जीवन जग माॅहि॥
अर्थ: रहीम कहते हैं कि जहां व्यक्ति को मान-सम्मान और आदर न मिले, वहां रहना उचित नहीं है। यदि राजा भी आपके साथ आदरपूर्वक व्यवहार न करे, तो वहां अधिक समय तक नहीं रुकना चाहिए। चाहे करोड़ों रुपए भी मिल जाएं, लेकिन सम्मान के बिना वह धन तिरस्कार के समान है।
रहीम के दोहे व्याख्या सहित
विरह रूप धन तम भये अवधि आस ईधोत।
ज्यों रहीम भादों निसा चमकि जात खद्योत॥
अर्थ: रहीम दास कहते हैं कि रात का घना अंधकार वियोग की पीड़ा को और गहरा कर देता है। लेकिन भादो मास में ऐसा नहीं होता, क्योंकि जुगनू अपने प्रकाश से अंधकार में भी आशा और उम्मीद का संचार करते हैं।
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन॥
अर्थ: रहीम दास कहते हैं कि वर्षा ऋतु में कोयल और गुणवान व्यक्ति मौन हो जाते हैं, और मेंढक जैसे वाचाल व्यक्ति बोलने लगते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कुछ अवसरों पर गुणवान व्यक्ति की कोई सुनवाई नहीं होती, जबकि निर्गुण और शोर करने वालों का बोलबाला हो जाता है।
मन मोटी अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो न मिले, कोटिन करो उपाय॥
अर्थ: रहीम दास कहते हैं कि मन, मोती, फूल, दूध और रस जैसे कोमल चीजें जब तक सामान्य रहती हैं, सुंदर और मूल्यवान लगती हैं। लेकिन यदि एक बार इनमें विकार आ जाए या यह फट जाएं, तो इन्हें लाख प्रयास करने पर भी पहले जैसा नहीं बनाया जा सकता।
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥
अर्थ: इस दोहे में रहीम दास जी ने मछली और जल के गहरे प्रेम को दर्शाया है। जब मछली को पकड़ने के लिए जाल डाला जाता है, जल तुरंत जाल से छूट जाता है, लेकिन मछली जल से अलग होते ही तड़पकर अपने प्राण त्याग देती है। यह उदाहरण गहरे प्रेम और बिछोह की वेदना को समझाने के लिए दिया गया है।
विपति भये धन ना रहै रहै जो लाख करोर।
नभ तारे छिपि जात हैं ज्यों रहीम ये भोर॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जैसे रात में आकाश में असंख्य तारे चमकते हैं, लेकिन सवेरा होते ही वे अदृश्य हो जाते हैं, उसी प्रकार विपत्ति आने पर धन भी साथ नहीं देता। चाहे व्यक्ति के पास कितना भी धन हो, संकट आने पर सब नष्ट हो जाता है।
ओछे को सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि ओछे या नीच मनुष्य का संग हमेशा हानिकारक होता है। जैसे जलता हुआ अंगार जलाता है और ठंडा हो जाने पर भी कालिख लगा देता है, उसी प्रकार नीच व्यक्ति हर स्थिति में नुकसान ही पहुँचाता है।
रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँती विपरीत।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि गिरे हुए या नीच स्वभाव के लोगों से न मित्रता अच्छी होती है और न ही शत्रुता। यह वैसे ही है जैसे कुत्ता चाहे काटे या चाटे, दोनों ही परिस्थितियाँ हानिकारक और अनुचित होती हैं।
समय लाभ सम लाभ नहि समय चूक सम चूक।
चतुरन चित रहिमन लगी समय चूक की हूक॥
अर्थ: रहीम दास जी बताते हैं कि समय से बड़ा लाभप्रद कुछ नहीं होता और समय चूकने से बड़ी कोई भूल नहीं होती। समझदार व्यक्ति यदि समय चूक जाए तो यह उसके मन में शूल की तरह चुभता है। सही समय पर अवसरों का उपयोग करने वाला ही जीवन में सफल होता है।
जेहि अंचल दीपक दुरयो हन्यो सो ताही गात।
रहिमन असमय के परे मित्र शत्रु ह्वै जात॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जैसे एक महिला अपने आँचल से दीपक की लौ को तेज हवा से बचाती है, लेकिन सोते समय उसी आँचल से लौ को बुझा भी देती है। इसी तरह, बुरे समय में मित्र भी शत्रु बन सकते हैं।
मांगे मुकरि न को गयो केहि न त्यागियो साथ।
मांगत आगे सुख लहयो ते रहीम रघुनाथ॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि वर्तमान समय में कोई भी व्यक्ति किसी के मांगने पर उसकी सहायता नहीं करता। लोग अपनी आवश्यक वस्तुएं देने से मुकर जाते हैं। केवल ईश्वर ही ऐसे हैं जो मांगने पर प्रसन्न होते हैं और निकटता स्थापित करते हैं।
रहीम Poems in Hindi
अब रहीम मुसकिल परी गाढे दोउ काम।
सांचे से तो जग नहीं झूठे मिलै न राम॥
अर्थ: इस दोहे में रहीम दास जी कहते हैं कि वर्तमान समय में सच्चाई के मार्ग पर चलना अत्यंत कठिन हो गया है। भौतिकता और अध्यात्म का संतुलन साधना आसान नहीं है। यदि व्यक्ति कठिनाइयों के समय झूठ को अपनाता है, तो वह ईश्वर की कृपा से वंचित रह जाता है।
धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय॥
अर्थ: रहीम दास जी इस दोहे में बताते हैं कि कीचड़ का पानी भी धन्य है, क्योंकि वह छोटे जीवों की प्यास बुझा सकता है। इसके विपरीत, समुद्र में अपार जल होते हुए भी किसी की प्यास नहीं बुझा सकता। यह उन लोगों की ओर इशारा करता है जो कम संसाधनों के बावजूद उदारता से मदद करते हैं, जबकि कुछ लोग अपनी संपन्नता के बावजूद किसी की सहायता नहीं करते।
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कुछ नहीं चाहिए, वे साहन के साह।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति इच्छाओं और लालसाओं से मुक्त हो जाता है, वह सच्चा राजा है। ऐसे व्यक्ति को न तो किसी वस्तु की चाह होती है और न ही किसी प्रकार की चिंता। उनका मन हर प्रकार की इच्छाओं और मोह-माया से मुक्त होकर पूरी तरह बेफिक्र रहता है। यही सच्ची आत्मनिर्भरता और आंतरिक शांति का प्रतीक है।
लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार जा।
हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि तलवार को उसकी बनावट या धातु के आधार पर नहीं आंका जाता, बल्कि उसकी पहचान उस वीर योद्धा से होती है जो अपनी वीरता से शत्रु का संहार करता है। यानि, किसी वस्तु की महत्ता उसके उपयोगकर्ता के गुणों और कर्मों से तय होती है।
जे सुलगे ते बुझि गये बुझे तो सुलगे नाहि।
रहिमन दाहे प्रेम के बुझि बुझि के सुलगाहि॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि साधारण आग जब बुझ जाती है, तो वह दोबारा सुलग नहीं सकती। लेकिन प्रेम की आग ऐसी होती है, जो बुझने के बाद भी पुनः जल उठती है। भक्तजन इसी प्रेमाग्नि में निरंतर तपते रहते हैं, क्योंकि उनका प्रेम ईश्वर के प्रति अमर और अटूट होता है।
तासों ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि हमें उसी से कुछ मांगना चाहिए, जो देने में सक्षम हो। जो व्यक्ति देने में असमर्थ है, उससे कुछ मांगने का कोई लाभ नहीं, जैसे सूखे तालाब से पानी की आशा करना व्यर्थ है।
माह मास लहि टेसुआ मीन परे थल और।
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि माघ मास में टेसू वृक्ष और पानी से बाहर आई मछली की दशा बिगड़ जाती है। इसी तरह, संसार में यदि कोई वस्तु या व्यक्ति अपने उचित स्थान से अलग हो जाए, तो उसकी स्थिति भी खराब हो जाती है, जैसे मछली जल के बिना जीवित नहीं रह सकती।
धनि रहीम गति मीन की जल बिछुरत जिय जाय।
जियत कंज तजि अनत वसि कहा भौरे को भाय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि मछली का प्रेम सच्चा और त्यागपूर्ण होता है, क्योंकि जल से बिछुड़ते ही वह अपने प्राण त्याग देती है। इसके विपरीत, भौंरा केवल स्वार्थी प्रेम करता है, एक फूल का रस लेकर तुरंत दूसरे फूल पर चला जाता है। सच्चा प्रेम वही है जो निस्वार्थ और अटूट हो, जबकि स्वार्थ से भरा प्रेम केवल छलावा होता है।
थोथे बादर क्वार के, ज्यों ‘रहीम’ घहरात।
धनी पुरुष निर्धन भये, करैं पाछिली बात॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जिस प्रकार क्वार/आश्विन के महीने में बादल केवल गर्जना करते हैं लेकिन वर्षा नहीं होती, उसी प्रकार जब कोई अमीर व्यक्ति निर्धन हो जाता है, तो उसकी बातें केवल दिखावे की होती हैं, जिनका कोई वास्तविक महत्व नहीं होता।
संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों रहीम ससि रहत है दिवस अकासहि माहिं॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जैसे चंद्रमा दिन में होते हुए भी आभाहीन और अदृश्य हो जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति बुरी आदतों या गलत मार्ग पर चल पड़ता है, वह अपने वास्तविक सुख और प्रतिष्ठा को खो देता है और संसार की दृष्टि से ओझल हो जाता है।
रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि घड़े और रस्सी का उदाहरण सराहनीय है। वे अपने टूटने या फूटने की चिंता किए बिना पानी खींचने का कार्य करते हैं। यदि मनुष्य भी इनकी तरह निस्वार्थ होकर दूसरों की भलाई में लगे रहें, तो समाज का कल्याण सुनिश्चित हो सकता है।
जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह॥
अर्थ: रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार धरती सर्दी, गर्मी और वर्षा को धैर्यपूर्वक सहन करती है, उसी प्रकार मनुष्य को भी अपने शरीर पर आने वाले सुख-दुःख को सहन करना चाहिए। सहनशीलता जीवन का महत्वपूर्ण गुण है।
वरू रहीम कानन भल्यो वास करिय फल भोग।
बंधू मध्य धनहीन ह्वै, बसिबो उचित न योग॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि निर्धन व्यक्ति को अपने स्वजनों के बीच रहकर अपमानित होने से बचना चाहिए। इससे बेहतर है कि वह जंगल में जाकर शांतिपूर्वक फलों का सेवन करे और आत्मसम्मान के साथ जीवन व्यतीत करे।
साधु सराहै साधुता, जाती जोखिता जान।
रहिमन सांचे सूर को बैरी कराइ बखान॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि साधु सज्जन व्यक्ति की सराहना करता है और योगी योग का गुणगान करता है। परंतु सच्चे वीरों की महानता ऐसी होती है कि उनकी प्रशंसा उनके शत्रु भी करने से नहीं चूकते।
एकहि साधै सब सधैए, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहि सींचबोए, फूलहि फलहि अघाय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि एक को साधने से सभी सध जाते हैं, जबकि सभी को साधने का प्रयास करने पर नुकसान होने की संभावना रहती है। जैसे पौधे की जड़ को पानी देने से फूल-फल सभी तृप्त हो जाते हैं, उन्हें अलग से सींचने की आवश्यकता नहीं होती।
मथत-मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय।
‘रहिमन’ सोई मीत है, भीर परे ठहराय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि सच्चा मित्र वही होता है, जो कठिन समय में भी साथ निभाता है। वह मित्र किसी काम का नहीं, जो विपत्ति में दूर हो जाए। जैसे मथने पर मक्खन दही से निकल आता है, लेकिन मट्ठा दही का साथ छोड़ देता है।
खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि संसार में कुछ चीजें ऐसी हैं जिन्हें चाहे जितना छुपाने की कोशिश की जाए, वे छुपाई नहीं जा सकतीं। खैरियत (हाल-चाल), खून, खाँसी, खुशी, दुश्मनी, प्रेम और शराब का नशा ऐसे ही सात तत्व हैं, जो अंततः प्रकट हो ही जाते हैं।
जो रहीम ओछो बढै, तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ों जाय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जब लोग जीवन में थोड़ा सा भी सफल होते हैं, तो वे अक्सर घमंड में आकर दिखावटी और टेढ़ा व्यवहार करने लगते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे शतरंज के खेल में जब कोई अधिक फ़र्जी (रानी) पा लेता है, तो वह असामान्य चालें चलने लगता है।
जे गरीब पर हित करे, ते रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरी, कृष्ण मितायी जोग॥
अर्थ: रहीम दास जी के अनुसार, जो व्यक्ति गरीबों और जरूरतमंदों का भला करते हैं, वही सच्चे महान लोग होते हैं। यह उसी प्रकार है जैसे सुदामा ने कृष्ण से मित्रता को साधना और प्रेम का प्रतीक माना। उनकी मित्रता निःस्वार्थ और आदर्शपूर्ण थी, जो सच्चे संबंधों की गहराई और पवित्रता को दर्शाती है।
बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोलैं बोल।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल॥
रहीम कहते हैं कि सच्चा बड़प्पन वही है जो अपनी प्रशंसा स्वयं न करे। जैसे हीरा अपनी क़ीमत जानता है, लेकिन अपनी क़ीमती होने का ढिंढोरा नहीं पीटता। महानता विनम्रता में ही छिपी होती है।
बड़े काम ओछो करै, तो न बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरिधर कहे न कोय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति छोटे उद्देश्य के लिए बड़ा कार्य करता है, तो उसकी प्रशंसा नहीं होती। उदाहरणस्वरूप, हनुमान जी ने धोलागिरी उठाया था, लेकिन उसे नुकसान पहुंचाने के कारण उनका नाम ‘गिरिधर’ नहीं पड़ा। दूसरी ओर, श्री कृष्ण ने जब गोवर्धन पर्वत को सभी की रक्षा के लिए उठाया, तो उनकी महानता के कारण उन्हें ‘गिरिधर’ कहा गया। अर्थात्, सच्ची प्रशंसा तभी होती है, जब कार्य जनहित और कल्याण के लिए हो।
कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति।
बिपति-कसौटी जे कसे, तेही साँचे मीत ॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि धन-सम्पत्ति होने पर कई लोग अपने सगे-संबंधी या मित्र बन जाते हैं, लेकिन असली मित्र की पहचान संकट के समय होती है। जिस प्रकार सोने की परख कसौटी पर घिसकर की जाती है, उसी तरह विपत्ति की कसौटी पर जो मित्र हर हाल में साथ निभाए, वही सच्चा मित्र कहलाता है। इसलिए, सच्चे मित्रों की पहचान उनके कठिन समय में साथ देने के गुण से होती है।
प्रीतम छबि नैनन बसी, पर-छबि कहां समाय।
भरी सराय ‘रहीम’ लखि, पथिक आप फिर जाय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जिन आँखों में प्रियतम की सुंदर छवि बस गई हो, वहां किसी और छवि के लिए स्थान नहीं बचता। जैसे कोई सराय पहले से भरी हो, तो नया पथिक वहां से खुद-ब-खुद लौट जाता है। इसी प्रकार, सच्चा प्रेम जब मन में बस जाता है, तो अन्य कोई आकर्षण या मोह वहां टिक नहीं सकता।
कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदें अपनी प्रकृति नहीं बदलतीं, परंतु जिस स्थान पर गिरती हैं, उसका स्वभाव ले लेती हैं। केले पर पड़कर वह कपूर बन जाती हैं, सीप में गिरकर मोती बनती हैं और साँप के मुख में पड़कर विष बन जाती हैं। इसका आशय है कि व्यक्ति का स्वभाव और विकास उसके संगति और परिवेश पर निर्भर करता है।
यों रहीम सुख होत है, बढ़त देख निज गोत।
ज्यों बड़री अँखियाँ निरखि, ऑखिन को सुख होत॥
अर्थ: रहीम जी इस दोहे में कहते हैं कि जब मनुष्य अपने वंश को बढ़ते हुए देखता है, तो उसे अत्यधिक हर्ष और आनंद की अनुभूति होती है। यह सुख वैसा ही होता है जैसे बड़ी और सुंदर आंखों को देखकर नेत्रों को अत्यंत प्रसन्नता मिलती है। इसका तात्पर्य यह है कि अपने वंश या संतानों की उन्नति देखकर मनुष्य को गर्व और आत्मिक सुख की अनुभूति होती है।
यों ‘रहीम’ सुख दु:ख सहत, बड़े लोग सह सांति ।
उवत चंद जेहिं भाँति सों, अथवत ताही भाँति॥
अर्थ: बड़े और महान व्यक्ति जीवन में आने वाले सुख और दुःख दोनों को समान रूप से सहन करते हैं। वे न तो सुख मिलने पर अहंकारी या उत्साहित होते हैं और न ही दुःख आने पर घबराते या विचलित होते हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे चन्द्रमा अपने समय पर उदय होता है और समय आने पर शांतिपूर्वक अस्त भी हो जाता है। इस दोहे में संतुलित जीवन जीने और हर परिस्थिति में धैर्य रखने की शिक्षा दी गई है।
पढ़ें: कबीर दास के दोहे।