विद्यालय का बालक के अधिगम या विकास में योगदान– अधिगम को प्रभावित करने वाले विद्यालय से सम्बन्धित कारक अथवा बालक के अधिगम या विकास में विद्यालय का योगदान (Factors Influencing Learning and Teaching Process Related to the School or Contribution of School in Child Learning/Development):
स्कूल (School) शब्द– स्कोला (Schola) से बना है जिसका अर्थ है- अवकाश। यूनान में विद्यालयों में पहले खेलकूद आदि पर बल दिया जाता था। कालान्तर में विद्यालय, विद्या प्रदान करने के केन्द्र बन गये।
जॉन ड्यूवी (John Dewey) के अनुसार- “विद्यालय अपनी चाहरदीवारी के बाहर वृहत समाज का प्रतिबिम्ब है। जिसमें जीवन को व्यतीत करके सीखा जाता है। यह एक शुद्ध, सरल तथा उत्तम समाज है।”
टॉमसन के अनुसार- “विद्यालय, बालकों का मानसिक, चारित्रिक, सामुदायिक, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय विकास करता है तथा स्वस्थ रहने का प्रशिक्षण देता है।”
रॉस (Ross) के अनुसार- “विद्यालय वे संस्थाएँ हैं, जिनको सभ्य मनुष्य के द्वारा इस उद्देश्य से स्थापित किया जाता है कि समाज में सुव्यस्थित और योग्य सदस्यता के लिये बालकों की तैयारी में सहायता मिले।”
मॉण्टेसरी (Montessori) ने “विद्यालय को वचपन का घर (House of childhood) कहा है।”
विद्यालय बालक के अधिगम या विकास को निम्न प्रकार से प्रभावित करता है-
- अधिगमकर्ता या शिक्षार्थी से सम्बन्धित कारक (Factors related to learner)
- शिक्षक से सम्बन्धित कारक (Teacher related factors)
- ध्यापन प्रक्रिया या अधिगम-व्यवस्था से सम्बन्धित कारक (Factors related to teaching process or management of learning)
- विषय-वस्तु या पाठ्य-वस्तु से सम्बन्धित कारक (Subject content matter related factors)
अधिगमकर्ता से सम्बन्धित कारक (Factors related to learner)
शिक्षार्थी से सम्बन्धित कारक जो अधिगम एवं शिक्षण प्रक्रिया (Learning and teaching process) को प्रभावित करते हैं, निम्नलिखित हैं –
1. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य (Physical and mental health)
जो छात्र शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ्य होते हैं, वे सीखने में अधिक रुचि लेते हैं। सीखने से पहले बालक का शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहना भी नितान्त आवश्यक है।
किसी भी प्रकार की मानसिक विकृति, शारीरिक रुग्णता तथा मानसिक तनाव का प्रत्यक्ष प्रभाव बालकों के अधिगम पर प्रतिकूल पड़ता है। शारीरिक एवं मानसिक रूप से अस्वस्थ बालक शीघ्र ही थक जाते हैं।
हम अपने अनुभव से यह जानते हैं कि जब हम बीमार होते हैं तब हमारी इच्छा किसी कार्य को करने में नहीं होती है। अत: सामान्य स्वास्थ्य वाले विद्यार्थी रोगी विद्यार्थियों की तुलना में शीघ्रता से सीखते हैं।
2. परिपक्वता (Maturity)
अधिगम की प्रक्रिया को बालक की शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता अधिक प्रभावी बनाती है। छोटी कक्षाओं में बालक की माँसपेशियों को सुदृढ़ बनाने की ओर ध्यान दिया जाता है ताकि वे कलम, किताब आदि को पकड़ना सीख जायें।
उन्हें व्याकरण एवं पहाड़े आदि का ज्ञान भी इसी दृष्टि से बाद में कराया जाता है। यदि शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता न हो तो सीखने में समय और शक्ति का नाश होता है।
कॉल्सेनिक (Kolsenik) के अनुसार- “परिपक्वता और सीखना पृथक् प्रक्रियाएँ नहीं हैं वरन् एक-दूसरे पर निर्भर हैं।”
गिलफोर्ड (Guilford) ने अपने शोध अध्ययन द्वारा यह बताया कि शैशवावस्था से बाल्यावस्था एवं बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक सीखने की गति में क्रमशः तीव्रता आ जाती है। बालक जन्म के समय सहज क्रियाएँ (Reflex action) करता है। उसके दो मुख्य कार्य होते हैं-माता के स्तनों से दुग्धपान करना एवं मल-मूत्र त्यागना। जैसे-जैसे उसकी अभिवृद्धि एवं विकास होता है वैसे-वैसे वह परिपक्व होता जाता है। परिपक्वता के साथ-साथ
उसके सीखने की योग्यता में भी वृद्धि होती है।
3. सीखने की तत्परता (Readiness of learning)
बालकों को नया ज्ञान देने से पूर्व यह नितान्त आवश्यक है कि उनमें सीखने के प्रति तत्परता उत्पन्न की जाये क्योंकि ऐसा होने पर विद्यार्थी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी किसी बात को सीखने में सफल हो जाता है। सीखने की इच्छा के अतिरिक्त छात्रों का आकांक्षा स्तर भी उच्च कोटि का होना चाहिये जिससे कठिन तथ्यों को भी आसानी से समझ सके।
थॉर्नडाइक ने बताया कि यदि हममें किसी कार्य को सीखने की तत्परता है तब हम उसे शीघ्र सीख लेते हैं। इसके विपरीत यदि हमें दबाव देकर कोई कार्य सिखाया जाता है तब हम उसे नहीं सीख पाते, तत्परता में व्यक्ति में निहित उन सभी विशेषताओं का योग शामिल होता है, जो सीखने को आगे बढ़ाती है अथवा पीछे धकेलती हैं।
इनमें से प्रमुख हैं- (1) परिपक्वता (Maturity) (2) अनुभवात्मक पृष्ठभूमि (Experimental background) (3) अभिप्रेरणात्मक स्तर (Motivational level)।
4. अनुभवात्मक पृष्ठभूमि (Experimental background)
अधिगगकर्ता की अनुभवात्मक पृष्ठभूमि उसके सीखने को प्रभावित करती है। इसमें वे अनुभव शामिल होते हैं, जो नये अधिगम को आगे बढ़ाते हैं। वह बालक जिसे वस्तुओं अथवा चित्रों को संकेतों के साथ साहचर्यित करने का अनुभव न हो, भले ही उसकी शारीरिक परिपक्वता एवं सामान्य मानसिक योग्यता स्तर पर्याप्त हो, पढ़ने के लिये तत्पर नहीं होगा। जिन बालकों में प्रारम्भिक अंकों की संकल्पना विकसित नहीं हुई और मूर्त अंकों की समझ न हो तब वे अंकगणितीय अधिगम भी धीमी गति से सीखेंगे।
यदि छात्र किसी विषय में पिछड़ा है तो उस विषय से सम्बन्धित नवीन ज्ञान सीखने में उसे कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। यदि किसी छात्र की एक विषय में शैक्षिक योग्यता सामान्य से अधिक है तो छात्र इस विषय में ज्ञान सुगमता से सीख लेगा।
5. अभिप्रेरणात्मक स्तर (Motivational level)
सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सीखने की प्रक्रिया में प्रेरकों (Motives) का स्थान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रेरक, बालकों को नयी बातें सीखने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। यदि
बालक को किसी नवीनतम् ज्ञान अथवा कार्य को सीखने के लिये प्रेरित नहीं किया जाता है तो वह उस क्रिया में रुचि नहीं लेगा।
अभिप्रेरणा से सीखने की इच्छा प्रबल हो जाती है। अभिप्रेरणा उत्पन्न करने के लिये यह आवश्यक है कि बालक को उसका लक्ष्य स्पष्ट कर दिया जाये। यदि अध्यापक चाहता है कि उसके छात्र नये पाठ को सीखें तो वह प्रशंसा, प्रोत्साहन, प्रतिद्वन्द्विता आदि विधियों का प्रयोग करके उनको प्रेरित करें।
6. अधिगम पठार (Plateau of learning)
अधिगम की प्रक्रिया मैं एक स्थिति ऐसी आती है, जब सीखने की गति में कोई प्रगति नहीं होती। यह स्थिति अधिगम पठार (Plateau of learning) कहलाती है। सीखने की अवधि में पठार कुछ घण्टों, दिनों, सप्ताहाँ या महीनों तक रह जाते हैं। अधिगम पठार के अनेक कारण हो सकते हैं; जैसे शारीरिक सीमा, गलत पद्धति, प्रेरणा का अभाव, गलत क्रम, अभ्यास का अभाव, सामग्री का एकांकीपन या त्रुटियों का स्थानान्तरण आदि।
पठार को दूर करने के लिये शिक्षण विधि में परिवर्तन, प्रेरणा तथा उद्दीपन, पाठ्य सामग्री का पुनसंगठन, कार्य में परिवर्तन तथा विश्राम आदि उपार्यों का सहारा लेना चाहिये।
7. अभिवृत्ति अथवा प्रवृत्ति (Attitude or set)
बौद्धिक स्तर के पश्चात् सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक है, ‘अधिगमकर्ता की अभिवृत्ति’ जिसके द्वारा वह अधिगम कार्य को सीखता है। सक्रिय एवं आक्रामक अभिवृत्ति होने पर विद्यार्थी तीव्र गति से सीखता है, जबकि निष्क्रिय एवं बेमन से सीखने पर सीखने की गति अत्यन्त मन्द होती है।
यदि किसी विषय के प्रति छात्र की नकारात्मक अभिवृत्ति है तो शिक्षक चाहे जितना परिश्रम करे छात्र के अधिगम में उन्नति होने की सम्भावना नहीं होती। इसके विपरीत यदि सीखने वाले की किसी विषय के प्रति सकारात्मक
अभिवृत्ति है तो वह सरलता से उस विषय को सीख जाता है। किसी विषय के प्रति सीखने वाले का रुझान बहुत महत्त्वपूर्ण होता है।
मेक्डूगल और स्मिथ ने एक शोध अध्ययन में 13-13 निरर्थक और सार्थक शब्दों को सूची छात्रों को याद करने हेतु दी तो पाया गया कि छात्रों ने सार्थक शब्दों को शीघ्रता से सीख लिया।
8. अभिक्षमता (Aptitude)
अभिक्षमता एक जन्मजात प्रतिभा होती है, जिसे अवसरों एवं प्रशिक्षण द्वारा विकसित किया जा सकता है। व्यक्तियों में अलग-अलग प्रकार की अभिक्षमताएँ होती हैं; जैसे-कलात्मक, यान्त्रिक, संगीतात्मक, दैनिक तथा वैज्ञानिक इत्यादि।
इन अभिक्षमताओं की तीव्रता भी अलग-अलग होती है। जिस विद्यार्थी में जो अभिक्षमता जितनी तीव्रता के साथ विद्यमान होगी वह उस प्रकार के अधिगम को उतनी ही तीव्र गति से सीख सकेगा।
9. बुद्धि (Intelligence)
अधिगमकर्ता की बुद्धि अधिगम पर पर्याप्त प्रभाव डालती है। जिन बालकों की बुद्धि तीव्र होती है वे तीव्र गति से सीखते हैं तथा जिन बालकों की बुद्धि अल्प होती है वे धीमी गति से सीखते हैं। तीव्र बुद्धि वाले कारक सीखी गई विषय-वस्तु को लम्बे समय तक याद रख सकते हैं, जबकि मन्द बुद्धि वाले उसे शीघ्र भूल जाते हैं।
10. बालक (Learner)
बालक किसी भी क्रिया को सीखने का केन्द्र बिन्दु होता है। शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है। इस दृष्टि से बालकों की रुचि, योग्यता, क्षमता, व्यक्तिगत भेद तथा बुद्धि आदि के आधार पर सम्पन्न की गयी क्रिया प्रभावशाली सिद्ध हो सकती है। बालक शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का आधार है इसलिये उसके अभाव में अधिगम की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
11. चिन्ता (Anxiety)
चिन्ता दो प्रकार से अधिगम को प्रभावित करती है। जहाँ अल्प चिन्ता सीखने के लिये चालन (Drive) का कार्य करती है, वहीं उच्च चिन्ता सीखने में बाधा पहुँचाती है। पाल (1976) ने अपने अध्ययन में अल्प चिन्तित विद्यार्थियों की स्मृति उच्च चिन्तित विद्यार्थियों से बेहतर पायी।
12. सीखने का समय तथा अवधि (Time and duration of learning)
यदि छात्र अधिक समय तक किसी क्रिया को करता रहता है तो वह थकान का अनुभव करने लगता है और थकान अनुभव होने से अधिगम प्रक्रिया में शिथिलता उत्पन्न हो जाती है। विद्यालयों में समय-चक्र बनाते समय भी इस बात का ध्यान रखा जाता है कि पहले कठिन विषय तथा बाद में सरल विषय पढ़ाये जायें। मध्यान्तर की भी व्यवस्था इसी उद्देश्य से की जाती है।
13. सीखने की विधि (Method of learning)
सीखने के लिये अधिगमकर्ता ने किस विधि का उपयोग किया है? इस पर सीखना निर्भर करता है। सीखने की अनेक विधियाँ हैं जैसे सम्पूर्ण विषय-वस्तु एक बार में सीखना, सम्पूर्ण विषय-वस्तु को अंशों में विभाजित कर सीखना, विषय-वस्तु को रटकर सीखना अथवा समझकर सीखना।
यदि विद्यार्थी रटने के स्थान पर समझकर सीखता है तब वह जल्दी सीखता है। साथ ही सीखी गयी विषय-वस्तु भी स्थायी रहती है।
पूर्ण-विधि की एक विशेषता है कि सीखने के समय जो साहचर्य निर्मित होते हैं वे अधिगम पूर्ण होने पर कार्य करते हैं। अंश विधि में ऐसा नहीं होता है।
अंश विधि की यह विशेषता है कि अल्प अंश विद्यार्थी शीघ्रता से सीख लेते हैं एवं उनकी अभिप्रेरणा भी बनी रहती है।
14. नशीली वस्तुएँ (Drug)
यह धारणा निर्मूल है कि नशीली वस्तुएँ सीखने की योग्यता को बढ़ा देती हैं। वह कुछ काल तक उत्तेजना देने में तो सफल हो जाती हैं परन्तु सीखने की योग्यता स्थायी रूप में उनके द्वारा नहीं बढ़ सकती। अपितु ये मानसिक विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं।
15. आदतें (Habits)
अधिगमकर्ता की अच्छी आदतें सीखने में सहायक होती हैं एवं बुरी आदतें सीखने की क्रिया में अवरोध उत्पन्न करती हैं। अध्यापक को चाहिये कि वे बालकों को नियम, संयम, सादगी एवं उच्च विचारों एवं आदर्शों का जीवन व्यतीत करने की शिक्षा दें।
शिक्षक से सम्बन्धित कारक (Teacher related factors)
अधिगम को प्रभावित करने वाले शिक्षक से सम्बन्धित कारक निम्न हैं-
1. शिक्षक का व्यक्तित्व (Personality of the teacher)
शिक्षक का व्यक्तित्व सफल शिक्षण का आधार होता है। सीखने की प्रक्रिया में शिक्षक पथ-प्रदर्शक का काम करता है, अत: उसका स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। उसके व्यक्तित्व, आचार-विचार, व्यवहार, ज्ञान और शिक्षण विधि का छात्रों के सीखने पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
इस दृष्टि से शिक्षक का व्यक्तित्व आकर्षक एवं अत्यन्त प्रभावशाली होना चाहिये। उसे अपने कार्यों एवं व्यवहार बनाये रखते हुए छात्रों पर एक अनूठी छाप छोड़नी चाहिये। छात्र जाने-अनजाने शिक्षक के व्यवहार से बहुत-सी बातें स्वयं ही सीख लेते हैं। कहा भी गया है कि शिक्षक छात्रों के लिये श्रेष्ठ प्रेरणा का काम करता है।
इस दृष्टि से एक अध्यापक को आत्म विश्वासी, दृढ़ इच्छा शक्ति वाला, कर्त्तव्यनिष्ठ, निरोगी तथा श्रेष्ठ रुचियों एवं अभिरुचियों वाला होना चाहिये।
2. शिक्षक का विषय पर अधिकार (Subject mastery of the teacher)
अध्यापक को मास्टरजी इसीलिये कहा जाता है कि उसने अपने विषय में पारंगतता हासिल की होगी। पारंगतता के लिये आवश्यक है कि अध्यापक निरन्तर विषय की नवीन पुस्तकें एवं शोध पत्रिकाओं तथा वेबसाइटों के द्वारा अध्ययन करता रहे। प्रभावी सम्प्रेषण तभी प्रभावी होगा जब शिक्षक को विषय का पूर्ण ज्ञान होगा।
शिक्षक का किसी विषय से सम्बन्धित ज्ञान, अनुभव एवं योग्यता आदि छात्रों के अधिगम को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। यदि शिक्षक को अपने विषय की गहन जानकारी नहीं है तो वह छात्रों को बहुत कुछ नहीं दे सकता। इसके विपरीत यदि शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान है तो वह आत्मविश्वास के साथ छात्रों को नवीन ज्ञान देने में सक्षम होगा तथा उसका शिक्षण प्रभावी होगा।
3. शिक्षक की सम्प्रेषण योग्यता (Communication ability of a teacher)
शिक्षक को व्यावसायिक सम्प्रेषणकर्ता भी कहा जाता है। विद्यार्थियों का सीखना इस बात पर निर्भर करता है कि अध्यापक में सम्प्रेषण की कितनी योग्यता है? यदि आप अपने इन अध्यापकों को याद करें, जिनका पढ़ाया आपको तुरन्त समझ में आ जाता था, तब आप पायेंगे कि उन अध्यापकों का सम्प्रेषण अत्यन्त प्रभावी था।
4. शिक्षक का व्यवहार (Behaviour of the teacher)
शिक्षक का व्यवहार छात्रों के सीखने को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। शिक्षक में एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण होने चाहिये। उसके व्यवहार में सहानुभूति, सहयोग, समानता, शिक्षण कला में निपुणता, मृदुभाषी तथा संयत आदि गुण यदि हैं तो छात्र कक्षा वातावरण में सहज रूप से सब कुछ सीख सकेंगे।
लेकिन यदि शिक्षक का व्यवहार अत्यन्त कठोर है तो छात्र उसकी कक्षा से पलायन करने लगते हैं। साथ ही अध्यापक को सभी छात्रों से एक जैसा ही व्यवहार करना चाहिये ताकि छात्रों के मन में उसके प्रति दुर्भावना पैदा न हो।
5. व्यक्तिगत भेदों का ज्ञान (Knowledge of individual differences)
प्रत्येक छात्र की बुद्धि, रुचि, योग्यता, क्षमता तथा अभिवृत्ति आदि अलग-अलग होती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण कुछ छात्र शिक्षक द्वारा प्रदत्त ज्ञान को आसानी से आत्मसात् कर लेते हैं और कुछ देर से कर पाते हैं या बिल्कुल ही नहीं कर पाते।
सामान्यतः एक कक्षा में अध्यापक को तीन प्रकार के छात्रों का सामना करना होता है-मेधावी, सामान्य तथा पिछड़े हुए बालक; और इन्हीं के अनुरूप उसे अपने शिक्षण की व्यवस्था करनी होती है। व्यक्तिगत भेद शिक्षक
को छात्र के समझने में पूरा-पूरा सहयोग देते हैं।
6. शिक्षण-विधि (Method of teaching)
शिक्षण-विधि का सीधा सम्बन्ध अधिगम
प्रक्रिया से होता है। साथ ही प्रत्येक शिक्षक का पढ़ाने का तरीका भी भिन्न होता है तथा सभी छात्र एक ही विधि से नहीं सीख पाते। शिक्षण की विधि जितनी अधिक वैज्ञानिक एवं प्रभावशाली होगी उतनी ही सीखने की प्रक्रिया सरल एवं लाभप्रद होगी।
बालकों के सन्दर्भ में खेल विधि द्वारा सिखाना, करके सिखाना, निरीक्षण द्वारा सीखना, योजना विधि द्वारा सीखना तथा खोज विधि द्वारा सीखना आदि का अपना अलग-अलग महत्त्व है।
7. मनोविज्ञान का ज्ञान (Knowledge of psychology)
शिक्षा मनोविज्ञान का ज्ञान एक शिक्षक के लिये अनिवार्य है। इस परिप्रेक्ष्य में यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि तब तक एक अध्यापक को मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का शिक्षा में प्रयोग कर उसे प्रभावी नहीं बना सकता। उसे बाल विकास प्रक्रिया, वंशानुक्रम, व्यक्तिगत विभेद, प्रेरणा तथा सीखने के सिद्धान्त आदि का ज्ञान होना ही चाहिये। निःसन्देह आधुनिक शिक्षा को मनोविज्ञान ने एक नयी दिशा प्रदान की है।
8. बाल-केन्द्रित शिक्षा (Child-centred education)
शिक्षा मनोविज्ञान ने आज शिक्षा की धारा एवं प्रत्यय को पूरी तरह बदल दिया है। प्राचीन काल में शिक्षा का केन्द्र बालक न होकर अध्यापक था। बालक की परवाह किये बिना ही शिक्षण कार्य चलता रहता था परन्तु अब शिक्षा का केन्द्र बिन्दु बालक हो गया है। अत: शिक्षक के लिये यह आवश्यक है कि जो भी ज्ञान छात्रों को प्रदान करे वह उनकी रुचियों, क्षमताओं एवं स्तर के अनुकूल होना चाहिये।
9. समय सारणी (Time table)
शिक्षा मनोविज्ञान के कारण ही विद्यालयों में समय-सारणी बनाते समय ध्यान रखा जाता है कि कौन-सा विषय पहले लिया जाये और कौन-सा बाद में पहले बालकों की थकान, विश्राम एवं अवधान पर कोई ध्यान नहीं रखा
जाता था लेकिन अब इन सभी पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
खेल के समय तथा दूसरी विविध क्रियाओं के आयोजन की भी व्यवस्था समय-चक्र में सूक्ष्म रूप से कर ली जाती है। साथ ही समय सारणी बनाते समय मौसम, बालकों की योग्यता, रुचि एवं व्यक्तिगत विभेदों पर भी ध्यान दिया जाता है।
10. पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ (Co-curricular activities)
शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान के योगदान के रूप में आज पाठ्यक्रम में अनेक महत्त्वपूर्ण सहगामी क्रियाओं को यथोचित स्थान दिया जाता है। पहले यह समझा जाता था कि पढ़ायी के अतिरिक्त क्रियाओं का आयोजन करने से छात्र अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। लेकिन, अब यह विचार बदल गया है।
परिणामत: वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबन्ध, लेख, कहानी, कविता, अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता, बालचर शिक्षा, भ्रमण, छात्र-संघ, खेल-कूद, अभिनय तथा नाटक, संगीत आदि इसी प्रकार की अन्य क्रियाओं को पाठ्यक्रम में स्थान देने के कारण बालकों के सर्वांगीण विकास में बहुत सहयोग मिलता है।
11. अनुशासन (Discipline)
शिक्षा मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के कारण आज यह धारणा निर्मूल हो गयी है कि ‘डण्डा हाथ से छूटा और बालक बिगड़ा।’ अब यह अनुभव किया जाने लगा है कि डण्डे, मारपीट, भय एवं आतंक के बल पर कक्षा में स्थायी अनुशासन की स्थापना नहीं की जा सकती।
यह हो सकता है कि छात्र तुरन्त कुछ समय के लिये अनुशासित हो जायें लेकिन कुछ समय बाद वह अपनी पुरानी प्रवृत्तियों पर पुन: लौट आयेंगे। अत: छात्रों को स्व अनुशासन स्थापित करने हेतु प्रेरित करना चाहिये।
12. रोजर एवं मास्लो के अनुसार आत्मवास्तवीकरण में सहायता (Ability to get self actualization among the students)
रोजर एवं मास्लो के अनुसार छात्र में आत्म वास्तवीकरण (self actualization) की क्षमता पैदा करने में शिक्षक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि बालक को वह बनाना जो उसे होना चाहिये; जैसे- चित्रकार को चित्रकारी में दक्ष, कवि महान कवि, कारीगर को कारीगरी में दक्ष बनाने में शिक्षक सहायक हो सकता है। यह योग्यता छात्र के अधिगम को बढ़ाती है।
अध्यापन प्रक्रिया या अधिगम-व्यवस्था से सम्बन्धित कारक (Factors related to teaching process or management of learning)
अधिगम प्रक्रिया से सम्बन्धित कारक जो अधिगम को प्रभावित करते हैं, निम्न हैं-
अधिगम विधि (Learning method)
अधिगम विधि तथा इससे सम्बन्धित कारक भी अधिगम को प्रभावित करते हैं परन्तु यह कारक मानवीय अधिगम में ही महत्त्वपूर्ण हैं। प्रमुख अधिगम विधियाँ निम्न हैं-
1. सम्पूर्ण बनाम खण्ड विधि (Whole Vs. port method)
इस विधि की मुख्य विशेषता यह है कि इसके आधार पर विद्यार्थी अपनी स्मरण शक्ति बढ़ा सकता है। किसी विषय को सीखते समय एक व्यावहारिक समस्या यह उत्पन्न होती है कि समूचे विषय को एक ही साथ सीखा जाये अथवा टुकड़े करके। विषय को प्रारम्भ से अन्त तक एक ही साथ सीखने की विधि को पूर्ण-विधि (Whole method) कहते हैं।
दूसरी ओर विषय को अनेक भागों में बाँटकर एक-एक भाग को अलग-अलग सीखने की विधि को अंश-विधि (Part method) कहते हैं। यदि कोई छात्र 10 लाइनों (Stanzas) की कविता प्रारम्भ से अन्त तक एक ही साथ याद करता हो तो इसे पूर्णविधि कहा जायेगा। दूसरी ओर यदि वह एक-एक लाइन (Stanzas) को अलग-अलग सीखता हो तो इसे अंश-विधि कहेंगे।
कुछ मनोवैज्ञानिक सम्पूर्ण विधि को अच्छा मानते हैं तो कुछ खण्ड विधि को लेकिन अधिकांशत: सम्पूर्ण विधि को ही उत्तम मानते हैं। इसी तथ्य की पुष्टि हेतु एवलिंग ने एक लम्बी कविता को दोनों विधियों से याद कराया और देखा कि सम्पूर्ण विधि उचित है। खण्ड विधि विशेषकर उस स्थिति में उपयोगी सिद्ध होती है, जब याद करने वाला अनुभवहीन हो या आत्मविश्वासी न हो। साथ ही, सिखायी जाने वाली विषय वस्तु व्यापक, जटिल एवं दुरूह हो।
अंश विधि में सहायक कारक (Factors favouring part method)– अंश-विधि की प्रभावशीलता (Effectiveness) पर अनेक बातों का प्रभाव पड़ता है। सीखे जाने वाले विषय का स्वरूप एक मुख्य कारक है। जब विषय ऐसा हो कि उसके अंश या खण्ड को आसानी से अलग-अलग कर लिया जाये तो ऐसी हालत में अंश-विधि अधिक लाभदायक सिद्ध होती है।
इसी तरह, जब विषय इतना अधिक बड़ा हो कि एकत्र अभ्यास से हानि उत्पन्न होने की सम्भावना हो तो ऐसी हालत में भी अंश-विधि अधिक लाभदायक सिद्ध होती है। अंश-विधि में एक सहायक कारक प्रेरणा (Motivation) है। इस विधि में प्रयोज्य अपने विषय के एक भाग को पूरा करने के बाद ही दूसरे भाग को सीखता है।
अत: एक भाग को पूरा कर लेने से उसे सन्तुष्टि मिलती है। काम करने या सीखने में उसकी रुचि स्थिर रहती है। इसके साथ-साथ उसे अपने कार्य के परिणाम का ज्ञान भी होता रहता है। इसलिये उसे सीखने में अधिक प्रेरणा मिलती है और वह अपने विषय को जल्दी सीख लेता है।
अंश-विधि के पक्ष में एक बात यह भी है कि जब प्रयोज्य के मानसिक विकास का स्तर नीचा होता है तो उसके लिये अंश-विधि अधिक लाभदायक होती है अर्थात् तीव्र बुद्धि की अपेक्षा मन्द बुद्धि के लोगों के लिये यह विधि अधिक अच्छी है। इसी तरह यदि व्यक्ति अपने कार्य-परिस्थिति में अभियोजित न हो तो यह विधि अधिक श्रेष्ठ सिद्ध होती है।
पूर्ण-विधि में सहायक कारक (Factor favouring whole method)– कुछ परिस्थितियों में अंश-विधि की तुलना में पूर्ण-विधि लाभकारी होती है। एक प्रधान कारक बुद्धि है। तीव्र बुद्धि के व्यक्ति के लिये यह विधि अधिक उपयोगी है। ऐसा व्यक्ति अपने कार्य को शीघ्र समाप्त करने की प्रवृत्ति रखता है। पूर्ण-विधि में सहायक एक कारक विषय की सार्थकता है।
जब सीखने की सामग्री (Learning material) अर्थ पूर्ण होती है तो पूर्ण-विधि अधिक उपयोगी प्रमाणित होती है। मुख्यतः ऐसी परिस्थिति में जबकि सामग्री अधिक लम्बी नहीं होती है। इसी तरह सीखने की अवस्था का प्रभाव भी पूर्ण-विधि पर पड़ता है।
जब प्रयोज्य अपने कार्य से अभियोजित हो जाता है तो पूर्ण विधि से अधिक लाभ होता है। वितरित अभ्यास की अवस्था में भी पूर्ण-विधि अधिक उपयोगी होती है।
अतः अंश-विधि तथा पूर्ण-विधि की क्षमता (Efficacy) के सम्बन्ध में कोई सामान्य नियम नहीं है। कुछ मुख्य परिस्थितियों में अंश-विधि लाभकारी होती है और कुछ विशेष परिस्थितियों में पूर्ण विधि।
2. पठन तथा निपठन विधि (Reading versus recitation method)
किसी विषय को सीखते समय अभ्यास करने की एक विधि यह भी है कि इस विषय को पढ़ने के बाद कुछ देर तक मन ही मन उसका निपठन (Recitation) किया जाये। समस्या यह है कि किसी विषय को केवल पढ़ने से ही अधिक लाभ होगा अथवा उसके साथ-साथ निपठन करने से।
केवल पढ़कर किसी विषय को सीखना अधिक कठिन है। दूसरी ओर पढ़ने के बाद जोर-जोर से अथवा मन ही मन निपठन करने पर सीखना आसान हो जाता है।
गेट्स (Gates, 1917) के अनुसार किसी वस्तु के अध्ययन में पूरे समय को पढ़ने में लगाने से अच्छा यह है कि समय का 80% निपठन में लगाया जाये। ऐसा करने से सीखने की क्षमता बढ़ जाती है। यह बात असंगठित तथा अर्थहीन सामग्री सीखने में अधिक देखी जाती है। संगठित तथा अर्थपूर्ण सामग्री सीखने के लिये भी यह विधि उपयोगी है।
3. संकलित बनाम वितरित अथवा विराम तथा अविराम-विधि (Massed method versus distributed (spaced)-method)
यदि कोई व्यक्ति किसी विषय को सीखते समय लगातार अभ्यास करता है तो इसे अविराम अथवा संकलित (Massed method) विधि कहेंगे और यदि वह आराम ले-लेकर अभ्यास करता है तो इसे विराम अथवा वितरित (Distributed or spaced method) विधि कहेंगे।
इस तरह विराम-विधि में व्यक्ति कुछ देर काम करता है और कुछ देर आराम करता है। जैसे एक बालक 10 मिनट कविता याद करता है और 2 मिनट आराम करता है। फिर 10 मिनट कविता याद करता है और 2 मिनट आराम करता है। इसी तरह वह पूरी कविता को याद कर लेता है। सीखने की यही विधि विराम विधि कहलाती है। सीखते समय व्यक्ति एक बार भी विराम कर सकता है और अनेक बार भी।
दूसरी और अविराम-विधि में व्यक्ति लगातार अभ्यास करता है। वह बिना विराम या आराम के ही तब तक प्रयास करता है जब कि उस विषय को वह सीख नहीं लेता है। जैसे-यदि कोई बालक कविता सीखते समय तब तक प्रयास करता रहे जब तक कि पूरी कविता याद न हो जाये तो सीखने की यही विधि अविराम-विधि कहलायेगी।
इस तरह विराम विधि में प्रत्येक प्रयास अथवा प्रत्येक दो-चार प्रयासों के बीच समय-अन्तराल (Time-interval) होता है, जिससे प्रयोज्य आराम करता है। दूसरी ओर अविराम-विधि में दो प्रयासों के बीच कोई समय-अन्तराल नहीं होता है। यहाँ प्रयत्न या तो लगातार (Massed) होते हैं अथवा बहुत निकट से वितरित (Distributed) होते हैं।
सफल अधिगम के लिये अभ्यास के वितरण तथा विराम की क्षमता तीन बातों पर निर्भर करती है – (1) अभ्यास की अवधि, (2) विराम की मात्रा, (3) विराम-अवधियों का स्थान (Location)।
अधिक कार्यों के लिये अभ्यास की अवधि सामान्यतः छोटी होनी चाहिये परन्तु इतनी भी छोटी नहीं कि विराम देना निरर्थक सिद्ध हो। अपेक्षाकृत लम्बा विराम होने पर अभ्यास अधिक प्रभावशाली सिद्ध होता है परन्तु अधिक लम्बा विराम अधिक लाभदायक सिद्ध नहीं होता है।
अधिकांश कार्यों के लिये कुछ मिनट का विराम ही अधिक अच्छा होता है। कभी-कभी मौखिक सामग्री के सीखने पर अभ्यास-वितरण को कोई प्रभाव नहीं देखा जाता है। इसका एक कारण यह है कि गति-सीखना के समय अभ्यास-अवधि में कार्य-अवरोध (Work inhibition) जमा हो जाता है, जो विराम देने पर दूर हो जाता है।
इसलिये, विराम के बाद सीखने की कुशलता बढ़ जाती है परन्तु मौखिक सीखना में कार्य अवरोध कोई महत्त्व नहीं रखता है। इसलिये यहाँ विराम के बाद सीखने की कुशलता नहीं बढ़ पाती है।
मौखिक सीखने पर हस्तक्षेप (Interference) का प्रभाव पड़ता है। जब मौखिक प्रतिक्रियाओं (Verbal responses) के बीच अधिक समानता होती है तो हस्तक्षेप अधिक होता है और ऐसी हालत में अभ्यास के वितरण से लाभ होता है। दूसरी ओर जब प्रतिक्रियाओं के बीच भिन्नता अधिक होती है तो हस्तक्षेप कम होता है और अभ्यास-वितरण से लाभ नहीं होता है।
इसी तरह सीखे जाने वाले विषय के संगठन एवं स्वरूप का भी प्रभाव पड़ता है। जब विषय असंगठित तथा निरर्थक होता है तो वितरित अभ्यास अधिक लाभदायक होता है और जब संगठित तथा सार्थक होता है तो एकत्र अभ्यास (Massed practivce) से अधिक लाभ होता है।
विराम अथवा विपरीत विधि में सहायक कारक (Factor favouring distributed or spaced method) –
कुछ परिस्थितियों में अविराम विधि में विराम विधि श्रेष्ठ सिद्ध होती है। गति सीखना (Motor learning) में अविराम-विधि से किसी विषय को सीखते समय थकान का कार्य अवरोध (Work inhibition) उत्पन्न हो जाता है, जो निष्पादन (Performance) को घटा देता है। प्रयत्यों की बढ़ती हुई संख्या के साथ अवरोध की मात्रा भी बढ़ती जाती है परन्तु विराम-विधि से सीखते समय आराम या विराम के कारण थकान या कार्य-अवरोध जमा नहीं हो पाता है बल्कि दूर होता रहता है।
इसलिये, यहाँ सीखने की क्षमता स्थिर रहती है और निष्पादन में हास (Decrement) नहीं होता है बल्कि वृद्धि (Increment) होती है। हल (Hull) के अनुसार, अविराम विधि से सीखते समय प्रतिक्रियात्मक अवरोध (Reactive inhibition) अर्थात् किसी क्रिया को नहीं दुहराने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। प्रयत्नों की बढ़ती हुई संख्या के साथ यह नकारात्मक प्रणोदन (Negative drive) अधिक मात्रा में जमा हो जाता है, जिससे कार्य में इस होता है।
लेकिन विराम-विधि में आराम या विराम देने पर यह प्रतिक्रियात्मक अवरोध अर्थात् नकारात्मक प्रणोदन समाप्त होता रहता है। इसलिये कार्य में ह्रास नहीं होता है।
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने विराम-विधि या वितरित अभ्यास की श्रेष्ठता की शारीरिक व्याख्या (Physiological explanation) प्रस्तुत की है। स्नायु पेशी (Nervemuscle) में दुर्दान्त अवस्था तब उत्पन्न होती है, जबकि व्यक्ति किसी विषय को लगातार सीखता है। इससे व्यक्ति में किसी क्रिया को नहीं दुहारने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है।
इसलिये अविराम-विधि से सीखने पर कार्य ह्यास (Work decrement) देखा जाता है। लेकिन विराम-विधि से सीखने पर दुर्दान्त अवस्था उत्पन्न नहीं होती है। इसलिये, यहाँ कार्य-हास नहीं देखा जाता है।
अविराम-विधि से किसी विषय को सीखने का समय स्मृति-चिह्न को मजबूत बनने का मौका नहीं मिलता है। एक प्रयत्न से जो स्नायु उत्तर प्रभाव (Neural after a effect) उत्पन्न होता है वह दूसरे प्रयत्न के आघात से कमजोर हो जाता है। लेकिन विराम-विधि के समय स्नायुउत्तर प्रभाव को विराम के कारण किसी तरह का आघात नहीं पहुँचता है। स्मृति चिह्न को मजबूत बनने का मौका मिलता है। इसलिये, कार्य में किसी तरह का ह्यस नहीं होता है।
अविराम-विधि की तुलना में विराम-विधि के श्रेष्ठ होने का एक कारण बाधा या हस्तक्षेप (Interference) है। किसी विषय को सीखते समय हस्तक्षेप की मात्रा की सम्भावना जितनी ही अधिक होती है, वितरित अभ्यास के ठीक होने का अवसर उतना ही अधिक मिलता है।
विराम-विधि से सीखते समय बीच-बीच में विराम मिलने के कारण हस्तक्षेप दूर होता रहता है। इसलिये, सीखने की क्षमता अथवा निष्पादन (Performance) पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन, अविराम-विधि से सीखते समय हस्तक्षेप की मात्रा बढ़ती ही जाती है। इसलिये, सीखने की क्षमता या निष्पादन में हस देखा जाता है।
विराम-विधि के श्रेष्ठ होने का एक कारण सीखे जाने वाले विषय की लम्बाई है। इसकी लम्बाई अधिक होने पर वितरित अभ्यास अधिक लाभदायक प्रमाणित होता है।
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने रिहर्सल (Rehearsal) के आधार पर विराम-विधि की श्रेष्ठता को प्रमाणित करने का प्रयास किया है। विराम-विधि से प्रयोज्य को आराम के समय विषय को दुहारने का अवसर मिल जाता है। इसलिये, सीखने की क्षमता बढ़ जाती है। अविराम-विधि में प्रयोज्य को इसका अवसर नहीं मिलता है।
अविराम/संकलित अथवा एकत्र अभ्यास विधि में सहायक कारक (Factor favouring in massed practice method)–
कुछ परिस्थितियों में अविराम-विधि ही अधिक लाभकारी सिद्ध होती है; जैसे-उमंग (Warming up) की अवस्था में एकत्र अभ्यास अधिक लाभदायक होता है। जब व्यक्ति अपने काम में लग जाता है और जोश या उमंग के साथ काम करने लगता है तो ऐसी परिस्थिति में उसे लगातार काम करने देना ही लाभदायक होता है।
यदि बीच में काम छोड़कर विराम दे दिया जाता है तो उसकी उमंग घट जाती है, जिससे काम पर बुरा प्रभाव पड़ता है। यदि कोई कवि उमंग के साथ कविता की रचना में लगा हो और उसे इससे अलग होकर थोड़ी देर तक आराम करने के लिये बाध्य किया जाये तो उसकी उमंग घट सकती है और कविता की रचना पर बुरा प्रभाव (Adverse effect) पड़ सकता है। जब अधिक समय तक व्यक्ति काम कर लेता है तो उसमें काम छोड़ने की उमंग पैदा होती है। ऐसी हालत में विराम देना लाभदायक होता है।
एकत्र अभ्यास का दूसरा सहायक कारक लम्बा समय-अन्तराल (Long time interval) है। जब समय-अन्तराल बहुत लम्बा होता है तो व्यक्ति सीखी गयी बातों को इस सीमा तक भूल जाता है कि उसे वस्तुत: नये प्रयत्न से प्रारम्भ करना पड़ता है। ऐसी हालत में विराम से कोई लाभ नहीं होता है।
अविराम-विधि में तीसरा सहायक कारक- ‘अस्थिरता (Variability)‘ है। एकत्र अभ्यास में अस्थिरता की विशेषता पायी जाती है, जबकि वितरित अभ्यास में स्थिरता (Fixation) की। अतः ऐसी परिस्थिति जहाँ व्यवहार में अस्थिरता बनाये रखने की आवश्यकता होती है, वहाँ अविराम-विधि अधिक उपयोगी सिद्ध होती है।
अत: कुछ परिस्थितियों में अविराम-विधि और अधिक परिस्थितियों में विराम-विधि द्वारा सीखना लाभदायक होता है। अतः एकत्र अभ्यास तथा वितरित अभ्यास की क्षमता (Efficacy) परिस्थिति पर विशेष निर्भर करती है।
4. उप-विषय बनाम सकेन्द्रीय विधि (Topical versus concentric method)
इस विधि के अन्तर्गत विभिन्न कक्षाओं के लिये बालकों के मानसिक स्तर और आयु के अनुसार उप-विषय निर्धारित किये जाते हैं और ये उप-विषय पूर्णतया उसी कक्षा अथवा कक्षाओं में समाप्त कर दिये जाते हैं; जैसे-जोड़ना, घटाना, गुणा तथा भाग इत्यादि प्राइमरी कक्षा में, समीकरण ब्याज, समानुपात इत्यादि को जूनियर हाई स्कूल की कक्षाओं में पूर्णतया पढ़ा दिया जाता है और बाद की कक्षाओं में इन्हें फिर बिल्कुल नहीं पढ़ाया जाता। लेकिन इन विषयों के प्रश्नों को हल करने का पर्याप्त अभ्यास उसी स्तर पर करने दिया जाता है।
सकेन्द्रीय विधि के अन्तर्गत किसी भी उप-विषय को किसी कक्षा विशेष में पढ़ाकर पूर्णतया समाप्त नहीं कर दिया जाता बल्कि बालकों की आयु और मानसिक स्तर के अनुकूल उस उप विषय के केवल उतने ही कठिन प्रश्न हल कराये जाते हैं, जिन्हें बालक आसानी से समझ सके। उनकी आयु और मानसिक स्तर बढ़ जाने पर उस विषय-वस्तु को फिर पढ़ाया जाता है और अब पहले की अपेक्षा अधिक कठिन प्रश्न हल कराये जाते हैं। इस प्रकार
बालक के मानसिक स्तर के साथ-साथ उस विषय का कठिनाई स्तर भी बढ़ाया जाता है।
5. आयोजित बनाम प्रासंगिक विधि (Organised versus incidental method)
प्रोजेक्ट विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान प्रासांगिक होता है। प्रोजेक्ट प्रणाली हरबर्ट के विषय संगठन का परिणाम है। इसमें एक ही विषय को केन्द्र मानकर पढ़ाया जाता है। उसे पढ़ाते समय जो अन्य विषय पढ़ाये जाते हैं वे यकायक ही पढ़ाये जाते हैं, यद्यपि पढ़ाने वाले ने इनको पढ़ाने की कोई विशेष योजना नहीं बनायी जाती है। इस विधि का सिद्धान्त यह है कि ज्ञान एक इकाई है, इसके भिन्न-भिन्न अंग नहीं है। ज्ञान इकाई के रूप में ही देना चाहिये।
इस विधि द्वारा यह आशा की जाती है कि विद्यार्थी ज्ञान के सभी अंगों से परिचित हो सकेगा। इस विधि का खेल-विधि से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। पोस्टमैन, दुकानदार, बैंक बाबू तथा रेलवे बाबू आदि गणित खेल-खेल में ही सीख लेते हैं। विद्यालय में यदि प्रोजेक्ट चलाये जायें तो विद्यार्थी कितने ही विषयों का ज्ञान आसानी से प्राप्त कर सकता है। लेकिन कुछ लोगों के अनुसार गणित पढ़ाने के लिये विशेष योजना अनिवार्य है। गणित को गणित के रूप में ही पढ़ाया जाना चाहिये जो कि आयोजित विधि द्वारा ही सम्भव है।
6. सक्रिय बनाम निष्क्रिय विधि (Active versus passive method)
विद्यार्थी पाठ्य-वस्तु को दो तरीकों से याद करता है, प्रथम-सक्रिय विधि तथा द्वितीय-निष्क्रिय विधि। सक्रिय विधि से हमारा तात्पर्य यह है कि इसके अन्तर्गत विद्यार्थी किसी पाठ्य-वस्तु को जोर-जोर से या धीमे-धीमे बोल-बोलकर कंठस्थ करने का प्रयास करता है, जबकि निष्क्रिय विधि के अन्तर्गत विद्यार्थी पाठ्य-वस्तु को मन ही मन पढ़कर कण्ठस्थ करने का प्रयास करते हैं।
गेट्स व अन्य (Gates and Others) के अनुसार सक्रिय विधि, निष्क्रिय विधि की तुलना में कहीं अधिक उपयोगी है। देखने में यह भी आया है कि किसी नवीन पाठ्य-वस्तु, या विषय को सीखने में निष्क्रिय विधि, सक्रिय विधि की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ठ है।
कहने का तात्पर्य यह है कि दोनों ही विधियाँ अपने आप में महत्त्वपूर्ण हैं और विद्यार्थी अपनी अभिवृत्ति के अनुरूप नवीन ज्ञान को सीखने में इनमें से किसी एक का चयन करता है।
जीवन से सम्बन्धित (Related to life)
सीखने वाला विषय यदि जीवन से सम्बन्धित है तो वह जल्दी सीख लिया जाता है। जीवन से असम्बन्धित विषयों को सीखने में शीघ्रता नहीं रहती।
विद्यालय का समय (School time)
विद्यालय का समय छः घण्टे या आठ कालांश से अधिक नहीं होना चाहिये। इससे अधिक समय होने पर छात्र थकान अनुभव करेगा। ग्रीष्मकाल में पहले 5 कालांश 35-35 मिनट के अन्तिम 3 कालांश 30-30 मिनट के होने चाहिये। उच्च कक्षाओं के लिये कालांश की संख्या कम करके उनका समय 40-40 मिनट तक किया जा सकता है। बीच में दो मध्यान्तर इण्टरवेल-एक छोटा 5-10 मिनट का तथा दूसरा मध्यान्तर 30 मिनट का रखा जा सकता है।
पर्याप्त बैठक व्यवस्था (Seating arrangement)
कक्षा में पर्याप्त बैठक व्यवस्था अधिगम को बढ़ाती है। बहुत पास-पास बैठने या खड़े होकर पढ़ना सीखने के लिये ठीक स्थिति नहीं है।
भौतिक व्यवस्था (Physical condition)
पर्याप्त बैठक व्यवस्था सहित उचित लम्बाई-चौड़ाई के कमरे, उचित वायु के आवागमन हेतु खिड़की, दरवाजे और रोशनदान, पंखे, पर्याप्त प्रकाश, अच्छा बोर्ड, पेयजल की व्यवस्था एवं सुन्दर प्राकृतिक वातावरण सहित बगीचा इत्यादि सीखने के लिये उचित वातावरण प्रदान करते हैं। मध्यान्तर में अल्पाहार हेतु कैण्टीन में उनकी आवश्यकता की पूर्ति के लिये अच्छी व्यवस्था होनी चाहिये।
समय विभाजन चक्र में विषयों का चुनाव (Proper subjects in proper period in the time table)
समय विभाजन चक्र या समय सारणी इस प्रकार की होनी चाहिये, जिससे एक ही विषय के लगातार दो पीरियड न हो, दो कठिन विषय लगातार न हो, कठिन विषय अन्तिम पीरियड में न हो। कठिन विषय के बाद सरल विषय आना चाहिये।
अन्तिम कालखण्ड (पीरियड) में खेलकूद, प्रायोगिक कार्य आदि रखें, जिससे छात्र थकावट से बचे रहे। हर तीसरे पीरियड के पश्चात् एक लघु अवकाश एवं पाँचवें पीरियड के बाद दीर्घ अवकाश की घण्टी बजनी चाहिये।
विषय-वस्तु या पाठ्य-वस्तु से सम्बन्धित कारक (Subject content matter related factors)
विषय-वस्तु या पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित कारक जो अधिगम या विकास को प्रभावित करते हैं, निम्नलिखित हैं-
1. पाठ्यवस्तु की प्रकृति या स्वरूप (Nature of subject matter)
विषय-वस्तु की प्रकृति अधिगम प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करती है। सीखने की क्रिया पर सीखी जाने वाली विषय-सामग्री का सीधा प्रभाव पड़ता है। कठिन एवं अर्थहीन सामग्री की अपेक्षा सरल एवं अर्थपूर्ण, सामग्री शीघ्र सीखी जाती है।
“सरल से कठिन की ओर” सिद्धान्त अपनाकर अध्यापन करने से छात्र शीघ्र सीखते हैं। साथ ही कठिन पाठ्य-वस्तु को याद करने में समय भी अधिक लगता है, अपेक्षाकृत सरल पाठ्य-वस्तु के। इसके अतिरिक्त कविता, गद्य, गणित, विज्ञान आदि की प्रकृति भिन्न होने के कारण भी अधिगम प्रक्रिया प्रभावित होती है।
2. पाठ्य-वस्तु का आकार (Size of subject content)
विषय-वस्तु का आकार अर्थात् उसकी लम्बाई एवं मात्रा भी छात्रों की अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करती है। देखने में आया है कि छात्र प्राथमिकता के तौर पर पहले उन पाठों का अध्ययन करता है जो छोटे होते हैं तथा जिनकी विषय-वस्तु कम होती है। वह लम्बे पाठों से बचना चाहता है।
यही कारण है कि जब विद्यार्थी को ऐसे पाठों को पढ़ने के लिये विवश किया जाता है तो वह इनकी तैयारी उतनी तत्परता एवं मन लगाकर नहीं करता जितना कि छोटे पाठों का। विस्तृत विषय-वस्तु से वह शीघ्र ही थक एवं ऊब जाता है।
3. पाठ्य-वस्तु का क्रम (Sequence of subject content)
प्रत्येक पाठ्य-वस्तु का कठिनाई स्तर अलग-अलग होता है। इसलिये पाठ्य-वस्तु को छात्रों के समक्ष प्रस्तुत का क्रम भी उनके सीखने की प्रक्रिया को पर्याप्त रूप से प्रभावित करता है। छात्र को पहले सरल विषय-वस्तु पढ़ायी जाये, बाद में कठिन । ऐसा करने से छात्र कठिन पाठ्य वस्तु को भी आसानी से सीख सकेगा। अत: हमें छात्रों के समक्ष पाठ्य-वस्तु प्रस्तुत करते समय शिक्षण के महत्त्वपूर्ण सूत्र “सरल से कठिन की ओर” का अनुसरण करना चाहिये।
4. उदाहरण प्रस्तुतीकरण (dllustration presentation)
प्रत्येक विषय में दो प्रत्यय होते हैं, स्थूल तथा सूक्ष्म । विद्यार्थी स्थूल प्रत्ययों को आसानी से समझ लेता है, जबकि सूक्ष्म प्रत्ययों को समझने मे उसे कठिनाई होती है। इसलिये ऐसे प्रत्ययों को समझाने के लिये अध्यापक को विभिन्न उदाहरणों का सहारा लेना पड़ता है। उदाहरण देते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि वे विद्यार्थी के दैनिक जीवन से सम्बन्धित हो तथा तर्क संगत हो।
अत: पाल्य वस्तु को गहनता से समझाने की दृष्टि से अध्यापक को विशिष्ट से सामान्य की ओर’ अथवा उदाहरण से नियम की ओर’ शिक्षण सूत्रों का प्रयोग करना चाहिये।
5. भाषा शैली (Language style)
सीखने की प्रक्रिया में भाषा शैली का महत्त्वपूर्ण हाथ रहता है। प्रत्येक लेखक का विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण का तरीका भिन्न होता है। एक अच्छे लेखक की यह पहचान होती है कि वह कठिन से कठिन पाठ्य-वस्तु को भी सरल भाषा में व्यक्त कर छात्रों के लिये सुग्राह्य बना देता है।
इसी दृष्टि से विषय-वस्तु को यदि सरल भाषा में बालकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाये तो वेसरलता से उसे सीख लेते हैं। कठिन भाषा एवं लम्बे-लम्बे वाक्य सीखने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। इसलिये भाषा को सरल, संक्षिप्त, सुबोध एवं प्रवाहमय बनाने का प्रयास किया जाना चाहिये।
6. दृश्य-धृव्य सामग्री (Audio-visual material)
अधिगम को रोचक बनाने में दृश्य शृव्य सामग्री का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। कठिन से कठिन पाठ्य-वस्तु को भी दृश्य-श्रव्य सामग्री के उपयोग से सुगम बनाया जा सकता है। लेकिन दृश्य-मृव्य सामग्री का उपयोग तभी किया जाना चाहिये जब वह आवश्यक हो। वस्तुत: सहायक सामग्री का प्रयोग विषय-वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है तथा उसी के अनुरूप दृश्य-शृव्य सामग्री का प्रयोग किया जाना चाहिये।
7. रुचिकर विषय-वस्तु (Interesting subject matter)
यदि पाठ्य वस्तु रुचिकर है तो छात्र उसे खूब मन लगाकर पढ़ते हैं और यदि विषय-वस्तु रुचिकर नहीं है तो छात्र सीखने में ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते और शीघ्र ही ऊब जाते हैं या थक जाते हैं। इस दृष्टि से पाठ्य-वस्तु का
रुचिकर होना अत्यन्त आवश्यक है।
शिक्षण भी एक कला है। अत: अध्यापक को कक्षा शिक्षण करने से पूर्व छात्रों में विषय के प्रति गहन रुचि उत्पन्न करनी चाहिये तथा अपनी सूझ-बूझ से विषय-वस्तु को रोचक बनाने के भरसक प्रयास करने चाहिये।
8. विषय-वस्तु की उद्देश्यपूर्णता (Purposiveness of subject matter)
यदि पाठ्य-वस्तु उद्देश्यपूर्ण है तथा छात्रों की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करती है तो छात्र उसे सरलता से सीख लेते हैं। अत: किसी भी विषय-वस्तु को पढ़ाने से पूर्व शिक्षक को छात्रों के समक्ष उसे जुड़े उद्देश्य एवं उपयोगिता को स्पष्ट कर देना चाहिये। वस्तुतः यह प्रत्यय सीखने के “प्रभाव के नियम” पर आधारित है।
विद्यार्थी जिस वस्तु को अपने लिये उपयोगी समझता है उसे सीखने में भी तत्परता दिखाता है और जो उसके लिये उपयोगी नहीं होती उसे सीखने में वह लापरवाही दिखाता है।
9. विषय-वस्तु की संरचना (Structure of subject matter)
विषय-वस्तु की संरचना का अधिगम प्रक्रिया को सफल या असफल बनाने में बड़ा हाथ होता है। अतः विषय-वस्तु की संरचना के सिद्धान्तों का पालन करके विषय-वस्तु का संगठन करना चाहिये। इसके अन्तर्गत मनोवैज्ञानिक एवं तार्किक पहलुओं पर दृष्टि रखनी चाहिये।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विषय-वस्तु छात्र के मानसिक स्तर के अनुरूप हो तथा तार्किक दृष्टि से कठिन से कठिन एवं सूक्ष्म प्रत्ययों को समझाने के लिये चित्र, रेखाचित्र, ग्राफ, आँकड़े एवं उदाहरणों का यथास्थान प्रयोग किया जाना चाहिये। समय-समय पर विषय-वस्तु को पुनर्गठित भी करते रहना चाहिये।
10. विभिन्न विषयों का कठिनाई स्तर (Difficulty level of various subjects)
प्रत्येक विषय की प्रकृति अलग-अलग होती है। ठीक उसी प्रकार प्रत्येक छात्र की रुचि भी अलग-अलग होती है। इस कारण एक विद्यार्थी अंग्रेजी में रुचि लेता है तो दूसरा गणित में तथा तीसरा कला में आदि। विषयों का कठिनाई स्तर भी अलग-अलग होता है।
इसी कारण एक विषय किसी विद्यार्थी को सरल प्रतीत होता है तो दूसरा अत्यन्त जटिल । इसी प्रकार कुछ विषयों; जैसे-संगीत, गृह विज्ञान, साहित्य तथा ललित कलाएँ आदि में बालिकाएँ अधिक रुचि रखती हैं जबकि बालक-विज्ञान, गणित, सामाजिक एवं यान्त्रिक विषयों में।
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