जीन पियाजे के अनुसार मानसिक / ज्ञानात्मक या संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त
Theory of Mental or Cognitive Development According to Jean Piaget
जीन पियाजे का जन्म सन् 1886 को स्विट्जरलैंड में हुआ था। प्याजे ने अपने सम्पूर्ण जीवन में मानव विकास का अध्ययन किया। आधुनिक युग में ज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में स्विट्जरलैंड के मनोवैज्ञानिक (Swiss psychologist Jean Piaget) जीन पियाजे ने क्रान्ति पैदा कर दी।
आज तक ज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में जितने शोध एवं अध्ययन किये गये हैं, उनमें सबसे अधिक विस्तृत, वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित अध्ययन प्याजे ने किया। यही कारण है कि जीन प्याजे को मनोविज्ञान के क्षेत्र में तृतीय शक्ति (third force) के रूप में जाना जाता है।
पियाजे के ज्ञानात्मक सिद्धान्त में ज्ञानात्मक प्रकिया (Cognition) का अर्थ ज्ञान (Knowledge) से नहीं है बल्कि इसका सम्बन्ध मानव बुद्धि से है, जो ज्ञान को व्यवस्थित एवं संगठित (Organize) करती है तथा उसका उपयोग (Utilize) करती है।
पियाजे का सिद्धान्त शिशु अवस्था से किशोरावस्था तक के बालक के ज्ञानात्मक विकास एवं व्यवहार के प्रति सूक्ष्म दृष्टि एवं सूझ उत्पन्न करता है, जो शिक्षक के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है। पियाजे के अनुसार ज्ञान कार्य करने से प्राप्त होता है।
जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास पर एक नवीन सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार संज्ञान विकास की अवधारणा आयु (Age) न होकर बालक के द्वारा चाही गयी अनुक्रिया तक पहुँचने की निश्चित प्रगति है। बालक बाद की अवस्था की क्रिया नीतियों को प्रारम्भ के स्तर की क्रिया नीतियों की उपलब्धि और उनके अभ्यास के बिना ग्रहण नहीं कर सकता।
आसुबेल के अनुसार, “Piaget’s stage are identical sequential phases in an orderly progression of development that are qualitatively discriminable from adjacent phases generally characteristic of most members of a broadly defined age range.“
जीन पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास के स्तर
Steps of cognitive development according Piaget
जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को निम्न स्तरों में वर्गीकृत किया है-
1. संवेगात्मक अनुकूलन काल (The period of sensorimotor adaptation)
जन्म से दो वर्ष तक के बालक का असाधारण काल उसकी मानसिक क्रियाओं के प्रभुत्व से प्रारम्भ होता है और धीरे-धीरे संवेदी-गामक हो जाता है। इस स्तर के बौद्धिक विकास की विशेषताएँ निम्न होती है-
-
वस्तु की अवधारणा का निर्माण (Object concept formation)
-
समन्वित अन्तराल (Co-ordinated space)
-
उद्देश्यपूर्ण दायित्व भाव (Objectified causality)
-
समय की उद्देश्यपूर्णता (Objectification of time)
अपने जीवन के प्रथम वर्ष में बालक किसी भी वस्तु की अवधारणा विकसित कर लेता है। इसके बाद बालक अपनी पहुँच से परे लुप्त वस्तुओं का पुनरुद्धार करने का प्रयास करता है। वस्तु की स्थायित्वता और उसको मस्तिष्क में ग्रहण करने के पश्चात्, अभ्यास के सभी अवसरों का उपयोग करता है।
इस चरण की अवस्था में बालक जन्म के समय बाह्यजगत के बारे में कोई ज्ञान नहीं रखता है, किन्तु धीरे-धीरे ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से बाह्य संसार का बोध करना प्रारम्भ कर देता है। इस दो वर्षीय अवस्था में बालक उद्दीपक जगत का ज्ञान केवल अपनी सम्वेदनाओं तथा शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से प्राप्त करता है। यह अवस्था संवेदी-गामकअनुकूलन-काल के नाम से पुकारी जाती है।
2. प्रतीकात्मक एवं पूर्व अधारणात्मक विचार का विकास काल (The period of development of symbolic and perceptual thought)
संवेदी-गामक काल के ठीकअन्त में बालक विचारात्मक प्रतिनिधित्व द्वारा पर्यावरण तथा निकट वातावरण के साथ अपना व्यवहार प्रारम्भ कर देता है। अनुकरण (Imitation) तथा व्यावहारिक क्रियाओं के द्वारा बालक अपने सम्पर्क क्षेत्र का व्यापक प्रसार प्रारम्भ कर देता है।
उसकी यह संज्ञानात्मक तथा प्रतीक्षात्मक क्रियाएँ, प्रतीकों के प्रयोग की ओर संकेत करती हैं। चार वर्ष की आयु तक बालक प्रतिबोधक संकेतों (Perceptual cues) की अनुपस्थिति में वातावरण का प्रतिनिधित्व करने हेतु मार्ग खोज लेता है और प्रतीकात्मक योजनाओं के कुलक (Set) का निर्माण करता है।
3. अंतर्ज्ञान के विचार का काल (The period of Inner-sense thought)
इस अंतर्ज्ञान के विचार के काल अर्थात् चार से आठ वर्ष की आयु के मध्य में बालक अपने पूर्व और वर्तमान अनुभव के लिये सन्तुलित एवं सामान्यीकरण हेतु अवधारणाओं का उपयोग करना समझ लेता है। इस काल में बालक ज्ञान की अवधारणा तथा अन्तर्ज्ञान के आधार पर तर्क प्रस्तुत करता है।
इस काल में तर्क की संगतता का उनके मस्तिष्क में कोई आधार नहीं होता। इस काल में बालक का अन्तर्ज्ञानमय विचार प्रमुखत: स्थिर संरूपणों (Configurations) से सम्बन्धित होता है। बालक परिवर्तन के लिये सदैव उत्सुक रहते हैं।
4. मूर्त प्रयोगों का काल (The period of concrete operations)
यह काल आठ से 12 वर्ष की आयु में माना गया है। मूर्त प्रयोगों के काल में बालक अपना ध्यान स्थिर परिस्थितियों से हटाने में समर्थ होते हैं और वर्तमान प्रक्रिया के अन्तर्गत घटित होने वाले क्रमबद्ध परिवर्तनों के सम्पूर्ण ढाँचे पर ध्यान केन्द्रित करने योग्य हो जाते हैं। इस काल के बालक ठीक प्रकार तर्क करने योग्य हो जाते हैं।
इस सन्दर्भ में जीन पियाजे ने प्रयोगों (Practical’s or Operations) की वृहद सूची प्रस्तुत की है, जो कि संख्याओं को विभिन्न सम्बन्धों में हल करने में सहायक है और वस्तुओं को वर्गों तथा उपवर्गों में व्यवस्थित करती है। पियाजे ने प्रयोगों के ढाँचे का नाम वर्ग-बन्धन (Grouping) रखा है।
मूर्त प्रयोगों के प्रारम्भ का बिन्दु गोपनीय न होकर खुला हुआ होता है। सात से ग्यारह वर्ष के बालक के प्रमुख कार्य तत्कालीन समय को संगठित करने वाले होते हैं। मूर्त प्रयोगों के समय बालक के चिन्तन में कुछ तर्कसंगत भ्रान्तियाँ होती हैं। पियाजे ने इसे समन्वयवाद (Syncretism) के नाम से पुकारा है।
5. व्यावहारिक प्रयोगों का काल (The period of formal operations)
यह अवस्था बारह वर्ष से किशोर काल के प्रारम्भ तक होती है। इस काल में बालक की विचार शक्ति पर्याप्त तर्कसंगत होती है। इस काल में बालक पूर्ण दायित्व को समझने लगते हैं। बालक व्यावहारिकता में विश्वास करने लगते हैं। वास्तविकता उसके विचार की सम्भावना को निर्दिष्ट करती है।
इस काल में बालक कल्पितनिगामी तर्क (Hypothetico deductive reasoning) के रूप में अपने कार्य को प्रारम्भ करता है। इस काल में बालक व्यावहारिक प्रयोगों के उपयोग को मस्तिष्क की ग्रहण शक्ति का नियन्त्रण पक्ष कहा गया है।
इस काल में अपने व्यावहारिक चिन्तन का खुलकर प्रयोग करना प्रारम्भ कर देता है। इस काल का बालक व्यावहारिक प्रयोगों का परिवर्तनों (Variables) के अभिज्ञान हेतु उपयोग करता है।
पियाजे की प्रमुख संकल्पना
Main Concepts of Piaget
पियाजे ने अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त में निम्न संकल्पनाओं का प्रयोग किया है-
1. जैविक परिपक्वता (Biological maturation)
पियाजे से पूर्व जैविक प्रेरकों तथा परिपक्वता (Maturation) का सिद्धान्त प्रचलित था। भूख, प्यास एवं कामेच्छा आदि प्रेरकों से बालकों के व्यवहार तथा शारीरिक विकास की जानकारी होती है। पियाजे के अनुसार, विकास के लिये जैविक परिपक्वता आवश्यक है।
जैविक परिपक्वता से शरीर के अंगों; जैसे– माँसपेशियों, अस्थियों और इन्द्रियों में परिपक्वता आती है। जब तक शरीर के अंगों में परिपक्वता नहीं आयेगी, वे किसी भी प्रकार का व्यवहार करने में असमर्थ होंगे। अतः विकास के लिये परिपक्वता आवश्यक है। परिपक्वता की धारणा ने शिक्षा मनोविज्ञान में सीखने की तत्परता (Readiness to leam) के मत को विकसित किया।
2. भौतिक वातावरण के साथ अनुभव (Experiences with the physical Environment)
मनोविज्ञान में बालक के सीखने के सिद्धान्त तथा बालक के ज्ञानेन्द्रिय एवं गत्यात्मक कौशल का विशेष महत्त्व है। बालक प्रयत्न एवं भूल, पुनर्बलन, अभ्यास विलोयन (Extinction) तथा अन्त: क्रिया (Interaction) के द्वारा सीखता है, जिससे उसका विकास होता है।
अभ्यास (Exercise) से व्यवहार में संशोधन तथा परिष्कार होता है। आरम्भ में तो बालक अपने आप ही अपनी क्रियाओं को व्यवस्थित करता है। बाद में उन्हें परिष्कृत करता है, इसी प्रकार भौतिक अनुभवों का सीधा सम्बन्ध भौतिक वातावरण से है।
यदि एक छोटे बालक को काँच की शीशी दे दी जाय तो वह जिस प्रकार पत्थर को पटकता है उसी प्रकार शीशी को पटक देगा, जिससे शीशी टूट जायेगी। शीशी के टूटने से बालक को एक नया अनुभव प्राप्त होगा। कुछ प्रयोगों के बाद बालक सीख जाता है कि यदि शीशी को पटक दिया जाये तो वह टूट जायेगी।
इस प्रकार बालक नयी परिस्थितियों में अपने आपको समायोजित कर लेता है कि काँच की बोतल को नहीं पटकना चाहिये।
3. सामाजिक वातावरण के साथ अनुभव (Experience with the social environment)
व्यक्ति सामाजिक वातावरण के साथ अनेक प्रकार के अनुभव प्राप्त करता है, जिससे वह सीखता है, जो उसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं; जैसे– सामाजिक वातावरण, सहयोग, स्पर्धा, पारस्परिक आदर, लोकाचार (Folkways) एवं रूढ़ियों (Mores) आदि को बालक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के द्वारा सीखता है।
प्याजे ने इन सभी अनुभवों को सीखने में भाषा के महत्त्व को स्वीकार किया है। पियाजे ने संज्ञानात्मक (Cognitive) सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए भाषा को सामाजीकरण का सार माना है।
4. संतुलन (Equilibration)
उपर्युक्त तीनों कारकों जैविक परिपक्वता, भौतिक, वातावरण के साथ अनुभव तथा सामाजिक वातावरण के साथ अनुभव का विश्लेषण करके पियाजे ने सन्तुलन को अपने सिद्धान्त का आधार बनाया तथा विकास के संतुलन का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
पियाजे के अनुसार संतुलन विकास का आधारभूत कारक है, जो जैविक परिपक्वता, भौतिक वातावरण के साथ अनुभव एवं सामाजिक वातावरण के साथ अनुभव में समन्वय स्थापित करता है।
पियाजे ने समान भार के किसी खाद्य पदार्थ के दो रोल बनाये। एक रोल को प्याजे ने लम्बा कर दिया तथा दूसरे रोल को छोटा कर दिया। दोनों रोल एक बालक के सामने रखे तथा उससे एक रोल उठाने को कहा। बालक समझता है कि बड़े रोल में अधिक खाद्य पदार्थ हैं। इस कारण वह बड़े रोल को उठा लेता है।
पियाजे के अनुसार ‘सन्तुलनीकरण‘ एक स्वचलित प्रगतिशील प्रक्रिया है, जो व्यक्ति को विकास हेतु अग्रसर करने में सहायता करती है।
5. अनुकूलन (Adaptation)
यह दो क्रियाओं के द्वारा होता है-
-
आत्मसात्करण (Assimilation)
-
व्यवस्थापन (Accommodation)
आत्मसात्करण (Assimilation)
आत्मसात्करण के समय व्यक्ति बाह्य जगत् की व्याख्या अपने पूर्व अनुभवों एवं ज्ञान के आधार पर करता है; जैसे– एक बालक जब पहली बार चिड़ियाघर में ऊँट देखता है तब वह अपने पूर्व अनुभवों एवं ज्ञान के भण्डार से छानबीन तब तक करता है, जब तक वह अनजान दिखने वाले जानवर का साम्य नहीं ज्ञात कर लेता और वह कहता है- ‘घोड़ा’।
व्यवस्थापन (Accommodation)
व्यवस्थापन में पूर्व अनुभवों में संशोधन किया जाता है। बालक जो ऊँट को घोड़ा कहता है वह देखता है कि इस जानवर की अनेक विशेषताएँ घोड़े से पृथक हैं। अत: वह अपनी कल्पना में सुधार करता है, अपने माता-पिता से पूछता है एवं ऊँट को अपने ज्ञान भण्डार में जोड़ता है।
पियाजे की मानसिक विकास की अवस्थाएँ
Stages of Piaget’s Cognitive Development
पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की आयु के अनुसार निम्न चार अवस्थाएँ बतायी हैं-
-
संवेदीगात्मक अवस्था : 0-2 वर्ष (Sensorimotor stage)
-
पूर्व-क्रियात्मक अवस्था : 2-7 वर्ष (Pre-operational stage)
-
मूर्त-क्रियात्मक अवस्था : 7-11 वर्ष (Concrete-operational stage)
-
औपचारिक क्रियात्मक अवस्था :11-15 वर्ष (Formal-operational stage)
1. संवेदीगात्मक अवस्था: 0-2 वर्ष (Sensorimotor Stage)
यह अवस्था बालक के जन्म से लेकर 2 वर्ष की अवधि तक रहती है। इस अवस्था में बालक इन्द्रियों और संवेदनाओं के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है। इसमें जीवन के प्रथम वर्ष में बालक किसी वस्तु की अवधारणा विकसित करता है। इसके बाद बालक अपने पहुँच से परे लुप्त हुई वस्तुओं का पुनरुद्धार करने का प्रयत्न करता है। वस्तुओं का आकार अपने मस्तिष्क में ग्रहण करने के पश्चात् वह अभ्यास के अवसरों का उपयोग करता है।
जन्म के समय बालक कोई ज्ञान नहीं रखता। धीर-धीरे वह ज्ञान प्राप्त करता है। यह समस्त ज्ञान इन्द्रियों और संवेदनाओं के द्वारा प्राप्त करता है। इस आयु में बालक शारीरिक रूप से वस्तुओं को पकड़कर इधर-उधर रखता है, उन्हें उठाता है, हिलाता-डुलाता है तथा वस्तुओं को मुँह में डालकर ज्ञान प्राप्त करता है। विस्तार से पढ़ें – संवेदीगात्मक अवस्था।
2. पूर्व-क्रियात्मक अवस्था: 2-7 वर्ष (Preoperational Stage)
यह भाषा कौशल विकास की प्रमुख अवस्था है, जिसमें सन्दर्भ शब्दों की समझ पैदा होने लगती है। अब बालक वस्तु तथा उसके सन्दर्भ को प्रकट करने वाले शब्दों में अन्तर स्पष्ट करने लगता है। चिह्न एवं प्रतीक में अन्तर स्पष्ट होने लगते हैं।
विचार एवं कार्यों में गति आ जाती है, जिससे बालक अधिक से अधिक सूचनाएँ एकत्र करने लगता है। धीरे-धीरे उसमें तार्किक गणितीय सम्प्रत्ययों (Logic mathematical operation) का विकास होने लगता है। क्रियाओं का मानसिक प्रस्तुतीकरण प्रारम्भ हो जाता है, जिसे विचार (Thought) कहा जाता है।
यह अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखना या सूझ द्वारा सीखना (Insight learning) की आदिम अवस्था है, जिसमें बालक किसी बाह्य व्यवहार (Overcaution) के बिना अपनी समस्याओं को मानसिक रूप से सुलझाने लगता है। विस्तार से पढ़ें – पूर्व-क्रियात्मक अवस्था।
3. मूर्त-क्रियात्मक अवस्था: 7-11 वर्ष (Concrete-operational Stage)
मूर्त क्रियात्मक अवस्था 7 से 11 वर्ष तक होती है। इसे संज्ञानात्मक विकास का मुख्य परिवर्तन बिंदु माना जाता है। जब बालक इस अवस्था में आता है तो उसके विचार प्रौढ़ों के विचारों के अधिक निकट होते हैं। इस अवस्था में बालक अनेक तार्किक क्रियाएँ करने में समर्थ हो जाता है।
मूर्त क्रियात्मक तर्क अधिक तार्किक, नम्य और संगठित होता है। इस अवस्था में बालक-बालिकाओं में चिन्तन समस्या समाधान के कौशल का विकास होता है। विस्तार से पढ़ें – मूर्त-क्रियात्मक अवस्था।
4. औपचारिक-क्रियात्मक अवस्था: 11-15 वर्ष (Formal-operational Stage)
यह अवस्था मानसिक विकास की ऊर्ध्वगामी प्रक्रिया (Vertical Decalage) की अवस्था है अर्थात् इस अवस्था में समस्याओं के समाधान हेतु उच्च मानसिक स्तर की मानसिक क्षमताएँ विकसित होती हैं, जबकि मूर्त क्रियात्मक अवस्था (Concrete operational stage) में क्षैतिज (Horizontal) दिशा में मानसिक क्षमताओं का विकास अधिक होता है।
इस अवस्था में किशोर विचारों के माध्यम से स्थूल अनुभवों के अभाव में भी चिन्तन कर सकता है तथा समस्याओं का मानसिक समाधान ढूँढ सकता है। वह परिकल्पनाएँ बना सकता है तथा उनकी सत्यता स्थापित कर सकता है। विस्तार से पढ़ें – औपचारिक-क्रियात्मक अवस्था।
पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का शैक्षिक अनुप्रयोग
Educational Implication of Piaget’s Cognitive Development Theory
ज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त से स्पष्ट हो जाता है कि बालक में ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न होती है। शिक्षा का आयोजन बालक की आयु एवं ज्ञानात्मक क्षमता के अनुकूल होना चाहिये। विद्यालय पूर्व बालकों का पालन-पोषण एवं उनके बौद्धिक क्षमताओं के विकास में माता-पिता को शिशु की ज्ञानात्मक क्षमताओं एवं विकास की प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिये।
पियाजे के संज्ञानात्मक या ज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत के आधार पर शैक्षिक महत्त्व की दृष्टि से निम्न तथ्य स्पष्ट होते हैं-
-
अध्यापक को चाहिये कि वह अपने आपको विद्यार्थी के स्थान पर रखे एवं घटनाओं एवं समस्याओं को विद्यार्थियों की दृष्टि से देखें। यह आसान कार्य नहीं है किन्तु इसे साक्षात्कारों, निरीक्षणों एवं प्रश्नावलियों द्वारा किया जा सकता है। इस प्रकार बौद्धिक समानुभूति के द्वारा अध्यापक विद्यार्थी के संज्ञानात्मक विकास को समझ सकता है एवं तदनुसार अध्यापन कर सकता है।
-
विद्यालय पूर्व एवं प्राथमिक विद्यालयों के विद्यार्थी विशेषकर मूर्त वस्तुओं, सामग्रियों एवं घटनाओं से अच्छी तरह सीखते हैं। वे शब्दों एवं अन्य प्रकार के संकेतों पर कम ध्यान देते हैं। बालकों को वस्तुओं को परिचालित (Manipulate) करने, स्पर्श करने, क्रिया करने, देखने एवं अनुभूत करने का अवसर देना चाहिये, जिससे उन्हें संकल्पनाओं को समझने में सहायता मिलेगी तथा उनका अधिगम भी प्रभावी होगा।
-
पियाजे ने ‘खोज’ एवं आगमनात्मक उपागम को प्रोत्साहित किया है। इन उपागमों के द्वारा विद्यार्थी व्यक्तिगत खोज के द्वारा संकल्पनाओं एवं सिद्धान्तों की समझ अर्जित करते हैं। जिन विद्यार्थियों में इन उपागमों द्वारा समझ विकसित नहीं होती, उन्हें बाद में भौतिक शास्त्र की कक्षाओं में कठिनाई आती है। जो बालक पत्थर, मिट्टी एवं छड़ी से नहीं खेल पाते उन्हें जोड़, घटाव, गुणा एवं भाग की संकल्पनाएँ सीखने में कठिनाई आती है।
-
पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के द्वारा अनुदेशन के क्रम निर्धारण में भी पर्याप्त सहायता मिलती है। प्याजे का विचार था कि अनुदेशन का प्रारम्भ वस्तुओं के अस्त-व्यस्त ढेर से करना चाहिये। भू-विज्ञान (Earth science) में चट्टानों के स्पर्श द्वारा प्रारम्भ किया जा सकता है।
किण्डरगार्टन में अक्षरों के ब्लॉक्स के द्वारा तथा प्राथमिक कक्षाओं में बीज एवं पृथ्वी को रखा जा सकता है। द्वितीय भाग में प्रत्यक्षणात्मक स्पष्टता पर ध्यान देना चाहिये। दृश्य-श्रव्य सामग्रियों का बहुतायात में उपयोग करना चाहिये। विद्यार्थियों को मूर्त वस्तुएँ प्रदान करनी चाहिये तत्पश्चात् शाब्दिक चर्चा की जानी चाहिये।
नये अनुभव संज्ञानात्मक संरचना से अन्तर्किया का रूप उत्पन्न करते हैं और समझ विकसित करते हैं। बालक जो पूर्व में जानता है उसमें नये अनुभवों को ठीक से बैठाना चाहिये।
-
विद्यार्थियों को उनके संज्ञानात्मक विकास के अनुसार स्वयं की गति के द्वारा सीखने देना चाहिये। उन्हें अपने अधिगम को स्वयं संचालित करना चाहिये अर्थात् अनुदेशन व्यक्तिपरक होना चाहिये।
-
अन्य व्यक्तियों के साथ अन्त: क्रिया करने से संज्ञानात्मक के साथ-साथ भावनात्मक मूल्य भी विकसित होते हैं। बालक के आत्मकेन्द्रित चिन्तन के कारण वह प्रत्येक वस्तु को ऐसे देखता है; जैसे– सार्वभौम का केन्द्र हो।
-
पियाजे के कार्य के द्वारा हम बुद्धि परीक्षण कर सकते हैं। उसमें सांस्कृतिक अथवा सामाजिक वर्ग का पक्षपात कम रहता है। इस नये परीक्षण के द्वारा बालक की तार्किक क्रियाओं का मूल्यांकन किया जाता है।
-
प्रतीक के माध्यम से सीखने की क्षमता पूर्व क्रियात्मक (Pre-operational stage) अवस्था में आती है। अत: छोटे बालकों के लिये विशेष रूप से प्राथमिक विद्यालयों में प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग करना चाहिये।
-
मूर्त-क्रियात्मक अवस्था (Concrete operational stage) गणितीय अवधारणाओं के विकास की अति उत्तम अवस्था है। अत: सभी प्रकार आधारभूत गणितीय अवधारणाओं का निर्माण प्राथमिक स्तर पर कर देना चाहिये।
-
अमूर्त चिन्तन की क्षमता किशोरावस्था में आती है। अत: उच्च मानसिक क्षमताओं के लिये अपेक्षित शिक्षण किशोरावस्था में होना चाहिये।
-
खेल ज्ञानात्मक विकास का प्रमुख साधन है। अत: छोटी उम्र के बालकों को नियमबद्ध तथा स्वतन्त्र दोनों प्रकार के खेलों के अवसर प्रदान करने चाहिये।
-
बालक ज्ञान का निर्माण स्वयं करते हैं। उनके सीखने-समझने तथा अवधारणाओं के निर्माण का अपना अलग ढंग होता है। अत: उन्हें सुविधाएँ देकर स्वयं सीखने का अवसर देना चाहिये।
-
सीखने में बुद्धि का सर्वाधिक योगदान है। बुद्धि के विकास के अनुरूप सीखने की सामग्री तथा उपागम का प्रयोग करना चाहिये। पियाजे के सिद्धान्त में बुद्धि के विकास में वंशानुक्रम, वातावरण तथा परिपक्वता तीनों का योगदान है। अतः इन्हीं कारकों के अनुकूल छात्रों से अधिगम की अपेक्षा करनी चाहिये।
-
बौद्धिक विकास में क्रियाशील अनुभवों का अधिक योगदान है। अत: छात्र को करके सीखने के जितने अवसर मिलेंगे उसमें उतना ही अधिक स्थायी एवं स्पष्ट अधिगम तथा बौद्धिक विकास होगा।
-
कुछ व्यवहार या मानसिक कार्य जो किसी छात्र की मानसिक क्षमता के परे उच्च स्तर के होते हैं। उन्हें छात्र समझ नहीं पाते तथा रटकर उन्हें याद कर लेते हैं। इस प्रकार रटना छात्रों के मानसिक विकास के लिये घातक है। अत: उसकी क्षमता के अनुरूप ही उससे अपेक्षा करनी चाहिये।
-
ज्ञानात्मक विकास की दृष्टि से पाठ्यक्रम का निर्माण होना चाहिये, जिनमें-
- भौतिक ज्ञान का विकास हो।
- सामाजिक ज्ञान का विकास हो।
- तार्किक ज्ञान का विकास हो; जैसे-वर्गीकरण, क्रम, अंक, स्थान एवं समय आदि का ज्ञान।
- प्रतीकात्मक एवं भाषागत प्रस्तुतीकरण हो।
- खेल एवं कौशल का विकास हो।
- वैचारिक विकास हो।