सम्बद्ध प्रतिक्रिया का सिद्धांत
साहचर्य के द्वारा अधिगम में सम्बद्ध सहज क्रिया सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। जब हम अस्वाभाविक उद्दीपक के प्रति स्वाभाविक प्रतिचार करने लगते हैं, तो वहाँ पर सम्बद्ध प्रतिक्रिया के द्वारा सीखना उत्पन्न होता है।
जब खाने को देखने पर कुत्ते के मुँह में लार आ जाती है या घण्टी बजने पर लार, आने लगे तो सम्बद्ध प्रतिक्रिया के द्वारा सीखना होता है।
जैसा बरनार्ड ने लिखा है, “सम्बद्ध प्रतिक्रिया, उद्दीपक की पुनरावृत्ति द्वारा व्यवहार का स्वचालन है, जिसमें उद्दीपक पहले किसी प्रतिक्रिया के साथ होती है, किन्तु अन्त में वह स्वयं ही उद्दीपक बन जाती है।“
“Conditioned Response is the Automatization of behavior by repetition of stimuli which accompany in given response and which ultimately become causes for the behavior which formerly they merely accompanied.”
सम्बद्ध प्रक्रिया के सिद्धांत का जन्म
1904 ई. में रूसी शरीर शास्त्री आई. पी. पावलॉव ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। उनके अनुसार सीखने की क्रिया, प्रतिचार से प्रभावित होती है। इस अधिगम सिद्धान्त में एक प्रमुख उद्दीपक के प्रति स्वाभाविक रूप से जो प्रतिचार होता है, चुन लिया जाता है। फिर मुख्य उद्दीपक के साथ एक नया उद्दीपक दिया जाता है।
कुछ समय पश्चात् मुख्य उद्दीपक को हटाकर नये उद्दीपक का प्रयोग किया जाता है। तब यह देखा जाता है कि नये उद्दीपक से भी वही प्रतिक्रिया होती है, जो मुख्य उद्दीपक से होती है। इस प्रकार से प्रतिक्रिया उस उद्दीपक के प्रति सम्बद्ध हो जाती है।
जैसा कि लैडल ने लिखा है, “सम्बद्ध सहज क्रिया में कार्य के प्रति स्वाभाविक उद्दीपक के बजाय एक प्रभावहीन उद्दीपक होता है, स्वाभाविक उद्दीपक से सम्बन्धित किये जाने के कारण प्रभावपूर्ण हो जाता है।“
“In a conditioned response the natural stimulus top action has become effective through association.”
पावलॉव का प्रयोग
‘आई. पी. पावलॉव‘ ने नियन्त्रित कक्ष में एक भूखे कुत्ते पर अपना प्रयोग किया। उन्होंने कुत्ते के गले में एक नली लगायी, ताकि मुंह में लार आते ही वह नीचे रखे बर्तन में एकत्रित हो सके। कुत्ते के सामने जैसे ही भोजन रखा जाता, साथ ही घण्टी की आवाज की जाती थी। खाना देखकर कुत्ते के मुँह में लार का आ जाना स्वाभाविक ही था।
बार-बार ऐसा करने पर पाया गया कि कुत्ते की लार, घण्टी और खाना आदि में साम्यता उत्पन्न हो चुकी है। बाद में खाना न देकर सिर्फ घण्टी ही बजायी गयी, तो पाया कि कुत्ते ने स्वाभाविक रूप से लार गिरायी। अत: घण्टी एवं लार के मध्य सम्बद्ध प्रतिक्रिया स्थापित हो गयी।
गिलफोर्ड (Guilford) की व्याख्या, “इस सिद्धान्त की सामान्य व्याख्या यह है कि जब दो उत्तेजनाएँ दी जाती रहीं, पहले नयी और बाद में मौलिक, उस समय पहली क्रिया भी प्रभावशील हो जाती है।“
“The most simple interpretation of this theory is that when two stimulus are represented repeatedly together, the new one first then the original, effective one, the new one also becomes effective.”
सम्बद्ध प्रतिचार को प्रभावित करने वाले कारक
उद्दीपक और प्रतिचार के बीच सम्बद्धता तब स्थापित होगी, जब प्रभावशाली कारक अपना प्रभाव डालेंगे। ये कारक इस प्रकार हैं-
1. पुनर्बलन (Reinforcement)
स्वाभाविक उद्दीपक के द्वारा जब अस्वाभाविक उद्दीपक को प्रभावशाली बनाया जाता है, तो उसे पुनर्बलन कहते हैं; जैसे– भोजन के द्वारा घण्टी को प्रभावशाली बनाया गया, ताकि स्वाभाविक प्रतिचार हो सके। थॉर्नडाइक एवं प्रीमैक का भी यही विचार है।
2. अभ्यास (Practice)
इस सिद्धान्त में अभ्यास का अत्यधिक महत्त्व है। यदि पावलॉव अभ्यास के द्वारा साहचर्य में स्थायित्वता न ला पाते, तो सीखना सम्भव न होता।
3. समय (Timing)
स्वाभाविक उद्दीपक और अस्वाभाविक उद्दीपक के बीच अन्तराल कम से कम होना चाहिये, ताकि सीखने वाला सही साहचर्य स्थापित कर सके।
4. शान्त वातावरण (Silent environment)
प्रयोग के समय अन्य बाधाओं का प्रभाव भी सीखने में बाधा उत्पन्न करता है। अत: वातावरण शान्त रखा जाय, ताकि स्वाभाविक उद्दीपक और अस्वाभाविक उद्दीपक में साहचर्य सही प्रकार से उत्पन्न हो सके।
5. प्रेरक (A Prompter)
बलवती प्रेरक के द्वारा सीखना जल्दी होता है; जैसे– भूखा कुत्ता लार जल्दी डालता है।
6. मानसिक स्वास्थ्य (Mental health)
स्वस्थ बालक, बुद्धि की तीव्रता आदि सीखने पर अपना प्रभाव डालते हैं। ये अपेक्षाकृत अधिक एवं जल्दी सीख लेते हैं।
सम्बद्ध प्रतिक्रिया के सिद्धांत का अधिगम में महत्त्व (Importance of conditioned response theory in learning)
सम्बद्ध प्रक्रिया के सिद्धांत का शिक्षा में महत्त्व इस प्रकार से है-
1. स्वभाव निर्माण (Formation of habit)
सम्बद्ध प्रतिचार के द्वारा सीखना स्वभावजन्य माना जाता है। हम धीरे-धीरे अपने अन्दर स्वभावगत विशेषताओं को विकसित कर लेते हैं। जैसा कि पावलॉव ने लिखा है, “प्रशिक्षण पर आधारित विभिन्न प्रकार की आदतें, शिक्षा तथा अन्य अनुशासन सम्बद्ध प्रतिचार की श्रृंखला के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।“
2. मनोवृत्ति का विकास (Development of attitude)
इस सिद्धान्त के आधार पर बच्चों में अच्छी मनोवृत्तियों का विकास किया जा सकता है, जैसा कि पिल्सवरी ने लिखा है, “सम्बद्ध प्रतिचार के मान लेने पर भावों, मनोवृत्ति और उद्देगात्मक प्रतिक्रियाओं के उद्दीपन से किसी अन्य उद्दीपक में परिवर्तन किये जा सकते हैं।“
“Granted the conditioned response the feeling and emotional response may be changed from any stimulus to any other.”
3. सीखने में वृद्धि (Growth in learning)
इस सिद्धान्त के अनुसार बालकों में अक्षर विन्यास गुणा की शिक्षा का विकास आसानी से किया जा सकता है। शिक्षकों को चाहिये कि उद्दीपक प्रतिचार का अभ्यास ज्ञान को स्थायी बनाने हेतु करें।
जैसा कि लैडेल ने लिखा है, “सम्बद्ध प्रतिचार में कार्य के प्रति स्वाभाविक उद्दीपन के बजाय एक प्रभावहीन उद्दीपन होता है, जो स्वाभाविक उद्दीपन सम्बद्ध किये जाने पर प्रभावपूर्ण हो जाता है।“
“In a conditioned response the natural stimulus to action has been replaced by an otherwise in effective stimulus which has become effective through association.”
4. असामान्यता का उपचार (Remedy of abnormality)
इस सिद्धान्त का प्रयोग डिफेंस मैकेनिज्म के रूप में किया जा सकता है। बच्चों की मानसिक एवं संवेगात्मक अस्थिरता का उपचार किया जाता है। इस प्रकार से यह बालकों को सामान्य बनाने में सहयोग देता है।
5. अध्यापक की भूमिका (Role of teacher)
अध्यापक शिक्षा का वातावरण तैयार करता है। बालक ज्ञान को धारण करने के लिये प्रभावशाली वातावरण की माँग करते हैं। बालकों के लिये दण्ड एवं पुरस्कार, प्रशंसा एवं निन्दा आदि पुनर्बलन का उचित प्रयोग करें। इस प्रकार से बालकों में सम्बद्ध प्रतिचार सहज रूप से होगा।
जैसा कि क्रो एवं क्रो ने लिखा है, “इस सिद्धान्त के द्वारा बालकों में उत्तम व्यवहार तथा अनुशासन की भावना को उत्पन्न किया जा सकता है।“