सीखने को प्रभावित करने वाले कारक: सीखने के विभिन्न प्रयोगों में यह पाया गया कि सीखने को प्रभावित करने वाले विभिन्न तत्त्व कारक, दशाएँ या परिस्थितियाँ होती हैं। इनको नियन्त्रित करके ही सीखने में उन्नति की जाती है।
जैसा कि एम. एल. बिगी (M. L. Biggie) ने लिखा है- “अधिगम क्षमता में वृद्धि से तात्पर्य ऐसी स्थितियों के निर्माण से है, जिनमें निश्चित समय में बालक की क्रियाओं में अधिगम परिवर्तन उत्पन्न हो।”
Improving the efficiency of learning means establishing situations in which maximum change of insight or behaviour may occure in a given time.
अत: हम सीखने को प्रभावित करने वाली दशाओं एवं कारकों को निम्न रूपों में स्पष्ट करते हैं-
1. बालक की योग्यता एवं क्षमता (Ability and capacity of child)
यहाँ पर बालक की योग्यता एवं क्षमता से तात्पर्य बुद्धि एवं परिपक्वता से है। बुद्धि जन्म-जात होती है। बालक के विकास के साथ-साथ उसमें तेजी बढ़ती जाती है। परिपक्वता का सम्बन्ध बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास से होता है।
अत: बालक में सीखने की योग्यता (रुचि, बुद्धि-लब्धि का स्तर, मनोदशा, लगन और उत्साह) एवं शारीरिक परिपक्वता का प्रभाव सीखने की अवस्था को निश्चित करता है। इसीलिये मनोवैज्ञानिकों ने सीखने वाले के अध्ययन के आधार पर सीखने की क्रिया एवं विधि को निश्चित करने का प्रयास किया है।
परिणामतः शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यचर्या का निर्माण बालक के आधार पर किया जाता है।
2. निश्चित उद्देश्य (Definite aim)
बालकों को जब कोई ज्ञान दिया जाय तो उसका उद्देश्य स्पष्ट एवं निश्चित होना चाहिये। बालकों को उद्देश्यों से परिचित करा दिया जाय ताकि वे स्वयं को सीखने के लिये तैयार कर सकें।
इस प्रकार से उनमें नवीन कार्य को सीखने के प्रति ‘ललक’ होगी। यह ‘ललक’ जिसे आन्तरिक उत्साह कहते हैं, बालकों के सीखने में सहायक होगी। वे अपना ध्यान केन्द्रित करके पूर्ण मनोयोग से सीखने के फल को प्राप्त करने की कोशिश करेंगे।
अध्यापक को ज्ञान का पक्ष एवं विपक्ष बालकों के समक्ष स्पष्ट कर देना चाहिये ताकि वे उसका दुरुपयोग न कर सकें।
3. प्रेरकों का प्रयोग (Use of motives)
‘प्रेरक’ शब्द से तात्पर्य बालक में आन्तरिक एवं बाह्य रूप से उत्साह या प्रेरणा देने वाली शक्ति से होता है। बालक के सीखने में ही नहीं वरन् सभी प्राणियों के सीखने में प्रेरक तत्त्वों को आवश्यक माना गया है।
शिक्षा के क्षेत्र में छोटे बालकों को पुरस्कार एवं दण्ड और बड़े बालकों को प्रशंसा एवं निन्दा के द्वारा प्रेरणा देकर उन्हें नवीन ज्ञान को शीघ्रातिशीघ्र सिखाया जा सकता है।
इसीलिये एम. एल. बिगी (M. L. Biggie) ने लिखा है- “एक अध्यापक, जो अपने छात्रों को अच्छी प्रकार से शिक्षा के प्रति प्रेरित कर सकता है, वह शिक्षा सम्बन्धी युद्ध को आधा प्रारम्भ से ही जीत लेता है।”
A teacher who can keep his students well motivated has won more than half the battle.
4. विषय का स्वरूप एवं विधि (Nature and method of subject)
सीखने पर सीखी जाने वाली विषय-वस्तु एवं सीखने की विधि का सीधा प्रभाव पड़ता है। विषय सार्थक, उपयोगी और यथार्थ होना चाहिये, जिससे सीखने वाले तात्कालिक लाभ उठा सकें।
साथ ही सीखने की विधि, खेल विधि, क्रिया विधि आदि का प्रयोग शिक्षक को प्रारम्भिक कक्षाओं में करना चाहिये और उच्च कक्षाओं में सम्पूर्ण विधि’, सामूहिक विधि’, ‘सहयोगी विधि’ एवं ‘सह-सम्बन्ध विधि’ आदि का पालन करना आवश्यक है।
यही कारण है कि कक्षा शिक्षण के लिये ‘शिक्षण सूत्र’ शिक्षण पद्धतियाँ एवं विधियों के प्रशिक्षण के दौरान शिक्षकों को अलग-अलग ज्ञान दिया जाता है।
अत: शिक्षक को छात्र के आधार पर विषय का चयन एवं उपयुक्त विधि का प्रयोग करना चाहिये।
5. शिक्षक का व्यक्तित्व (Personality of teacher)
इंग्लैण्ड की उच्च शिक्षा के विज्ञान छात्र-छात्राओं ने हड़ताल की। उनकी प्रमुख माँग थी कि ‘नोबल पुरस्कार’ विजेता हमको पढ़ायें। इससे स्पष्ट होता है कि बालकों में उच्च बनने की आकांक्षा जन्म से ही होती है।
वे शिक्षक को अपना आदर्श बनाते हैं और उसका अनुसरण करते हैं ताकि ज्ञान के क्षेत्र में उन्नति कर सकें। अत: सिखाने वाले का व्यक्तित्व प्रभावशाली हो, जिससे छात्र सीखने के क्षेत्र में तीव्र उन्नति कर सकें।
6. सहायक साधनों का प्रयोग (Use of materials aids)
प्रत्यक्षात्मक एवं विचारात्मक सीखने में सहायक साधनों का प्रयोग अति आवश्यक होता है। सीखने में ज्ञानेन्द्रियों एवं मानसिक शक्तियों का सही प्रयोग तभी सफल हो सकता है, जब उसके संसाधन पर्याप्त हों।
इसलिये प्रत्येक विषय के शिक्षण के लिये सही सहायक सामग्री का प्रयोग अध्यापक को करना चाहिये। वैज्ञानिक विषयों में सहायक यन्त्रों का प्रयोग एवं साहित्यिक विषयों में विद्वानों द्वारा रचित पाण्डुलिपियों का प्रयोग अवश्य होना चाहिये।
बालकों को जब हम बोर्ड पर कोई चित्र बनाकर समझाते हैं तो वह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं होता, जितना कि उसका प्रत्यक्षात्मक निरीक्षण लाभप्रद होता है।
7. अभ्यास (Exercise)
किसी भी प्रकार का सीखना हो, अभ्यास के द्वारा उसे स्थायी एवं सरल बनाया जा सकता है। अभ्यास के द्वारा कठिन कार्य को भी सरलता से सीखा जा सकता है। अभ्यास करवाते समय शिक्षक को सही विधि एवं उचित समय वितरण का ध्यान रखना चाहिये अन्यथा अभ्यास का प्रभाव सीखने में प्रगति न करके रुकावट उत्पन्न करेगा।
आगे विस्तार से पढ़ें सीखने को प्रभावित करने वाले कारक एवं दशाएं-
सीखने को प्रभावित करने वाले कारक (Effecting Factors of Learning)
सीखना मानव जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इस कार्य को सम्पन्न करने में शिक्षक पाठ्यक्रम एवं वातावरण का प्रभाव अनिवार्य रूप से देखा जाता है। सीखने पर किसी एक कारक का प्रभाव नहीं होता वरन् अनेक ऐसे कारक हैं जो कि सीखने की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। सीखने की प्रक्रिया मानव जीवन में अनवरत् रूप से चलती रहती है।
बालक अपने जीवन में अनेक तथ्यों को जाने-अनजाने में सीखता रहता है। हमारे मनोवैज्ञानिक एवं शिक्षाशास्त्रियों ने सीखने की प्रक्रिया की विभिन्न स्थितियों के लिये भिन्न-भिन्न कारकों को उत्तरदायी ठहराया है। प्राय: सीखने की प्रक्रिया की मन्द गति, तीव्र गति एवं सामान्य गति का सम्बन्ध विभिन्न प्रकार के कारकों से सम्बन्धित होता है जो कि प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से अधिगमकर्त्ता से सम्बन्धित होते हैं।
सीखने को प्रभावित करने वाले कारकों को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है:-
- शिक्षार्थी से सम्बन्धित कारक ।
- शिक्षक से सम्बन्धित कारक ।
- पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित कारक ।
- शिक्षण विधि से सम्बन्धित कारक ।
- पर्यावरण से सम्बन्धित कारक ।
शिक्षार्थी से सम्बन्धित कारक (Students Related Factors)
सीखने की प्रक्रिया का प्रमुख भाग शिक्षार्थी है । शिक्षार्थी को ही सिखाया जाता है तथा शिक्षार्थी ही सीखता है। इस प्रकार शिक्षार्थी से सम्बन्धित कारक सीखने की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं । शिक्षक को पूर्णत: सफलता इस स्थिति में ही प्राप्त होती है जब शिक्षार्थी पूर्ण रूप से योग्य एवं सीखने की प्रक्रिया में सहयोग देने वाला हो । शिक्षार्थी द्वारा सीखने की प्रक्रिया में सहयोग उस स्थिति में प्रदान किया जा सकता है जब वह, शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ हो ।
सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले शिक्षार्थी सम्बन्धित कारकों को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है:-
1. आयु एवं परिपक्वता (Age and maturity)
शिक्षार्थी की आयु एवं परिपक्वता सीखने की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। कोई भी शिक्षार्थी अपनी आयु के अनुरूप परिपक्वता को प्राप्त नहीं कर पाता है तो वह सीखने के कार्य में भी पीछे रह जाता है। क्योंकि सीखने की प्रक्रिया का प्रत्यक्ष सम्बन्ध शिक्षार्थी की आयु एवं परिपक्वता से होता है।
उदाहरणार्थ एक बालक कक्षा 5 का विद्यार्थी है जिसकी आयु 9 वर्ष है तथा वह आयु की दृष्टि से पूर्णत: परिपक्व है तो उसी कक्षा का दूसरा छात्र जो कि 11 वर्ष का है तथा आयु की दृष्टि से पूर्ण परिपक्व नहीं है। यदि दोनों छात्रों को एक समान परिस्थितियों में अध्ययन कराया जाये तो पहला छात्र जो कि पूर्णत: आयु के अनुसार परिपक्व है, अधिक गति से सीखेगा । इसके विपरीत दूसरा जो कि 11 वर्ष का है किन्तु वह परिपक्वता को प्राप्त नहीं है, उसकी सीखने की गति कम होगी ।
इस प्रकार शिक्षार्थी की आयु एवं परिपक्वता का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।
2. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य (Physical and mental health)
शारीरिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्वास्थ्य का सामान्य रूप से प्रत्यक्ष एवं घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इसलिये शिक्षार्थी के इन दोनों पक्षों का अध्ययन एक साथ करना आवश्यक एवं अनिवार्य होगा । किसी विद्वान् ने कहा भी है “स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है” अर्थात् शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति की मानसिक रूप से स्वस्थ होने की पूर्ण सम्भावना रहती है । शारीरिक स्वस्थता से आशय शिक्षार्थी की आयु के अनुसार लम्बाई वजन एवं अन्य शारीरिक विकास से होता है ।
शिक्षार्थी की मानसिक आयु एवं वास्तविक आयु में अन्तर नहीं होना चाहिये । यदि अन्तर होता है तो उसका मानसिक स्वरूप उत्तम या निम्न हो सकता है । यदि कोई शिक्षार्थी शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होगा तो उसकी सीखने की गति तीव्र होगी तथा इसके विपरीत कोई शिक्षार्थी शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं होगा तो उसके सीखने की गति तीव्र नहीं होगी।
इस प्रकार शिक्षार्थी का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य सीखने की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है ।
3. बुद्धि (Intelligency)
सीखने की प्रक्रिया में बुद्धि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। शिक्षार्थी की बुद्धिलब्धि द्वारा ही यह निश्चित होता है कि शिक्षार्थी की सीखने की गति किस प्रकार की होगी? क्योंकि बुद्धिलब्धि के आधार पर ही छात्रों के बारे में यह निश्चित किया जा सकता है कि छात्र किस श्रेणी के अन्तर्गत आता है। प्रतिभाशाली बालकों के सीखने की गति तीव्र होती है, सामान्य बुद्धिलब्धि वाले बालकों की सीखने की गति सामान्य तथा मन्द बुद्धि वाले बालकों की सीखने की गति कम होती है ।
इस प्रकार यह निश्चित होता है कि शिक्षार्थी की बुद्धिलब्धि सीखने की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करती है ।
4. रुचि (Interest)
सीखने की प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिये सर्वप्रथम शिक्षार्थी में विषय के प्रति रुचि उत्पन्न करना परमावश्यक है। यदि कोई भी शिक्षक विषय विशेष के प्रति रुचि उत्पन्न नहीं कर सकता है तो वह अपने छात्रों को तीव्र गति से नहीं सिखा सकता। जो शिक्षक छात्रों में विषय के प्रति रुचि उत्पन्न कर सकता है वह छात्रों में सीखने की प्रक्रिया को तीव्र कर सकता है।
दूसरे शब्दों में शिक्षार्थी किसी प्रकरण या विषय को सीखने के प्रति रुचि रखता है अर्थात् वह विषय को उपयोगी एवं लाभदायक समझता है तो उस स्थिति में सीखने की गति तीव्र होगी । इसके विपरीत जब शिक्षार्थी में किसी विषय के प्रति रुचि नहीं है तथा उसको वह अपने जीवन के लिये अनुपयोगी समझता है तो सीखने की प्रक्रिया मंद गति से होगी। इस प्रकार रुचि छात्र की सीखने की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करता है ।
5. अवधान (Attention)
सीखने की प्रक्रिया में अवधान की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अवधान के अभाव में कोई भी छात्र सीखने की प्रक्रिया में सफल नहीं हो सकता। अवधान के लिये यह आवश्यक है कि छात्र के समक्ष प्रस्तुत विषय उसकी रुचि एवं क्षमता के अनुकूल होना चाहिये। यदि विषय में उसकी रुचि है तथा वह छात्र के मानसिक स्तर एवं योग्यता के अनुकूल है तो निश्चित रूप से छात्र का अवधान उस विषय की ओर होगा तथा सीखने की प्रक्रिया तीव्र गति से सम्पन्न होगी। इसके विपरीत यदि शिक्षार्थी विषय के प्रति रुचि नहीं रखता है तथा प्रस्तुत विषय उसकी क्षमता से ऊपर के स्तर का है तो छात्र का अवधान उस विषय पर केन्द्रित नहीं होगा और सीखने की प्रक्रिया असफल हो जायेगी ।
अतः सीखने की प्रक्रिया को सफल बनाने के लिये शिक्षार्थी का अवधान विषयवस्तु की ओर केन्द्रित होना चाहिये ।
6. अभिवृद्धि (Growth)
अभिवृद्धि का आशय यहाँ पर व्यापक रूप में लिया जाता है। इसमें छात्र की शारीरिक, मानसिक एवं शैक्षिक अभिवृद्धि के तथ्यों को स्वीकार किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में शिक्षार्थी की अभिवृद्धि का पक्ष प्रत्येक क्षेत्र में सकारात्मक है अर्थात् छात्र शारीरिक, मानसिक एवं शैक्षिक अभिवृद्धि को प्राप्त हो रहा है तो सीखने की प्रक्रिया में भी उसकी अभिवृद्धि अनिवार्य होगी और तीव्र गति से सीखेगा। इसके विपरीत एक निश्चित अवधि के बाद शिक्षार्थी की अभिवृद्धि किन्हीं कारणों के वशीभूत होकर रुक जाती है तो उसका प्रभाव शिक्षार्थी की सीखने की प्रक्रिया पर पड़ता है। इस स्थिति में सीखने की प्रक्रिया सफल नहीं हो सकती।
अतः सीखने की प्रक्रिया की सफलता के लिये शिक्षार्थी की चहुँमुखी अभिवृद्धि आवश्यक है।
7. अभिप्रेरणा (Motivation)
सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि किसी छात्र को सीखने के लिये प्रेरणा प्रदान की जायेगी तब वह सीखने में अधिक तत्परता दिखाता है इसके विपरीत यदि छात्र को प्रेरणा प्रदान नहीं की जाती है तो वह सीखने की प्रक्रिया में कोई रुचि नहीं दिखायेगा। शिक्षार्थियों की अभिप्रेरणा प्रदान करने में प्राय: सकारात्मक साधनों को ही प्रमुखता प्रदान की जाती है।
उदाहरण के लिये अभिभावकों द्वारा छात्रों को यह कह कर अध्ययन के लिये प्रेरित किया जाता है कि उनके 90 प्रतिशत अंक पाने पर उनको बाइक दिला दी जायेगी । शिक्षक अनेक उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न दिखाकर उनको अध्ययन के लिये प्रेरित करता है। इस प्रकार शिक्षार्थी को सीखने की प्रक्रिया में यदि सहभागी बनाना है तो उसको विषयवस्तु के महत्त्व, उपयोग एवं अनिवार्यता का ज्ञान कराते हुए उसको सीखने के लिये प्रेरित करना अनिवार्य होगा।
इस प्रकार अभिप्रेरणा भी शिक्षार्थी की सीखने की प्रक्रिया को सफल बनाने में अहम् भूमिका निर्वहन करती है।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षार्थी से सम्बन्धित उपरोक्त कारक प्रत्यक्ष रूप से सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। इन कारकों के द्वारा सीखने की प्रक्रिया कोसफल अथवा असफल बनाया जा सकता है। यदि उपरोक्त सभी कारक सकारात्मक रूप में कार्य करते हैं तो सीखने की प्रक्रिया सफल होती है तथा कारकों के द्वारा नकारात्मक रूप में कार्य किया जाता है तो सीखने की प्रक्रिया असफल हो जाती है।
शिक्षक से सम्बन्धित कारक (Teacher Related Factors)
शिक्षक से सम्बन्धित कारकों के द्वारा भी सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित किया जाता है । सीखने की प्रक्रिया पूर्ण रूप से शिक्षक-शिक्षार्थी के मध्य सम्पन्न होती है। शिक्षक सिखाने का कार्य करता है तथा शिक्षार्थी सीखने का कार्य करता है। अत: सीखने की प्रक्रिया में शिक्षक एक महत्त्वपूर्ण ध्रुव है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। शिक्षक से सम्बन्धित कारक जो कि सीखने की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं, का निम्नलिखित रूप में वर्णन किया जा सकता है-
1. व्यक्तित्व का प्रभाव (Effect of Personality)
शिक्षक का व्यक्तित्व प्रत्यक्ष रूप से सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है । शिक्षार्थी के लिय शिक्षक आदर्श रूप में कार्य करने वाला एक महत्त्वपूर्ण स्रोत होता है जिसके माध्यम से शिक्षार्थी अपने जीवन दर्शन को निर्मित करता है तथा उसके व्यक्तित्व से बहुत से तथ्यों को सीखने का प्रयास करता है। शिक्षक के व्यक्तित्व में समाहित अनेक प्रकार के सामाजिक एवं नैतिक गुण छात्रों को सामाजिकता एवं नैतिकता के विषय में सीखने के लिय प्रेरित करते हैं। शिक्षक का शारीरिक विकास एवं अध्ययन के प्रति दृष्टिकोण शिक्षार्थी के शारीरिक स्वास्थ्य एवं स्वाध्याय की प्रवृत्ति को विकसित करता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावशाली, आकर्षक एवं आदर्श स्वरूप में है तो सीखने की प्रक्रिया सफल एवं प्रभावी रूप में सम्पन्न होगी। इसके विपरीत शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावहीन है तो व्यावसायिक दृष्टि से अनुपयुक्त है। अतः सीखनेकी प्रक्रिया प्रभावी रूप में सम्पन्न नहीं होगी।
2. ज्ञान का प्रभाव (Effect of Knowledge)
शिक्षक के सम्बन्ध में ज्ञान का अर्थ व्यापक अर्थों में लिया जाता है। शिक्षक के ज्ञान में विषयवस्तु का ज्ञान, शिक्षण विधियों का ज्ञान, वैयक्तिक भिन्नता का ज्ञान, शिक्षण अधिगम सामग्री का निर्माण एवं प्रयोग एवं मनोविज्ञान का ज्ञान आदि विभिन्न तथ्यों को सम्मिलित किया जाता है। यदि शिक्षक का ज्ञान, ज्ञान की दृष्टि से पूर्ण है तो वह सीखने की प्रक्रिया को सफल बना सकता है यदि उसका ज्ञान अपूर्ण है तो सीखने की प्रक्रिया को सम्पन्न नहीं बना सकता है।
उदाहरणार्थ– यदि किसी शिक्षक को शिक्षण विधियों के प्रयोग का ज्ञान नहीं है तो वह छात्रों की योग्यता के अनुसार शिक्षण विधियों का प्रयोग नहीं कर पायेगा तथा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया असफल हो जायेगी। इसके विपरीत यदि शिक्षक को शिक्षण विधियों के प्रयोग सम्बन्धी ज्ञान में पूर्णता प्राप्त है तो वह शिक्षार्थी की योग्यता एवं मानसिक स्तर के अनुकूल ही शिक्षण विधियों का प्रयोग करेगा, इससे सीखने की प्रक्रिया सफलतम रूप में सम्पन्न होगी ।
3. कौशल का प्रभाव (Effect of Skills)
कौशल शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में सामाजिक कौशल, सृजनात्मक कौशल एवं शिक्षण कौशल के रूप में किया जा सकता है। सामाजिक कौशल एवं सृजनात्मक कौशल से युक्त शिक्षक अपने छात्रों में सामाजिक आकांक्षाओं के अनुरूप कौशलों का विकास करने में सक्षम होगा जिससे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया पूर्ण रूप से सम्पन्न होगी। इसके विपरीत शिक्षक में कौशलों का विकास व्यापक रूप से नहीं होगा तो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया पूर्णत: असफल होगी अर्थात् सीखने की प्रक्रिया मन्द गति से सम्पन्न होगी ।
4. शिक्षण कौशल का प्रभाव (Effect of Teaching Skills)
शिक्षक में सीखनेकी प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिये शिक्षण कौशलों का होना अनिवार्य है। शिक्षण कौशलों के अभाव में सीखने की प्रक्रिया श्रेष्ठ रूप में सम्पन्न नहीं होगी। इसके विपरीत स्थिति में यदि शिक्षक शिक्षण कौशलों से युक्त है तो सीखने की प्रक्रिया प्रभावपूर्ण ढंग से सम्पन्न होगी।
शिक्षण कौशलों से आशय उन समस्त कौशलों से है जिनकी आवश्यकता शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में होती है; जैसे– प्रस्तावना कौशल, व्याख्या कौशल, प्रश्न पूछने का कौशल, उद्दीपन परिवर्तन कौशल एवं प्रदर्शन कौशल आदि। इन कौशलों के द्वारा शिक्षक अपनी शिक्षण प्रक्रिया को सफल बनाता है जिसके परिणामस्वरूप शिक्षार्थी अधिक गति से सीखते हैं।
इस प्रकार शिक्षण कौशल का ज्ञान शिक्षक को अनिवार्य रूप से होना चाहिये क्योंकि इसका प्रत्यक्ष प्रभाव शिक्षार्थी की सीखने की प्रक्रिया पर पड़ता है।
5. प्रेम पूर्ण व्यवहार एवं सकारात्मक व्यवहार का प्रभाव (Effect of lovely behaviour and positive behaviour)
शिक्षक का व्यवहार भी सीखने की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। शिक्षक का प्रेमपूर्ण व्यवहार शिक्षार्थी की सीखने की प्रक्रिया की गति में तीव्रता लाता है क्योंकि प्रेमपूर्ण एवं सकारात्मक व्यवहार के कारण छात्र अपनी स्थिति का प्रदर्शन स्वतन्त्र रूप से करता है जिससे शिक्षक को उसकी योग्यता एवं क्षमता का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। शिक्षक के सकारात्मक व्यवहार के कारण ही छात्र शिक्षक से अपनी व्यक्तिगत एवं शैक्षिक समस्याओं को निसंकोच होकर प्रकट कर देता है तथा शिक्षक द्वारा उसकी समस्याओं का समाधान किया जाता है।
इस प्रकार शिक्षार्थी की सभी समस्याओं का समाधान हो जाने पर शिक्षार्थी पूर्ण मनोयोग से सीखने की प्रक्रिया में लग जाता है तथा सीखने की प्रक्रिया पूर्णतः सफल एवं प्रभावी रूप में सम्पन्न होती है । इस प्रकार शिक्षक का सकारात्मक एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार सीखने की प्रक्रिया पर सकारात्मक प्रभावों का ही प्रदर्शन करता है ।
6. नकारात्मक, उदासीन एवं उपेक्षापूर्ण व्यवहार का प्रभाव (Effect of negative, neutral and negligence behaviour)
यह शिक्षक व्यवहार का द्वितीय रूप है जिसमें शिक्षक का शिक्षार्थी के प्रति व्यवहार सामान्य रूप में न होकर असामान्य रूप में होता है। इसमें शिक्षक का व्यवहार नकारात्मक रूप में होता है । नकारात्मक व्यवहार के अन्तर्गत शिक्षक अपने शिक्षार्थी की व्यक्तिगत एवं शैक्षिक समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रखता तथा वह शिक्षार्थी के कार्यों को सदैव नकारात्मक रूप में देखता है। बात-बात पर शिक्षार्थी को डाँटना एवं फटकारना इस व्यवहार की प्रमुखता होती है अर्थात् वह व्यवहार शिक्षार्थी के मन में भय उत्पन्न करता है तथा उसके सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया पर रोक लगाता है । इस प्रकार शिक्षक का नकारात्मक व्यवहार छात्र को सीखने की प्रक्रिया को मन्द गति प्रदान करता है।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षक का व्यवहार, व्यक्तित्व एवं कौशल आदि के द्वारा सीखने की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। शिक्षक के व्यवहार के द्वारा ही शिक्षक-शिक्षार्थी के मध्य शैक्षिक वातावरण तैयार किया जाता है तथा शिक्षण कौशलों के प्रयोग से सीखने की प्रक्रिया को प्रभावी बनाया जाता है इसके परिणामस्वरूप शिक्षार्थी के सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता आती है।
पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित कारक (Study matter Related Factors)
सीखने की प्रक्रिया में तृतीय महत्त्वपूर्ण तथ्य पाठ्यवस्तु है। जॉन ड्यूवी ने शिक्षा को त्रिभुवीय प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया जिसमें शिक्षक, शिक्षार्थी एवं पाठ्यवस्तु को स्थान प्रदान किया गया था । इस प्रकार पाठ्यवस्तु का सीखने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान है। पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित अनेक ऐसे कारक हैं जो कि प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं ।
सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले पाठ्यवस्तु सम्बन्धी प्रमुख कारकों का निम्नलिखित रूप में वर्णन किया जा सकता है:-
1. प्रकृति (Nature)
पाठ्यवस्तु की प्रकृति का आशय उसके स्वरूप से है । यदि पाठ्यवस्तु छात्रों की दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं जीवनोपयोगी है तथा छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल है तो वह छात्रों की सीखने की प्रक्रिया में तीव्र गति से वृद्धि करेगी । पाठ्यवस्तु की प्रकृति का आशय उसमें निहित विचारों एवं उसके प्रस्तुतीकरण से भी है।
पाठ्यवस्तु में क्रमबद्धता एवं सुसंगठितता उसकी वैज्ञानिक प्रकृति की ओर संकेत करती है। यदि पाठ्यवस्तु की प्रकृति वैज्ञानिक है तो शिक्षार्थी की सीखने की प्रक्रिया तीव्र गति से विकसित होगी। इसके विपरीत पाठ्यवस्तु की प्रकृति अवैज्ञानिक तथा अव्यावहारिक है तो सीखने की प्रक्रिया में मन्द गति से वृद्धि होगी ।
2. संगठन (Organisation)
पाठ्यवस्तु का संगठन भी सीखने की प्रक्रिया को पूर्णतः प्रभावित करता है । पाठ्यवस्तु के संगठन से आशय पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण की व्यवस्था से है। यदि शिक्षार्थी के समक्ष पाठ्यवस्तु को क्रमबद्ध एवं संगठित रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो उसके सीखने की प्रक्रिया में तीव्र गति से विकास होगा तथा इसके विपरीत स्थिति में तीव्र गति से विकास नहीं होगा ।
उदाहरणार्थ– किसी कक्षा में पाठ्यवस्तु के रूप में पहले पहाड़े सिखाने का पाठ तथा बाद में गिनती सिखाने का पाठ है तथा दूसरी पाठ्यवस्तु के रूप में दूसरी कक्षा में गिनती सिखाने के बाद पहाड़े सिखाने का पाठ है तो संगठन की दृष्टि से प्रथम स्थिति उपयुक्त एवं प्रभावशाली नहीं है जो कि सीखने की प्रक्रिया का उचित विकास नहीं कर सकती जबकि दूसरी स्थिति संगठन की दृष्टि से प्रभावशाली एवं उपयुक्त है। इसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया का विकास तीव्र गति से होगा।
इस प्रकार पाठ्यवस्तु का संगठन भी सीखने की प्रक्रिया पर प्रभाव डालता है।
3. जीवन से सम्बन्ध (Relation to life)
पाठ्यवस्तु का सम्बन्ध शिक्षार्थी के जीवन से नहीं है तो वह पाठ्यवस्तु उसको निरर्थक प्रतीत होगी तथा उसके सीखने में शिक्षार्थी की कोई रुचि नहीं होगी। इस प्रकार, सीखने की प्रक्रिया के उत्तम विकास के लिये यह आवश्यक है कि पाठ्यवस्तु का सम्बन्ध जीवन से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से होना चाहिये ।
वर्तमान समय में विज्ञान, गणित एवं इन्जीनियिरिंग आदि की पाठ्यवस्तु को महत्त्व प्रदान किया जाता है क्योंकि इनका सम्बन्ध मानव-जीवन के विकास एवं औद्योगीकरण से है। इसी क्रम में जब बालक का पर्यावरण विषय का ज्ञान उसके घर एवं परिवार के वातावरण से उदाहरण लेते हुए प्रदान किया जाता है तो वह पर्यावरणीय ज्ञान को शीघ्रता से सीखता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सीखने की प्रक्रिया को सफल बनाने के लिये यह आवश्यक है कि पाठ्यवस्तु को जीवन से सम्बन्धित करके छात्र के समक्ष प्रस्तुत किया जाये।
4. कठिनाई स्तर (Difficulty level)
पाठ्यवस्तु का कठिनाई स्तर भी एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है जो कि सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। सामान्य रूप से पाठ्यवस्तु का निर्माण करते समय छात्रों के मानसिक स्तर एवं योग्यता को ध्यान में रखा जाये । इस कार्य से छात्रों को पाठ्यवस्तु में रुचि बनी रहेगी तथा सीखने की गति तीव्र हो जायेगी। इसके विपरीत स्थिति में सीखने की प्रक्रिया का विकास मन्द गति से होगा क्योंकि कठिन या सरल पाठ्यवस्तु छात्रों में अरुचि उत्पन्न करती है जिससे सीखने की प्रक्रिया बाधित होती है।
पाठ्यवस्तु का क्रम सदैव सरल से कठिन की ओर होना चाहिये क्योंकि सरल से कठिन की ओर चलने पर सीखने में सरलता रहती है तथा शिक्षण सूत्र भी इसी प्रक्रिया को सत्यापित करते हैं। अत: पाठ्यवस्तु का कठिनाई स्तर शिक्षण सूत्र की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करता है।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पाठ्यवस्तु की प्रकृति संगठन, जीवन से सम्बन्ध एवं उसका कठिनाई स्तर सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। पाठ्यवस्तु की संरचना में क्रमबद्धता एवं कठिनाई स्तर का ध्यान रखते हुए उसका प्रत्येक बिन्दु शिक्षार्थी के जीवन से सम्बन्धित होना चाहिये। इस स्थिति में ही पाठ्यवस्तु सीखने की प्रक्रिया में सकारात्मक वृद्धि करेगी। इसके विपरीत स्थिति में सीखने की प्रक्रिया मन्द गति से होगी।
शिक्षण विधि से सम्बन्धित कारक (Teaching Method Related Factors)
सीखने की प्रक्रिया में शिक्षण विधियों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है क्योंकि सीखने की प्रक्रिया का प्रमुख अंग शिक्षण विधियाँ होती हैं। शिक्षण विधियों को उनकी आवश्यकता एवं उपयुक्तता के अनुरूप प्रयोग करने पर सीखने की प्रक्रिया तीव्र गति से होती है तथा छात्र भी तीव्र गति से सीखते हैं। इसके विपरीत शिक्षण विधियों का उचित प्रयोग न होने पर छात्र कम गति से सीखते हैं। अतः शिक्षण विधि प्रत्यक्ष रूप से सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करती है।
शिक्षण विधियों से सम्बन्धित कारक जो कि सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, का वर्णन निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है-
1. उपयुक्तता (Suitableness)
शिक्षण विधि की उपयुक्तता सीखने की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करती है। यदि शिक्षण विधि छात्रों के मानसिक एवं शारीरिक स्तर के अनुकूल है तो छात्र तीव्र गति से सीखने का प्रयास करेंगे इसके विपरीत यदि शिक्षण विधि छात्रों के मानसिक स्तर एवं क्षमता के अनुकूल नहीं है तो छात्र कम गति से सीखने का प्रयास करेंगे।
उदाहरणार्थ प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षण के लिये व्याख्यान विधि का उपयोग किया जाता है । यह विधि छात्रों की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है क्योंकि प्राथमिक स्तर के छात्र का मानसिक स्तर इतना उच्च नहीं होता है कि वह व्याख्यान विधि से सीख सके। यदि प्राथमिक स्तर के छात्रों को खेल विधि द्वारा शिक्षण कार्य किया जाता है तो यह विधि उनके लिये उपयुक्त मानी जायेगी। इस विधि के माध्यम से छात्र तीव्र गति से सीखेंगे।
2. अभ्यास एवं उपयोग (Practice and use)
शिक्षण विधियों के प्रयोग से पूर्व यह निश्चित कर लेना चाहिये कि शिक्षण विधि में अभ्यास एवं उपयोग को प्रमुख स्थान मिलना चाहिये क्योंकि जिस शिक्षण विधि में अभ्यास एवं उपयोग को अधिक स्थान मिलता है उस विधि में छात्र अधिक गति से सीखते हैं इसके विपरीत जिन शिक्षण विधियों में अभ्यास एवं उपयोग को स्थान नहीं मिलता है उन विधियों के द्वारा शिक्षण करने पर सीखने की प्रक्रिया में मन्द गति से विकास होता है ।
अतः यह आवश्यक है कि शिक्षण विधि के चयन के समय अभ्यास एवं उपयोग का ध्यान रखा जाना चाहिये ।
3. शिक्षण साधनों एवं तकनीकी का उपयोग (Use of Teaching means and technology)
उस शिक्षण विधि को सदैव उपयुक्त एवं प्रभावशाली माना जाता है जिसमें शिक्षण साधन एवं शिक्षण तकनीकी का प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता है। इस प्रकार की शिक्षण विधि के द्वारा सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता आती है। जिन विधियों में शिक्षण साधनों एवं शिक्षण तकनीकी का प्रयोग नहीं किया जाता है, उन विधियों के प्रयोग से सीखने की प्रक्रिया का विकास मन्द गति से होता है।
दूसरे शब्दों में जिन शिक्षण विधियों में चार्ट, मॉडल, ओवर हैड प्रोजेक्टर एवं कम्प्यूटर आदि का प्रयोग होता है उसमें सीखने की प्रक्रिया का रुचिपूर्ण एवं प्रभावी बन जाती है और शिक्षार्थी तीव्र गति से सीखते हैं। इसके विपरीत जिन शिक्षण विधियों में उपयुक्त साधनों का प्रयोग नहीं होता है उनमें सीखने की प्रक्रिया नीरस होती है तथा छात्र कम गति से सीखते हैं।
इस प्रकार शिक्षण साधन एवं तकनीकी का प्रयोग सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं ।
4. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप (Co-curicular activities)
पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को भी शिक्षा विधियों का एक आवश्यक अंग माना जाता है क्योंकि इन क्रियाओं के माध्यम से भी शिक्षार्थी विभिन्न प्रकार के कौशलों का ज्ञान प्राप्त करता है। पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ छात्र अभिव्यक्ति कौशलों के विकास, धारा प्रवाह भाषण, चिन्तन् शक्ति, तर्क शक्ति, लेखन कला एवं भाषायी कौशल आदि के बारे में सीखते हैं इसके साथ-साथ छात्र इन क्रियाओं के माध्यम से व्यक्तियों के माध्यम से विभिन्न प्रकार के तथ्यों को रुचिपूर्ण एवं प्रभावी ढंग से सीखने का प्रयास करते हैं।
अत: जिन शिक्षण विधियों में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलापों का महत्त्व प्रदान किया जाता है, उन शिक्षण विधियों के द्वारा छात्र तीव्र गति से सीखते हैं तथा इसके विपरीत जिन शिक्षण विधियों में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को महत्त्व प्रदान नहीं किया जाता उनमें छात्रों के सीखने की गति मन्द होती है ।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षण विधियों का उपयोग छात्रों के मानसिक स्तर, उनकी क्षमता एवं आवश्यकता के अनुरूप करना चाहिये । इस प्रक्रिया के द्वारा ही छात्रों की सीखने की प्रक्रिया पूर्णत: तीव्र गति से विकसित होगी ।
पर्यावरण से सम्बन्धित कारक (Environment Related Factors)
सीखने की प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका पर्यावरणीय कारकों की भी होती है क्योंकि पर्यावरणीय कारक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से अधिगम परिस्थितियों को प्रभावित करते हैं। पर्यावरणीय कारकों में सामान्य ज्ञान रूप से भौतिक कारकों, सामाजिक कारकों एवं मनोवैज्ञानिक कारकों को सम्मिलित किया जाता है।
पर्यावरण से सम्बन्धित कारकों का सीखने की प्रक्रिया पर प्रभाव को निम्नलिखित रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है:-
1. भौतिक कारकों का प्रभाव (Effect of physical factors)
सीखने की प्रक्रिया पर भौतिक वातावरण का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है । भौतिक वातावरण से आशय उन परिस्थितियों से है जिनमें सीखने की प्रक्रिया सम्पन्न होती है; जैसे कक्षा का वातावरण, उचित प्रकाश की व्यवस्था, कक्षा का आकार, कक्षा में उपस्थित छात्रों की संख्या, कक्षा में वायु का आयतन, कक्षा में बैठने की व्यवस्था तथा कक्षा-कक्ष की स्थिति आदि ।
उपरोक्त स्थितियाँ यदि मानक के अनुसार उचित हैं तथा शैक्षिक व्यवस्था में सहयोग करने वाली है तो सीखने की प्रक्रिया में तीव्र गति से विकास होगा । यदि कक्षा कक्ष में परिस्थितियाँ शिक्षण व्यवस्था के मानदण्डों के अनुकूल नहीं है तो सीखने की प्रक्रिया का विकास धीमी गति से होगा।
अतः स्पष्ट होता है कि भौतिक वातावरण के सम्पर्क तत्त्व प्रत्यक्ष एंव अप्रत्यक्ष रूप से सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।
2. सामाजिक कारकों का प्रभाव (Effect of social factors)
सामाजिक कारकों से आशय शिक्षार्थी के पारिवारिक एवं सामाजिक कारकों के प्रभाव से है। सामान्य रूप से एक बालक के परिवार में उसके साथ आत्मीय एवं सकारात्मक व्यवहार किया जाता है तथा परिवार के सभी सदस्य आपस में आत्मीय एवं आदर्श व्यवहार करते हैं। इसके बाद उसके पड़ौस का वातावरण भी शान्तिप्रिय एवं उपयुक्त परिस्थितियों से सम्पन्न है।
इस प्रकार उसका सामाजिक वातावरण शैक्षिक परिस्थितियों के लिये अनुकूल माना जा सकता है। इस परिस्थिति में रहने वाला बालक तीव्र गति से सीखने का प्रयास करेगा तथा स्थायी रूप से सीखेगा। इसके विपरीत जिस समाज में भय, आंतक एवं लड़ाई-झगड़े का वातावरण होता है उस समाज की परिस्थितियाँ अधिगम योग्य नहीं होती हैं। इस परिस्थिति में सीखने की प्रक्रिया मन्द गति से सम्पन्न होती है।
इस प्रकार सामाजिक पर्यावरण भी सीखने की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करता है ।
3. मनोवैज्ञानिक कारकों का प्रभाव (Effect of psychological factors)
मनोवैज्ञानिक कारकों द्वारा भी सीखने की प्रक्रिया प्रभावित होती है । सीखने की प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक कारक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करते हैं। मनोवैज्ञानिक कारकों के अन्तर्गत शिक्षार्थी की मनोदशा, शिक्षार्थी की संवेगात्मक स्थिरता एवं शिक्षार्थी की मानसिक स्थिति आदि को सम्मिलित किया जाता है। मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों का निर्माण बाह्य पर्यावरण से ही सम्भव होता है।
उदाहरणार्थ कक्षा-कक्ष उस स्थान पर स्थित है जहाँ शोर होता रहता है या दुर्गन्ध युक्त वातावरण है तो शिक्षार्थी द्वारा कक्षा-कक्ष में प्रवेश करते ही उसकी मनोदशा में परिवर्तन हो जायेगा तथा वह अधिगम प्रक्रिया की ओर ध्यान नहीं देगा। उसके मन में विशेष प्रकार की खीझ उत्पन्न हो जायेगी । इसी क्रम में शिक्षण व्यवस्था के नाम पर यदि बैठने की व्यवस्था नहीं है तथा उचित वायु एवं प्रकाश की व्यवस्था नहीं है तो भी शिक्षार्थी की मनोदशा सीखने की प्रति अनुकूल नहीं होगी ।
इस प्रकार शिक्षार्थी की मनोदशा किसी भी कारण से अनुकूल एवं स्वस्थ रूप में नहीं होती है तो सीखने की प्रक्रिया की गति मन्द होगी । इसके विपरीत यदि शिक्षार्थी की मनोदशा अधिगम परिस्थिति के अनुकूल है तो सीखने की गति तीव्र होगी।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि पर्यावरणीय कारक भी सीखने की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं चाहे वह सामाजिक पर्यावरण से सम्बन्धित हो या भौतिक पर्यावरण से या मनोवैज्ञानिक पर्यावरण से । प्रत्येक पर्यावरणीय कारण सीखने की प्रक्रिया से सम्बन्धित होता है तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।
अधिगम को प्रभावित करने वाली अन्य दशाएँ (Others Conditions Affecting to the Learning)
सीखने की प्रक्रिया में अनेक बातें सहायक और बाधक होती हैं, यहाँ हम उन घटकों का वर्णन करेंगे जिससे सीखने की प्रक्रिया प्रभावित होती है:-
1. विद्यालय (School)
विद्यालय प्रमुख कारक है, जो सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। यदि कक्षा का वातावरण शोरगुल से युक्त होता है, तो छात्र अपना ध्यान एकाग्र नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप वे ठीक प्रकार से नहीं सीख सकेंगे। इसके अतिरिक्त यदि छात्रों के बैठने की व्यवस्था उचित प्रकार से नहीं है, प्रकाश और वायु के प्रवेश की भी उचित व्यवस्था नहीं है, तो भी छात्र ठीक प्रकार से नहीं सीख सकेंगे। मौसम का प्रभाव भी सीखने पर पड़ता है। अत्यधिक ठण्ड और अत्यधिक गर्मी दोनों ही अध्ययन या सीखने में बाधा पहुँचाते हैं।
2. विषय-सामग्री (Content)
कठिन, नीरस तथा अर्थहीन विषय-सामग्री की अपेक्षा सरल, रोचक तथा अर्थपूर्ण विषय-सामग्री अधिक सुगमता से सीख ली जाती है।
3. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य (Physical and mental health)
यदि बालकों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ठीक होगा, तो वह किसी बात को भी शीघ्रता से सीख जायेंगे। शारीरिक और मानसिक दृष्टि से पिछड़े बालक प्राय: पढ़ने-लिखने में कमजोर रहते हैं और वे बहुत देर से सीख पाते हैं।
4. सीखने का समय (Time of learning)
बालक अधिक समय तक किसी विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकते। अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित करने से उनमें थकावट आ जाती है और उनका ध्यान इधर-उधर भटकने लग जाता है। दूसरे प्रातःकाल छात्र अधिक स्फूर्ति का अनुभव करते हैं। अत: इस समय उन्हें सीखने में सुगमता होती है। दोपहर या शाम को वे इतना अधिक नहीं सीख पाते। इसी प्रकार विद्यालय के प्रथम घण्टे में सीखने की गति तीव्र होती है और वह अन्त के घण्टों में बहुत कम हो जाती है।
5. सीखने की आयु (Age of learning)
प्रौढ़ व्यक्तियों की अपेक्षा छोटे बालक किसी बात को शीघ्र समझ जाते हैं। भाषा और कला के विषय में यह बात मुख्य रूप से लागू होती है। परन्तु कुछ बातें बालकों की अपेक्षा प्रौढ़ व्यक्ति शीघ्र समझते हैं। अतः विभिन्न स्तरों के आयु के अनुरूप पाठ्यक्रम बनाया जाना चाहिये तभी अधिगम दर अच्छी होगी।
6. सीखने की इच्छा (Ambition of learning)
सीखना बहुत कुछ व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। जिस बात को सीखने को बालकों में प्रबल इच्छा होती है, उसे वे प्रत्येक परिस्थिति में भी सीख लेते हैं। उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें कुछ नहीं सिखाया जा सकता है। अत: किसी तथ्य को सिखाने के लिये छात्रों की इच्छा को उनके अनुकूल बनाना परम आवश्यक है।
7. सीखने की विधियाँ (Methods of learning)
सीखने की विधि जितनी अधिक सरल, आकर्षक तथा रुचिपूर्ण होगी, उतनी ही सरलता तथा शीघ्रता से बालक सीखेगा।
8. पूर्व अनुभव (Pre-experience)
बालक जो कुछ भी सीखता है, प्राय: अपने पूर्व अनुभव के आधार पर ही सीखता है। यदि सीखने का सम्बन्ध बालक के पूर्व अनुभव से कर दिया जाय, तो वह नवीन बात को शीघ्रता तथा सरलता से समझ जायेगा।
9. प्रेरणा (Motivation)
सीखने की प्रक्रिया में प्रेरणा की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। यदि बालकों को प्रशंसा, प्रोत्साहन तथा प्रतियोगिता के आधार पर सिखाया जाय, तो वे सुगमता से सीख जाते हैं। सीखने के लिये बालकों को प्रेरित करना परम आवश्यक है।
10. संवेगात्मक दशा (Emotional circumstances)
यदि बालक अत्यधिक क्रोध या भय से ग्रस्त है, तो वह ऐसी दशा में कुछ नहीं सीख सकता। संवेगात्मक अस्थिरता सीखने की प्रक्रिया में बाधा डालती है। अतः बालक को संवेगात्मक असन्तुलन या अस्थिरता की दशा में सिखाना पूर्णतया व्यर्थ है।
11. सफलता का ज्ञान (Knowledge of success)
जब बालक को यह ज्ञान हो जाता है कि उसे अपने कार्य में सफलता मिल रही है, तो उसका उत्साह बढ़ जाता है और वह उस कार्य को शीघ्र समझ जाता है।
12. परिवार (Home)
सीखने की प्रक्रिया पर परिवार का भी प्रभाव पड़ता है। यदि परिवार का वातावरण शैक्षिक है तथा माता-पिता, भाई-बहन पढ़े-लिखे हैं, तो बच्चा भी शीघ्र सीख जाता है अन्यथा वह देर से सीखता है।
13. शिक्षक व्यवहार (Teacher behaviour)
शिक्षक का व्यवहार भी सीखने को प्रभावित करता है। शिक्षक किसी चीज को कितना रुचि लेकन बच्चों को बता रहा है, उस पर भी अधिगम की मात्रा निर्भर करती है।
14. समुदाय (Community)
सीखने पर समुदाय तथा उसके वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है, क्योंकि बालक अधिकांशत: बालक अपने वातावरण से ही सीखता है।