छात्र, शिक्षक तथा शिक्षण में सम्बन्ध (Relation between Student, Teacher and Teaching)
शिक्षण की प्रकृति, प्रक्रिया तथा उद्देश्यों को समझने की दृष्टि से यह समझना आवश्यक है कि वास्तव में शिक्षण क्या है और क्या नहीं?
किसी बात को जानने मात्र से व्यवहार में वांछित परिवर्तन कभी भी नहीं आता, क्योंकि सीखते तो पशु-पक्षी भी हैं। उनके भी देखने, सुनने आदि से सम्बन्धित इन्द्रियाँ होती हैं, परन्तु उनका व्यवहार आज भी वही है जो सृष्टि की रचना के समय प्रारम्भ में रहा होगा। उनका व्यवहार उस समय भी मूल प्रवृत्तिजन्य था और आज भी वैसा ही है। इसका मूल कारण है उनमें वांछित विवेकशीलता का अभाव जो बुद्धि के अभाव में बिल्कुल भी सम्भव नहीं।
प्रारम्भ में बालकों का व्यवहार भी ठीक वैसा ही होता है अर्थात् मूल प्रवृत्तिजन्य अधिक तथा अर्जित कम होता है, परन्तु ज्यों-ज्यों उनकी आयु बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों एक निश्चित सीमा तक उनकी बुद्धि का भी विकास होने लगता है। उन्हें भी इस बात का आभास होने लगता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित?
कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि बच्चे या बड़े किसी बात के अच्छे या बुरे परिणामों को जानते हुए भी अनजान बन जायें और कभी यह भी सम्भव है कि वे अच्छे-बुरे, पाप-पुण्य, करणीय-अकरणीय, वांछित-अवांछित के भेद को किसी भी कारण से समझते ही नहीं। ऐसी स्थिति में विद्यार्थी जिस जानकारी को प्राप्त कर रहे हैं, उसकी व्याख्या करना तथा उसकी गहराई को समझना आवश्यक हो जाता है।
इसी के लिये आवश्यकता होती है एक ऐसे ‘गुरु‘ की जो सम्बन्धित विषयवस्तु की गहराई को स्वयं भी समझता हो तथा समय पड़ने पर दूसरों को भी भलीभाँति समझा जा सकता हो। यही ‘गुरु’ समाज के लिये धर्म के मर्म को समझने वाले सन्त-महन्त, धर्माचार्य हैं तो विद्यार्थियों के लिये उनके ‘शिक्षक’। इसीलिये धर्माचार्यों को ‘धर्मगुरु‘ कहा जाता है तो शिक्षक को ‘गुरु‘।
जहाँ तक शिक्षक द्वारा, सम्बन्धित विषयवस्तु की गहराई को अपने विद्यार्थियों को स्पष्ट करने तथा समझाने का प्रश्न है, वह तभी सम्भव है जब शिक्षक स्वयं विषयवस्तु की उस गहराई को समझता हो। साथ ही वह न केवल विषयवस्तु की गहराई को ही समझता हो। अपितु विद्यार्थियों की शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमता (Capacity), उनकी मनःस्थिति, घरेलू परिस्थितियाँ आदि सभी की जानकारी के साथ-साथ वातावरणीय परिस्थितियों तथा शिक्षण के अनुरूप वातावरण सृजन में दक्ष हो तथा इन सभी गुणों के साथ-साथ उसमें सम्प्रेषणीय कुशलता (Communication skill) भी हो।
ये सभी बातें एक कुशल शिक्षक के विशिष्ट गुण भी हैं तो दूसरी ओर अच्छे शिक्षण की विशेषताएँ भी। अत: कह सकते हैं कि-
शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के मध्य कक्षागत परिस्थितियों में एक ऐसी अन्त:क्रिया को जिसके द्वारा शिक्षक, अपने गहन-ज्ञान तथा सम्प्रेषणीय कुशलता के आधार पर सम्बन्धित विषयवस्तु को अपने विद्यार्थियों को आत्मसात् कराने में सक्षम हो, शिक्षण कहते हैं।
शिक्षण की इस परिभाषा को ध्यान में रखते हुए शिक्षक के जिस शिक्षण के माध्यम से विषयवस्तु की गहराई को न तो समझ ही सकें और न ही तद्नुरूप अपने व्यवहार में परिवर्तन लाने का प्रयास करें अर्थात् अधिगम की दृष्टि से जहाँ थे वहीं बने रहें तो उसे शिक्षण नहीं कहा जा सकता। साथ ही शिक्षक-शिक्षार्थी के मध्य ऐसी अन्तःक्रिया जिसका सम्बन्धित विषयवस्तु से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध हो ही नहीं उसे भी शिक्षण कहा ही नहीं जा सकता। ऐसे ही शिक्षण का एक नमूना है-
उदाहरण – एक थे शिक्षक ऐसे वैसे नहीं पूरी तरह प्रशिक्षित। पूरी तरह का आशय है कि शिक्षक-प्रशिक्षण की अधिस्नातक उपाधि भी उनके पास थी। सफल शिक्षण के नियम आदि भी अच्छी तरह पढ़ रखे थे। फिर भी उनका शिक्षण कुछ इस प्रकार का था-
शिक्षक के कक्षा में प्रवेश करते ही विद्यार्थी उन्हें देखते ही हँसते हुए खड़े हो जाते। हँसी में स्वाभाविकता कम तथा व्यंग्य अधिक होता था, परन्तु शिक्षक महोदय की दृष्टि में विद्यार्थियों द्वारा उनका वह असम्मान भी किसी सम्मान-सूचक उपाधि से कम खुशी देने वाला नहीं होता था। कम से कम 15 मिनट इसी खुशी की अभिव्यक्ति में बीत जाते। फिर अलग-अलग विद्यार्थियों से खाने-पीने से लेकर कभी अपने बच्चों के दूध न पीने की कहानी अपने विद्यार्थियों से कहते तो कभी कुछ और।
बात में से बात निकलती चली जाती घण्टा बज जाता। विद्यार्थी कहते-“सर, घण्टा बज गया।” बाहर निकलते-निकलते ही साथी लोगों से कहते-“मैं पढ़ाने में इतना तल्लीन हो जाता हूँ कि घण्टा कब बजता है इसका पता ही नहीं चलता।” साथी, थोड़ी व्यंग्य भरी प्रशंसा कर देते। पूरा सत्र ऐसे ही निकल जाता। परीक्षा परिणाम वही होता जो होना चाहिये। विचारणीय यही है कि क्या इसे शिक्षण कहा जाये या नहीं? हमारी दृष्टि में यह शिक्षण नहीं है। अत: हम कह सकते हैं कि-
कक्षागत परिस्थितियों में शिक्षक द्वारा सम्बन्धित विषयवस्तु से असम्बद्ध तथा अनर्गल बातों में ही पूरा समय व्यतीत कर देने को ‘शिक्षण‘ की संज्ञा देना सर्वथा अनुचित है।
शिक्षण का अर्थ, प्रकृति, विशेषताएँ, सोपान तथा उद्देश्य (Meaning, Nature, Characteristics, Steps and Aims of Teaching):-
- शिक्षण (Teaching) – शिक्षण की परिभाषा एवं अर्थ
- छात्र, शिक्षक तथा शिक्षण में सम्बन्ध
- शिक्षण की प्रकृति
- शिक्षण की विशेषताएँ
- शिक्षा और शिक्षण में अन्तर
- शिक्षण प्रक्रिया – सोपान, द्विध्रुवीय, त्रिध्रुवीय, सफल शिक्षण
- शिक्षण प्रक्रिया के सोपान
- द्विध्रुवीय अथवा त्रिध्रुवीय शिक्षण
- शिक्षण के उद्देश्य – शिक्षण के सामान्य, विशिष्ट उद्देश्यों का वर्गीकरण, निर्धारण और अंतर