भरतनाट्यम् (Bharatanatyam in Hindi)
भरतनाट्यम् को सधिर अट्टम भी कहते हैं। भरत नाट्यम् प्रमुख रूप से दक्षिण भारत (तमिलनाडु) का एक शास्त्रीय नृत्य है। इसमें एक साथ तीन कलाओं ‘भावम्‘, ‘रागम्‘ और ‘तालम्‘ का समावेश होता है। भावम् से ‘भ‘, रागम् से ‘र‘ और तालम् से ‘त‘ लिया गया है। और नाटक से नाट्य, इसीलिए भरतनाट्यम् नाम अस्तित्व में आया है। यह भरत मुनि के नाट्य शास्त्र पर आधारित है। वर्तमान समय में इस नृत्य शैली का मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा अभ्यास किया जाता है। इस नृत्य शैली के प्रेरणास्त्रोत चिदंबरम के प्राचीन मंदिर की मूर्तियों से आते हैं।
- भ – भावम्, अर्थात भावना
- र – रागम्, अर्थात संगीत या माधुर्य
- त – तालम्, अर्थात लय
- नाट्यम् – नृत्य या अभिनय
भरतनाट्यम् को सबसे प्राचीन नृत्य माना जाता है। इस नृत्य को तमिलनाडु में देवदासियों द्वारा विकसित व प्रसारित किया गया था। शुरू शुरू में इस नृत्य को देवदासियों के द्वारा विकसित होने के कारण उचित सम्मान नहीं मिल पाया, लेकिन बीसवी सदी के शुरू में ई. कृष्ण अय्यर और रुकीमणि देवी के प्रयासों से इस नृत्य को दुबारा स्थापित किया गया। भरत नाट्यम के दो भाग होते हैं इसे साधारणत दो अंशों में सम्पन्न किया जाता है पहला नृत्य और दुसरा अभिनय। नृत्य शरीर के अंगों से उत्पन्न होता है इसमें रस, भाव और काल्पनिक अभिव्यक्ति जरूरी है। भरतनाट्यम् में शारीरिक प्रक्रिया को तीन भागों में बांटा जाता है:- समभंग, अभंग, और त्रिभंग।
भरतनाट्यम् की उत्पत्ति और विकास
भारत अपनी प्रदर्शन कला, हस्तशिल्प, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला के माध्यम से प्रदर्शित समृद्ध, विविध संस्कृति के लिए जाना जाता है। देश के विभिन्न समुदायों की विचारधाराओं, भाषाओं और परंपराओं के परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार की प्रदर्शन कला शैलियों ने जन्म लिया है। इन कला शैलियों में से एक, नृत्य, की प्राचीन काल से भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
पारंपरिक कथाओं के अनुसार, इंद्र देव (वायु भगवान) के दरबार में देवताओं और राक्षसों के सामने पहला नृत्य नाटक पप्रस्तुत किया गया था। राक्षसों पर इंद्र देव की जीत पर आधारित यह नृत्य नाटक, भरत मुनि द्वारा निर्देशित और निर्मित किया गया था, जिसमें उनके सौ बेटों ने अभिनेताओं के रूप में भाग लिया था।
पूर्वाभ्यास के दौरान, भरत को महिलाओं द्वारा ही महिला पात्रों की भूमिकाओं को निभाने की आवश्यकता महसूस हुई। वे तब सृष्टि के सृजनकर्ता, ब्रह्मदेव के पास पहुँचे। उनकी बात सुनकर, ब्रह्मदेव ने अप्सराओं की रचना की, जिन्होंने न केवल नाटक में भाग लिया, बल्कि वे इंद्र देव के दरबार का भाग भी बन गईं।
भारतीय नृत्य शैलियों को शास्त्रीय नृत्य और लोकनृत्य नामक दो श्रेणियों में सामान्यत: वर्गीकृत किया जा सकता है। इनमें से अधिकांश नृत्य शैलियों का, चाहे वे शास्त्रीय हों या लोक हों, धर्म से सीधा संबंध रहा है। ये नृत्य प्रायः नृत्य देवता के प्रति भक्ति व्यक्त करने के रूप में प्रस्तुत किए जाते थे।
सभी शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ पाँचवे वेद, जिसे नाट्य शास्त्र कहा जाता है, पर आधारित हैं। यद्यपि इस ग्रंथ की रचना की सही तिथि का पता नहीं लगाया जा सकता है, परंतु पौराणिक रूप से, यह माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा जी की आज्ञा पर, ऋषि भरत ने नाट्य शास्त्र को संहिताबद्ध कर उसकी रचना की थी।
नाट्य शास्त्र में लिखा है:-
नाथाथ शास्त्रं नाथाथ शिल्पं न स विद्या।
न स कला न असौयोग्यो नथतः कर्म ॥
यतः नाट्य न दृष्यथे।
अर्थात– “ऐसा कोई शास्त्र नहीं है, कोई मूर्तिकला नहीं है, कोई ज्ञान नहीं है, कोई कला नहीं है, कोई योग नहीं है और न ही कोई क्रिया है, जिसे नाट्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।”
नाट्य शास्त्र सभी प्रदर्शन कला शैलियों के लिए एक पवित्र ग्रंथ माना जाता है। नाट्य शास्त्र के मुख्य पहलुओं में से एक, अभिनय (अभिनेता द्वारा भाव व्यक्त करने के तरीके) का इस ग्रंथ में बहुत विस्तार से उल्लेख किया गया है। नृत्य, नाटक और अन्य प्रदर्शन कलाओं में उपयोग किए जाने वाले अन्य पहलुओं, जैसे आकर्षक शारीरिक संचलन और अंग विन्यास, मुद्रा (हाथ के भाव) और रस (सौंदर्य अनुभव) के बारे में भी विस्तृत रूप में लिखा गया है।
नाट्य शास्त्र के अनुसार, कला शैलियों को तीन प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- नृत्त – सम्पूर्णत: गानों की लय पर शरीर के भाव पर न्रीत्ता आधारित है। इसमें प्रस्तुति के लिए अभिनय कला का उपयोग नहीं किया जाता है।
- नृत्य – यह नृत्त एवं अभिनय का संयोजन है। अभिनय के दो प्रमुख तत्वों में रस (भाव) और भाव (चेहरे की अभिव्यक्ति) शामिल हैं।
- नाट्य – नाट्य ऐसा कला रूप है जिसमें संगीत और नृत्य के साथ संवादों का भी उपयोग होता है। अर्थात, यह कहानी कहने का नाटकीय निरूपण है।
भारत के अधिकांश शास्त्रीय नृत्य, जो पूर्णत: नाट्य शास्त्र पर आधारित हैं, उनकी उत्पत्ति मंदिरों में हुई थी। इसका एक उदाहरण तमिलनाडु का सादिर अट्टम है, जो आज भरतनाट्यम के नाम से प्रचलित है।
भरतनाट्यम में तमिलनाडु की देवदासियाँ की भूमिका
पौराणिक रूप से, यह माना जाता है कि इंद्र देव के दरबार की अप्सराओं में से एक, उर्वशी ने देवदासियों को नृत्य सिखाया था। देवदासी शब्द में देव का अर्थ है ‘ईश्वर‘ और दासी का अर्थ है ‘भक्त‘, और वह दक्षिण भारत के मंदिर की नर्तिका होती थी। देवदासी परंपरा में बहुत कम आयु की लड़कियों को मंदिर सेवा में समर्पित कर दिया जाता था और उन्हें देवताओं के साथ विवाहित माना जाता था। इसके लिए ‘पोट्टूकट्टल‘ नामक एक समारोह किया जाता था, जिसमे लड़कियों को उनके गले में एक ‘बोट्टू‘ (सोने की चेन) पहनाई जाती थी, जो देवता के साथ उनके विवाह का प्रतीक थी। देवदासियों को अक्सर ‘नित्य सुमंगली‘ (सदा विवाहित) कहे जाने के भी उल्लेख मिलते हैं।
जब कोई लड़की देवदासी बन जाती थी, तो उनको ‘सादिर अट्टम‘, जिसे ‘दासी अट्टम‘ भी कहा जाता है, नृत्य कला में, नट्टुवनार या कूथिलियार नामक नृत्य गुरुओं द्वारा, प्रशिक्षण दिया जाता था। नट्टुवनार एक गुरु की भूमिका निभाते थे और यह सुनिश्चित करते थे कि यह कला शैली पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़े। कई वर्षों के प्रशिक्षण के बाद, अपने अरंगेत्रम (प्रथम नृत्य प्रदर्शन) के अवसर पर, देवदासियाँ “थलईकोल” की उपाधि अर्जित करती थीं।
राजाओं और समाज के अन्य प्रभावशाली वर्गों द्वारा संरक्षित, देवदासियाँ मंदिर परिसरों मे नृत्य मंडप (नाट्यमंडप) में प्रदर्शन किया करती थीं। वे मंदिर से जुड़ी अन्य गतिविधियों में भी शामिल होती थीं और उनके नृत्य को अनुष्ठान पूजा का एक महत्वपूर्ण भाग माना जाता था।
नृत्य प्रदर्शन के अवसर के आधार पर दासियों को अलग-अलग नाम दिए जाते थे, जैसे कि विवाह एवं अन्य समारोहों मे नृत्य करने वाली ‘अलंकार दासियाँ‘ और शाही समारोह में नृत्य प्रदर्शन करने वाली ‘राजदासियाँ‘। ऐसा कहा जाता है कि महान चोल राजा, राजा देव प्रथम ने लगभग चार सौ देवदासियों का संरक्षण किया, जो तंजौर के बृहदेश्वर मंदिर में अनुष्ठान नृत्य और अन्य समारोहों में प्रदर्शन किया करती थीं।
- भारत में अंग्रेज़ों के आने से पहले तक देवदासियाँ का समाज में एक सम्मानजनक स्थान हुआ करता था।
- अंग्रेज़ों ने नृत्य की भारतीय अवधारणाओं को पश्चिमी विचारधाराओं से निचले दर्जे का माना।
- जल्द ही, देवदासियों को समाज के निचले स्तर पर धकेल दिया गया और उन्हें केवल दासियों और वेश्याओं के रूप में देखा जाने लगा।
- शासक वर्ग ने इस कला शैली और कलाकारों का संरक्षण बंद कर किया और जल्द ही देवदासी प्रथा लुप्त हो गई।
- ऐसा कहा जाता है कि इसके परिणामस्वरूप, जीवित रहने के लिए, देवदासियों को वेश्यावृत्ति करने पर मजबूर होना पड़ा।
- एक समय तक स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि देवदासी शब्द को भी अपमानजनक और निम्न दर्जे का माना जाने लगा था।
इसके साथ, वर्ष 1947 में एक विधेयक पारित किया गया, जिससे देवदासी व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप देवदासी समुदाय समाज से पूरी तरह लुप्त हो गया। आज भी, इन परिवारों का कोई निशान नहीं है जो दशकों से नृत्य प्रदर्शन में लगे हुए थे।
- इस दौरान, कई हस्तियों द्वारा इस कला शैली को पुनर्जीवित करने के बहुत प्रयास किए गए।
- इसमे वकील एवं स्वतंत्रता सेनानी ई कृष्णा अय्यर, एक प्रमुख हस्ती थे, जिन्होंने स्वयं इस कला को सीखा और इसका प्रदर्शन किया।
- प्रदर्शन जारी रखने वाली कुछ अंतिम देवदासियों में ‘टी. बालासरस्वती‘ थीं। उन्हें इस पारंपरिक कला को संरक्षित करने का श्रेय दिया जाता है।
एक अन्य प्रमुख हस्ती हैं, रुक्मिणी देवी, जिन्होंने वर्ष 1935 में अपने प्रथम प्रस्तुति के साथ लोगों की सोच को बदल दिया। उन्होंने चेन्नई में कलाक्षेत्र संस्थान की स्थापना की जिसके प्रयासों द्वारा प्रदर्शन कला रूपों को प्रोत्साहन मिला।
भरतनाट्यम का उद्भव ‘सादिर अट्टम‘ के प्राचीन नृत्य से जुड़ा हुआ है। सादिर का भरतनाट्यम के रूप में परिवर्तन कब हुआ यह तो नहीं पता, लेकिन यह एक शास्त्रीय नृत्य शैली है जो कभी समाप्ती पर थी, और आज वर्षों से जीवित रहने में सफल रही है।
भारत का शास्त्रीय नृत्य ‘भरतनाट्यम’
भरतनाट्यम | भारत का राष्ट्रीय नृत्य |
उत्पत्ति | भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से जन्मी नृत्य शैली |
स्थान | तमिलनाडु, भारत |
शैलियाँ (बानी) | पाँच (तंजावुर, पंडानल्लूर, वझावूर, मेलाथूर, कलाक्षेत्र) |
भरतनाट्यम काफी हद तक एक नया शब्द है और यह शब्द भाव (अभिव्यक्ति), राग (संगीत), ताल (लयबद्ध पैटर्न) और नाट्यम (नृत्य) से लिया गया है। भरतनाट्यम केवल ‘नाट्यशास्त्र‘ पर ही आधारित नहीं है, बल्कि ‘अभिनय दर्पण‘ पर भी आधारित है जिसे नंदिकेश्वर द्वारा लिखित माना जाता है।
नाट्य शास्त्र की तरह, अभिनय दर्पण भी मुद्राओं, शरीर के संचालन और अन्य हाव-भावों पर एक विस्तृत ग्रंथ है, जो इस कला का आधार है। जैसा कि नाट्य शास्त्र में उल्लेखित है, भरतनाट्यम तांडव और लास्य की अवधारणाओं पर आधारित है। कहा जाता है कि ये अवधारणाएँ भगवान शिव के नृत्य से उत्पन्न हुई हैं।
प्राचीन कथाओं के अनुसार, ऋषि भरत द्वारा रचित, समुद्रमंथन पर आधारित एक नाटक, कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के सामने प्रस्तुत किया गया। प्रस्तुति को देखकर भगवान शिव इस कदर प्रसन्न हो गए कि वह तांडव करने के लिए तैयार हो गए। प्रदोष के शुभ मुहूर्त पर, भगवान शिव ने तांडव किया और उसमें से प्रसिद्ध 108 करण (मुद्राएँ) उत्पन्न हुईं, जिन्हे तमिलनाडु के प्रमुख मंदिरों की दीवारों पर देखा जा सकता है। भगवान शिव ने अनुभव किया कि नृत्य नाज़ुक भावों (लास्य) के बिना अपूर्ण था। उन्होनें अपनी अर्धांगिनी, देवी पार्वती को लास्य सिखाया, जिन्होंने फिर भगवान शिव के लिए इसकी प्रस्तुती दी। इन्हें तब ऋषि भरत ने प्रलेखित किया और ये नाट्यशास्त्र का आधार बने।
भरत नाट्यम के तत्व
भरत नाट्यम के भाग या चरण या तत्व निम्नलिखित हैं:-
- नृत्त
- नृत्य
- अभिनय (नाट्य)
भरतनाट्यम के दो मुख्य तत्व हैं, ‘नृत्त‘ जिसमें शुद्ध नृत्य और पैरों को तेज़ी से चलाना होता है, और ‘नृत्य‘ जिसमे अभिनय (भाव व्यक्त करना) के साथ पैरों को चलाना होता है।
भरतनाट्यम में नृत्त की मूल इकाई अडवु (पैरों को चलाना) है। पैरोंं के चलाने के साथ कुछ मुद्राएँ हैं, जो इस नृत्य को दूसरों से अलग बनाती हैं। इनमे स्थानं (खड़े होने की मुद्रा), अराइमंडी (आधा बैठने की मुद्रा) और मुज़ुमंडी (पूर्ण बैठने की मुद्रा) शामिल हैं।
पैरोंं का चलाना संगीत की ताल के अनुसार होता है। इन तालों को मंद, मध्यम और तेज़, इन तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। भारत के अन्य शास्त्रीय नृत्यों से अलग, भरतनाट्यम अपनी रीतिबद्ध मुद्राओं, लयबद्ध गति और पैरोंं के कठोर संचालन के लिए जाना जाता है।
पैरोंं का संचालन हाथ की मुद्राओं या हस्त के साथ होता है जो अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में कार्य करते हैं। इन्हें दो प्रकार में वर्गीकृत किया जा सकता है; ‘असम्युत हस्त’ (एक हाथ की मुद्रा) और ‘सम्युत हस्त’ (दोनों हाथों की मुद्रा) जो कि नाट्यशास्त्र और अभिनय दर्पण में उल्लिखित श्लोकों के अनुसार होती हैं।
नृत्य का एक महत्वपूर्ण पहलू अभिनय है, जो इस कला के आधार का निर्माण करता है। एक भरतनाट्यम कलाकार अभिनय का उपयोग दर्शकों के बीच विचारों को व्यक्त करने और भावनाओं को जागृत करने के लिए करता है। अभिनय को चार प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- अंगिका अभिनय – इसमे हाथ, पैर और अंगों को चलाने जैसी शारीरिक मुद्राओं का उपयोग करके भाव व्यक्त किया जाता है।
- वाचिका अभिनय – इसमे गीत, संगीत और संवाद जैसी उक्तियों के माध्यम का उपयोग करके भाव व्यक्त किया जाता है।
- आहार्य अभिनय – इसमे वेषभूषा, गहनों और श्रृंगार का उपयोग करके भाव व्यक्त किया जाता है।
- सात्विक अभिनय – इसमे पात्र की मन: स्थिति को प्रस्तुत करके भाव व्यक्त किया जाता है।
भरत नाट्यम के भाग (अंश) या नृत्य का क्रम – मुख्य घटक
प्रसिद्ध तंजौर चौकड़ी “चिन्नय्या, पोन्नय्या, शिवानंदम और वडीवेलु” जो कर्नाटक संगीत और नृत्य के क्षेत्र में योगदान के लिए जाने जाते हैं, उनके द्वारा भरतनाट्यम के ढांचे की उचित संरचना की गई थी। तंजौर के मराठों के शाही दरबार के सदस्य, इन महान संगीतकारों को नृत्य को एक परिष्कृत कला के रूप में बदलने और भरतनाट्यम के मौजूदा रूप के घटकों को निर्मिति करने के लिए श्रेय दिया जाता है।
भरत नाट्यम में नृत्य क्रम इस प्रकार होता है:-
- आलारिपु,
- जातीस्वरम,
- शब्दम,
- वर्णम,
- पदम,
- तिल्लाना।
1. आलारिपु
इस अंश में कविता(सोल्लू कुट्टू ) रहती है। इसी की छंद में आवृति होती है। तिश्र या मिश्र छंद तथा करताल और मृदंग के साथ यह अंश अनुष्ठित होता है, इसे इस नृत्यानुष्ठान कि भूमिका कहा जाता है।
भरतनाट्यम नर्तक इसके साथ अपना नृत्य शुरू करता है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘फूल का खिलना’ है। इस नृत्य कृति की रचना नृत्त की अवधारणा का उपयोग करते हुए, एक फूल के खिलने के विचार के आसपास केंद्रित होती है।
2. जातीस्वरम
यह अंश कला ज्ञान का परिचय देने का होता है इसमें नर्तक अपने कला ज्ञान का परिचय देते हैं। इस अंश में स्वर मालिका के साथ राग रूप प्रदर्शित होता होता है जो कि उच्च कला कि मांग करता है।
विस्तृत पद संचालन, भावों और मुद्राओं का उपयोग करते हुए, जातीस्वरम, स्वरों के मधुर प्रकारों से रचित होता है।
3. शब्दम
ये तीसरे नम्बर का अंश होता है। सभी अंशों में यह अंश सबसे आकर्षक अंश होता है। शब्दम में नाट्यभावों का वर्णन किया जाता है। इसके लिए बहुविचित्र तथा लावण्यमय नृत्य पेश करेक नाट्यभावों का वर्णन किया जाता है।
इसमे एक पौराणिक कहानी या किंवदंती को चित्रित करने के लिए कलाकार अभिनय का उपयोग करता है। नृ्त्य की संकल्पना के आधार पर, जिस गीत पर इस भाग का प्रदर्शन किया जाता है, वह भी इस बात का स्पष्टीकरण होता है कि कहानी किस बारे में है। भरतनाट्यम नृत्य में सबसे प्रसिद्ध शब्दम में से एक महाभारत शब्दम है, जिसमें चौसर के खेल का दृश्य और इसके आगे के परिणामों को दर्शाया जाता है।
4. वर्णम
इस अंश में नृत्य कला के अलग अलग वर्णों को प्रस्तुत किया जाता है। वर्णम में भाव, ताल और राग तीनों कि प्रस्तुति होती है। भरतनाट्यम् के सभी अंशों में यह अंश भरतनाट्यम् का सबसे चुनौती पूर्ण अंश होता है।
यह दोनों, नृत्य और अभिनय, सहित सबसे लंबा और सबसे विस्तृत भाग होता है। सबसे अधिक भावबोधक नृत्य प्रदर्शनों में से एक, वर्णम, दर्शकों के बीच भाव (चेहरे की अभिव्यक्ति) और रस (भावना) का उपयोग करके नर्तक को विभिन्न मनोदशाओं को चित्रित करने में सक्षम बनाता है।
5. पदम
इस अंश में सात पन्क्तियुक्त वन्दना होती है। यह वन्दना संस्कृत, तेलुगु, तमिल भाषा में होती है। इसी अंश में नर्तक के अभिनय की मजबूती का पता चलता है।
पदम, नृत्य की संकल्पना पर आधारित है, और कलाकार द्वारा व्यक्त की गई भावनाओं के संदर्भ में अधिक विस्तृत है। यह खंड कलाकार को, भाव और रस के पहलुओं का उपयोग करके, पात्र के विचारों और भावनाओं के साथ गहराई से जोड़ता है।
6. तिल्लाना
यह अंश भरतनाट्यम् का सबसे आखिरी अंश होता है। इस अंश में बहुविचित्र नृत्य भंगिमाओं के साथ साथ नारी के सौन्दर्य के अलग अलग लावणयों को दिखाया जाता है।
तिल्लाना भरतनाट्यम प्रदर्शनों की सूची का अंतिम हिस्सा होता है जो पूरी तरह से नृत्त की अवधारणा पर आधारित है। अंतिम प्रदर्शन के रूप में, यह एक लयबद्ध खंड है जो पैरोंं के ज़ोरदार संचालान, मुद्राओं और हाथों की मुद्राओं का उपयोग करके दर्शकों का ध्यान आकर्षित करता है।
प्रदर्शनों की सूची में कीर्तनम, जवाली, भजन और मंगलम जैसे अन्य नृत्य खंड भी शामिल होते हैं।
भरतनाट्यम प्रदर्शन में, नर्तक के साथ एक वादक समूह भी होता है। इसमें न केवल वाद्य वादक बल्कि गुरु भी शामिल होते हैं, जो ताल (सोल्लुकेट्टू) का उच्चारण करते हैं और नट्टूवंगम का उपयोग करते हुए नर्तक का मार्गदर्शन करते हैं।
भरतनाट्यम में प्रयुक्त संगीत वाद्ययंत्र
संगीत और वाद्ययंत्र वाचिका अभिनय (गीत और संगीत के माध्यम से अभिव्यक्ति) का एक भाग होते हैं। भरतनाट्यम नृत्य कर्नाटक संगीत की ताल और लय पर किया जाता है। प्रस्तुति की शुरुआत गायन के साथ होती है जिसके बाद वाद्य यंत्रों द्वारा ताल बजाई जाती है। नृत्य, स्वर संगीत और वाद्य संगीत के इस संयोजन को प्रयोग कहा जाता है।
मृदंग, वीणा, बांसुरी, वायलिन, तालम, घटम, कांजीरा, तंबूरा, नादस्वरम और हारमोनियम कुछ सामान्य वाद्ययंत्र हैं जो भरतनाट्यम नर्तक का साथ देते हैं।
भरतनाट्यम की शैलियाँ या बानी
भरत नाट्यम और उसकी शैलियाँ कला और संस्कृति के क्षेत्र में एक बहुचर्चित विषय है। कला और संस्कृति भारतीय इतिहास का एक हिस्सा है। यह एक गलत धारणा है, कि हर भरत नाट्यम पाठ एक जैसा दिखता है। वर्षों से कई बहसों और चर्चाओं ने यह स्पष्ट किया है कि प्रत्येक शैली अपने तरीके से कैसे भिन्न होती है।
भरत नाट्यम क्या है? भरत नाट्यम एक सदियों पुरानी कला है, जो दो हजार साल से अधिक पुरानी है। कला रूप की उत्पत्ति तमिलनाडु के प्राचीन मंदिरों में हुई थी। इसके बाद, भरत नाट्यम ने भारत के पड़ोसी राज्यों और शहरों में अपनी शाखाएँ फैला दीं।
प्राचीन काल से भरत नाट्यम की पाँच प्रमुख शैलियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक का नाम उनके मूल स्थान के नाम पर रखा गया है, केवल अंतिम को छोड़कर जिसका नाम रुक्मिणी देवी अरुंडेल द्वारा स्थापित संस्था के नाम पर रखा गया है। भरत नाट्यम की प्रमुख शैलियाँ निम्नलिखित हैं:-
- तंजावुर शैली,
- पंडानल्लूर शैली,
- वझावूर शैली,
- मेलाथूर शैली, और
- कलाक्षेत्र शैली।
1. तंजावुर शैली
यह शैली तंजावुर के शासकों के दरबार में उत्पन्न हुई है और इसे सबसे पुरानी बानियों में से एक माना जाता है। इस शैली के गुरु प्रसिद्ध तंजौर चौकड़ी के प्रत्यक्ष वंशज हैं। कंडप्पा पिल्लई, इस शैली के प्रसिद्ध नट्टुवनारों (गुरु/शिक्षक) में से एक और तंजौर चौकड़ी के प्रत्यक्ष वंशज थे जो प्रसिद्ध कन्नुस्वामी पिल्लई द्वारा प्रशिक्षित थे। ‘बड़ौदा’ कन्नुस्वामी पिल्लई के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने बड़ौदा दरबार में नर्तकों के समूह का नेतृत्व किया, जिसे तंजावुर मराठा राजकुमारी के साथ बड़ौदा के राजकुमार के साथ विवाह के दौरान दहेज के रूप में भेजा गया था। कंडप्पा पिल्लई के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने मूल तंजावुर शैली से थोड़ा हटकर, संगीत और लय की भूमिका पर जोर देते हुए, शैलीगत बदलाव प्रस्तुत किए। कंडप्पा पिल्लई ने प्रसिद्ध नर्तकी टी. बालासरस्वती को प्रशिक्षित किया, जिन्हें इस कला को उस समय संरक्षित करने का श्रेय दिया जाता है जब यह कला समाप्ती के कगार पर थी। भरतनाट्यम की यह शैली अभिनय और नृत्त, दोनों की संकल्पनाओं को समान महत्व देती है।
2. पंडानल्लूर शैली
इसका श्रेय गुरु “श्री मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई” (1869-1964) को दिया जाता है, जो भारत के तमिलनाडु राज्य के तंजावुर जिले में स्थित पंडानल्लूर में रहते थे। गुरु श्री मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई नट्टुवनार के परिवार से थे और प्रसिद्ध तंजावुर भाइयों के वंशज थे: चिन्नैया, पोन्नैया, शिवानंदम और वदिवेलु। गुरु श्री मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई के बाद, उनके दामाद चोकालिंगम पिल्लई (1893-1968) पंडानल्लूर शैली के अगले अनुभवी शिक्षक बने। बाद में उनके बेटे सुब्बाराय पिल्लई (1914 से 2008) अपने पिता और दादा के अधीन पंडानल्लूर में प्रशिक्षण के साथ पंडानल्लूर शैली के अगले प्रमुख शिक्षक बन गए।
पंडानल्लूर शैली का गणितीय महत्व:
पारंपरिक पंडानल्लूर रूप में भरत नाट्यम पाठ को देखते समय मुख्य रूप से इस पर ध्यान देना चाहिए। पंडानल्लूर रूप मुख्य रूप से लाइनर ज्यामिति पर जोर देता है, अर्थात प्रत्येक हाथ और पैर की गति 45 , 90 , 180 आदि पर एक दूसरे के साथ संगत कोण बनाती है।
अभिनयम को कम करके आंकना:
अभिनयम का अंडरप्ले अन्य रूपों के विपरीत पंडानल्लूर शैली में देखा जाता है, जहां अभिनयम को अदावु (मूल नृत्य कदम) से अधिक महत्व दिया जाता है। भाव अतिरंजित नहीं हैं और इसे और अधिक प्राकृतिक और वास्तविक बनाने के लिए बहुत सूक्ष्म हैं।
पंडानल्लूर शैली की नृत्यकला:
पंडानल्लूर शैली अपनी कोरियोग्राफी के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें श्री मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई और मुथु कुमारा पिल्लई द्वारा स्वरम पैटर्न के लिए अद्वितीय अदावु कोरियोग्राफी शामिल है। इसमें नौ या दस तंजौर चौकड़ी पाद-वर्णम के रूप में अत्यधिक सम्मानित टुकड़े भी शामिल हैं। इन कार्यों में पिल्लई की कोरियोग्राफी है, जिन्होंने नाटकीय नृत्यकला का नाम “हाथ” रखा और स्वरा मार्ग के लिए अदावु कोरियोग्राफी के लिए भी जिम्मेदार थे। उनकी विरासत का एक हिस्सा मूल्यवान जातिस्वरम (रागम वसंत, सवेरी, चक्रवाकम, कल्याणी, भैरवी) में है, जिसमें अमूर्त अदावु कोरियोग्राफी शामिल है।
3. वज़ुवूर शैली (वझावूर शैली)
वज़ुवूर शैली की उत्पत्ति तमिलनाडु के वज़ुवूर शहर के रमैया पिल्लई द्वारा की गई थी।
- यह शैली छोटे से गाँव वज़ुवूर में उत्पन्न हुई इसके अधिकांश प्रदर्शनों की शुरुआत इस गाँव के ग्राम देवता, ज्ञान सबेसा, की प्रार्थना से होती थी।
- पद्मा सुब्रमण्यम, एक प्रसिद्ध कलाकार और रमैया पिल्लई के शिष्यों में से एक हैं, जिन्हें उनके यथार्थवादी अभिनय के लिए जाना जाता है, जो इस शैली की प्रमुख विशेषता है।
- वज़ुवूर शैली में लास्य की अवधारणा सबसे महत्वपूर्ण है और यही इसे दूसरी शैलियों से अलग बनाती है।
- इस शैली का केंद्रबिंदु नृत्य के स्त्री-संबंधी पहलुओं पर आधारित है, जिसमें श्रृंगार रस का अधिक उपयोग किया जाता है।
- यथार्थवादी अभिनय इस शैली की प्रमुख विशेषताओं में से एक है।
4. मेलत्तूर शैली
भरत नाट्यम नृत्य के मेलत्तूर बानी का विस्तार काफी हद तक देवदासी प्रथाओं और मेलत्तूर भागवत मेले से हुआ था, इस शैली का श्रेय मंगुड़ी दोइरईराजा अय्यर को जाता है। उन्होंने कुचिपुड़ी से शुद्ध नृत्तम का नवीनीकरण किया जिसमें परिष्कृत टैपिंग फुटवर्क शामिल है जो विशिष्ट टेम्पो में अलग-अलग समय उपायों की जांच करता है, भट्टसा नाट्यम कलारीपयट्टू के समान और पेरानीनाट्यम, मिट्टी के बर्तन पर एक नृत्य। चेयूर सेंगलवरयार मंदिर की देवदासी द्वारा एक संगीत कार्यक्रम में भाग लेने के बाद मंगुडी को शुद्ध नृत्तम (एक शुद्ध नृत्य) में दिलचस्पी हो गई, जिन्होंने अन्य वस्तुओं के साथ शुद्ध नृत्य किया।
मेल्लतुर शैली अपने कोमल पद संचालन और श्रृंगार रस पर ज़ोर देने के लिए जानी जाती है। इस शैली के नर्तक फ़र्श पर पैरों को जोर से नहीं पटकते हैं, जिससे दर्शकों को संगीत की ताल और चलेंगा (घुंघरू) पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिलता है।
अन्य भरत नाट्यम गुरुओं के विपरीत, मंगुडी ने उन वस्तुओं को दरकिनार कर दिया, जो कवि के मानव संरक्षकों का महिमामंडन करते थे, क्योंकि इस तरह की वस्तुओं का प्रदर्शन श्रीविद्या उपासना की आध्यात्मिक प्रथाओं के प्रति उनकी वफादारी के साथ असंगत होगा। उनका मानना था कि केवल देवता या महान संत ही इस तरह के एपोथोसिस के योग्य थे। इस प्रकार, मेलत्तूर बानी के प्रदर्शन में अनिवार्य रूप से मंदिरों में किया जाने वाला प्राचीन नृत्य शामिल है।
मेलत्तूर शैली की नृत्यकला और अभिनय:
मेलात्तूर बानी फर्श के खिलाफ पैरों को जोर से दबाती है। इसके बजाय, नर्तक को पायल का उपयोग अधिक नाजुक तरीके से करने के लिए किया जाता है जो कई प्रकार की आवाज़ें पैदा करता है और लय को उजागर करता है। एक और विलक्षण विशेषता पंचानदई की उपस्थिति और गतिभेदों का व्यापक उपयोग है। उदाहरण के लिए, वर्णम में हर जाति में गतिभेदम होगा।
ब्रिस्क एडवस, फ्लुइड वेरिएशन या पैटर्न वाले कोरवाइस पर विशेष ध्यान दिया गया है। मेलत्तूर भागवत मेला के प्रभाव के कारण, शैली नाटकीय पहलुओं, यानी चरित्र चित्रण के बड़े पैमाने पर उपयोग की रचना करती है, जिसके लिए अत्यधिक अभिव्यंजक और नाजुक अभिनय की आवश्यकता होती है।
अन्य भरत नाट्यम बानी के विपरीत, मेलत्तूर शैली की नर्तकी के चेहरे के भावों का कठोरता से प्रतिनिधित्व नहीं किया जाता है। वे न तो अतिरंजित हैं और न ही नीचा दिखाया गया है, जिसके लिए उच्च स्तर के चिंतन और व्यक्तिगत सहजता की आवश्यकता होती है।
देवदासी प्रभाव के कारण, तटस्थ भक्ति रस के बजाय श्रृंगाररस पर जोर दिया जाता है। नृत्तभिनाय अधिकांश अन्य शैलियों से इस धारणा के विपरीत है कि प्रत्येक शरीर की गति को एक विशिष्ट चेहरे की अभिव्यक्ति में स्वचालित रूप से प्रतिध्वनित किया जाना है।
5. कलाक्षेत्र शैली
कलाक्षेत्र फाउंडेशन, पूर्व कलाक्षेत्र, एक भारतीय कला और सांस्कृतिक संस्थान है जो भरतनाट्यम के क्षेत्र में पारंपरिक मूल्यों को संरक्षित और बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध है। चेन्नई में स्थित, संस्थान की स्थापना “रुक्मिणी देवी अरुंडेल” और उनकी जॉर्ज अरुंडेल ने की थी। अरुंडेल के निर्देशन में, फाउंडेशन ने अपनी अनूठी शैली और पूर्णतावाद के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पहचान हासिल की।
रुकीमिदेवी अरुंडेल ने भरत नाट्यम के पंडानल्लूर शैली के श्रद्धेय गुरुओं के अधीन तीन साल तक पंडानल्लूर शैली का अध्ययन किया। इसके बाद, उन्होंने समूह प्रदर्शन किया और विभिन्न भरतनाट्यम-आधारित बैले का मंचन किया।
कलाक्षेत्र शैली की नृत्यकला और अभिनय:
कलाक्षेत्र बानी अपने कोणीय, सीधे, बैले की तरह कीनेस्थेटिक्स, और रेचकों के प्रतिबंध और अंगों के निर्बाध आंदोलन के लिए विख्यात है। अन्य शैलियों की तुलना में, कलाक्षेत्र शैली में एडवस की एक विस्तृत श्रृंखला का उपयोग नहीं किया गया है।
भरतनाट्यम में वेशभूषा और आभूषण
भारतीय शास्त्रीय नृत्य की वेशभूषा और आभूषण राज्य के आधार पर भिन्न भिन्न होते हैं। वेशभूषा अभिव्यक्ति का एक रूप है, और हालाँकि मूल वेशभूषा शैली समान होती है, एक कलाकार को नृत्य में चित्रित पात्र को उजागर करने के लिए वस्तुओं और रंगमंच-सामग्री को जोड़ने की स्वतंत्रता होती है।
वेशभूषा, आभूषण और श्रृंगार भरतनाट्यम में आहार्य अभिनय का एक भाग हैं।
इस कला शैली की वेशभूषाओं और आभूषणों में पिछले कुछ वर्षों में कई बदलाव आए हैं।
सादिर अट्टम के समय से, साड़ी मूल वस्त्र था जिसे देवदासियों द्वारा नृत्य प्रदर्शन के समय पहना जाता था। उनकी साड़ी पायजामें के रूप में होती थी और साड़ी का पल्लू पंखे (विसरी) जैसा बनाया जाता था, जो आज भी वेशभूषा का एक अभिन्न अंग है।
तमिलनाडु की देवदासियाँ स्वयं को कीमती पत्थरों से जड़े शुद्ध सोने से बने आभूषणों से सजाती थीं। ये अक्सर उन्हें उनके संरक्षकों द्वारा उनकी सेवाओं के बदले में दिए जाते थे। जल्द ही, आभूषण केवल देवदासियों के लिए उनकी वेशभूषा का भाग ही नहीं थे, बल्कि यह उनका धन, शक्ति और समृद्धि के प्रतीक थे और उनकी आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करते थे। इसके परिणामस्वरूप, देवदासियाँ प्रदर्शन करते समय उनके पास मौजूद सभी आभूषणों को पहन लिया करती थीं।
आज, भरतनाट्यम एक नृत्य के रूप में अधिक संरचित और अनुशासित है। यह इसकी वेशभूषा के साथ-साथ आभूषणों में भी दिखाई देता है। वर्तमान समय में सबसे आम वेशभूषा कांचीपुरम रेशम से बना पाँच हिस्सों वाला वस्त्र है, जिसमें ब्लाउज़ (रविक्कई), पायजामा/पैंट (कलकच्छी), ऊपरी शरीर को ढकने वाला वस्त्र (मेलक्कू/धवानी), पीठ का वस्त्र (इडुप्पु कच्छई) और, विशिष्ट घटक, पंखा (विसरी) शामिल हैं।
इस वेशभूषा में भिन्नताएँ हो सकती हैं, जिसमें पैंट की जगह, पंखे के साथ संलग्न तहों (प्लीटों) वाला लंबा घाघरा (स्कर्ट) पहना जा सकता है। वेशभूषा का एक और प्रकार, वांछित लंबाई में एक आधी-सिली साड़ी, है।
पुरुष नर्तक, जिनका हालाँकि ऊपरी शरीर ज्यादातर खुला होता है, एक अंगवस्त्रम (ऊपरी आवरण) का उपयोग कर सकते हैं। पोशाक के अन्य तत्वों में पायजामा/पैंट, पीठ का वस्त्र, पंखा और वास्कट शामिल हैं।
भरतनाट्यम नर्तकियों द्वारा पहने गए आभूषण तमिलनाडु में तंजावुर के क्षेत्र की विशेषता हैं। नर्तकी अपने बालों की बेनी बनाती है और उसमे बहुत सारे मल्लिपू (चमेली के फूल) और कनकंबरम (नारंगी और पीले फूल) लगाती है।
नर्तकी के बालों को राककोटी कुंजलम के साथ सजाया जाता है, जो आमतौर पर तंजावुर की महिलाओं द्वारा पहना जाता है।
आभूषण सिर, नाक, कान, गर्दन, हाथ, उंगलियों, कमर और पैरों में पहने जाते हैं
- सिर – सूर्य चंद्रन और नेत्री चुट्टी
- नाक – मुकुथी, नथू
- कान – जिमीक्की, टोडू, मट्टल
- गर्दन – चोकर (पड़कम, मंगई मलाई) और लंबा हार (मुथुमलाई, कसुमलई)
- हाथ – वलयाल, वंगी
- उंगली – मोदीरम
- कमर – ओट्टियानम
- पैर – घुंघरू
इनके अलावा, चित्रित किए गए पात्रों से संबंधित कुछ आभूषणों का उपयोग, अभिनय और कहानी को बेहतर रूप से बताने के लिए किया जा सकता है।
भरतनाट्यम एक कला के रूप में, शैली, वेशभूषा और आभूषणों के संबंध में, वर्षों से विकसित हुआ है। मंदिर परिसर से बाहर दुनिया भर के मंचों तक, भरतनाट्यम भारत के सबसे व्यापक रूप से ज्ञात शास्त्रीय नृत्यों में से एक है। इसने अन्य राष्ट्रों के युवा छात्रों को भी आकर्षित किया है जो इस कला शैली की जटिलताओं को सीखने और ज्ञान प्राप्त करने के लिए आते हैं।
भरतनाट्यम की विशेषताएं
भरतनाट्यम से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं और शब्दों का वर्णन नीचे किया गया है-
- भरतनाट्यम के तीन महत्वपूर्ण तत्व नृत्त, नृत्य और नाट्य हैं। (इनके बारे में इस लेख में चर्चा की जा चुकी है।)
- यह नृत्य रूप स्त्री और पुरुष दोनों द्वारा किया जाता है।
- पहने जाने वाले परिधान चमकीले रंग के होते हैं। महिलाएं साड़ी पहनती हैं और पुरुष धोती पहनते हैं।
- बहुत सारे मेकअप और चमकीले गहनों का उपयोग किया जाता है, जो कलाकारों के चेहरे के भाव और हावभाव को निखारते हैं।
- कर्नाटक शास्त्रीय संगीत में इस्तेमाल किया जाने वाला संगीत, बांसुरी, वायलिन और मृदंगम जैसे वाद्ययंत्रों के साथ। आम तौर पर दो गायक होते हैं, एक गाना गाने के लिए, और दूसरा (आमतौर पर कलाकार के गुरु), लयबद्ध पैटर्न (नट्टुवंगम) का पाठ करने के लिए।
- भरतनाट्यम में प्रयुक्त इशारों को हस्त या मुद्रा कहा जाता है।
- इस नृत्य रूप में प्रतीकात्मकता बहुत है।
- नृत्य में योग में पाए जाने वाले कई आसन भी शामिल हैं।
- भरतनाट्यम की मुद्राओं को करण कहा जाता है।
- एकहार्य या एकचार्य लास्यम शैली भरतनाट्यम् की एक प्रमुख विशेषता है, जहां नर्तकी एकल प्रस्तुति में अनेक भूमिकाएं करती है।
- एक पारंपरिक भरतनाट्यम पाठ में प्रस्तुतियों की एक श्रृंखला शामिल होती है, और पूरे सेट को मार्गम कहा जाता है।
- प्रसिद्ध “तंजौर चौकड़ी” (Tanjore quartet) के अंतर्गत, यह तंजौर नाट्यम के रूप में भी प्रसिद्ध हुआ।
- तांडव और लास्य को प्रमुख विशिष्ट मुद्राओं के साथ समान रूप से महत्व दिया जाता है।
- ‘कथा मुख हस्त’ इसकी मुख्य मुद्राओं में से एक है, जिसमे तीन उँगलियों को जोड़ कर इसकी मुख्य मुद्रा ‘ओम’ (ॐ) के प्रतीक को प्रदर्शित किया जाता है।
- प्रस्तुति के समय, नर्तक अपने दोनों घुटनों को इस प्रकार मोड़ते हैं जिससे उनका भार समान रूप से उनके दोनों पैरों के मध्य विभाजित हो जाता है।
- विदित है कि यह मानव शरीर में अग्नि का प्रतिनिधित्व करता है, अतः इसे ‘अग्नि नृत्य’ के रूप में भी उल्लेखित किया जाता है
भरतनाट्यम की वर्तमान समय में स्थिति
- भरतनाट्यम अब पूरी दुनिया में बहुत लोकप्रिय है।
- भारत में कई बच्चे इस कला को सीखते हैं, और देश के हर हिस्से में डांस स्कूल फलते-फूलते हैं।
सबसे लोकप्रिय समकालीन भरतनाट्यम कलाकारों में से कुछ नीचे सूचीबद्ध हैं:
- मृणालिनी साराभाई,
- शोभना,
- यामिनी कृष्णमूर्ति,
- पद्मा सुब्रह्मण्यम,
- चित्रा विश्वेश्वरन, आदि।
भारत की नृत्य शैलियाँ समय के साथ विकसित हुई हैं और तेज़ी से बदलते वातावरण में इन्होनें अपने अस्तित्व को बनाए रखा है और यही भरतनाट्यम के साथ भी हुआ है। आज यह केवल कर्नाटक संगीत पर ही नहीं बल्कि अन्य प्रकार के गीतों पर भी किया जाता है, जो विभिन्न संस्कृतियों का समागम प्रदर्शित करता है। मूल रूप से एकल नृत्य के रूप में किया जाने वाला भरतनाट्यम, आज समाज, विज्ञान और संस्कृति से संबंधित विभिन्न विषयों पर सामूहिक प्रदर्शन के रूप में भी किया जाता है। इन सभी परिवर्तनों के बावजूद, इस नृत्य शैली का सार कभी नहीं बदला।
Frequently Asked Questions (FAQ)
1. भरतनाट्यम के जनक कौन थे?
भरतनाट्यम (तमिलनाडु) भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से जन्मी इस नृत्य शैली का विकास तमिलनाडु में हुआ। मंदिरों में देवदासियों द्वारा शुरू किये गए इस नृत्य को 20वीं सदी में रुक्मिणी देवी अरुंडेल और ई. कृष्ण अय्यर के प्रयासों से पर्याप्त सम्मान मिला।
2. भरतनाट्यम नृत्य की उत्पत्ति कैसे हुई?
भरतनाट्यम को नृत्य का सबसे पुराना रूप माना जाता है और यह शैली भारत में शास्त्रीय नृत्य की अन्य सभी शैलियो की माँ है। शास्त्रीय भारतीय नृत्य भरतनाट्यम की उत्पत्ति दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के मंदिरो की नर्तकियों की कला से हुई। भरतनाट्यम पारंपरिक सादिर और अभिव्यक्ति, संगीत, हरा और नृत्य के संयोजन से नृत्य का रूप है।
3. भरतनाट्यम नृत्य का प्राचीन नाम क्या था?
भारत के अधिकांश शास्त्रीय नृत्य, जो पूर्णत: नाट्य शास्त्र पर आधारित हैं, उनकी उत्पत्ति दक्षिण भारत के मंदिरों, विशेषकर तमिलनाडु में हुई थी। यह देवदासियों द्वारा किया जाता था, इस प्रकार इसे ‘दसियट्टम‘ के नाम से भी जाना जाता था। यह लगभग 2000 वर्ष पुराना माना जाता है, भरतनाट्यम के बारे में जानकारी भरत मुनि के नाट्यशास्त्र सहित कई प्राचीन ग्रंथों में मिल सकती है। भरतनाट्यम के पूर्ववर्ती नृत्य रूप को ‘सदिर अट्टम‘ या ‘थेवरट्टम‘ कहा जाता है।
4. भरतनाट्यम के देवता या भगवान कौन हैं?
भरतनाट्यम अपनी कृपा, पवित्रता, कोमलता और मूर्तिकला मुद्रा के लिए मनाया जाता है। भगवान शिव को इस शास्त्रीय नृत्य का देवता माना जाता है। आज, यह दुनिया भर में पुरुष और महिला कलाकारों द्वारा प्रचलित सबसे प्रचलित और व्यापक रूप से प्रदर्शित नृत्य शैली है।
5. भरतनाट्यम में घुंघरू का क्या महत्व है?
घन वाद्य के अंतर्गत आने वाले वाद्य घुँघरू पारंपरिक, यानी शास्त्रीय नृत्य का एक आवश्यक घटक है, ये मुख्य रूप से लयबद्ध होते हैं तथा इसमें विशेष ट्यूनिंग (tuning) की आवश्यकता नहीं होती है। घुँघरू पहनने का उद्देश्य पैरों की हरकत के अनुसार ध्वनि को उत्पन्न करना होता है।
6. भरतनाट्यम के लिए कौन प्रसिद्ध है?
कलामंडलम कल्याणीकुट्टी: कलामंडलम कल्याणीकुट्टी अम्मा दक्षिण भारत में केरल की एक युगांतरकारी मोहिनीअट्टम नृत्यांगना थीं। सोनल मानसिंह: सोनल मानसिंह एक भारतीय शास्त्रीय नर्तकी और गुरु भरतनाट्यम और ओडिसी नृत्य शैली हैं। यामिनी कृष्णमूर्ति: मुंगरा यामिनी कृष्णमूर्ति भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी नृत्य की एक भारतीय नर्तकी हैं।
7. भरतनाट्यम की विख्यात नृत्यांगना कौन है?
सोनल मानसिंह भारत सरकार ने 1992 में कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। ये दिल्ली से हैं। सोनल मानसिंह (जन्म 30 अप्रैल, 1944) एक भारतीय शास्त्रीय नर्तक और गुरु भरतनाट्यम और ओडिसी नृत्य शैली हैं; जो अन्य भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैली में भी कुशल है।
8. भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी नृत्य में क्या अंतर है?
भरतनाट्यम नाट्यधर्मी (नाटकीय) शैली की अभिव्यक्ति है, जबकि कुचिपुड़ी लोकधर्मी (प्राकृतिक भाव) का अनुसरण करते हैं। नृत्य कभी-कभार संवाद बोलते हुए कुचिपुड़ी नृत्य में पाया जाता है लेकिन भरतनाट्यम में नहीं। पीतल की थाली के किनारों पर पैर रखकर नृत्य करना भरतनाट्यम की विशेषता है लेकिन कुचिपुड़ी नृत्य में इस तरह की हरकत नहीं होती है।
9. कथक, भरतनाट्यम, कथककली और कुचिपुड़ी में क्या अंतर है?
भरतनाट्यम, कथकली और कुचिपुड़ी दक्षिण भारत के नृत्य रूप हैं। भरतनाट्यम तमिलनाडु से, कुचिपुड़ी आंध्र प्रदेश से जबकि कथकली दक्षिणी राज्य केरल से संबंधित है। ये सभी रूप कर्नाटक संगीत का उपयोग करते हैं। कथक उत्तर भारत से है। यह शास्त्रीय संगीत की हिंदुस्तानी शैली का अनुसरण करता है। भरतनाट्यम नाट्यधर्मी (नाटकीय) शैली की अभिव्यक्ति है, जबकि कुचिपुड़ी लोकधर्मी (प्राकृतिक भाव) का अनुसरण करते हैं। प्रत्येक शैली की वेशभूषा एक दूसरे से भिन्न होती है। कथकली में पोशाक अधिक विस्तृत है और मेकअप में अधिक समय लगता हैं। कथकली में अलग-अलग पात्रों के लिए सात अलग-अलग मेक अप स्टाइल हैं। यह महाभारत और रामायण की कहानियों को दर्शाती एक नृत्य नाटिका परंपरा है।