अर्जित प्रेरक (Acquired Motives)
वे प्रेरक जो बालक में जन्मजात नहीं होते हैं, वरन् वातावरण के सम्पर्क में आने पर वह अर्जित करता है, अर्जित प्रेरक कहलाते हैं। अर्जित प्रेरक दो प्रकार के होते हैं-
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व्यक्तिगत प्रेरक
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सामान्य सामाजिक प्रेरक
व्यक्तिगत प्रेरक
Personal motives
प्रत्येक व्यक्ति की रुचियाँ, उसके उद्देश्य अलग-अलग होते हैं। उसमें वैयक्तिक भिन्नता भी होती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचियों की पूर्ति अलग-अलग प्रकार से करता है।
मन (Munn) ने व्यक्तिगत प्रेरक की परिभाषा इस प्रकार दी है- “व्यक्तिगत प्रेरक वे प्रेरक हैं, जो किसी विशेष संस्कृति में स्वयं प्रधान नहीं होते हैं, फिर भी वे जन्मजात एवं सामान्य सामाजिक प्रेरकों से सम्बन्धित होते हैं।“
कुछ प्रमुख व्यक्तिगत प्रेरक इस प्रकार हैं-
1. जीवन लक्ष्य (Goal of life)
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य अलग-अलग होता है। वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति अपने ढंग से करता है। जीवन में कोई व्यक्ति शिक्षक, कोई व्यापारी, कोई डॉक्टर तो कोई इन्जीनियर बनना चाहता है।
व्यक्ति अपनी रुचि, भावना आदि से प्रेरित होकर अपने व्यवसाय का चयन करता है। स्पष्ट है कि व्यक्ति किसी कारक से प्रेरित होकर कोई कार्य करता है।
2. आकांक्षा का स्तर (Level of aspiration)
व्यक्ति के जीवन से इस प्रेरक का घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कोई न कोई आकांक्षा अवश्य रखता है। वह उसे पूरा करने का भरसक प्रयत्न करता है।
व्यक्ति की आकांक्षा के स्तर में समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। मनुष्य का व्यवहार आकांक्षा के स्तर पर निर्भर करता है।
3. मद्यव्यसन (Drug addiction)
यह प्रेरक विशेष शक्तिशाली होता है। जिन व्यक्तियों को शराब या किसी अन्य नशे को प्रयोग करने की आदत पड़ जाती है, उन्हें नशे की वस्तु न मिलने पर शारीरिक तनाव उत्पन्न हो जाता है।
जिन व्यक्तियों को नशा करने की आदत पड़ जाती है, वह भूखे रह सकते हैं परन्तु बिना नशे की वस्तु के नहीं रह सकते।
4. रुचि (Interest)
प्रत्येक व्यक्ति की कोई न कोई रुचि अवश्य होती है। वह उसी के अनुसार कार्य करता है। रुचि किसी व्यक्ति को सक्रिय बना देती है। बालक की आयु जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, उसकी रुचियों में भी परिवर्तन होता जाता है।
5. आदत की विवशता (Force of habit)
आदत भी एक शक्तिशाली प्रेरक है। आदतों का निर्माण कैसे होता है? जब कोई क्रिया बार-बार दोहरायी जाती है तो वह हमारी आदत बन जाती है। यदि कोई व्यक्ति अपनी आदत के अनुसार कार्य नहीं करता तो उसके शरीर में शारीरिक तनाव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार आदत प्रेरक के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
6. अचेतन प्रेरणा (Unconscious motives)
प्रत्येक व्यक्ति में कुछ ऐसे प्रेरक होते हैं, जिनका उसे ज्ञान नहीं होता। ये उसके अचेतन मन में पड़े रहते हैं। ऐसे प्रेरक व्यक्ति का व्यवहार असामान्य कर देते हैं।
7. मनोवृत्तियाँ या अभिवृत्तियाँ (Attitude)
प्रत्येक व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-
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अनुकूल मनोवृत्तियाँ,
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प्रतिकूल मनोवृत्तियाँ।
हम अपने मित्रों तथा परिवार के सदस्यों के प्रति अनुकूल मनोवृत्ति रखते हैं, परन्तु शत्रुओं के प्रति हमारी मनोवृत्ति प्रतिकूल हो जाती है।
सामान्य सामाजिक प्रेरक
Common social motives
सामान्य सामाजिक प्रेरक भी अर्जित किये जाते हैं। व्यक्ति जब अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है तो वह इस प्रकार के प्रेरक अर्जित करता है।
प्रमुख सामान्य सामाजिक प्रेरक निम्न हैं-
1. सामुदायिकता या समूह में रहने की भावना (Gregariousness)
प्रत्येक व्यक्ति समुदाय में रहना चाहता है। बालक तथा लगभग सभी व्यक्ति किसी न किसी पर आश्रित रहते हैं। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये दूसरों की सहायता लेता है। इसी कारण व्यक्ति समूह में रहना चाहता है। मनुष्यों में ही नहीं वरन् पशुओं में भी यह प्रवृत्ति पायी जाती है।
2. अर्जनात्मक (Acquisitiveness)
मैक्डूगल (MecDougall) ने अर्जनात्मक की परिभाषा इस प्रकार दी है- “अर्जनात्मक उपयोगी अथवा आकर्षक वस्तुओं को प्राप्त करने, उन्हें रखने तथा उनकी रक्षा करने की प्रवृत्ति है।“
इस प्रेरक को भी पर्यावरण में अर्जित किया जाता है। बालक आरम्भ से ही अपनी वस्तुओं की रक्षा करता है। उनको छिपाकर रखता है। आयु के बढ़ने के साथ-साथ इस प्रवृत्ति में भी वृद्धि होती जाती है।
3. आत्म गौरव या आत्म स्थापन (Self-assertion)
यह प्रेरक प्रत्येक व्यक्ति में चाहे वह किसी भी आयु का हो सभी में पाया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों से अच्छा दिखना चाहता है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों पर अधिकार जमाना चाहता है। आत्म गौरव प्रदर्शित करने की इच्छा ही हमारे व्यवहार को निर्देशित करती है।
4. युयुत्सा (Pugnacity)
कुछ मनोवैज्ञानिक इसे जन्मजात प्रेरक मानते हैं। परन्तु मनोवैज्ञानिकों का एक वर्ग इसे अर्जित प्रेरक मानता है। ये प्रेरक दो कारणों से उत्पन्न होते हैं-
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यदि किसी जन्मजात प्रेरक को सन्तुष्टि नहीं हो पाती।
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युयुत्सा सम्बन्धी प्रशिक्षण की कमी के कारण।
युयुत्सा की उत्पत्ति उस समय होती है, जब हमारी किसी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती है। यह एक प्रकार से निराशा का परिणाम है, जो हमें किसी वस्तु के प्राप्त न होने पर होता है।