जीवन परिचय
अशोक वाजपेयी का जन्म 16 जनवरी, सन् 1941 को दुर्ग (मध्य प्रदेश) में हुआ था। इन्होंने सागर विश्वविद्यालय से बी० ए० तदन्तर सेंट स्टीवेंस कॉलेज, दिल्ली से अंग्रेजी साहित्य में एम0 ए0 उत्तीर्ण किया। लोक सेवक के रूप में इन्होंने कला के उत्थान में अभूतपूर्व योगदान दिया है।
रचनाएँ
अशोक वाजपेयी की अब तक स्वलिखित और सम्पादित 33 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें शहर अब भी सम्भावना है (1966), एक पतंग अनन्त में (1984), अगर इतने से (1986), तत्पुरुष (1989), कहीं नहीं वहीं (1991), बहुरि अकेला (1992), थोड़ी-सी जगह (1994), घास में दुबका आकाश (1994), आविन्यो (1995), जो नहीं है (1996), अभी कुछ और (1998) और समग्र कविताओं का संचयन ‘तिनका-तिनका’ दो खण्डों में (1996) प्रकाशित कृतियाँ हैं। कविता के अलावा आलोचना की ‘फिलहाल’ (1979), कुछ पूर्वग्रह (1984), समय से बाहर (1994), सीढ़ियाँ शुरू हो गयी हैं (1996), कविता का गल्प (1996), कवि कह गया है (1998) कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं।
सम्पादित कृतियाँ
तीसरा साक्ष्य (1979), साहित्य विनोद (1984), कला विनोद (1986), पुनर्वसु (1989), कविता का जनपद (1993) के अलावा गजानन माधव मुक्तिबोध, शमशेर और अज्ञेय की चुनी हुई कविताओं का सम्पादन। कुमार गन्धर्व, निर्मल वर्मा, जैनेन्द्र कुमार, हजारीप्रसाद द्विवेदी और अज्ञेय पर एकाग्र पुस्तकें सम्पादित हैं।
साहित्यिक पत्रकारिता
साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अशोक वाजपेयी का उल्लेखनीय योगदान है। समवेत (1958-59), पहचान (1970-74), पूर्वग्रह (1974-1990), बहुवचन (1990), कविता एशिया (1990) समास (1992) आदि इनके साहित्यिक पत्रकारिता की पहचान के स्तम्भ हैं। इसके अतिरिक्त ‘द बुक रिव्य’ समेत अनेक पत्रिकाओं के सलाहकार सम्पादक रहे।
सम्मान
साहित्य अकादमी 1994 और दयावती मोदी कवि शिखर सम्मान से अलंकृत।
अशोक वाजपेयी समग्र जीवन की उच्छल अनुगूंजों के कवि हैं। उन्हें समय-बिद्ध कवि कहने के बजाय कालबिद्ध कवि कहना ज्यादा उपयुक्त है। उनका समग्रबोध भौतिक, सामाजिक और साधारण जीवन की ही कथा है। अशोक वाजपेयी की काव्यानुभूति की बनावट में सच्ची, खरी और एक सजग आधुनिक भारतीय मनुष्य की संवेदना का योग है जिसमें परम्परा का पुनरीक्षण और आधुनिकता की खोज दोनों साथ-साथ है।
वशिष्ठ मुनि ओझा के अनुसार-
अशोक वाजपेयी अपनी कविता में हमेशा विनम्र, प्रेम-पिपासु, उत्सुक, अन्वेषी मनुष्य लगते हैं, जिसे इस जीवन जगत् से गहरा प्रेम है। वे समकालीन काव्यशास्त्र की बनी-बनायी रूढ़ियों के प्रचलित रास्तों को छोड़कर अपनी राह पर चलनेवाले निर्भय कवि हैं।
1. युवा जंगल
अपनी हरी उँगलियों से बुलाता है।
मेरी शिराओं में हरा रक्त बहने लगा है।
आँखों में हरी परछाइयाँ फिसलती हैं
कन्धों पर एक हरा आकाश ठहरा है
होंठ मेरे एक हरे गान में काँपते हैं-
मैं नहीं हूँ और कुछ
बस एक हरा पेड़ हूँ
-हरी पत्तियों की एक दीप्त रचना।
ओ जंगल युवा,
बुलाते हो
आता हूँ
एक हरे वसन्त में डूबा हुआ
आऽताऽ हूँ….।
2. भाषा एकमात्र अनन्त है
फूल शब्द नहीं!
बच्चा गेंद उछालता है,
सदियों के पार
लोकती है उसे एक बच्ची!
बूढ़ा गाता है एक पद्य,
दुहराता है दूसरा बूढ़ा,
भूगोल और इतिहास से परे
किसी दालान में बैठा हुआ!
न बच्चा रहेगा,
न बूढ़ा,
न गेंद, न फूल, न दालान
रहेंगे फिर भी शब्द
भाषा एकमात्र अनन्त है।
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