प्रश्न कौशल (Skill of Questioning)
शिक्षण प्रक्रिया की शुरुआत आदि काल से ही प्रश्न उत्तर के रूप में शुरू हुई थी और आज भी जिज्ञासु छात्र प्रश्न पूछता है तथा शिक्षक उसका उत्तर देता है। शिक्षक छात्र अधिगम की जाँच हेतु अथवा पाठ्यवस्तु के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न करने हेतु प्रश्न पूछता है।
प्रश्न पूछना एक आवश्यक शिक्षण कौशल है जिसे शिक्षक को सीखना चाहिये। यूनानी दार्शनिक सुकरात ने भी इस प्रविधि को सफलतापूर्वक अपनाया था। प्रश्नों का संकलन अर्थपूर्ण होना चाहिये। यहाँ पर अर्थपूर्ण प्रश्नों का अर्थ है कि प्रश्नों के पूछने में संरचना, प्रक्रम और उत्पाद तीनों का ध्यान रखा जाना चाहिये।
प्रश्न कौशल परिभाषाएं
-
बासिंग के अनुसार- “प्रश्न करने की कला का महत्त्व स्वीकार किये बिना कोई भी शिक्षण विधि सफल नहीं हो सकती।”
-
रमन बिहारी लाल के अनुसार- “अगर हम कहें कि बिना प्रश्नोत्तर के शिक्षण क्रिया ही नहीं होगी तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।”
प्रश्न पूछना तथा उनका उत्तर निकलवाना भी एक बहुत ही अधिक महत्त्वपूर्ण कौशल है। इसका सम्बन्ध केवल शिक्षण से ही नहीं अपितु मानव जीवन के प्रत्येक क्रिया क्षेत्र से है। कुशल अधिवक्ता प्रश्नों के माध्यम से सच को निकलवा लेता है तो कुशल मनोचिकित्सक या मार्गदर्शक व्यक्ति के मन में छिपी हुई बातों को तथा चयनकर्त्ता सम्बन्धित क्षेत्र की जानकारी को।
शिक्षा एवं शिक्षण के क्षेत्र में भी प्रश्न कम महत्त्वपूर्ण नहीं। शैक्षणिक क्रियाओं की दृष्टि से कभी प्रश्न विद्यार्थियों का ध्यान विषयोन्मुख करने की दृष्टि से प्रस्तावना के रूप में पूछे जाते हैं तो कभी किसी अध्ययन बिन्दु के विकासार्थ उस अंश को समझाने की दृष्टि से और कभी मूल्यांकन के रूप में यह जानने हेतु कि पाठ्यांश की विषयवस्तु किस सीमा तक विद्यार्थियों की समझ में आ रही है?
शैक्षणिक क्रियाओं को करते समय प्रश्न पूछने में शिक्षक को कक्षा के शैक्षिक स्तर, विद्यार्थियों की बौद्धिक क्षमता आदि बहुत सी बातों का ध्यान रखना पड़ता है। कभी उसे अति सरल प्रश्न पूछने पड़ते हैं तो कभी ऐसे विचारोत्तेजक (Thought stimulating) प्रश्न जिनका उत्तर बहुत सोचने के पश्चात् ही दिया जा सकता है। कभी प्रश्न विद्यार्थियों की सामान्य जानकारी पर आधारित होते हैं तो कभी पठित अंश पर।
इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए यहाँ यही स्पष्ट किया जा रहा है कि कहाँ किस प्रकार के प्रश्न पूछे जाने चाहिये? प्रश्नों के माध्यम से ही पाठ को कैसे रोचक बनाया तथा समझाया जा सकता है? साथ ही प्रश्न पूछते और विद्यार्थियों से उनका उत्तर निकलवाने की दृष्टि से किन-किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिये तथा प्रश्न पूछने के पीछे निहित मूल उद्देश्य क्या-क्या हो सकते हैं?
प्रश्न पूछने के उद्देश्य (Aims of Questioning)
शिक्षण से सम्बन्धित प्रश्न पूछने के उद्देश्य निम्नलिखित प्रकार हैं-
-
विद्यार्थियों के पूर्व ज्ञान का पता लगाना ताकि वे पाठ के विकास में सहयोग दे सकें।
-
विद्यार्थियों का ध्यान पाठ पर केन्द्रित करना।
-
विद्यार्थियों को उत्तर देने हेतु प्रेरित करना।
-
नवीन जानकारी अथवा ज्ञान-ग्रहण हेतु पाठ में छात्रों की जिज्ञासा उत्पन्न करना।
-
विद्यार्थियों की कल्पना एवं तर्क-शक्ति का विकास करना।
-
विद्यार्थियों द्वारा प्रश्नों के उत्तर देने में भाषा सम्बन्धी कुछ अशुद्धियाँ हों तो उनका आधार संगत ढंग से निवारण करना।
-
विद्यार्थियों की कठिनाइयों आदि का पता लगाना ताकि निवारण किया जा सके।
-
शिक्षण में सजीवता एवं रोचकता लाना।
-
विद्यार्थियों की संकोचशीलता को दूर करना।
-
शिक्षण के साथ-साथ प्रश्न पूछकर इस बात का पता कि वे पाठ को समझ भी रहे हैं अथवा नहीं? यदि ‘नहीं’ तो क्यों और यदि ‘हाँ’ तो किस सीमा तक?
-
पाठ को समझाने के पश्चात् इस बात का पता लगाना कि शिक्षण पूर्व पाठ के निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति एवं प्राप्ति हुई अथवा नहीं? और यदि हुई तो किस सीमा तक?
-
विद्यार्थियों को इस बात के लिये प्रश्न पूछने हेतु उत्प्रेरित करना कि पाठ को समझाने के पश्चात् भी यदि कोई शंका अथवा समस्या रह गयी हो तो वे खुलकर पूछें; ताकि उनकी शंकाओं का निवारण किया जा सके।
प्रश्नों के प्रकार (Types of Questions)
प्रश्न उत्तर की निश्चितता, अनिश्चितता, उत्तर की लम्बाई आदि की दृष्टि से सामान्यतया तीन प्रकार के होते हैं-
-
निबन्धात्मक (Essay type)– इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर की न तो कोई निश्चितता ही होती है और न ही कोई शब्द सीमा आदि।
-
लघुत्तरात्मक (Short answer type)– इनका उत्तर पूरी तरह निश्चित न होते हुए भी बहुत कुछ निश्चित होता है। शब्द-सीमा के आधार पर इनका उत्तर एक वाक्य में भी हो सकता है तो 50, 100, 150 आदि शब्दों की सीमा से बँधा हुआ भी।
-
वस्तुनिष्ठात्मक (Objective type)– वस्तुनिष्ठ शब्दों का उत्तर केवल एक शब्द तक ही सीमित रहता है।
शिक्षण की दृष्टि से सर्वाधिक उपयोगी प्रश्न
ऊपर, तीन प्रकार के जो प्रश्न बताये गये हैं, उन्हें यदि एक अच्छे मूल्यांकन परीक्षण की कसौटी पर कसा जाय तो जहाँ निबन्धात्मक प्रश्नों में उत्तर की अनिश्चितता के साथ-साथ इनमें अच्छे परीक्षण के विशिष्ट गुणों में से एक भी गुण नहीं पाया जाता, किन्तु अभिव्यक्ति अवश्य होती है।
इसके ठीक विपरीत वस्तुनिष्ठ प्रश्नों में अच्छे परीक्षण के तो लगभग सभी गुण होते हैं; परन्तु इनमें अभिव्यक्ति नहीं होती है किन्तु लघुत्तरात्मक प्रश्नों में जहाँ एक ओर अभिव्यक्ति भी होती है और दूसरी ओर उत्तर की पूर्णतया निश्चितता न होते हुए भी काफी कुछ निश्चितता होती है, बशर्ते कि उत्तर दो-चार वाक्यों तक सीमित हो।
उधर शिक्षण की दृष्टि से प्रश्न ऐसे अधिक हों जिनका उत्तर पूरे वाक्यों में हो; ताकि उनकी अभिव्यक्ति का भी परीक्षण किया जा सके तथा वाक्य रचना की दृष्टि से यदि कोई अशुद्धि हो तो उसे भी शुद्ध किया जा सके। इस दृष्टि से शिक्षण के प्रश्न यथासम्भव लघुत्तरात्मक ही होने चाहिये क्योंकि-
लघुत्तरात्मक प्रश्नों के गुण
-
लघुत्तरात्मक प्रश्न अभिव्यक्ति प्रधान होते हैं।
-
व्याख्या सम्बन्धी प्रश्न विद्यार्थियों से पूछकर उनकी कल्पना एवं चिन्तन क्षमता को विकसित किया जा सकता है।
-
प्रश्नों के उत्तर अभिव्यक्ति प्रधान होने के कारण वाक्य संरचना सम्बन्धी उनकी अशुद्धियों को सुधारा जा सकता है।
-
यदि वाक्य संरचना में किसी अनुपयुक्त शब्द का प्रयोग किया गया है तो उसे भी शुद्ध करके शब्द के सही अर्ध से उन्हें अवगत कराया जा सकता है।
-
शिक्षण एवं कक्षागत परीक्षण में ऐसे लघुत्तरात्मक प्रश्न न पूछे जायें जिनका उत्तर बहुत लम्बा हो; अर्थात् जिनका उत्तर निबन्धात्मक प्रश्नों की भाँति बहुत अधिक लम्बा हो ।
यह भी नियम नहीं बनाया जाय कि वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछने ही नहीं हैं। शुद्ध एवं सामाजिक विज्ञानों के विभिन्न विषयों में जहाँ आँकड़ों अथवा तथ्यों पर प्रश्न पूछना अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाय वहाँ वस्तुनिष्ठ प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं, किन्तु यदि विद्यार्थी उनका सही उत्तर एक ही शब्द में दे देते हैं तो उन्हें इस बात के लिये बाध्य न किया जाय कि जिस प्रश्न का उत्तर एक शब्द में ही सही-सही दिया जा सकता है उसका भी उत्तर वे पूरे वाक्य में दें; यथा-
सामाजिक क्रिया में– किसी राजा का जन्म, गद्दी पर बैठना, घटनाओं का काल आदि पूछना।
शुद्ध विज्ञानों में– कोई सूत्र, किसी वैज्ञानिक का नाम, जन्म आदि पूछना।
भाषाओं में– किसी कवि या साहित्यकार का जन्म, उसकी कृतियों आदि का नाम पूछना।
प्रस्तावना हेतु पूछे गये प्रश्न– पाठ की प्रस्तावना का आशय पाठ को पढ़ाने से पूर्व विद्यार्थियों को पाठ को पढ़ने तथा समझने हेतु पाठोन्मुख करना है और यह तभी सम्भव है जब विद्यार्थियों के मन एवं मस्तिष्क में चल रहे विचारों को उनके मन एवं मस्तिष्क से निकालकर पाठ से सम्बन्धित नयी जानकारी को बनाने एवं समझने हेतु तत्सम्बन्धित विचारों से जोड़ा जाय। यह कार्य भी दो प्रकार से सम्भव है-
1. या तो, उनसे उनकी उस जानकारी से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जायें, जिसे वे पहले से ही जानते हैं तथा दूसरी ओर वह पाठ से भी सम्बन्धित हैं। ऐसा करने से सम्बद्धता के नियम (Law of association) के अनुसार नयी जानकारी या ज्ञान, पूर्व जानकारी या ज्ञान से सम्बद्ध होकर भली-भाँति समझ में भी आ जाता है तथा स्थायी रूप से याद भी हो जाता है। इस प्रकार की प्रस्तावना को पूर्वज्ञान (Previous knowledge) पर आधारित प्रस्तावना कहते हैं। पूर्वज्ञान पर आधारित पाठ की प्रस्तावना करते समय सदैव ध्यान रखा जाय कि-
-
प्रस्तावना के प्रश्नों का सम्बन्ध एक ओर पूर्व जानकारी से हो तो दूसरी ओर पढ़ाये जाने वाले पाठ्यांश से भी।
-
पूर्वज्ञान की सीमा केवल औपचारिक रूप से प्राप्त जानकारी अथवा ज्ञान तक ही सीमित न रखकर अनौपचारिक रूप से प्राप्त जानकारी से अधिक सम्बद्ध की जाये।
-
पूर्व जानकारी का सम्बन्ध यदि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त क्षेत्रीय जानकारी से हो तो और भी अच्छा रहेगा।
2. सहायक साधनों के माध्यम से की जाने वाली प्रस्तावना के प्रश्नों का आधार पूर्वज्ञान पर आधारित प्रस्तावना के प्रश्नों से थोड़ा भिन्न होता है। सहायक साधनों के अन्तर्गत भी यदि प्रस्तावना और साथ ही साथ शिक्षण के प्रश्न भी यदि सहायक साधनों में श्र्व्य साधनों का उपयोग किया गया है तो उन्हें सुनाकर अर्थात् दृष्टान्त, लघुकथा, आदि को सुनाकर प्रश्न पूछे जाने चाहिये, किन्तु यदि शृव्य साधनों में से सूक्तियाँ, लोकोक्तियाँ, कवितांश आदि का उपयोग किया गया है तो उन्हें श्यामपट्ट पर लिखकर, उनका अर्थ या व्याख्या पूछते हुए भी प्रश्न पूछे जा सकते हैं।
इसी प्रकार यदि प्रस्तावना या शिक्षण का माध्यम दृश्य साधन है तो उन्हें दिखाकर ही उनमें जो कुछ प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है अथवा उन्हें देखकर जो अनुमान लगाया जा सकता है; कल्पना की जा सकती है-उस पर आधारित प्रश्न पूछे जाने चाहिये यथा इस चित्र में तुम्हें क्या-क्या दिखाई दे रहा है आदि?
विकासात्मक प्रश्न (Developmental questions)
विकासात्मक प्रश्न वे हैं जो पाठ को पढ़ाने या समझाने हेतु पूछे जाते हैं। विकासात्मक प्रश्नों के पूछने के भी दो आधार हो सकते हैं-
-
पाठ को समझाने हेतु पाठ की विषयवस्तु से बाहर की सम्बन्धित विषयवस्तु परआधारित पूछे गये प्रश्न।
-
पाठ्यांश की व्याख्या हेतु पाठ्यांश की विषयवस्तु से ही पूछे गये प्रश्न।
इन दोनों प्रकार के प्रश्नों में अन्तर केवल इतना है कि पहली प्रकार के प्रश्न उस बाहर की विषयवस्तु से पूछे जाते हैं जो पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु से सम्बन्धित होती है। यह विषयवस्तु पढ़ी हुई हो यह आवश्यक नहीं; प्रश्न ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अर्जित जानकारी पर भी आधारित हो सकते हैं। जब इनका उत्तर विद्यार्थियों द्वारा दे दिया जाता है अथवा विद्यार्थियों से न आने पर शिक्षक स्वयं उसे स्पष्ट कर देता है तो इसी जानकारी को पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु के साथ जोड़कर पाठ्यांश की विषयवस्तु को समझा दिया जाता है।
दूसरी स्थिति में भी ऐसा ही किया जाता है कि पढ़ाये जाने वाली विषयवस्तु से पूछे गये प्रश्नों का उत्तर यदि कतिपय प्रखर बुद्धि विद्यार्थी दे देते हैं तो उस उत्तर के आधार पर सभी विद्यार्थियों को उसे स्पष्ट कर दिया जाता है। ऐसा करने से उत्तर देने वाले विद्यार्थी भी स्वयं ऐसे उत्तर देने के लिये प्रेरित होते हैं तो धीरे-धीरे अन्य विद्यार्थी भी उनसे प्रेरित होकर ऐसे प्रश्नों के सही; गलत अथवा आंशिक रूप से सभी उत्तर देने हेतु स्वतः ही प्रेरित होकर उत्तर देने लगते हैं, किन्तु यदि ऐसे क्लिष्ट एवं व्याख्या सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर कोई भी विद्यार्थी नहीं दे पाता तो ऐसा नहीं है कि वे हतोत्साहित होंगे, बल्कि चूँकि प्रश्न का सम्बन्ध पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु से ही होता है जिसको जानना उनके लिये भी आवश्यक है तो उस प्रश्न का उत्तर जानने हेतु उसकी जिज्ञासा (Curiosity) बढ़ती है और फिर वे शिक्षक की बात को बड़े ध्यान से सुनते हैं।
दोनों ही स्थितियों में विद्यार्थियों को इस प्रकार के प्रश्नों के द्वारा शिक्षण का भरपूर लाभ मिलता है, चाहिये भी यही।
विचारोत्तेजक प्रश्न (Thought stimulating questions)
वास्तविक अधिगम तभी सम्भव है जब विद्यार्थियों को पाठ के विकास में अधिक से अधिक सक्रिय बनाया जाय और यह तभी सम्भव है, जब विद्यार्थी ऐसे प्रश्नों का उत्तर शिक्षक से स्वयं पूछें, जिनका उत्तर उन्हें नहीं आता अथवा शिक्षक व्याख्या, अन्तर, तुलना, उदाहरण आदि से सम्बन्धित ऐसे प्रश्न पूछकर उन्हें जिज्ञासु बनाये, जिनका उत्तर वे दे सकें अथवा नहीं लेकिन उन प्रश्नों का उत्तर स्वयं खोजने या शिक्षक द्वारा बताये जाने की ओर विशेष ध्यान दें। इन्हीं प्रश्नों को विचारोत्तेजक (Thought stimulating) प्रश्न कहते हैं।
पाठान्तर्गत पूछे गये बोध प्रश्न (Understanding questions)
प्रत्येक शब्द के अर्थ, प्रयोग, सन्दर्भों तथा शैली के अनुसार कई-कई होते हैं। इस दृष्टि से ‘बोध’ के जितने भी शाब्दिक अर्थ हैं, उनमें से एक अर्थ है-ज्ञान। ‘ज्ञान’ के सम्बन्ध में यही कहा जाता है कि रटा हुआ ज्ञान, ज्ञान नहीं होता। वह तो मात्र एक जानकारी है जो ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जान तो ली जाती है, परन्तु उस जानकारी का सही उपयोग कहाँ और कैसे किया जाय इसकी समझ (Understanding) उस बात के जानने वाले को बिल्कुल नहीं होती।
इस दृष्टि से किसी शब्द अथवा विषयवस्तु के वास्तविक एवं निहित दोनों ही प्रकार के अर्थों को न समझ लिया जाय तब तक उसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता। साथ ही ऐसे प्रश्नों को जो केवल रटे-रटाये उत्तरों तक ही सीमित रहें, उन्हें बोधप्रश्नों की संज्ञा देना सर्वथा अनुचित है, परन्तु शिक्षण के यान्त्रिकीकरण ने बोधप्रश्नों के अर्थ को इसी रूप तक सीमित कर दिया है। यह ठीक नहीं।
‘बोध‘ तभी कहा जायेगा, जब किसी बात को समझकर व्यवहार में टाला जा सके। किसी बात को जानकर, समझने के पश्चात् उसे व्यवहार का रूप देना ही वास्तविक अधिगम (Learning) है।
इस प्रकार बोध प्रश्नों का अर्थ है- ऐसे प्रश्न जो पाठ को समझने की दृष्टि से पूछे गये हों; अर्थात् शिक्षक द्वारा पाठ को भलीभाँति समझाने के पश्चात्- यह जानने के लिये कि विद्यार्थी उसे किस सीमा तक समझ पाये हैं- पूछे गये प्रश्न ही बोधप्रश्न कहलाते हैं।
बोधप्रश्न प्रश्नों को पूछने के पीछे दो प्रत्यक्ष लाभ हैं-
-
प्रथम यह कि शिक्षक यह पता लगा सके कि वह विद्यार्थियों को जो कुछ पढ़ा रहा, है वह उनकी समझ में आ भी रहा है अथवा नहीं।
-
दूसरा यह कि पढ़ाये जाने वाले पाठों का सम्बन्ध शुद्ध अथवा सामाजिक विज्ञानों के अन्तर्गत आने वाले विषयों से हो अथवा फिर ऐसे भाषायी पाठों से जिन्हें अभ्यास (Exercise) की दृष्टि से घर पर दुहराना पड़े,
ऐसे सभी पाठों का सार ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर के आधार पर लिखाया जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि किसी भी पाठ को समझाने के पश्चात् श्यामपट्ट सार लिखाने की दृष्टि से पूछे जाने वाले प्रश्न बोधप्रश्न तथा उनके द्वारा प्राप्त सही एवं संशोधित उत्तर ही श्यामपट्ट सार है।
पुनरावृत्ति प्रश्न (Recapitulatory questions)
पुनरावृत्ति प्रश्न बोधप्रश्नों जैसे भी हो सकते हैं और थोड़े हटकर भी; क्योंकि इन दोनों प्रकार के प्रश्नों को पूछने के प्रयोजन अलग-अलग हैं। प्रश्न पूछने के प्रयोजन की दृष्टि से, बोध प्रश्नों के पूछने का प्रयोजन पाठान्तर्गत प्रश्न पूछकर यह पता लगाना कि शिक्षक द्वारा पाठ को समझाये जाने के उपरान्त विद्यार्थी उसे कितना समझ पा रहे हैं तथा उन प्रश्नों के प्राप्त उत्तरों के आधार पर श्यामपट्ट सार (Black board summary) लिखना है; जबकि पुनरावृत्ति प्रश्नों के पूछे जाने का प्रयोजन इससे बिल्कुल भिन्न है।
पुनरावृत्ति प्रश्न, जैसा कि इनके नाम से ही ध्वनित होता है- एक तो इसलिये पूछे जाते हैं कि समूचे पाठ की पुन: आवृत्ति हो जाय। दूसरे इनके पूछे जाने का प्रयोजन यह भी है कि किसी भी पाठ को पढ़ाये जाने के पश्चात् यह पता लगाया जा सके कि किसी भी पाठ को पढ़ाने हेतु शिक्षण पूर्व जो विशिष्ट उद्देश्य निर्धारित किये गये थे- उनकी पूर्ति एवं प्राप्ति हुई भी या नहीं और यदि हुई तो किस सीमा तक?
इस दृष्टि से पुनरावृत्ति प्रश्न, पूर्व निर्धारित उद्देश्यों से; अर्थात्- जानकारी (Knowledge or knowing of the facts etc.), अवबोध (Understanding), मनोवृत्ति परिवर्तन (Attitudinal change), ज्ञानोपयोग अथवा व्यवहारगत परिवर्तन (Application or change of behavior) तथा कौशल (Skill), सभी उद्देश्यों से सम्बन्धित होते हैं।
यहाँ विशेष रूप से ध्यान में रखने की बात यह है कि-
-
बोध प्रश्नों का सम्बन्ध केवल उतनी ही विषयवस्तु तक सीमित होता है, जो प्रश्न पूछने से पूर्व समझा दी गयी हो; जबकि पुनरावृत्ति प्रश्नों का सम्बन्ध समूचे पाठ की विषयवस्तु से सम्बद्ध होता है।
-
बोध प्रश्नों का सम्बन्ध केवल अवबोध और अधिक से अधिक ज्ञानोपयोग तक ही सीमित होता है; जबकि पुनरावृत्ति प्रश्नों का प्रयोजन शिक्षण के सभी पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों सा होता है।
प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करना (Receiving Answers)
प्रश्न, पूछना एक बात है और विद्यार्थियों या जिससे प्रश्न पूछा गया है, उससे उत्तर प्राप्त करना एक बिल्कुल अलग बात। प्रश्न पूछना एक कौशल है तो उत्तर प्राप्त करना भी उसके कम कुशलता का परिचायक नहीं। कुछ शिक्षक, पहले किसी विद्यार्थी को खड़ा करके फिर उससे प्रश्न पूछते हैं। ऐसा करना बिल्कुल ठीक नहीं, क्योंकि ऐसी स्थिति में वही विद्यार्थी प्रश्न का उत्तर सोचता है जिसे खड़ा किया गया है; किन्तु शिक्षण का उद्देश्य है सभी विद्यार्थियों को मानसिक एवं बौद्धिक रूप से सक्रिय रखना इस दृष्टि से प्रश्न पूछते समय शिक्षक को ध्यान में रखना चाहिये कि-
-
प्रश्न सभी विद्यार्थियों से पूछा जाय, किसी एक से नहीं।
-
जब सभी सोचने लगें तो उनसे हाथ उठाने को कहा जाय जो उत्तर दे सकते हैं।
-
उठते हुए हाथों को भी ध्यानपूर्वक देखा जाय तो उनमें कहीं हाथ उठाने में अति उत्साह है तो कहीं हाथ उठाना मजबूरी थी। ये सब स्थितियाँ मन पर आधारित हैं।
-
प्रश्न का उत्तर उससे प्राय: कम पूछा जाय जो प्रतिदिन बड़ी जल्दी उत्तर दे देते हैं। उनसे प्रश्न का उत्तर पूछा जाय तो ठीक रहेगा जो प्राय: कभी-कभी ही उत्तर देने के लिये उठाते हैं या बिल्कुल ही नहीं उठाते, परन्तु सही उत्तर देने वालों के साथ ऐसा नियम न बनाया जाय।
-
यदि विद्यार्थी सही उत्तर देते हैं तो उनकी थोड़ी प्रशंसा भी की जाय, परन्तु अत्यधिक नहीं। अन्यथा विद्यार्थी उसे अपनी प्रशंसा न समझकर ऐसा करने को शिक्षक की आदत समझेंगे।
-
यदि कोई विद्यार्थी गलत उत्तर दे तो उसे गलत न कहकर उसके सही उत्तर को उन्हें बता दें।
-
सही उत्तर को पुनः उन विद्यार्थियों से पूछे जो उत्तर देने में प्राय: संकोच करते हैं। ऐसे करने से उनके संकोच में कमी आयेगी।
-
और अन्त में किसी भी बात को नियम या औपचारिक न बनाएँ; अपितु सब कुछ सहज रूप में चलना चाहिये।