Q. कविवर जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ का जीवन-परिचय देते हुए उनकी प्रमुख कृतियों का उल्लेख कीजिए।
जगन्नाथ दास रलाकर आधुनिक काल के ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इनकी प्रतिभा बहुआयामी थी, लेकिन इनका गरिमामय रूप काव्य के क्षेत्र में ही प्रकट हुआ। इन्होंने अपने काव्य में मध्ययुगीन काव्य परम्परा के साथ-साथ भक्तियुग के भाव और रीतिकाल की कला सम्पदा का समन्वय किया है, जो अत्यन्त मनोहारी बन पड़ा है। ये ब्रजभाषा के अन्तिम समर्थ कवि थे।
जीवन-परिचय
कविवर रत्नाकर का जन्म सन् 1866 ई. में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। बचपन में उर्दू, फारसी, अंग्रेजी की शिक्षा मिली। बी. ए., एल-एल. बी. के बाद एम. ए. की
पढ़ाई उनकी माता जी के निधन के कारण पूरी नहीं हो पाई। इनके पिता पुरुषोत्तमदास फारसी भाषा के विद्वान एवं काव्य मर्मज्ञ थे। अतः इनके घर साहित्य-प्रेमी आते रहते थे। यहीं से ये भारतेन्दू जी के सम्पर्क में आए। अवागढ़ तथा अयोध्या नरेश के यहां इन्होंने ‘साहित्य सुधानिधि’ तथा ‘सरस्वती’ पत्रिका का सम्पादन भी किया। काशी नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना में सहयोग दिया। सन् 1932 ई. में इनका देहान्त हो गया।
काव्य कृतियाँ
इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- (१) उद्धव शतक, (२) गंगावतरण, (३) वीराष्टक,(४) शृंगार लहरी (५) रत्नाष्टक, (६) कलकाशी, (७) हरिश्चन्द्र, (८) गंगा लहरी, (९) विष्णु लहरी, (१०) हिंडोला, (११) समालोचनादर्श, आदि।
इनके सम्पादित ग्रन्थ हैं- (१) बिहारी रत्नाकर, (२) हिततरंगिणी, (३) सूरसागर आदि।
इनकी काव्य कृतियों में उद्धव शतक और गंगावतरण प्रमुख रचनाएँ हैं। इनका मुक्तक काव्य ‘उद्धव शतक‘ प्रबन्धात्मकता का गुण लिए हुए है। स्वाभाविकता, मार्मिकता और संवेदन की दृष्टि से ‘उद्धव शतक‘ में भाव व्यंजना उत्कृष्ट बन पड़ी है। इसमें उद्धव और गोपियों के वार्तालाप को बड़े ही सहज तरीके से कोमलकान्त पदावली में अभिव्यक्त किया गया है। गोपियाँ उद्धव के ज्ञानोपदेश को सुनने के लिए तत्पर नहीं हैं। वे प्रेम और भक्ति को छोड़ने के लिए कदापि तत्पर नहीं हैं। इस ग्रन्थ में उद्धव की पराजित मनोदशा का भी निरूपण किया गया है। उद्धव शतक का प्रतिपाद्य विषय भक्तिकालीन कवियों जैसा है, किन्तु उसे प्रस्तुत करने की शैली रीतिकालीन कवियों जैसी चमत्कारपूर्ण है।
इनके खण्डकाव्य ‘गंगावतरण‘ में गंगा के पथ्वी पर आने की कथा है। इसमें रत्नाकर जी का भाव वैभव अनेक रूपों में प्रकट हुआ है। भाव निरूपण की दृष्टि से इनकी सृजन शक्ति अनुपमेय है। मानव-हृदय की अनुभतियों को भावों में प्रकट किया है। भावों की भांति रस-निरूपण और प्रकृति-चित्रण में भी ‘रलाकर’ निष्णात रहे।
हिन्दी साहित्य में स्थान
रत्नाकर जी पुरानी पीढी के सशक्त ब्रजभाषा कवि माने जाते हैं, आधुनिक काल में उनके समान ब्रजभाषा काव्य का मर्मज्ञ कोई और नहीं हुआ, वे सही अर्थों में काव्य रसिक एवं प्रकाण्ड विद्वान थे। ‘बिहारी रत्नाकर‘ के रूप में उन्होंने एक ऐसा ग्रन्थ हिन्दी को दिया है जिसकी महत्ता से सारा हिन्दी जगत परिचित है। उनका उद्धव शतक भी भ्रमरगीत परम्परा की एक महत्वपूर्ण उपलिब्ध है।
भक्तिकाल एवं रीतिकाल का मणिकांचन संयोग रत्नाकर जी के काव्य में ही दिखाई पड़ता है। वे सही अर्थो में एक ऐसे कवि थे जिसने भक्तिकाल की भावधारा को आधुनिककाल में रीतिकालीन शैली में अभिव्यक्त किया और पाठकों की प्रशंसा भी प्राप्त की। निश्चय ही उनके योगदान के लिए हिन्दी जनता सदैव ऋणी रहेगी।
Q. रत्नाकर जी के ‘उद्धव प्रसंग’ की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
रत्नाकर जी के ‘उद्धव शतक’ के आधार पर यह स्पष्ट कीजिए कि उन्हें मार्मिक स्थलों की भलीभांति पहचान है।
अथवा
रत्नाकर जी का ‘उद्धव शतक’ भक्तिकालीन आत्मा एवं रीतिकालीन कलेवर का मणिकांचन संयोग है’ इस कथन को सिद्ध कीजिए।
अथवा
‘उद्धव शतक’ के कलापक्ष एवं भावपक्ष का सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए।
अथवा
उद्धव प्रसंग के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि रत्नाकर के काव्य में भावावेश के साथ-साथ कलात्मक सौष्ठव का भी समावेश है।
उद्धव शतक रत्नाकर द्वारा रचित एक कलात्मक काव्यकृति है जिसमें भक्तिकालीन एवं रीतिकालीन कलेवर का मणिकांचन संयोग हुआ है। यह भ्रमरगीत परम्परा का ग्रन्थ है जिसका प्रतिपाद्य विषय है – “उद्धव गोपी संवाद के द्वारा प्रेम और भक्ति की विजय“, “सगुण का मण्डन तथा ज्ञान-योग एवं निर्गुण निराकार का खण्डन करना“।
उद्धव शतक का भावपक्ष एवं विषयवस्तु सूरदास आदि भक्त कवियों जैसी है किन्तु उसका कलापक्ष आदि रीतिकालीन कवियों जैसा। इसीलिए कहा गया है कि उद्धव शतक में भक्तिकालीन भावधारा रीतिकाल का कलेवर पाकर व्यक्त हुई है।
उद्धव-शतक में भक्तिकालीन आत्मा
निर्गण का खण्डन
रत्नाकर ने निर्गुण निराकार का खण्डन उसी प्रकार किया है जैसे सूरदास आदि कवियों ने किया। यथा :
ऊधौ कहौ कौन धौ हमारे काम आइहै। – रत्नाकर
सब विधि अगम विचारहि तातें सूर सगुन लीला पद गावै।। – सूरदास
ज्ञान योग का खण्डन
गोपियों ने उद्धव की बोलती बन्द कर दी। वे प्रेम-भक्ति को छोड़नें को तैयार नहीं। वे तो कृष्ण की दीवानी हैं उन्हें ज्ञान, योग, निराकार ब्रह्म से क्या लेना-देना। वे नियम संयम के पचड़े में नहीं पड़ना चाहती :
लाज कुल कानि प्रतिबन्धहू निवारि चुकी।
उद्धब की दुर्दशा का चित्रण
गोपियाँ उद्धव को बुरा-भला कहती हैं, उनसे चुपचाप मथुरा लौट जाने का अनुरोध करती हैं। बेचारे उद्धव की बोलती सीधी-सादी गोपियों ने बन्द कर दी :
उद्धव की परिवर्तित दशा का चित्रण
उद्धव जब ब्रज में गये थे तो ज्ञान के गर्व में चूर थे पर जब लौटे हैं तो उनकी दशा बदल गई है। इस परिवर्तित दशा का चित्रण निम्न पंक्तियों में किया है :
सब सुख साधन को सूधो सो जतन लै।
इस प्रकार स्पष्ट है कि उद्धव शतक का प्रतिपाद्य विषय वही है जो भक्तिकाल के कृष्ण-भक्त कवियों। का रहा है अर्थात् इस ग्रन्थ की आत्मा भक्तिकालीन है।
रीतिकालीन कलेवर
कलेवर का सम्बन्ध काव्य के कलापक्ष से होता है। उद्धव शतक में रत्नाकर जी ने रीतिकाल के कवियों की भाँति पाण्डित्य प्रदर्शन, चमत्कार, कला की कारीगरी, भाषा-सौष्ठव, अलंकारों की भरमार, बहुज्ञता आदि का विधान किया है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि उद्धव शतक में प्रतिपाद्य विषय का कलापक्ष रीतिकाल के कवियों जैसा है। यथा :
चमत्कार प्रदर्शन
रीतिकाल के कवियों की भाँति रत्नाकर जी ने भी चमत्कार प्रदर्शन पर अधिक ध्यान दिया है। श्लेष और यमक अलंकारों के प्रयोग से चमत्कार सृष्टि करते हुए दोहरे अर्थों की योजना की
गई है। यथा :
जेते उपचार चारु मंजु सुखदाई है।
तिनके चलाबन की चरचा चलावें कौन
देत ना सुदर्शन हूँ यो सुधि सिराई है।
यहां एक अर्थ गोपियों के पक्ष में है और दूसरा आयुर्वेद के पक्ष में।
बहुज्ञता प्रदर्शन
रत्नाकर जी ने बिहारी की भाँति अपनी बहुज्ञता का परिचय उद्धव शतक में दिया है। इतिहास, पुराण, आयुर्वेद, ज्योतिष, योग की जो जानकारी थी उनका उपयोग उन्होंने इस काव्य ग्रन्थ में बखूबी किया है। यथा निम्न पंक्तियों में उनके ज्योतिष ज्ञान का परिचय मिलता है :
ऊधौ नित बसत बसन्त बरसाने में।
वसन्त ऋतु में सूर्य मीन-मेष राशि पर होता है, पर ब्रज में तो सदैव वसन्त ऋतु रहती है क्योंकि यहां का विधाता कामदेव है जिसके क्रियाकलाप में कोई भी मीन-मेख नहीं निकाल सकता। “मीन-मेख निकालना” मुहावरा भी है।
विरह वर्णन
रीतिकालीन कवियों की भाँति विरह ताप का ऊहात्मक वर्णन रलाकर ने भी किया है। यथा :
अंक लागें कागद बररि बरिजात हैं।
गोपियों के विरह ताप की अधिकता से लेखनी की स्याही सूख जाती है और कागज भी जलने लगता है।
आलंकारिकता
उद्धव शतक में यमक, श्लेष, रूपक, उत्प्रेक्षा, असंगति आदि अलंकारों की भरमार रीतिकाल के काव्य जैसी ही है। यथा :
- सांगरूपक :- हेत खेत माँहि खोदि खाई सुद्ध स्वारथ की।
- श्लेष :- देत ना सुदर्शन हू यों सुघि सिराई है।
- यमक :- वारन कितेक तुम्हें वारन कितेक करें।
भाषा सौष्ठव
उद्धव शतक में कोमलकान्त मधुर पदावली वाली उसी ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है जो रीतिकाल के कवि प्रयोग में लाते थे। उसमें आनुप्रासिकता है, माधुर्य है, लालित्य है तथा नाद
सौन्दर्य भी है। भाषा में चित्रोपमता का गुण भी विद्यमान है। यथा :
रही सही सोऊ कहि दीनी हिचकीन सौं।
श्रीकृष्ण अपनी विरह वेदना वाणी से व्यक्त नहीं कर सके, उनकी हिचकियाँ बँध गईं और आँखों से आँसू बहने लगे।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उद्धव शतक एक चित्रोपम सत्काव्य है जिसमें प्रेम और भक्ति की विजय दिखाकर ज्ञान और योग का खण्डन किया गया है। अपनी विषयवस्तु, प्रस्तुतीकरण की शैली, कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान, समधर ब्रजभाषा एवं चित्रोपम वर्णनों के कारण उद्धव शतक भ्रमरगीत परम्परा का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ बन गया है जिसमें भक्तिकालीन भवधारा रीतिकालीन कलेवर में प्रस्तुत की गई है।
Q. अपनी पाठ्य पुस्तक में संकलित अंश ‘गंगावतरण’ के काव्य सौन्दर्य पर प्रकाश डालिए।
गंगावतरण बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर द्वारा ब्रजभाषा में रचित खण्डकाव्य है जिसमें कवि ने गंगा की उत्पत्ति एवं उसके पृथ्वी पर आने के पौराणिक आख्यान को कथावस्तु बनाया है। गंगा जी ब्रह्मा के कमण्डल से निकलकर शिव की जटाओं में समा गईं और तत्पश्चात् उनकी एक धारा पृथ्वी पर प्रवाहित हुई। इस कविता के संकलित अर्थ का काव्य सौन्दर्य निम्न शीर्षकों में अभिव्यक्त किया जा सकता है :
कथावस्तु
गंगा की तीव्र धारा ब्रह्मा जी के कमण्डल से निकलकर अपार वेग से आगे बढ़ी। उसके शोर से तीनों लोक काँप रहे थे। यह धारा चक्कर काटती हुई आगे बढ़ी और विपुल वेग एवं ओज से उमगती हई जब भगवान शिव के समीप आई तो उनके मनोहर रूप को देखकर मोहित हो गई। उसके कोप का लोप हो गया और चित्त में स्नेह की चिकनाई का समावेश हो गया :
है आनहि के प्रान रहे तन धरे धरोहर।।
भयो कोप को लोप चोप और उमगाई।
चित चिकनाई चढ़ी कढ़ी सब रोष रूखाई॥
कृपानिधान भगवान शिव ने उनके मनोभाव को पहचान कर उन्हें अपनी प्रिया मानते हुए सिर पर स्थान दिया और गंगा उनकी जटाओं में सिमट गईं।
चित्रोपमता
गंगावतरण के इस अंश में कवि न चित्रोपमता का विधान किया है। ब्रह्मा के कपट से निकलकर जब गंगा की धारा अपार वेग से भयंकर शोर करती हुई आगे बढी तो तीनों लोक त्रश्त हो गए। इतना भयानक शोर हो रहा था मानों प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों। इस सारे दश्य को कवि ने निम्न पंक्तियों में इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि उसका एक चित्र सा पाठको के सम्मुख बन जाता है :
धाई धार अपार वेग सौं वायु बिहण्डति।।
भयौ घोर अति शब्द धमक सौं त्रिभुवन तरजे।
महामेघ मिलि मनहु एक संगहि सब गरजे।।
रस योजना
गंगावतरण में रत्नाकर जी ने वीर रस एवं रौद्र रस का पूर्ण परिपाक किया है। श्रृंगार की योजना की उस अवसर पर है जब गंगा भगवान शिव के रूप को देखकर मुग्ध हो गई और उनके चित्त में स्नेह का संचार हो गया। शिव ने भी उन्हें प्रिया समझकर अपने शीश पर स्थान दे दिया। अन्य स्थलों वीर एवं रौद्र रस की योजना की गई है। यथा :
मनहुं संवारित सुभ सुर-पुर की सुगम निसेनी।।
विपुल वेग बल विक्रम कैं ओजनि उमगाई।
हरहराति हरषाति सम्भु-सनमुख जब आई।।
अलंकार योजना
रत्नाकर जी ने गंगावतरण के इस अंश में उपमा, उठोक्षा, सन्देह अलंकारों, आकर्षक प्रयोग किया है। गंगा की वह धारा कैसी लग रही थी इसके लिए कवि ने विविध कल्पनाएँ की है। यथाः
सोजनु चपला चमचमाति चंचल छबि छाई।।
उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि गंगावतरण रत्नाकर जी की एक सुन्दर रचना है। जिसमें काव्य सौन्दर्य के सभी उपादान उपस्थित हैं।
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