“राष्ट्रभाषा हिन्दी” नामक निबंध के निबंध लेखन (Nibandh Lekhan) से अन्य सम्बन्धित शीर्षक, अर्थात “राष्ट्रभाषा हिन्दी” से मिलता जुलता हुआ कोई शीर्षक आपकी परीक्षा में पूछा जाता है तो इसी प्रकार से निबंध लिखा जाएगा। ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’ से मिलते जुलते शीर्षक इस प्रकार हैं-
- राष्ट्रीय एकता और हिन्दी
- हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी
- राष्ट्रभाषा की समस्या
- राष्ट्रभाषा का प्रश्न
निबंध की रूपरेखा
- राष्ट्रभाषा की समस्या
- राष्ट्रभाषा का अर्थ
- भारत की राष्ट्रभाषा
- राष्ट्रभाषा हिन्दी की विशेषताएँ
- राष्ट्रभाषा और स्वाभिमान
- राष्ट्रभाषा और राजभाषा
- हिन्दी के विरोध के कारण
- अंग्रेजी बनाम हिन्दी
- हिन्दी की सामर्थ्य
- हिन्दी के प्रति हमारा कर्तव्य
- उपसंहार
राष्ट्रभाषा हिन्दी
राष्ट्रभाषा की समस्या
भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। देश के विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग भाषाओं का बोलबाला है। हिन्दी, पंजाबी, सिन्धी, उड़िया, बंगला, असमिया, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम भारत की प्रमुख भाषाएं हैं। ऐसी स्थिति में कौन-सी भाषा राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित की जाए, यह प्रश्न विवाद का विषय बन गया है।
राष्ट्रभाषा का अर्थ
किसी देश की राष्ट्रभाषा वही हो सकती है, जिसका अपने देश की संस्कृति और साहित्य से गहरा सम्बन्ध हो। राष्ट्रभाषा बनने के लिए यह भी आवश्यक है कि उसे देश की बहुसंख्यक जनता बोलती-समझती हो तथा वह अन्य प्रान्तीय भाषाओं के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हो। उसके शब्दों को पचाने की क्षमता भी उस भाषा में होनी चाहिए। इस दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाएं केवल अपने-अपने प्रान्त में सिमटी हुई हैं, उन्हें बोलने वालों की संख्या भी सीमित है। दसरी ओर हिन्दी का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है।
भारत की राष्ट्रभाषा
भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी ही है, क्योंकि यह बहुसंख्यक लोगों की भाषा है तथा इसका क्षेत्र व्यापक है। मोटे तौर पर हिन्दी भाषा क्षेत्र के अन्तर्गत हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान राज्य आते हैं। इन राज्यों में तो हिन्दी का बोलबाला है ही, इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र, गजरात, पंजाब, कश्मीर में भी हिन्दी बोलने-समझने वाले लोग निवास करते हैं।
देश के अन्य प्रान्तो में भी हिन्दी बोलने वालों की संख्या एक सीमित प्रतिशत में है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी भारत के बहुसंख्यक लोगों की भाषा है। अनुमानतः 50 करोड़ लोग हिन्दी भाषा-भाषी हैं, अतः हिन्दी के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा को भारत की राष्ट्रभाषा के पद पर सुशोभित नहीं किया जा सकता।
स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास
स्वतंत्रता के बाद हिन्दी का राजभाषा के रूप में विकास
राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की विशेषताएँ
हिन्दी भारतीय संस्कृति, सभ्यता से भी जुड़ी हुई है, इसका साहित्य उच्चकोटि का है और जातीय गौरव को बढ़ाने वाला है। भारत की प्राचीन भाषाओं, संस्कृत, प्राकृत, पालि और अपभ्रंश से इसका निकट सम्बन्ध है। संस्कत के बहुत सारे शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं और आज नए शब्दों का गठन संस्कृत व्याकरण के आधार पर हिन्दी में किया जा रहा है। हिन्दी का शब्द भण्डार पर्याप्त समृद्ध है तथा इसमें अन्य प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों को पचाने की सामर्थ्य भी है, अतः हिन्दी में वे सभी गुण विद्यमान हैं जिनके आधार पर किसी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाता है।
राष्ट्रभाषा और स्वाभिमान
जब तक हम राष्टभाषा के प्रश्न को राष्ट्रीय स्वाभिमान से नहीं जोड़ते, तब तक हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। जिस प्रकार राष्ट्रगान, राष्ट्रीय ध्वज किसी स्वतन्त्र राष्ट्र के गौरव, स्वाभिमान एवं अस्मिता के प्रतीक होते हैं. उसी प्रकार राष्ट्रभाषा भी किसी राष्ट्र के स्वाभिमान की वाहक होती है। जिस प्रकार देश के नागरिक अपने राष्टगीत एवं राष्ट्रीय झण्डे से प्यार करते हैं, उसी प्रकार उन्हें अपनी राष्ट्रभाषा से भी प्रेम करना चाहिए। भारत की स्वतन्त्रता के उपरान्त जब राष्ट्रभाषा का सवाल उठा तो हमारे दूरदर्शी नेताओं ने एक स्वर से हिन्दी को इस पद पर प्रतिष्ठित किया। गांधीजी, नेहरूजी, राजगोपालचारी, मौलाना अबुलकलाम आजाद, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने हिन्दी को ही यह सम्मान देने का वकालत की।
राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा
बहुसंख्यक लोगों की भाषा को राष्ट्रभाषा कहा जाता है, जो देश के विस्तृत भू-भाग में बोली-समझी जाती है जबकि संविधान द्वारा स्वीकृत सरकारी राजकाज की भाषा को राजभाषा कहा जाता है। हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा भी है तथा राजभाषा भी। भारतीय संविधान की धारा 343 के अन्तर्गत हिन्दी को देश की राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया गया है तथा धारा 351 के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया है कि संघ हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं विकास के लिए प्रयासरत रहेगा। ‘केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय‘ का गठन इसी प्रावधान के अन्तर्गत किया गया है तथा हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए सरकार की ओर से अनेक कार्य भी किए गए हैं।
हिन्दी-विरोध के कारण
हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने का विरोध दक्षिण भारत, विशेषतः तमिलनाडु में हुआ। वहां के राजनीतिक दल तो हिन्दी विरोध पर ही राजनीति करते हैं। “हिन्दी थोपी नहीं जाएगी” इस प्रकार का नारा देकर उन्होंने हिन्दी विरोधी आन्दोलन भी चलाए हैं। कैसी विडम्बना है कि वे एक भारतीय भाषा का तो विरोध करते हैं, किन्तु विदेशी भाषा अंग्रेजी के समर्थक हैं।
आज हिन्दी को उन तथाकथित काले अंग्रेजों का विरोध झेलना पड़ रहा है जो अंग्रेजी सभ्यता, संस्कृति के गुलाम बन चके हैं। देश की स्वतन्त्रता के बाद भी वे मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं हुए और अभी भी अंग्रेजी वर्चस्व बनाए रखने की चेष्टा कर रहे हैं। वे अंग्रेजी के नाम पर सामान्य जनता का शोषण करते हैं और सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में अंग्रेजी के पक्षधर हैं। उच्चपदासीन अधिकारीगण अंग्रेजी भाषा के मोह से अभी तक मुक्त नहीं हो सके हैं। उन्हें भय है कि यदि हिन्दी में कार्य करना अनिवार्य कर दिया गया तो वे जनता को मूर्ख नहीं बना पाएंगे। कैसी विडम्बना है कि जो भाषा भारत के दो प्रतिशत लोग भी नहीं बोल पाते, वही सरकारी कार्यालयों में छायी हुई है।
अंग्रेजी बनाम हिन्दी का संघर्ष
यह अत्यन्त खेदजनक है कि लोग हिन्दी का विरोध करते हैं और उसके स्थान पर किसी अन्य भारतीय भाषा की वकालत न करके अंग्रेजी का समर्थन करते हैं। आज हिन्दी की प्रतिद्वन्द्रिता किसी अन्य भारतीय भाषा से न होकर अंग्रेजी से है।
अंग्रेजी को लोग पढे-लिखों की भाषा समझते हैं और अंग्रेजी बोलने वालों को आदर-सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। वह उच्च वर्ग की भाषा समझी जाती है। यही कारण है कि अभी तक अंग्रेजी के पैर नहीं उखड पाए हैं किन्तु जिस दिन से लोग अपनी भाषा के प्रति स्नेह करने लगेगे, उस दिन से अंग्रेजी समाप्त हो जाएगी। अंगरेजी की इस स्थिति को समाप्त करना ही होगा क्योकि अपनी भाषा की उन्नति से ही देश की उन्नति हो सकती हैं। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने इसीलिए कहा था-
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को शूल।।
अग्रेजी देश को एकता के सूत्र में नहीं बांध सकती। यह कार्य तो हिन्दी को ही करना है, अतः राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से भी हमें हिन्दी को ही अपनाना पड़ेगा। अंग्रेजी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता से जुडी हुई नहीं है अतः उसके वर्चस्व को समाप्त करना ही होगा।
प्रायः लोग यही समझते हैं कि अंग्रेजी विश्व की भाषा है, किन्तु यह नितान्त भ्रमपूर्ण है। रूस, चीन, जापान, जर्मन, फ्रांस की अपनी-अपनी भाषाएं हैं और इनके नेता विदेशों में अपने देश की भाषा में बोलते हैं। भारत के नेताओं को भी विदेशों में अपने देश की भाषा में बोलना चाहिए, अंग्रेजी में नहीं।
हिन्दी की सामर्थ्य
हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा पद के लिए पूर्णतः उपयुक्त भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य एवं क्षमता विद्यमान है जो किसी देश की राष्ट्रभाषा में होनी चाहिए। हिन्दी ने वह क्षमता भी ग्रहण कर ली है जिससे वह उच्च शिक्षा का माध्यम बन सकने में समर्थ हो सकी है। आज हिन्दी की शब्द सम्पदा बढ़ी है। वैज्ञानिक, तकनीकी, विधि, सरकारी, शब्दावली से सम्बन्धित हिन्दी के शब्दकोश प्रकाशित हो चुके हैं तथा इस दिशा में निरन्तर कार्य हो रहा है।
हिन्दी के प्रति हमारा कर्तव्य
प्रत्येक स्वाभिमानी नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह हिन्दी का अधिकाधिक व्यवहार करे, हिन्दी में पत्र लिखे, हिन्दी में हस्ताक्षर करे और हिन्दी में भाषण दे। वे सरकारी कर्मचारी जो हिन्दी जानते हैं, सारा कामकाज हिन्दी में करें। जब हिन्दी हमारे मन-प्राण से जुड़ जाएगी, तभी वह सच्चे अर्थों में राष्ट्रभाषा बन सकेगी।
उपसंहार
महात्मा गांधी जैसे नेता ने हिन्दी को भारत की आत्मा के रूप में पहचाना था और वे उसी का उपयोग देश की जनता के साथ सम्पर्क हेतु करते थे। विभिन्न प्रान्तों के लोग हिन्दी भाषा सीखें और हिन्दी का अधिकाधिक व्यवहार करें। हिन्दी का प्रयोग करने में हीनता का अनुभव करना जिस दिन भारतवासी छोड़ देंगे, और उसका प्रयोग करने में गौरव एवं गर्व का अनुभव करने लगेंगे, उसी दिन से हिन्दी का उत्कर्ष प्रारम्भ होगा, और वह सच्चे अर्थों में भारत की राष्ट्रभाषा बन जाएगी।
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