डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का साहित्यिक परिचय देते हुए उनकी भाषा-शैली की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के साहित्यिक योगदान पर प्रकाश डालते हुए उनकी भाषा-शैली की विशेषताएं बताइए।
Vasudeva Sharan Agrawala
प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं पुरातत्व के मर्मज्ञ विद्वान डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल शोध-दृष्टि वाले साहित्यकार रहे हैं। प्रकाण्ड पाण्डित्य, वाणी का अद्भुत सौन्दर्य और कवि जैसी भावुकता का सम्मिलन आपकी उत्कृष्ट रचनाओं में सर्वत्र व्याप्त है।
पुरातत्व सम्बन्धी उपलब्धियों से सम्पन्न कर आपने हिन्दी की महत्वपूर्ण सेवा की है। प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्येता डॉ. अग्रवाल का निबन्ध साहित्य हिन्दी की अमूल्य निधि है।
वासुदेवशरण अग्रवाल का ‘जीवन परिचय’
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जी का जन्म उत्तर प्रदेश के मेरठ जनपद में स्थित खेडा नामक ग्राम में 6 अगस्त सन् 1904 ई. को हुआ था। माता-पिता का निवास लखनऊ में होने के कारण इनका बचपन यहीं व्यतीत हुआ। अपनी शिक्षा भी आपने यहीं माता-पिता की छत्र-छाया में रहकर प्राप्त की।
तत्-पश्चात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद इन्होंने एम.ए., पीएच. डी. तथा डी. लिट. की उपाधियाँ लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की। ‘पाणिनिकालीन भारत’ नामक इनका शोध प्रबन्ध विद्वानों द्वारा काफी सराहा गया। पालि, संस्कृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं और उनके साहित्य का गहन अध्ययन एवं अनुसन्धान करके डॉ. अग्रवाल ने उच्चकोटि के विद्वान के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित की।
आपने लखनऊ तथा मथरा के पुरातत्व संग्रहालय में निरीक्षक के पद पर कार्य किया। सन् 1946 से 1951 ई. तक सेन्ट्रल एशियन एण्टिक्विटीज म्यूजियन के सुपरिटेंडेट पद पर तथा भारतीय पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष पद पर भी इन्होंने कार्य किया। 1951 ई. में आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ इण्डोलाजी’ में प्रोफेसर नियुक्त हुए।
इस प्रकार प्राचीन भारतीय साहित्य और संस्कृति का यह महान विद्वान जीवन भर अनुसन्धान का प्रकाश विकीर्ण करता हुआ 26 जुलाई, सन् 1966 ई. को परलोक सिधार गया।
वासुदेवशरण अग्रवाल की ‘कृतियां’
- निबन्ध संकलन – (१) पृथ्वीपत्र. (२) कल्पवृक्ष, (३) भारत की एकता, (४) मातृभूमि, (५) कला और संस्कृति, (६) कल्पलता, (७) वाग्धारा।
- शोध ग्रन्थ – (१) पाणिनिकालीन भारत।
- समीक्षात्मक ग्रन्थ – (१) मलिक मोहम्मद जायसी कृत पद्मावत, तथा (२) कालिदास कृत मेघदूत की संजीवनी व्याख्या।
- सांस्कृतिक ग्रन्थ – (१) भारत की मौलिक एकता, (२) हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन (५) अनुवाद ग्रन्थ (१) हिन्दू सभ्यता।
भाषागत विशेषताएं
डॉ. अग्रवाल की भाषा शुद्ध, परिनिष्ठित हिन्दी है जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है। विषय के अनुरूप उनकी भाषा का स्वरूप बदलता रहा है। सांस्कृतिक एवं शोधपरक निबन्धों में गहन-गम्भीर भाषा का प्रयोग है तो अन्य निबन्धों में भाषा का सरल, सहज, व्यावहारिक रूप दिखाई पड़ता है।
देशज शब्दों का प्रयोग तो उनकी भाषा में है पर उर्दू- अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग प्रायः नहीं है। मुहावरे और लोकोक्तियां भी उनकी भाषा में नहीं हैं। समग्रतः डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल की भाषा प्रौढ़ संकृतनिष्ठ, परिमार्जित साहित्यिक हिन्दी है। जिसमें विषय के अनुरूप गम्भीरता विद्यमान है तथा उसमें भाव प्रकाशन की अद्भुत क्षमता है।
शैली के विविध रूप
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के निबन्धों में शैली के निम्न रूप पाए जाते हैं:
गवेषणात्मक शैली
पुरातत्व से सम्बन्धित गवेषणापूर्ण निबन्धों में इस शैली का प्रयोग किया गया है। इसमें भाषा संस्कृतनिष्ठ है तथा वाक्य लम्बे-लम्बे हैं। कहीं-कहीं अप्रचलित पारिभाषिक शब्द भी इसमें दिखाई।
पड़ते हैं। भाषा में दुरूहता भले ही आ गई हो पर उसका प्रवाह सुरक्षित रहा है। एक उदाहरण देखिए :
व्याख्यात्मक शैली
जायसी के पद्मावत की व्याख्या डॉ. अग्रवाल ने व्याख्यात्मक शैली में विषय को स्पष्ट करते हुए की है। क्लिष्ट प्रसंगों को सरल भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है जिसे पाठक आसानी
से समझ ले।
भावात्मक शैली
इस शैली का प्रयोग उन स्थलों पर हुआ है जहां लेखक का हृदय पक्ष प्रधान हो गया है। इसमें आलंकारिकता का समावेश भी है तथा भाषा में सरसता के साथ-साथ काव्यमयता का संचार भी हुआ है, यथा :
उद्धरण शैली
डॉ. अग्रवाल ने अपने निबन्धों में कथन को पुष्ट करने के लिए स्थान-स्थान पर उद्धरण भी दिए हैं। ये उद्धरण प्रायः संस्कृत के हैं, यथा :
हिन्दी साहित्य में स्थान
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल विलक्षण प्रतिभा के धनी प्रकाण्ड विद्वान थे। उनके निबन्ध हिन्दी साहित्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण माने जाते हैं। वे एक उच्चकोटि के पुरातत्व विशेषज्ञ, अनुसन्धानकर्ता, विहान साहित्यकार तथा भावुक व्यक्तित्व से सम्पन्न मनीषी के रूप में हिन्दी साहित्य में विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं।
उनके निबन्धों की मौलिकता, गम्भीरता एवं विवेचन पद्धति प्रशंसनीय है। निश्चय ही हिन्दी साहित्य में उनका योगदान चिरस्मरणीय रहेगा।
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