धर्मवीर भारती (Dharmvir Bharti) का जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, कवि परिचय एवं भाषा शैली और उनकी प्रमुख रचनाएँ एवं कृतियाँ। धर्मवीर भारती का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय नीचे दिया गया है।
Dharmvir Bharti Biography / Dharmvir Bharti Jeevan Parichay / Dharmvir Bharti Jivan Parichay / धर्मवीर भारती :
नाम | धर्मवीर भारती |
जन्म | 25 दिसम्बर, 1926 |
जन्मस्थान | प्रयागराज, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 4 सितम्बर,1997 |
मृत्युस्थान | मुम्बई |
पेशा | लेखक, पत्रकार |
माता | चंदादेवी |
पिता | चिरंजीव लाल वर्मा |
पुत्र | किंशुक भारती |
पुत्री | परमिता, प्रज्ञा भारती |
प्रमुख रचनाएँ | गुनाहों का देवता, सूरज का सातवाँ घोड़ा, अंधा-युग, कनुप्रिया, ठण्डा लोहा, अन्धा-युग सात गीत वर्ष, नदी प्यासी थी, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय, पश्यन्ती, चाँद और टूटे हुए लोग |
भाषा | परिमार्जित खड़ीबोली; मुहावरों, लोकोक्तियों, देशज तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग |
शैली | भावात्मक, वर्णनात्मक, शब्द चित्रात्मक आलोचनात्मक हास्य व्यंग्यात्मक |
साहित्य काल | आधुनिक काल |
विधाएं | निबंध, काव्य, कहानी, एकाँकी, आलोचना, नाटक |
साहित्य में स्थान | एक उत्तम निबन्धकार, उपन्यासकार, कवि और सर्वश्रेष्ठ नाटककार |
सम्पादन | धर्मयुग सप्ताहिक पत्रिका |
पुरस्कार | पद्मश्री, हल्दीघाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार (1984), व्यास सम्मान, सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरुषकार संगीत नाटक अकादमी दिल्ली (1981), भारत भारती पुरस्कार (1989), महाराष्ट्र गौरव (1994) |
धर्मवीर भारती का जीवन परिचय
महान् गद्य-लेखक एवं उच्चकोटि के पत्रकार डॉ० धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1926 को इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम०ए० और पी०एच०डी० की उपाधियाँ प्राप्त की। उन्होंने कुछ वर्षों तक वहीं से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र ‘संगम’ का संपादन किया।
धर्मवीर भारती इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में प्राध्यापक भी रहे। सन् 1959 में वे मुम्बई से प्रकाशित होनेवाले हिन्दी के प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र ‘धर्मयुग’ के सम्पादक बने। सन् 1972 में धर्मवीर भारती को भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ की उपाधि से विभूषित किया। 4 सितम्बर, सन् 1997 में उनका निधन हो गया।
धर्मवीर भारती प्रतिभाशाली कवि, कथाकार व नाटककार थे। उनकी कविताओं में रागतत्त्व की रमणीयता के साथ बौद्धिक उत्कर्ष की छटा दर्शनीय है। कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं को उठाते हुए बड़े ही जीवन्त चरित्र अंकित किए हैं। भारती जी में समाज की विद्रूपता पर व्यंग्य करने की विलक्षण क्षमता थी।
रचनाएँ
धर्मवीर भारती जी के लगभग 20 ग्रन्थ प्रकाशित हुए, जिनमें ‘कनुप्रिया’, ‘ठण्डा लोहा’, ‘अन्धा-युग’ और ‘सात गीत वर्ष’ (काव्य); ‘गुनाहों का देवता’, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ (उपन्यास); ‘नदी प्यासी थी (नाटक); ‘कहनी-अनकहनी’, ‘ठेले पर हिमालय’, ‘पश्यन्ती’ (निबन्ध-संग्रह); ‘चाँद और टूटे हुए लोग (कहानी-संग्रह) तथा ‘देशान्तर’ (अनुवाद) आदि उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।
- धर्मवीर भारती की कहानी संग्रह: मुर्दों का गाँव 1946, स्वर्ग और पृथ्वी 1949 , चाँद और टूटे हुए लोग 1955, बंद गली का आखिरी मकान 1969, साँस की कलम से, समस्त कहानियाँ एक साथ।
- धर्मवीर भारती के काव्य: ठंडा लोहा(1952), सात गीत वर्ष(1959), कनुप्रिया(1959) सपना अभी भी(1993), आद्यन्त(1999),देशांतर(1960)
- धर्मवीर भारती के उपन्यास: गुनाहों का देवता 1949, सूरज का सातवां घोड़ा 1952, ग्यारह सपनों का देश, प्रारंभ व समापन।
- धर्मवीर भारती के निबंध: ठेले पर हिमालय (1958ई०),पश्यन्ती (1969ई०),कहनी-अनकहनी (1970 ई०),कुछ चेहरे कुछ चिन्तन (1995ई०),शब्दिता (1977ई०),मानव मूल्य और साहित्य (1960ई०)।
- धर्मवीर भारती के एकांकी व नाटक: नदी प्यासी थी, नीली झील, आवाज़ का नीलाम आदि।
- धर्मवीर भारती के पद्य नाटक: अंधा युग 1954।
- धर्मवीर भारती की आलोचना: प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव मूल्य और साहित्य।
इसके अतिरिक्त विश्व की कुछ प्रसिद्ध भाषाओं की कविताओं का हिन्दी-अनुवाद भी ‘देशान्तर‘ नाम से प्रकाशित हुआ है।
भाषा शैली
भारती जी की भाषा तत्सम शब्द-प्रधान, गम्भीर एवं शुद्ध साहित्यिक भाषा है। परिमार्जित खड़ीबोली; मुहावरों, लोकोक्तियों, देशज तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने भावात्मक, समीक्षात्मक, चित्रात्मक, वर्णनात्मक, व्यंग्यात्मक, सूत्रात्मक शैलियों का प्रयोग किया है।
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प्रस्तुत निबन्ध ‘ठेले पर हिमालय‘ में हिमालय की रमणीय छटा अंकित की गयी है। शीर्षक की विचित्रता के साथ नैनीताल से कौसानी तक की यात्रा का वर्णन कम रोचक नहीं है और शैली में नवीनता इसका मुख्य कारण है। निबन्ध की भाषा सरल, सुबोध एवं साहित्यिक खड़ीबोली है।
डॉ० भारती नयी कविता के सशक्त कवि होने के साथ-साथ सफल निबन्धकार, कथाकार, नाटककार उपन्यासकार तथा श्रेष्ठ पत्रकार के रूप में भी हिन्दी-साहित्य जगत् में चिरकाल तक स्मरण किए जाएंगे।
ठेले पर हिमालय, निबन्ध – धर्मवीर भारती
ठेले पर हिमालय-खासा दिलचस्प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिल्कुल ढूँढना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाये मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दुकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हए बर्फ वाला आया। ठण्डे, चिकने, चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी। मेरे मित्र का जन्मस्थान अल्मोड़ा है, वे क्षण-भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोये रहे और खोये-खोये से ही बोले. “यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।” और तत्काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, ‘ठेले पर हिमालय। पर आपको इसलिए बता रहा हूँ कि अगर आप नये कवि हो तो भाई, इसे ले जाएँ और इस शीर्षक पर दो-तीन सौ पंक्तियाँ बेडौल बेतुकी लिख डालें-शीर्षक मौजूद है, और अगर नयी कविता से नाराज हों, सुललित गीतकार हों तो भी गुंजाइश है, इस बर्फ को डाँटें, “उतर आओ। ऊंचे शिखर पर बन्दरों की तरह क्यों चढ़े बैठे हो? ओ नये कवियो। ठेले पर लदो। पान की दुकानों पर बिको।”
ये तमाम बातें उसी समय मेरे मन में आयीं और मैंने अपने गुरुजन मित्र को बतायीं भी। वे हँसे भी, पर मुझे लगा कि वह बर्फ कहीं उनके मन को खरोंच गयी है और ईमान की बात यह है कि जिसने 50 मील दूर से भी बादलों के बीच नीले आकाश में हिमालय की शिखर-रेखा को चाँद-तारों से बात करते देखा है, चाँदनी में उजली बर्फ को धुंध के हलके नीले जल में दूधिया समुद्र की तरह मचलते और जगमगाते देखा है; उसके मन पर हिमालय की बर्फ एक ऐसी खरोंच छोड़ जाती है जो हर बार याद आने पर पिरा उठती है। मैं जानता हूँ; क्योंकि वह बर्फ मैंने भी देखी है।
सच तो यह है कि सिर्फ बर्फ को बहुत निकट से देख पाने के लिए ही हम लोग कौसानी गए थे। नैनीताल से रानीखेत और रानीखेत से मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करते हए कोसी। कोसी से एक सडक अल्मोडे चली जाती है दूसरी कौसानी। कितना कष्टप्रद, कितना सूखा और कितना कुरूप है वह रास्ता। पानी का कहीं नाम-निशान नहीं, सूखे भूरे पहाड़, हरियाली का नाम नहीं। ढालों को काटकर बनाए हुए टेढ़े-मेढे खेत जो थोडे से हों तो शायद अच्छे भी लगें पर उनका एकरस सिलसिला बिल्कुल शैतान की भात मालूम पड़ता है। फिर मझकाली के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर अल्मोड़े का एक नौसिखिया और लापरवाह ड्राइवर, जिसने बस के तमाम मुसाफिरों की ऐसी हालत कर दी कि जब हम कोसी पहुँचे तो सभी मुसाफिरों के चेहरे पीले पट चके थे। कौसानी जाने वाले सिर्फ हम दो थे, वहीं उतर गए। बस अल्मोड़े चली गयी। मन के एक टीन के पोड में काठ की बेंच पर बैठकर हम वक्त काटते रहे। तबियत सुस्त थी और मौसम मे उमस थी। दो घण्टे बाद दूसरी लारी आकर रुकी और जब उसमें से प्रसन्नवदन शुक्ल जी को उतरते देखा तो हम लोगों की जान-में-जान आयी। शुक्ल जी जैसा सफर का साथी पिछले जन्म के पुण्यों से ही मिलता है। उन्होंने हमें कौसानी आने का उत्साह दिलाया था और खुद तो कभी उनके चेहरे पर थकान या सुस्ती दीखी ही नहीं, पर उन्हें देखते ही हमारी भी सारी थकान काफूर हो जाया करती थी।
पर शुक्ल जी के साथ यह नयी मूर्ति कौन है? लम्बा दुबला शरीर, पतला साँवला चेहरा, एमिल जोला-सी दाढ़ी, ढीला-ढाला पतलून, कन्धे पर पड़ी हुई ऊनी जर्किन, बगल में लटकता हुआ जाने थर्मस या कैमरा या बाइनाकुलर। और खासी अटपटी चाल थी बाबू साहब की। यह पतला-दुबला मुझी जैसा सीकिया शरीर और उस पर आपका झूमते हुए आना….. मेरे चेहरे पर निरन्तर घनी होती हुई उत्सुकता को ताड़कर शुक्ल जी ने कहा- “हमारे शहर के मशहूर चित्रकार हैं सेन, अकादमी से इनकी कृतियों पर पुरस्कार मिला है। उसी रुपये से घूमकर छुट्टियाँ बिता रहे हैं।” थोड़ी ही देर में हम लोगों के साथ सेन घुल-मिल गया, कितना मीठा था हृदय से वह। वैसे उसके करतब आगे चलकर देखने में आए।
फोसी से बस चली तो रास्ते का सारा दृश्य बदल गया। सुडौल पत्थरों पर कल-कल करती हुई कोसी किनारे के छोटे-छोटे सुन्दर गाँव और हरे मखमली खेत। कितनी सुन्दर है सोमेश्वर की घाटी.। हरी-भरी एक के बाद एक बस स्टेशन पड़ते थे, छोटे-छोटे पहाड़ी डाकखाने, चाय की दुकानें और कभी-कभी कोसी या उसमें गिरने वाले नदी-नालों पर बने हुए पुल। कहीं-कहीं सड़क निर्जन जंगलों से गुजरती थी। टेढ़ी-मेढ़ी ऊपर-नीचे रेंगती हुई कंकड़ीली पीठ वाले अजगर-सी सड़क पर धीरे-धीरे बस चली जा रही थी। रास्ता सुहावना था और उस थकावट के बाद उसका सुहावनापन हमको और भी तन्द्रालस बना रहा था। पर ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ रही थी, त्यों-त्यों हमारे मन में एक अजीब-सी निराशा छाती जा रही थी, अब तो हम लोग कौसानी के नजदीक हैं, कोसी से 18 मील चले आए, कौसानी सिर्फ छः मील है, पर कहाँ गया वह अतुलित सौन्दर्य, वह जादू जो कौसानी के बारे में सुना जाता था। आते समय मेरे एक सहयोगी ने कहा था
कि कश्मीर के मुकाबले में उन्हें कौसानी ने अधिक मोहा है, गांधी जी ने यहीं अनासक्तियोग लिखा था और कहा था स्विट्जरलैण्ड का आभास कौसानी में ही होता है। ये नदी, घाटी, खेत, गाँव सुन्दर हैं किन्तु इतनी प्रशंसा के योग्य तो नहीं हैं। हम कभी-कभी अपना संशय शुक्ल जी से व्यक्त भी करने लगे और ज्यों-ज्यों कौसानी नजदीक आती गयी त्यों-त्यों अधैर्य, फिर असन्तोष और अन्त में तो क्षोभ हमारे चेहरे पर झलक आया। शुक्ल जी की क्या प्रतिक्रिया थी हमारी इन भावनाओं पर, यह स्पष्ट नहीं हो पाया, क्योंकि वे बिल्कुल चुप थे। सहसा बस ने एक बहुत लम्बा मोड़ लिया और ढाल पर चढ़ने लगी।
सोमेश्वर की घाटी के उत्तर में ऊँची पर्वतमाला है, उसी पर, बिल्कुल शिखर पर कौसानी बसा हुआ है। कौसानी से दूसरी ओर फिर ढाल शुरू हो जाती है। कौसानी के अड्डे पर जाकर बस रुकी। छोटा-सा, बिल्कुल उजड़ा-सा गाँव और बर्फ का तो कहीं नाम-निशान नहीं। बिल्कुल ठगे गए हम लोग। कितना खिन्न था मैं। अनखाते हुए बस से उतरा कि जहाँ था वहीं पत्थर की मूर्ति-सा स्तब्ध खड़ा रह गया। कितना अपार सौन्दर्य बिखरा था सामने की घाटी में। इस कौसानी की पर्वतमाला ने अपने अंचल में यह जो कत्युर की रंग-बिरंगी घाटी छिपा रखी है। इसमें किन्नर और यक्ष ही तो वास करते होंगे। पचासों मील चौड़ी यह घाटी, हरे मखमली कालीनों जैसे खेत, सुन्दर गेरू की शिलाएँ काटकर बने हुए लाल-लाल रास्ते, जिनके किनारे- किनारे सफेद-सफेद पत्थरों की कतार और इधर-उधर से आकर आपस में उलझ जाने वाली बेलों की लड़ियों-सी नदियाँ। मन में बेसाख्ता यही आया कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर कलाई में लपेट लूँ, आँखों से लगा लू। अकस्मात् हम एक दूसरे लोक में चले आए थे इतना सुकुमार, इतना सुन्दर, इतना सजा हुआ और इतना निष्कलंक, लगा कि इस धरती पर तो जते उतारकर, पाँव पोंछकर आगे बढ़ना चाहिए।
धीरे-धीरे मेरी निगाहों ने इस घाटी को पार किया और जहाँ ये हरे खेत और नदियाँ और वन, क्षितिज के धुंधलेपन में, नीले कोहरे में धुल जाते थे, वहाँ पर कुछ छोटे पर्वतों का आभास अनुभव किया, उसके बाद बादल थे और फिर कुछ नहीं। कुछ देर बाद उन बादलों में निगाह भटकती रही कि अकस्मात् फिर एक हल्का-सा विस्मय का धक्का मन को लगा। इन धीरे-धीरे खिसकते हए बादलों में वह कौन सी चीज है, जो अटल है। यह छोटा-सा बादल के टुकडे-सा….. और कैसा अजब रंग है इसका न सफेद, न रूपहला, न हल्का नीला पर तीनों का आभास देता हुआ। यह है क्या? बर्फ तो नहीं है। हाँ जी। बर्फ नहीं है तो क्या है? और अकस्मात् बिजली-सा यह विचार मन में कौंधा कि इसी कत्यूर घाटी के पार वह नगाधिराज, पर्वत सम्राट हिमालय है, इन बादलों ने उसे ढाँक रखा है वैसे वह क्या सामने है, उसका एक कोई छोटा-सा बाल-स्वभाव वाला शिखर बादलों की खिड़की से झाँक रहा है। मैं हर्षातिरेक से चीख उठा “बरफ! वह देखो!’ शुक्ल जी, सेन, सभी ने देखा, पर अकस्मात् वह फिर लुप्त हो गया। लगा, उसे बाल-शिखर जान किसी ने अन्दर खींच लिया। खिड़की से झाँक रहा है, कहीं गिर न पड़े।
पर उस एक क्षण के हिम-दर्शन ने हममें जाने क्या भर दिया था। सारी खिन्नता, निराशा थकावट-सब छूमन्तर हो गयी। हम सब आकुल हो उठे। अभी ये बादल छंट जाएंगे और फिर हिमालय हमारे सामने खड़ा होगा-निरावृत…. असीम सौन्दर्यराशि हमारे सामने अभी-अभी अपना घूघट धीरे से खिसका देगी और …. और तब? सचमुच मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। शुक्ल जी शान्त थे, केवल मेरी ओर देखकर कभी-कभी मुस्कुरा देते थे, जिसका अभिप्राय था, इतने अधीर थे, कौसानी आयी भी नहीं और मुँह लटका लिया। अब समझे यहाँ का जादू। डाक बंगले के खानसामे ने बताया-“आप लोग बड़े खुशकिस्मत हैं। साहब। 14 टूरिस्ट आकर हफ्तों भर पड़े रहे, बर्फ नहीं दीखी। आज तो आपके आते ही आसार खुलने के हो रहे हैं।”
सामान रख दिया गया। पर मैं, मेरी पत्नी, सेन, शुक्ल जी सभी बिना चाय पिये सामने के बरामदे में बैठे रहे, और एकटक सामने देखते रहे। बादल धीरे-धीरे नीचे उतर रहे थे और एक-एक कर नये नये ‘शिखरों की हिम रेखाएँ अनावत हो रही थीं। और फिर सब खुल गया। बायीं ओर से शुरू होकर दायीं ओर गहरे शून्य में धंसती जाती हुई हिमशिखरों की ऊबड़-खाबड़, रहस्यमयी, रोमांचक श्रृंखला।
हमारे मन में उस समय क्या भावनाएँ उठ रही थीं, यह अगर बता पाता तो यह.खरोंच, यह पीर ही क्यों रह गयी होती? सिर्फ एक धुंधला-सा सम्वेदन इसका अवश्य था कि जैसे बर्फ की सिल के सामने खड़े होने पर मँह पर ठण्डी-ठण्डी भाप लगती है, वैसे ही हिमालय की शीतलता माथे को छ रही है और सारे संघर्ष, सारे अन्तर्द्वन्द्व, सारे ताप जैसे नष्ट हो रहे हैं? क्यों पुराने साधकों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को ताप कहा था और उसे नष्ट करने के लिए वे क्यों हिमालय जाते थे वह पहली बार मेरी समझ में आ रहा था। और अकस्मात् एक दूसरा तथ्य मेरे मन के क्षितिज पर उदित हुआ। कितनी, कितनी पुरानी है यह हिमराशि। जाने किस आदिमकाल से यह शाश्वत, अविनाशी हिम इन शिखरों पर जमा हुआ। कुछ विदेशियों ने इसीलिए इस हिमालय की बर्फ को कहा है-चिरंतन हिम।
सूरज ढल रहा था और सुदूर शिखरों पर दरे, ग्लेशियर, जल, घाटियों का क्षीण आभास मिलने लगा था। आतंकित मन से मैंने यह सोचा था कि पता नहीं इन पर कभी मनुष्य का चरण पड़ा भी है या नहीं, या अनन्तकाल से इन सूने बर्फ ढंके दरों में सिर्फ बर्फ के अंधड़ हूँ-हूँ करते हुए बहते रहते हैं।
सूरज डूबने लगा और धीरे-धीरे ग्लेशियरों में पिघली केसर बहने लगी। बरफ कमल के लाल फूलों में बदलने लगी, घाटियाँ गहरी नीली हो गयीं। अँधेरा होने लगा तो हम उठे और मुँह-हाथ धोने और चाय पीने में लगे। पर सब चुपचाप थे, गुमसुम जैसे सबका कुछ छिन गया हो, या शायद सबको कुछ ऐसा मिल गया हो जिसे अन्दर-ही-अन्दर खोजने में सब आत्मलीन हो अपने में डूब गए हों।
थोड़ी देर में चाँद निकला और हम फिर बाहर निकले….. इस बार सब शान्त था। जैसे हिम सो रहा हो। मैं थोड़ा अलग आराम कुर्सी खींचकर बैठ गया। यह मेरा मन इतना कल्पनाहीन क्यों हो गया है? इसी हिमालय को देखकर किसने-किसने क्या-क्या नहीं लिखा और यह मेरा मन है कि एक कविता तो दूर, एक पंक्ति, हाय एक शब्द भी तो नहीं जागता। …. पर कुछ नहीं, यह सब कितना छोटा लग रहा है इस हिम-सम्राट के समक्ष। पर धीरे-धीरे लगा कि मन के अन्दर भी बादल थे, जो उँट रहे हैं, कुछ ऐसा उभर रहा है, जो इन शिखरों की ही प्रकृति का है। कुछ ऐसा जो इसी ऊँचाई पर उठने की चेष्टा कर रहा है ताकि इनसे इन्हीं के स्तर पर मिल सके। लगा, यह हिमालय बड़े भाई की तरह ऊपर चढ़ गया है, और मुझे-छोटे भाई को-नीचे खड़ा हुआ कुंठित और लज्जित देखकर थोड़ा उत्साहित भी कर रहा है, स्नेहभरी चुनौती भी दे रहा है-“हिम्मत है? ऊँचे उठोगे?”
और सहसा सन्नाटा तोड़कर सेन रवीन्द्र की कोई पंक्ति गा उठा जैसे तन्द्रा टूट गयी। और हम सक्रिय हो उठे-अदम्य शक्ति, उल्लास, आनन्द जैसे हममें झलक पड़ रहा था। सबसे अधिक खुश था सेन, बच्चों की तरह चंचल, चिड़ियों की तरह चहकता हुआ। बोला, “भाई साहब, हम तो वण्डरस्ट्रक हैं-कि यह भगवान का क्या-क्या करतूत इस हिमालय में होता है।” इस पर हमारी हँसी मुश्किल से ठण्डी हो पायी थी कि अकस्मात् वह शीषसिन करने लगा। पूछा गया तो बोला, “हम हर पर्सपेक्टिव से हिमालय देलूँगा।” बाद में मालूम हुआ कि वह बम्बई की अत्याधुनिक चित्रशैली से थोड़ा नाराज है और कहने लगा, “ओ सब जीनियस लोग शीर का बाल खड़ा होकर दुनिया को देखता है। इसी से मैं भी शीर का बाल खड़ा होकर हिमालय देखता हूँ।
दूसरे दिन घाटी में उतरकर 12 मील चलकर हम बैजनाथ पहुंचे, जहाँ गोमती बहती है। गोमती की उज्ज्वल जलराशि में हिमालय की बर्फीली चोटियों की छाया तैर रही थी। पता नहीं, उन शिखरों पर कब पहुँचूँ कैसे पहुँचूँ, पर उस जल में तैरते हुए हिमालय से जीभरकर भेंटा, उसमें डूबा रहा।
आज भी उसकी याद आती है तो मन पिरा उठता है। कल ठेले के बर्फ को देखकर मेरे मित्र उपन्यासकार जिस तरह स्मृतियों में डूब गए उस दर्द को समझता हूँ और जब ठेले पर हिमालय की बात कहकर हँसता हँ तो वह उस दर्द को भुलाने का ही बहाना है। ये बर्फ की ऊँचाइयाँ बार-बार बुलाती हैं, और हम हैं कि चौराहों पर खडे ठेले पर लदकर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। किसी ऐसे क्षण में ऐसे ही ठेलों पर लडे हिमालयों से घिरकर ही तो तुलसी ने कहा था-“कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो- मैं क्या कभी ऐसे भी रह सकूँगा वास्तविक हिमशिखरों की ऊंचाइयों पर? और तब मन में आता है कि फिर हिमालय को किसी के हाथ सन्देशा भेज दं-“नहीं बन्ध….. आऊँगा। मैं फिर लौट-लौटकर वहीं आऊंगा। उन्हीं ऊँचाइयों पर तो मेरा आवास है। वहीं मन रमता है, मैं करूं तो क्या करूँ ?’
– धर्मवीर भारती (Dharmvir Bharti)
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