राजेन्द्र प्रसाद का जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, कवि परिचय एवं भाषा शैली और उनकी प्रमुख रचनाएँ एवं कृतियाँ। राजेन्द्र प्रसाद का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय नीचे दिया गया है।
डॉ राजेन्द्र प्रसाद (Dr Rajendra Prasad) भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी रहे थे। उनका जन्म 3 दिसंबर 1884 में जीरादेई ग्राम में हुआ था, जो बिहार राज्य के छपरा जिले के सारण का एक गांव है। प्रसाद जी के पूर्वज मूल रूप से ‘कुआं गांव, अमोरा, उत्तर प्रदेश’ के निवासी थे। वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रपति होने के अलावा, उन्होंने 1946 और 1947 में भारत की पहली कैबिनेट में कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में भी कार्य किया। सम्मान से लोग उन्हें प्रायः ‘राजेन्द्र बाबू‘ कहकर पुकारते थे।
नाम | राजेन्द्र प्रसाद (Rajendra Prasad) |
उपाधि | डॉक्ट्रेट (लॉ के क्षेत्र में) |
प्रसिद्धि | भारत के प्रथम राष्ट्रपति (26 जनवरी 1950 – 14 मई 1962) |
जन्म | 3 दिसम्बर 1884 |
जन्मस्थान | जीरादेई गाँव, सारण, छपरा, बिहार |
मृत्यु | 28 फ़रवरी 1963 |
मृत्युस्थान | पटना, बिहार,भारत |
शिक्षा | एम.ए., एल.एल. बी., एलएलएम (स्वर्ण पदक) |
पेशा | अध्यापन-कार्य, वकालत, सम्पादन कार्य |
माता | कमलेश्वरी देवी |
पिता | महादेव सहाय |
पत्नी | राजवंशी देवी (मृत्यु 1961) |
प्रमुख रचनाएँ | भारतीय शिक्षा, गाँधी जी की देन, शिक्षा और संस्कृति, साहित्य, मेरी आत्मकथा इत्यादि |
भाषा | सरल और सुबोध हिन्दी भाषा |
शैली | साहित्यिक, भाषण |
साहित्य काल | आधुनिक काल |
विधाएं | पत्रिका, भाषण |
राजनैतिक दल | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
पुरस्कार और सम्मान | भारत रत्न |
राजेन्द्र प्रसाद का जीवन परिचय
राजेन्द्र प्रसाद (Rajendra Prasad) का जन्म 3 दिसंबर 1884 ई. में बिहार राज्य के छपरा जिले के जीरादेई नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता महादेव सहाय संस्कृत व फारसी भाषा के बहुत बड़े ज्ञानी थे। जबकि माता कमलेश्वरी देवी एक धार्मिक महिला थी। वे बचपन में राजेन्द्र प्रसाद को रामायण की कहानियां सुनातीं थी। राजेन्द्र बाबू का विवाह बाल्यकाल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया था।
राजेंद्र प्रसाद ने प्राथमिक शिक्षा उनके गांव जीरादेई से ही प्राप्त की। परिवार में एक प्रथा के कारण उन्हें 5 साल की उम्र में ही एक मौलवी के यहाँ भेज दिया गया, जहां उन्होंने फारसी, उर्दू, और हिंदी का ज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद यहीं से उन्होंने गणित की भी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। राजेन्द्र प्रसाद का 13 वर्ष की उम्र में राजवंशी देवी से विवाह होने के बाद, उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया, और 1902 में विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया।
प्रसाद जी ने ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय’ से एम.ए. और एम.एल.(तत्कालीन कानून ‘लॉ’ की डिग्री, एल.एल. बी.) की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पदक के साथ एलएलएम की परीक्षा पास की। राजेन्द्र प्रसाद बड़े परिश्रमी और कुशाग्र बुुद्धि छात्र होने के कारण ये अपनी कक्षाओं में सदैव प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते रहे।
अपना अध्ययन पूरा करने के पश्चात् राजेन्द्र प्रसाद ने मुजफ्फरपुर के एक कॉलेज में अध्यापन कार्य किया। सन् 1911 ई. में वकालत आरम्भ की और सन् 1920 ई. तक कलकत्ता और पटना उच्च न्यायालय में वकालत का कार्य किया। गाँधी जी के आदर्शों, सिद्धान्तों ओर आजादी के आन्दोलन से प्रभावित होकर सन् 1920 ई. में इन्होंने वकालत छोड़ दी और पूरी तरह देशसेवा में लग गए।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तीन बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सभापति चुने गए और सन् 1962 ई. तक भारत गणराज्य के राष्ट्रपति रहे। सन् 1962 ई. में इन्हें भारत की सर्वोच्च उपाधि ‘भारत-रत्न‘ से अलंकृत किया गया। सन् 1963 ई. में इनका देहावसान हो गया।
साहित्यिक परिचय
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के प्रयासों के फलस्वरूप कलकत्ता में ‘हिन्दी-साहित्य सम्मेलन‘ की स्थापना हुई। ये ‘हिन्दी-साहित्य सम्मेलन’ नागपुर के सभापति रहे तथा ‘नागरी प्रचारिणी सभा‘ ओर ‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा‘ के माध्यम से हिन्दी को समृद्ध बनाने में अपना योगदान देते रहे। इन्होंंने ‘देश‘ नाम पत्रिका का सफलतापूर्वक सम्पादन किया औरा इस पत्रिका के माध्यम से भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दिया। इन्हेांने राजनीति, समाज, शिक्षा, संस्कृति, जन-सेवा आदि विषयें पर कई सशक्त रचनाऍं प्रस्तुत की। जनसेवा, राष्ट्रीय भावना एवं सर्वजन हिताय की भावना ने इनके साहित्य को विशेष रूप से प्रभावित किया। और भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने।
रचनाएँ
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की मुख्य रचनाएँ है-
- भारतीय शिक्षा,
- भारतीय संस्कृति,
- गाँधी जी की देन,
- शिक्षा और संस्कृति,
- मेरी आत्मकथा,
- बापू जी के कदमों में,
- मेरी यूरोप-यात्रा,
- संस्कृति का अध्ययन,
- इंडिया डिवाइडेड,
- चम्पारन में महात्मा गॉंधी,
- खादी का अर्थशास्त्र,
- महात्मा गांधी और बिहार, कुछ यादें।
इसके अतिरिक्त इनके भाषणों के कई संग्रह भी प्रकशित हुए है।
भाषा-शैली
भाषा: डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सदेैव सरल और सुबोध भाषा के पक्षपाती रहे। इनकी भाषा व्यावहारिक है, इसलिए इसमें संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, बिहारी आदि भाषाओं के शब्दों का समुचित प्रयोग हुआ है। इन्होंने आवश्यकतानुसार ग्रामीण कहावतों और ग्रामीण शब्दों के भी प्रयोग किए है। इनकी भाषा में कहीं भी बनावटीपन की गन्ध नहीं आती। इन्हें आलंकारिक भाषा के प्रति भी मोह नहीं था। इस प्रकार इनकी भाषा सरल, सुबोध, स्वाभाविक और व्यवहारिक है।
शैली: डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की शैली के दो रूप प्राप्त होते है- साहित्यिक, भाषण, इन शैलियों अतिरिक्त डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी की रचनाओं में यत्र-तत्र “विवेचनात्मक, भावात्मक, आत्मकथात्मक” शैली के भी दर्शन होते हैं।
हिन्दी साहित्य में स्थान
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ के प्रतीक थे। यही बात इनके साहित्य में भी दृष्टिगोचर होती है। अपने चिारों की सरल और सुबोध अभिव्यक्ति के लिए ये सदैव याद किए जाऍंगे। हिन्दी के आत्मकथा-साहित्य के अन्तर्गत इनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘मेरी आत्मकथा’ का विशेष स्थान हैं।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद का शैक्षिक परिचय
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी शिक्षा बिहार और कोलकाता में प्राप्त की। उनकी शिक्षा यात्रा इस प्रकार रही:
प्रारंभिक शिक्षा:
- उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा छपरा (बिहार) के ज़िला स्कूल से पूरी की।
- 12 वर्ष की आयु में प्रवेश परीक्षा (Entrance Exam) उत्तीर्ण कर पटना के टी. के. घोष अकादमी में दाखिला लिया।
उच्च शिक्षा:
- 1889: पटना के प्रेसिडेंसी कॉलेज (अब पटना विश्वविद्यालय) में दाखिला लिया।
- 1902: कोलकाता विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी, इतिहास और अर्थशास्त्र में स्नातक (B.A.) किया।
- 1907: कोलकाता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में M.A. किया।
- इसके बाद उन्होंने विधि (Law) की पढ़ाई भी की और 1915 में लॉ की डिग्री प्राप्त की।
- वे स्वर्ण पदक विजेता (Gold Medalist) थे और अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल रहे।
कानूनी शिक्षा और डॉक्टरेट:
- 1915: कानून की पढ़ाई में टॉप करके गोल्ड मेडल प्राप्त किया।
- 1917: कानून में डॉक्टरेट (Doctorate in Law) की उपाधि प्राप्त की और पटना हाई कोर्ट में वकील के रूप में कार्य करने लगे।
स्वतंत्रता आंदोलन में राजेन्द्र प्रसाद का योगदान
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख नेता थे। वे न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे, बल्कि स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति भी बने। उनका योगदान निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं में देखा जा सकता है:
महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ाव
- राजेन्द्र प्रसाद ने 1917 में चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधीजी के साथ मिलकर किसानों की समस्याओं को उठाया और ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाया।
- असहयोग आंदोलन (1920) में उन्होंने अपनी वकालत छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में पूर्ण रूप से कूद पड़े।
- नमक सत्याग्रह (1930) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कई बार जेल गए।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में भूमिका
- वे 1934 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने और कांग्रेस को संगठित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- 1940 में रामगढ़ अधिवेशन में वे फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बने और ब्रिटिश सरकार के दमनकारी नीतियों के खिलाफ संघर्ष किया।
- जब 1942 में “भारत छोड़ो आंदोलन” हुआ, तब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और वे तीन वर्षों तक जेल में रहे।
संविधान सभा में योगदान
- भारत की स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
- वे संविधान सभा के अध्यक्ष बने और संविधान निर्माण की पूरी प्रक्रिया का नेतृत्व किया।
राष्ट्रपति के रूप में योगदान
- 26 जनवरी 1950 को जब भारत गणराज्य बना, तब राजेन्द्र प्रसाद पहले राष्ट्रपति बने।
- उन्होंने राष्ट्र निर्माण और संविधान के कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया।
राजेन्द्र प्रसाद का व्यक्तिगत जीवन
राजेंद्र प्रसाद का व्यक्तिगत जीवन सादगी, ईमानदारी और राष्ट्रसेवा का प्रतीक था। उनका विवाह राजवंशी देवी से हुआ था। पारिवारिक जीवन में वे जिम्मेदार थे, लेकिन राष्ट्रसेवा को प्राथमिकता दी। वे धार्मिक और आध्यात्मिक मूल्यों में विश्वास रखते थे। सत्ता में रहते हुए भी उन्होंने कभी भौतिक सुख-सुविधाओं की इच्छा नहीं की। सरल जीवन, उच्च विचार उनकी पहचान थी।
राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे को देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था – “बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया।”
सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था- “उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।”
सितम्बर 1962 में अवकाश ग्रहण करते ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। मृत्यु के एक महीने पहले अपने पति को सम्बोधित पत्र में राजवंशी देवी ने लिखा था- “मुझे लगता है मेरा अन्त निकट है, कुछ करने की शक्ति का अन्त, सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्त।” राम! राम!! शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अन्त 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाक़त आश्रम में हुआ।
उनकी वंशावली को जीवित रखने का कार्य उनके प्रपौत्र अशोक जाहन्वी प्रसाद कर रहे हैं। वे पेशे से एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक हैं। उन्होंने बाई-पोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा में लीथियम के सुरक्षित विकल्प के रूप में सोडियम वैलप्रोरेट की खोज की थी। अशोक जी प्रतिष्ठित अमेरिकन अकैडमी ऑफ आर्ट ऐण्ड साइंस के सदस्य भी हैं।
विरासत
डॉ. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे और भारतीय संविधान के निर्माण में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। उन्होंने संविधान निर्माण प्रक्रिया को सुव्यवस्थित और निष्पक्ष रूप से संचालित किया, जिससे भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य बना।
वे 1950 से 1962 तक भारत के प्रथम राष्ट्रपति रहे। इस दौरान उन्होंने राष्ट्रपति पद की गरिमा बनाए रखी और भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत किया। वे एक निष्पक्ष, न्यायप्रिय और जनसेवा को प्राथमिकता देने वाले राष्ट्रपति के रूप में जाने जाते हैं।
डॉ. प्रसाद ने शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उनके कार्यों में शामिल हैं:
- पटना विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में उच्च शिक्षा के सुधार।
- गरीब और दलित वर्ग के लिए शिक्षा और सामाजिक न्याय की वकालत।
- भारतीय संस्कृति और मूल्यों के संरक्षण पर जोर।
उन्होंने महात्मा गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों को अपनाया और जीवनभर उनके मार्गदर्शन में कार्य किया। उनकी सादगी, ईमानदारी और आत्मनिर्भरता आज भी राजनीति में नैतिकता का उदाहरण बनी हुई है।
- वे स्वदेशी आंदोलन के समर्थक थे और भारत में कृषि सुधारों की जरूरत को समझते थे।
- उन्होंने किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम किया और ग्रामीण विकास की दिशा में कई पहलुओं को प्रोत्साहित किया।
- वे भारतीय संस्कृति और परंपराओं के बड़े समर्थक थे।
- हिंदी, संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं के विकास के पक्षधर रहे।
- उनकी पुस्तकें ‘भारत का संविधान’ और ‘आत्मकथा’ आज भी अध्ययन का विषय हैं।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद की विरासत भारतीय लोकतंत्र, संविधान और राष्ट्रीय एकता की नींव में समाहित है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शक बनी रहेगी.
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के अनमोल विचार
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, भारत के प्रथम राष्ट्रपति, अपने सादगीपूर्ण जीवन और उच्च विचारों के लिए प्रसिद्ध थे। उनके कुछ प्रेरणादायक विचार इस प्रकार हैं:
- “मंज़िल को पाने की दिशा में आगे बढ़ते हुए याद रहे कि मंज़िल की ओर बढ़ता रास्ता भी उतना ही नेक हो।”
- “किसी की गलत मंशाएं आपको किनारे नहीं लगा सकतीं।”
- “जो बात सिद्धांत में गलत है, वह बात व्यवहार में भी सही नहीं है।”
- “हर किसी को अपनी उम्र के साथ सीखने के लिए खेलना चाहिए।”
- “खुद पर उम्र को कभी हावी नहीं होने देना चाहिए।”
इन विचारों से स्पष्ट होता है कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सादगी, सत्यनिष्ठा और निरंतर सीखने पर विशेष जोर दिया, जो आज भी हमारे लिए प्रेरणास्पद हैं।
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FAQs
राजेन्द्र प्रसाद का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसम्बर 1884 में बिहार राज्य के छपरा जिले के जीरादेई नामक ग्राम में हुआ था।
राजेन्द्र प्रसाद की मृत्यु कब और कहाँ हुई थी?
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी का 28 फ़रवरी 1963 ई. को पटना में देहावसान हो गया।
राजेन्द्र प्रसाद का विवाह किससे हुआ?
राजेन्द्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्यकाल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
राजेन्द्र प्रसाद ने शिक्षा कहाँ से प्राप्त की?
पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे।
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