‘मास्लो का पिरामिड’ अब्राहम मास्लो द्वारा प्रतिपादित एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है जो उन्होने ‘A Theory of Human Motivation‘ नामक अपने ग्रन्थ में 1954 में प्रस्तुत किया था। मैसलो वह प्रथम मनोवैज्ञानिक है, जिसने आत्मसिद्धि प्रत्यय का अध्ययन किया। मास्लो के सिद्धान्त न केवल मनोविज्ञान के क्षेत्र में, बल्कि अध्यापन के क्षेत्र में भी प्रसिद्ध हुए। मनुष्य की आवश्यकताएं असीमित हैं अपने इस सिद्धान्त में मास्लो ने मानव आवश्यकताओं के कई स्तर बताये हैं।
मास्लो का पिरामिड
मास्लो के पिरामिड में आधारभूत प्रथम आवश्यकता शारीरिक आवश्यकताएँ हैं। प्रत्येक वर्ग की आवश्यकताओं के जीवन में महत्त्व का दिग्दर्शन इस पिरामिड में उतने ही क्षेत्रफल द्वारा दर्शाया गया है अर्थात् जीवन में सर्वाधिक महत्त्व शारीरिक आवश्यकताओं का है; जैसे- भोजन तथा पानी आदि। अत: प्रथम वर्ग की शारीरिक आवश्यकताओं का क्षेत्रफल सर्वाधिक दिखलाया गया है।
मास्लो के अनुसार, प्रथम प्रकार की आवश्यकता की पूर्ति के उपरान्त दूसरे प्रकार की आवश्यकताएँ अभिप्रेरित करने लगती हैं। इसी प्रकार द्वितीय आवश्यकता के पश्चात् तीसरे प्रकार की आदि।
इसी क्रम में एक के पश्चात् दूसरे वर्ग की आवश्यकताएँ व्यक्ति को अपेक्षित दिशा में कार्य करने को अभिप्रेरित करती हैं परन्तु कुछ व्यक्तियों में कोई विशेष आवश्यकता इतनी बलवती हो जाती है कि आवश्यकताओं के क्रम को छोड़कर व्यक्ति उसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु कार्य करने लगता है।
उदाहरण के लिये, मास्लो ने भारत के योगियों एवं साधकों की चर्चा की है, जिनमें पंचम् आवश्यकता अर्थात् आत्मसाक्षात्कार (Self-actualization) की आवश्यकता इतनी बलवती होती है कि वे इसके पूर्व की प्रथम से चतुर्थ (1-4) प्रकार की आवश्यकताओं को त्यागकर सीधे आत्म-वास्तवीकरण (Self-actualization) के लिये साधना करते हैं किन्तु ये अपवाद (Exceptions) है।
सामान्यतया आवश्यकताओं के फलस्वरूप प्रेरणा उसी क्रम में होती है, जिस क्रम में मास्लो ने पिरामिड में दिखाया है। मास्लो के अनुसार, उच्च आवश्यकताओं की अपेक्षा निम्न कोटि की आवश्यकताओं की पूर्ति अधिक होती है।
मानव आवश्यकताएँ
अभाव आवश्यकताएँ (Deficiency Needs, D-needs)
- प्रथम आवश्यकता – शारीरिक आवश्यकता (First Need – Physical Need)
- द्वितीय आवश्यकता – सुरक्षा आवश्यकता (Second Need – Safety Need)
- तृतीय आवश्यकता – अपनत्व एवं प्यार की आवश्यकता (Third Need – Love and Belongingness)
- चतुर्थ आवश्यकता – सम्मान की आवश्यकता (Fourth Need – Esteem Need)
अभिवृद्धि की आवश्यकताएँ अथवा आत्म विकास एवं आत्म-वास्तवीकरण की आवश्यकताएँ (Growth needs, meta needs, being needs and B-needs)
- पंचम आवश्यकता – आत्म-वास्तवीकरण (Fifth Need – Self-Actualization)
- छठी आवश्यकता – ज्ञान और समझ (Sixth Need – Knowledge and Understanding)
- सातवीं आवश्यकता – सौन्दर्य आवश्यकताएँ (Seventh Need – Aesthetic Needs)
मास्लो के अनुसार आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु परिस्थितियाँ
The Preconditions for Basic Need Satisfaction According to Maslow
आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु परिस्थितियों को मास्लो के अनुसार निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है –
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आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये बोलने की, ज्ञान की, सूचनाएँ प्राप्त करने की, स्वयं बचाव की तथा न्याय, निष्पक्षता, ईमानदारी एवं व्यवस्था की स्वतन्त्रता होनी चाहिये। ज्ञानात्मक क्षमताओं-प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी, बौद्धिक एवं अधिगम सम्बन्धी के प्रति यदि किसी प्रकार का खतरा होता है या उनके स्वतन्त्र प्रयोग में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न होती है तब भी अप्रत्यक्ष रूप से आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा उत्पन्न होती है।
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ऐसे कार्य जो आधारभूत आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में प्रत्यक्ष रूप से योगदान करते हैं, मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। ज्ञान प्राप्त करना तथा व्यवस्थित करना, खोज करने की तथा अभिव्यक्ति करने की स्वतन्त्रता आधारभूत आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ हैं।
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चिन्ता एवं डर ज्ञानात्मक आवश्यकताओं के नकारात्मक निर्धारक हैं। उत्सुकता की सन्तुष्टि, जानकारी प्राप्त करना, समझना तथा व्याख्या करना सकारात्मक निर्धारक है। अनेक व्यक्तियों में खोज करने की, ज्ञान प्राप्त करने एवं ब्रह्माण्ड के रहस्य को समझने की इतनी बलवती प्रवृत्ति होती है कि वे खतरों से खेल कर भी इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये अभिप्रेरित रहते हैं।
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यदि ज्ञानात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा आती है तो मनोजन्य विकार उत्पन्न होते हैं। प्रखर बुद्धि के व्यक्तियों को यदि बौद्धिक कार्य न मिले तो उनमें उदासीनता या वैराग्य (Apathy) पैदा होता है। शिशु अवस्था के उत्तरार्ध एवं बाल्यावस्था में ज्ञानात्मक आवश्यकताएँ अत्यधिक होती हैं।
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जहाँ तक आवश्यकताओं की पदानुक्रम का प्रश्न है तो इनका कोई दृढ़ क्रम नहीं है। कुछ व्यक्तियों में आत्मसम्मान प्रेम से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है किन्तु यह आत्मसम्मान प्रेम रूप साध्य का साधन मात्र होता है। कुछ व्यक्तियों में सृजनात्मकता इतनी प्रबल होती है कि वे आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में भी आत्मवास्तवीकरण के प्रति प्रयत्नशील रहते हैं।
कुछ व्यक्तियों में आकांक्षा का स्तर स्थायी रूप से विलीन-सा हो जाता है। जीवन की प्रारम्भिक अवस्थाओं में जब व्यक्ति को प्रेम की भूख होती है। यदि उसे प्रेम न मिले तो उनमें प्रेम की इच्छा ही मर जाती है।
आत्म-वास्तवीकरण के सिद्धान्त का शैक्षिक महत्त्व
Educational Significance of the Theory of Self-Actualization
मास्लो द्वारा प्रतिपादित आवश्यकताओं के पदानुक्रम का महत्त्व आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ही नहीं है, इनका महत्त्व व्यवहार के विश्लेषण में भी है। आवश्यकताओं का पदानुक्रम छात्रों के व्यवहार के कारणों के विश्लेषण का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है।
छात्र सीखने या किसी कार्य के लिये प्रेरित क्यों नहीं होते? इसका कारण पूर्व आधारभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति है। अत: आत्म-वास्तविकता के सिद्धान्त के शैक्षिक महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
1. शारीरिक आवश्यकताएँ एवं शिक्षा (Physiological needs and education)
छात्रों की शारीरिक आवश्यकताओं की जानकारी हेतु उनके घर, परिवार तथा सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति से अध्यापकों को परिचित होना चाहिये। इस दिशा में प्राथमिक विद्यालयों में मध्याह्न भोजन की योजना बहुत लाभकारी है।
इस योजना के फलस्वरूप छात्रों की उपस्थिति में लगभग 10 प्रतिशत वृद्धि हो जाती है।
इस प्रकार निम्न स्तर की आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने से छात्रों में उच्च स्तरीय प्रेरक उत्पन्न होते हैं तथा निम्न स्तरीय आवश्यकताओं का महत्त्व कम हो जाता है।
2. सुरक्षा की आवश्यकता एवं शिक्षा (Safety needs and education)
छात्रों को शारीरिक दण्ड देना उनके विकास में नकारात्मक कारक है। भय की उपस्थिति में अभिप्रेरणा का अभाव रहता है। अतः नकारात्मक कारकों से छात्रों को बचाना चाहिये। इसके फलस्वरूप सीखने की क्षमता में वृद्धि होती है।
छात्रों को अनेक प्रकार के भय प्रसित करते रहते हैं; जैसे कक्षा-भय, भीड़ वाली सड़क या बीहड़ मार्गों का भय तथा छात्रों के बीच संघर्ष का भय आदि।
अतः बालकों को सभी प्रकार के मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक भय से मुक्त करके उनको सीखने के प्रति अभिप्रेरित किया जाना चाहिये।
अध्यापक को कक्षा में एक स्वस्थ एवं मधुर वातावरण पैदा करना चाहिये। छात्रों की सम्बद्धता को बढ़ाना चाहिये। प्रेम, सहानुभूति, स्नेह तथा सहयोग का वातावरण छात्रों को सीखने के लिये अभिप्रेरित करता है।
अत: अध्यापक का व्यवहार छात्रों के प्रति प्रेम, स्नेह एवं सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिये। छात्रों को सामान्य भय से दूर करने के लिये तथा उनका साहस बढ़ाने के लिये ‘फायर ड्रिल (Fire Drill)’ उपयोगी है। आपातकाल में अपेक्षित व्यवहारों का अभ्यास कराना भी सुरक्षा-भावना में सहायक है।
3. सम्मान की आवश्यकता एवं शिक्षा (Esteem need and education)
छात्रों को सफलता की अनुभूति अधिक सीखने के लिये अभिप्रेरित करती है। अत: छात्रों को वैयक्तिक विभिन्नता के आधार पर विभिन्न प्रकार के कार्य दिये जायें।
छात्रों की क्षमता, अभिरुचि एवं अभिक्षमता पर आधारित कार्य में उन्हें सफलता मिलती है तथा वे अधिक सीखने को अभिप्रेरित होते हैं।
छात्रों की वैयक्तिकता को ध्यान में रखते हुए उनकी विशेषताओं को पहचानने का प्रयत्न किया जाये तथा उसका सम्मान किया जाये। पढ़ने-लिखने में प्रखर छात्रों को ही नहीं बल्कि विभिन्न पाठ्योत्तर क्रियाओं में भी छात्रों की प्रतिभा को पहचानकर प्रत्येक छात्र के अन्दर छिपी विशिष्टताओं का सम्मान किया जाये।
यदि छात्रों के आत्मसम्मान की आवश्यकता की पूर्ति घर एवं विद्यालय में नहीं होती तो सम्भव है वे किसी बुरी संगत में पड़कर अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति करें।
4. आत्म-वास्तवीकरण एवं ज्ञानात्मक आवश्यकताएँ तथा शिक्षा (Need for selfactualization knowledge and understanding and education)
छात्रों की वैयक्तिकता विकसित करने के लिये वैयक्तिक शिक्षा (Individualized instruction) के प्रति भी अध्यापक वर्ग सजग रहें। स्वच्छन्द कक्षा कक्ष का वातावरण बनाया जाये, वर्ग विहीन विद्यालयों की स्थापना की जाये। छात्रों को नये-नये क्षेत्रों में उनकी अभिरुचि के अनुकूल, खोज करने की तथा ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा प्रदान की जाये।
महान् वैज्ञानिकों, दार्शनिकों तथा महापुरुषों की जीवनियों के माध्यम से उनमें कुछ अद्वितीय उपलब्धि के प्रति आकर्षण पैदा किया जाये।