जीवन परिचय
केदारनाथ सिंह हिन्दी जगत् में आधुनिक कवि के रूप में चर्चित हैं। इनका जन्म 1934 ई० में बलिया के चकिया गाँव में हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के एक विद्यालय में हुई एवं उच्च शिक्षा बनारस में सम्पन्न हुई। ये अध्ययन काल से ही हिन्दी साहित्य में रुचि लेने लगे थे। ये डॉ0 नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह, डॉ० त्रिभुवन सिंह, कवि त्रिलोचन, डॉ० शिवप्रसाद सिंह, डॉ० शम्भुनाथ सिंह के सम्पर्क में निरन्तर रहते थे।
कविता लिखने की प्रेरणा केदार जी को अपने ग्रामीण अंचल से प्राप्त हुई। इनका घर गंगा और घाघरा के बीच में पड़ता है। इनके मन में गंगा और घाघरा की लहरों की भाँति भावरूपी लहरें हिलोरें लेती रहती थीं। केदार जी आज भी अपनी धरती की माटी से अभिनं रूप से जुड़े हुए हैं। केदार जी उदय प्रताप कॉलेज वाराणसी. सेंट एण्ड्रज कॉलेज गोरखपुर, उदित नारायण कॉलेज पडरौना, गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर में अध्यापक, प्राचार्य और रीडर रहे। ये जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में भी कार्यरत रहे।
रचनाएँ
केदारनाथ सिंह ने हिन्दी साहित्य में अनेक रचनाएँ कीं। ‘अभी बिल्कुल अभी’, ‘जमीन पक रही है’, ‘यहाँ से देखो’, ‘अकाल में सारस’, ‘उत्तर कबीर’ और अन्य कविताएँ ‘मेरे समय के शब्द’, ‘बाघ’ तथा ‘कविता-दशक’ और ‘ताना-बाना’ उनकी प्रसिद्ध और चर्चित कृतियाँ हैं। कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्बविधान समीक्षात्मक ग्रन्थ हैं।
काव्य-भाषा
काव्य-भाषा के रूप में केदारनाथ सिंह ने आम बोलचाल की शब्दावली का अधिक प्रयोग किया है, जिसमें यत्र-तत्र भोजपुरी का पुट है। उनकी मान्यता है कि कविता का सबसे सीधा सम्बन्ध भाषा से है। भाषा प्रेषणीयता का सर्वसुलभ माध्यम है। अतः ‘शुद्ध कविता’ जैसी किसी चीज की कल्पना बिल्कुल बेमानी है। समाज के प्रत्येक सदस्य की छोटी-से-छोटी चेतन-क्रिया किसी-न-किसी अंश में सामाजिक होती है। फिर कविता तो समाज के सबसे अधिक संवेदनशील व्यक्ति की चेतन क्रिया है। उसकी सामाजिकता असन्दिग्ध है।
कविता अपने अनावृत्त रूप में केवल मात्र एक विचार, एक भावना, एक अनुभूति, एक हृदय इन सबका कलात्मक संगठन अथवा इन सबके अभाव की एक तीखी पकड़ होती है। यह पकड़ जितनी ही स्वाभाविक होगी, कवि का संवेद्य उतना ही गहरा और प्रभावशाली होगा। इसके लिए उसमें वास्तविकता के विभिन्न स्तरों की प्रत्यक्ष जानकारी होनी चाहिए और यह जानकारी सोलहों आने उसकी अपनी होनी चाहिए। केदारनाथ की भाषा के सन्दर्भ में जहाँ तक सोलहों आने सच जानकारी होने का प्रश्न है, यह कहा जा सकता है कि केदारनाथ सिंह को ग्रामीण जीवन और उसके परिवेश की भरपूर जानकारी है। उनकी भाषा में ग्रामीण शब्द के प्रयोग की एक झलक देखिए-
फसलों के घर पहली थाप पड़ी
शहर के उदास काँपते जल पर
हेमन्ती रातों की भाप पड़ी
सूइयाँ समय की सब ढार हुई
छिन, घड़ियों, घण्टों का पहरा उठा।
केदारनाथ सिंह की अन्य अनेक ऐसी कविताएँ हैं जिनमें उन्होंने ग्रामीण शब्दों का प्रयोग किया है। इन ग्रामीण शब्दों में भोजपरी के शब्दों का खुलकर प्रयोग भी हुआ है। कुल मिलाकर उनकी भाषा बोझिल नहीं प्रतीत होती है। वह भावों और विचारों की अभिव्यक्ति में पूर्णतया सक्षम है।
नदी
वह तुम्हें छू लेगी
दौड़ो तो छूट जायेगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जायेगी कहीं भी
यहाँ तक कि कबाड़ी की दुकान तक भी
छोड़ दो
तो वहीं अँधेरे में
करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे-से घोंघे में
सचाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी जरूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई
कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाय
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी।
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