विषय-वस्तु विश्लेषण के सिद्धान्त (Principles of Contents Matter Analysis)
विषय-वस्तु का निर्माण करते समय सामान्यतया शिक्षक, शिक्षार्थी से सम्बन्धित मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दृष्टिकोण को ध्यान में रखना आवश्यक है। इन्हीं बिन्दुओं से सम्बन्धित कतिपय सिद्धान्तों का विवरण इस प्रकार से है-
- पर्यावरण केन्द्रीयता का सिद्धान्त (Principle of environment centredness)
- समाज केन्द्रीयता का सिद्धान्त (Principle of society centredness)
- उद्देश्य एवं लक्ष्य केन्द्रीयता का सिद्धान्त (Principle of aims and objectives centredness)
- उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of utility)
- क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of activity)
- लचीलेपन का सिद्धान्त (Principle of flexibility)
- अध्यापक से परामर्श का सिद्धान्त (Principle of consideration with the teacher)
- बाल-केन्द्रीयता का सिद्धान्त (Principle of child-centredness)
1. पर्यावरण केन्द्रीयता का सिद्धान्त (Principle of environment centredness)
पर्यावरण वह महत्त्वपूर्ण घटक है जो कि मानव की प्रत्येक गतिविधि को प्रभावित करता है। अतः विषय-वस्तु का निर्माण पर्यावरण पर आधारित होना चाहिये और विषय-वस्तु में न केवल भौतिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण का ज्ञान कराने सम्बन्धी तथ्यों का उल्लेख होना चाहिये बल्कि पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्द्धन पर भी बल देना चाहिये,
ताकि विविध पर्यावरणीय समस्याओं; जैसे प्रदूषण का मानव पर प्रभाव, ओजोन परत की समाप्ति, रासायनिक उर्वरकों का अन्धाधुन्ध उपयोग, ग्रीन हाऊस प्रभाव, जीव जन्तुओं की प्रजातियों का विलोपीकरण, वन क्षेत्रों का लगातार कम होना, मृदा क्षरण, विश्व में तापमान का बढ़ना आदि का समाधान करना सम्भव हो सके।
2. समाज केन्द्रीयता का सिद्धान्त (Principle of society centredness)
विषय-वस्तु ऐसी होना चाहिये कि उससे समाज को अधिकाधिक लाभ हो सके, क्योंकि प्रत्येक समाज यह अपेक्षा करता है कि जिस बालक को वह पढ़ा रहा है, वह भविष्य में शिक्षा पूर्ण करने के बाद उस समाज की उन्नति में सहायक सिद्ध होगा और यह तभी सम्भव है, जबकि विषय-वस्तु निर्माण के समय उस समाज की अपेक्षाओं, आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं को महत्त्व प्रदान किया जाय।
विषय-वस्तु ऐसी हो जो समाज या राष्ट्र के उत्पादन में वृद्धि करने में सहायक हो सके, उसके द्वारा विविध समुदायों एवं धर्मों में आपसी सामंजस्य स्थापित हो सके, जिससे न केवल राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता कायम रखी जा सके, बल्कि आपस में बन्धुत्व की भावना को सुदृढ़ करने वाली शक्तियों को भी बल मिल सके।
विषयवस्तु ऐसी होनी चाहिये जिसके द्वारा आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग समाज के आधुनिकीकरण में किया जा सके, बालक में प्रजातन्त्रीय नागरिकता (Democratic citizenship) के गुणों का समावेश हो सके, ताकि उसमें प्रजातन्त्र को सुदृढ़ करने वाली संस्थाओं के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति का विकास करना सम्भव हो सके एवं राष्ट्र में प्रजातन्त्र की नींव और अधिक मजबूत बनायी जा सके।
3. उद्देश्य एवं लक्ष्य केन्द्रीयता का सिद्धान्त (Principle of aims and objectives centredness)
विषय-वस्तु ऐसी होना चाहिये जिससे शिक्षण अधिगम के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त किया जाना सम्भव हो सके। यदि विषय-वस्तु उक्त बिन्दु पर खरी नहीं उतरती है तो फिर विषय-वस्तु निर्माण करने का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है।
4. उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of utility)
‘उपयोगिता’ अच्छी विषय-वस्तु का महत्त्वपूर्ण गुण है। अतः विषय-वस्तु भी उपयोगी होनी चाहिये। विषय-वस्तु ऐसी हो कि वह बालक के भावी जीवन निर्वाह हेतु उपयोगी सिद्ध हो सके अर्थात् वह अपनी आजीविका (Livelihood) कमाने में समर्थ हो सके।
अत: विषय-वस्तु केवल सैद्धान्तिक (Theoretical) ही नहीं होनी चाहिये बल्कि वह व्यावहारिक (Practically) भी होनी चाहिये। विषय-वस्तु के माध्यम से बालक में समाज के साथ सामंजस्य बैठाने की क्षमता के विकास के साथ-साथ अपना एवं अपने परिवार का पेट भरने की क्षमता का विकास भी होना चाहिये।
5. क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of activity)
बालक स्वभाव से ही क्रियाशील होता है, वह हर समय कुछ न कुछ अवश्य करता रहता है। विषय-वस्तु के माध्यम से बालक के कार्य करने की प्रवृत्ति को और अधिक बल मिलना चाहिये।
उससे कई प्रकार के कार्य कराये जा सकते हैं; जैसे-चित्र या रेखाचित्र बनवाना, मिट्टी से मॉडल बनवाना, भित्ति चित्र बनवाना, नमूने एकत्र कराना, माप-तौल का कार्य कराना, थर्माकोल से वस्तुएँ बनवाना आदि, जिससे बालक न केवल इन वस्तुओं को बनाना सीखेगा बल्कि वह क्रियाशील रहना भी सीख जायेगा, उसे कार्य करने में आलस्य का अनुभव नहीं होगा अर्थात् वह परिश्रमी बन जायेगा।
6. लचीलेपन का सिद्धान्त (Principle of flexibility)
विषय-वस्तु को कितना भी अच्छा क्यों न बनाया गया हो, उसमें देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन एवं परिमार्जन की आवश्यकता अनुभूत होती है।
अतः विषय-वस्तु ऐसी लचीली होना चाहिये कि उसमें परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप आसानी से परिवर्तन कर आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करना सम्भव हो सके।
7. अध्यापक से परामर्श का सिद्धान्त (Principle of consideration with the teacher)
-शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में अध्यापक का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। वह न केवल शिक्षण बल्कि बालक एवं स्थानीय परिवेश के विविध घटकों से भी भली भांति परिचित होता है।
अत: यह आवश्यक हो जाता है कि विषय-वस्तु निर्माण से पूर्व हमें उस अध्यापक से अवश्य ही विस्तार से परामर्श कर लेना चाहिये, जिसके लिए हम विषय-वस्तु का निर्माण कर रहे हैं, क्योंकि विषय-वस्तु को लागू करने अथवा विषय-वस्तु में निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति उस अध्यापक पर ही निर्भर करती है और दूसरे यदि परामर्श न लिया जाय तो अध्यापक में आत्मसंतुष्टि (Self-satisfaction) के अभाव में असन्तोष का पनपना स्वाभाविक है, जिससे निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति सन्देहास्पद हो जाती है।
8. बाल-केन्द्रीयता का सिद्धान्त (Principle of child-centredness)
विषय-वस्तु के निर्माण करने का मुख्य उद्देश्य एक ही होता है कि बालक का नियोजित ढंग से सर्वांगीण विकास (All-round development) किया जाना सम्भव हो सके। बालक के लिए ही स्कूल में अध्यापक होता है और बालक के लिए ही विषय-वस्तु! अत: यह आवश्यक है कि विषय-वस्तु का निर्माण करते समय बालक को समुचित महत्त्व प्रदान किया जाय।
विषयवस्तु में बालक की आवश्यकताओं, रुचियों, योग्यताओं, अभियोग्यताओं एवं व्यक्तिगत भिन्नताओं आदि महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक सम्प्रत्ययों का ध्यान रखना चाहिये, साथ ही बालक ग्रामीण परिवेश का है या शहरी परिवेश का, उसके माता पिता एवं परिवार शिक्षित हैं अथवा अशिक्षित
आदि खातों का भी ध्यान रखना आवश्यक है, क्योंकि विविध प्रकार के शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि उक्त बातों का बालक के ‘सीखने की गति’ पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
- अतः उक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखकर ही सामाजिक अध्ययन का विषय-वस्तु बनाना अपेक्षित है।
उपर्युक्त वर्णित विषय-वस्तु निर्माण के सिद्धान्तों को ही विविध विद्वानों द्वारा अपनी-अपनी भाषा में वर्णित किया गया है।
ऐसे ही एक प्रसिद्ध विद्वान् के अनुसार विषय वस्तु निर्माण में निम्न सिद्धान्त ध्यान में रखने चाहिये-
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विषय-वस्तु के निर्माण में शिक्षण के उद्देश्यों को ध्यान में रखना चाहिये। जब शिक्षण के उद्देश्य स्पष्ट होंगे तो विषय-वस्तु निर्माण ठीक प्रकार से हो सकता है और वर्तमान विषय-वस्तु का मूल्यांकन भी किया जा सकता है।
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व्यापक विषय-वस्तु द्वारा पाँच वर्षों में माध्यमिक स्कूल का विषय वस्तु पूर्ण हो जाना चाहिये। बच्चों की शिक्षा में जिन क्षेत्रों का अधिक महत्त्व है, उनको अधिक विस्तृत रूप में पढ़ाना चाहिये।
बच्चे अपने गृह-प्रदेश के बारे में भली भाँति जानकारी रख सकें और दूसरे देशों के विषय में जो इससे सम्बन्ध रखते हैं, जानकारी प्राप्त कर सकें। एक-दूसरे पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका भी अध्ययन छात्र भली भाँति कर सकें। -
सापेक्षिक कठिनाई के अनुसार विषय-वस्तु में क्रमबद्धता होना आवश्यक है।
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विषय-वस्तु के विभिन्न भागों का आपस में सम्बन्ध, रुचि का केन्द्र एक प्रदेश ही होना चाहिये और इसमें प्रदेश की जलवायु, वनस्पति एवं आर्थिक पहलुओं को को सम्मिलित करना चाहिये।
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विषय-वस्तु का दूसरे विषयों से सम्बन्ध भी ध्यान में रखना चाहिये। शिक्षक अपने साथी शिक्षकों के साथ इस सम्बन्ध में सहयोग कर सकता है।
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गृह प्रदेश (Home-region) तथा संसार प्रदेश (World-region) में सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिये।
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विषय-वस्तु में क्रियात्मक कार्यों के लिए छात्रों को अवसर देना चाहिये।
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विषय-वस्तु में छात्रों को दोहराने का अवसर प्रदान करना चाहिये।
विषय-वस्तु के शिक्षण बिन्दुओं का निर्धारण (Determination of Educational Points about Content)
किसी पाठ या शिक्षण इकाई का पाठ्य-वस्तु विश्लेषण करने के लिए सर्वप्रथम शिक्षण सामग्री का चयन करना पड़ता है। शिक्षण सामग्री का चयन करते समय इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि हमने उसे शिक्षण सामग्री क्यों बनाया है ? अर्थात् हम उसके द्वारा छात्रों को किस प्रकार का ज्ञान देना चाहते हैं?
हम विद्यार्थियों को उसके द्वारा जो कुछ भी देना चाहते हैं, वह शिक्षण बिन्दु है। शिक्षक विषय-वस्तु के उद्देश्यों को लिखने एवं उनके विशिष्टीकरण के पश्चात् इसके स्वरूप का निर्माण करता है। इस कार्य के लिए वह विषय-वस्तु का वर्गीकरण कर उसे विश्लेषित करता है।
शिक्षक गहनता के साथ उस विषय-वस्तु के समस्त प्रकरणों/उप प्रकरणों के समस्त तत्त्वों का विश्लेषण कर उन्हें एक तर्कपूर्ण ढंग से व्यवस्थित करता है। इस विश्लेषण के लिए वह अनेक विशेषज्ञों से परामर्श भी कर सकता है जिससे उसकी विषय-वस्तु को तार्किक रूप से सही माना जा सके।
विषय-वस्तु के निर्धारण की प्रक्रिया
शिक्षक अपने ज्ञान, अनुभव और अन्तर्दृष्टि के आधार पर विषय-वस्तु के शिक्षण बिन्दुओं का निर्धारण करता है। विषय-वस्तु के विश्लेषण द्वारा वह शिक्षण बिन्दुओं में निम्न प्रक्रिया का प्रयोग करता है-
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व्यवहारपरक शब्दावली के अनुसार किसी विषय के शिक्षण उद्देश्यों को व्यवहार के रूप में परिवर्तित कर परिभाषित कर लिया जाता है।
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उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपलब्ध विषय-वस्तु को क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित किया जाता है तथा आवश्यकता पड़ने पर इसके क्रम को बदला जा सकता है तथा किसी प्रसंग या उपप्रसंगों में भी विभाजित किया जा सकता है।
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किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विषय-वस्तु के शिक्षण के लिए कालावधि के निर्धारण में शिक्षण उद्देश्यों एवं उनके स्थलों की प्रकृति का भी ध्यान रखना आवश्यक है।