जीवन परिचय
बाल-साहित्य के सफलतम साहित्यकार जयप्रकाश भारती का जन्म सन् 1936 ई० में उत्तर प्रदेश के मेरठ नगर में हुआ था। इनके पिता श्री रघुनाथ सहाय, एडवोकेट मेरठ के पुराने कांग्रेसी और समाजसेवी रहे। भारती ने मेरठ में ही बी0 एस-सी0 तक अध्ययन किया।
इन्होंने छात्र जीवन में ही अनेक समाजसेवी संस्थाओं में प्रमुख रूप से भाग लेना आरम्भ कर दिया था। मेरठ में साक्षरता प्रसार के कार्य में इनका उल्लेखनीय योगदान रहा तथा वर्षों तक इन्होंने निःशुल्क प्रौढ़ रात्रि-पाठशाला का संचालन किया।
इन्होंने ‘सम्पादन कला विशारद’ करके ‘दैनिक प्रभात’ (मेरठ) तथा ‘नवभारत टाइम्स’ (दिल्ली) में पत्रकारिता का व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। साक्षरता निकेतन (लखनऊ) में नवसाक्षर साहित्य के लेखन का इन्होंने विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया।
हिन्दी के पत्रकारिता जगत् और किशोरोपयोगी वैज्ञानिक साहित्य के क्षेत्र को इनसे बहुत आशाएँ थीं। 5 फरवरी, सन् 2005 ई0 को इस साहित्यकार का निधन हो गया।
रचनाएँ
इनकी अनेक पुस्तकें यूनेस्को एवं भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत हुई हैं। ‘हिमालय की पुकार’, ‘अनन्त आकाश : अथाह सागर’ (यूनेस्को द्वारा पुरस्कृत), ‘विज्ञान की विभूतियाँ’, ‘देश हमारा देश’, ‘चलो चाँद पर चलें’ (भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)।
अन्य प्रकाशित पुस्तकें हैं— ‘सरदार भगत सिंह’, ‘हमारे गौरव के प्रतीक’, ‘अस्त्र-शस्त्र आदिम युग से अणु युग तक’, ‘उनका बचपन यूँ बीता’, ‘ऐसे थे हमारे बापू’, ‘लोकमान्य
तिलक’, ‘बर्फ की गडिया’, ‘संयक्त राष्ट संघ’. ‘भारत का संविधान’. ‘दनिया रंग-बिरंगी’ आदि।
साहित्यिक परिचय
एक सफल पत्रकार तथा सशक्त लेखक के रूप में हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने की दृष्टि से भारतीजी का उल्लेखनीय योगदान रहा। इन्होंने नैतिक, सामाजिक एवं वैज्ञानिक विषयों पर लेखनी चंलाकर बाल-साहित्य को अत्यधिक समृद्ध बना दिया है।
ये लगभग सौ पुस्तकों का सम्पादन भी कर चुके हैं, जिनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं— ‘भारत की प्रतिनिधि लोककथाएँ’ तथा ‘किरण माला’ (3 भाग)। अनेक वर्षों तक ये ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में सह-सम्पादक रहे।
इन्होंने सुप्रसिद्ध बाल पत्रिका ‘नंदन’ (हिन्दुस्तान टाइम्स द्वारा संचालित, दिल्ली) का सम्पादन भी किया है। इनके लेख, कहानियाँ, रिपोर्ताज सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं। रेडियो पर भी इनकी वार्ताओं तथा रूपकों का प्रसारण हुआ है।
भाषा शैली
भारतीजी की भाषा सरल और शैली रोचक है। विज्ञान की जानकारी को साधारण जनता और किशोर मानस तक पहुँचाने के लिए ये वर्णन को रोचक और नाटकीय बनाते हैं। आवश्यकता के अनुसार विज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग भी इनके लेखों में होता है, फिर भी जटिलता नहीं आने पाती।
इनकी शैली में वर्णनात्मकता और चित्रात्मकता का मेल बना रहता है। भारतीजी वैज्ञानिक प्रसंगों का यथावश्यक विवरण भी अपने लेखों में प्रस्तुत करते हैं। पर नीरसता नहीं आने देते। यथावश्यक कवित्व का पुट देकर ये अपने निबन्धों को सरस बनाते हैं, साथ ही विज्ञान की यथार्थता की रक्षा भी करते हैं। वैज्ञानिक विषयों का हिन्दी में ढालने के लिए इन्होंने एक मार्ग दिखलाया है।
प्रस्तुत निबन्ध ‘पानी में चंदा और चाँद पर आदमी‘ में विचार-सामग्री, विवरण और इतिहास के साथ एक रोमांचक कथा का आनन्द प्राप्त होता हा लेखक ने पृथ्वी और चन्द्रमा की दूरी, चन्द्रयान और उसको ले जानेवाले अन्तरिक्ष यान तथा चन्द्रतल के वातावरण का सजीव परिचय प्रस्तुत किया है तथा अन्तरिक्ष-यात्रा का संक्षिप्त इतिहास भी प्रस्तुत किया है। चन्द्रमा के विषय में प्रचलित कवि-कल्पना और लोक-विश्वासों के साथ वैज्ञानिक सत्य का मिलान करने पर कितना अन्तर दिखायी पड़ता है, यह तथ्य इस निबन्ध से स्पष्ट हो जाता है।
पानी में चंदा और चाँद पर आदमी
दुनिया के सभी भागों में स्त्री-पुरुष और बच्चे रेडियो से कान सटाये बैठे थे, जिनके पास टेलीविजन थे, वे उसके पर्दे पर आँखें गड़ाये थे। मानवता के सम्पूर्ण इतिहास की सर्वाधिक रोमांचक घटना के एक-एक क्षण के वे भागीदार बन रहे थे—उत्सुकता और कुतूहल के कारण अपने अस्तित्व से ही बिल्कुल बेखबर हो गये थे। युग-युग से किस देश और जाति ने चन्द्रमा पर पहुँचने के सपने नहीं सँजोये—आज इस धरा के ही दो मानव उन सपनों को सच कर दिखाने के लिए कृत-संकल्प थे।
सोमवार 21 जुलाई, 1969 को बहुत सबेरे ईगल नामक चन्द्रयान नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन को लेकर चन्द्रतल पर उतर गया। चन्द्रयान धूल उड़ाता हुआ चन्द्रमा के जलविहीन ‘शान्ति सागर’ में उतरा। भारतीय समय के अनुसार एक बजकर, सैंतालीस मिनट पर किसी अन्य ग्रह पर मानव पहली बार पहुँचा। असीम अन्तरिक्ष को चीरते हुए पृथ्वी से चार लाख किलोमीटर दूर चन्द्रमा पर पहुँचने में मानव को 102 घण्टे, 45 मिनट और 42 सेकण्ड का समय लगा।
अपोलो-11 को केप केनेडी से बुधवार 16 जुलाई, 1969 को छोड़ा गया था। इसमें तीन यात्री थे— कमाण्डर नील आर्मस्ट्रांग, माइकल कालिन्स और एडविन एल्ड्रिन। चन्द्रमा की कक्षा में चन्द्रयान मूल यान कोलम्बिया से अलग हो गया और फिर चन्द्रतल पर उतर गया, उस समय माइकल कालिन्स मूल यान में 96 किलोमीटर की ऊँचाई पर निरन्तर चन्द्रमा की परिक्रमा कर रहे थे।
नील आर्मस्ट्रांग ने चन्द्रतल से पृथ्वी का वर्णन करते हुए कहा कि यह बहुत बड़ी चमकीली और सुन्दर (बिग ब्राइट एण्ड ब्यूटीफुल) दिखायी दे रही है। एल्ड्रिन ने भाव-विभोर होकर कहा-सुन्दर दृश्य है, सब कुछ सुन्दर है। उसने कहा कि जहाँ हम उतरे हैं, उससे कुछ ही दूरी पर हमने बैंगनी रंग की चट्टान देखी है। चन्द्रमा की मिट्टी और चट्टानें सूर्य की रोशनी में चमक रही हैं। यही एक भव्य एकान्त स्थान है।
चन्द्रयान ठीक स्थिति में है, यह निरीक्षण करके, कुछ खा-पीकर और सुस्ता लेने के बाद नील आर्मस्ट्रांग चन्द्रयान से बाहर निकले। चन्द्रयान की सीढ़ियों से धीरे-धीरे वह नीचे उतरे। उन्होंने अपना बायाँ पाँव चन्द्रतल पर रखा, जबकि दायाँ पाँव चन्द्रयान पर ही रहा। इस बीच आर्मस्ट्रांग दोनों हाथ से चन्द्रयान को अच्छी तरह पकड़े रहे। उन्हें यह तय कर लेना था कि वैज्ञानिक चन्द्रतल को जैसा समझते रहे हैं, वह उससे एकदम भिन्न तो नहीं है। आश्वस्त होने के बाद, वह यान के आस-पास ही कुछ कदम चले। चन्द्रतल पर पांव रखते हुए उन्होंने कहा—यद्यपि यह मानव का छोटा-सा कदम है, लेकिन मानवता के लिए बहुत ही ऊँची छलाँग है।
अभी तक एल्ड्रिन भले ही भीतर बैठा हो, लेकिन वह निष्क्रिय नहीं था। उसने मूवी कैमरे से आर्मस्टांग के चित्र लेने शुरू कर दिये थे। बीस मिनट बाद ही एडविन एल्डिन भी चन्द्रयान से बाहर निकले। उन्होंने भी चन्द्रतल पर चलकर देखा। तब तक आर्मस्ट्रांग चन्द्रधूल का एक तात्कालिक नमूना जेब में रख चुके थे। अब उन्होंने टेलीविजन कैमरे को त्रिपाद पर जमा दिया।
अरबों डालर खर्च करके मानव चन्द्रतल पर पहुंचा था, उसे अपने सीमित समय में एक-एक क्षण का उपयोग करना था। दोनों चन्द्र-विजेताओं को चन्द्रमा की चट्टानों तथा मिट्टी के नमूने लेने थे। कई तरह के उपकरण भी वहाँ स्थापित करने थे, जो बाद में भी पृथ्वी पर वैज्ञानिक जानकारी भेजते रह सकें।
इन चन्द्र-विजेताओं ने चन्द्रतल पर भूकम्पमापी यंत्र स्थापित किया और लेसर परावर्तक रखा। इन्होंने एक धातु फलक, जिन पर तीनों यात्रियों और अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के हस्ताक्षर थे, वहाँ रखा। धातु-फलक पर खुदे शब्दों को आर्मस्ट्रांग ने जोर से पढ़ा- “जुलाई, 1969 में पृथ्वी ग्रह के मानव चन्द्रमा के इस स्थान पर उतरे। हम यहाँ सारी मानव जाति के लिए शान्ति की कामना लेकर आये।”
दोनों चन्द्र-यात्रियों ने अमेरिकी ध्वज चन्द्रतल पर फहरा दिया। वायु न होने के कारण इस ध्वज को इस तरह बनाया गया था कि स्प्रिंग की सहायता से यह फैला हुआ ही रहे। विभिन्न राष्ट्रध्वजों के सन्देशों की माइक्रो फिल्म भी उन्होंने चन्द्रतल पर छोड़ दी। दो रूसी अन्तरिक्ष यात्रियों (यूरी गागरिन और एम0 के0 मोरोव) को मरणोपरन्त दिये पदक और तीन अमेरिकी अन्तरिक्ष यात्रियों (ग्रिसम, हाट और शैफी) को दिये गये पदकों की अनुकृतियाँ वहाँ रखीं।
अपने व्यस्त कार्यक्रम को पूरा करने में चन्द्र-यात्रियों को थकान हो जानी स्वाभाविक थी, लेकिन फिर भी वे बड़े प्रसन्न थे। आरम्भ में वे बड़ी सावधानी के साथ एक-एक कदम रख रहे थे लेकिन बाद में वे कंगारुओं की तरह उछल-उछलकर चलते देखे गये।
मानव को चन्द्रमा पर उतारने का यह सर्वप्रथम प्रयास होते हुए भी असाधारण रूप से सफल रहा, यद्यपि हर क्षण, हर पग पर खतरे थे। चन्द्रतल पर मानव के पाँव के निशान उसके द्वारा वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र में की गयी असाधारण प्रगति के प्रतीक हैं। जिस क्षण डगमग-डगमग करते मानव के पग उस धूलि-धूसरित अनछुई सतह पर पड़े तो मानो वह हजारों-लाखों साल से पालित-पोषित सैकड़ों अन्धविश्वासों तथा कपोल-कल्पनाओं पर पद-प्रहार ही हुआ। कवियों की कल्पना के सलोने चाँद को वैज्ञानिकों ने बदसूरत और जीवनहीन करार दे दिया-भला अब चन्द्रमुखी कहलाना किसे रुचिकर लगेगा।
हमारे देश में ही नहीं, संसार की प्रत्येक जाति ने अपनी भाषा में चन्द्रमा के बारे में कहानियाँ गढ़ी हैं और कवियों ने कविताएँ रची हैं। किसी ने उसे रजनीपति माना तो किसी ने उसे रात्रि की देवी कहकर पुकारा। किसी विरहिणी ने उसे अपना दूत बनाया तो किसी ने उसके पीलेपन से क्षुब्ध होकर उसे बूढ़ा और बीमार ही समझ लिया। बालक श्रीराम चन्द्रमा को खिलौना समझकर उसके लिए मचलते हैं तो सूर के श्रीकृष्ण भी उसके लिए हठ करते हैं। बालक को शान्त करने के लिए एक ही उपाय था- चन्द्रमा की छवि को पानी में दिखा देना। लेकिन मानव की प्रगति
का चक्र कितना घूम गया है। इस लम्बी विकास-यात्रा को श्रीमती महादेवी वर्मा ने एक ही वाक्य में बाँध दिया है- “पहले पानी में चंदा को उतारा जाता था और आज चाँद पर मानव पहँच गया है।”
मानव मन सदा से ही अज्ञात के रहस्यों को खोलने और जानने-समझने को उत्सुक रहा है। जहाँ तक वह नहीं पहुँच सकता था, वहाँ वह कल्पना के पंखों पर उड़कर पहुंचा। उसकी अनगढ़ और अविश्वसनीय कथाएँ उसे सत्य के निकट पहुंचाने में प्रेरणा-शक्ति का काम करती रहीं।
अन्तरिक्ष युग का सूत्रपात 4 अक्टूबर, 1957 को हुआ था, जब सोवियत रूस ने अपना पहला स्पुतनिक छोड़ा। प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बनने का गौरव यूरी गागरिन को प्राप्त हुआ। अन्तरिक्ष युग के आरम्भ के ठीक 11 वर्ष 9 मास 17 दिन बाद चन्द्रतल पर मानव उतर गया।
दिसम्बर, 1968 में पहली बार अपोलो-8 के तीनों अंतरिक्ष यात्री चन्द्रमा के पड़ोस तक पहुँचे थे। बीच की अवधि में रूस और अमेरिका दोनों ही देशों ने अनेक अन्तरिक्ष यान छोड़े। इनमें कुछ स-मानव यान थे और कुछ मानव-रहित। इसे मानव का साहस कहें या दुस्साहस कि उसने अन्तरिक्ष में पहुँचकर यान से बाहर निकल अनन्त अन्तरिक्ष में विचरण भी शुरू कर दिया। अन्तरिक्ष में परिक्रमा करते दो यानों को जोड़ने और एक यान से दूसर यान में यात्रियों के चले जाने के चमत्कारी करतब भी किये गये। अपोलो-11 द्वारा चन्द्रविजय से पूर्व मानो–अपोलो-10 के द्वारा इस नाटक का पूर्वाभिनय ही किया गया था। इसके तीन यात्री अन्तरिक्ष यान को चन्द्रमा की कक्षा में ले गये थे। एक यात्री मूल यान को कक्षा में घुमाता रहा था और अन्य दो यात्री चन्द्रयान में बैठकर उसे चन्द्रमा से केवल 9 मील की दूरी तक ले गये थे। इन्होंने चन्द्र-विजेताओं के उतरने के सम्भावित स्थल का अध्ययन किया और अनेक चित्र खींचे थे। चन्द्रयान को मूल यान से जोड़ा और फिर सकुशल पृथ्वी पर लौट आये।
मानव को चन्द्रतल तक ले जाने और लौटा लाने वाले यान के बारे में भला कौन नहीं जानना चाहेगा। अपोलो यान-सैटर्न-5 राकेट से प्रक्षेपित किया जाता है। वह विश्व का सबसे शक्तिशाली वाहन है। अन्तरिक्ष यान के तीन भाग होते हैं या इन्हें तीन माड्यूल कह सकते हैं।
कमाण्ड माड्यूल का निर्माण इस दृष्टि से किया जाता है कि वापसी के समय पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते समय तीव्र ताप और दबावों को सहन कर सके। नियन्त्रण कक्ष, शयनागार, भोजनकक्ष और प्रयोगशाला-इन सबका मिला-जुला रूप ही यह माड्यूल होता है। प्रक्षेपण के समय यदि कोई दुर्घटना हो जाये तो यात्री अपने बचाव के लिए इसे शेष यान से पृथक् कर सकते हैं। पुनः प्रवेश के लिए बने कमाण्ड कैप्सूल का वजन 5500 किलोग्राम था। इसमें लगभग साढ़े पाँच घन मीटर खाली स्थान था, जहाँ कि तीनों यात्री अपने सामान्य कार्य सम्पन्न कर सकें। इस
स्थान को हम औसत दर्जे की कार जितना मान सकते हैं। कैप्सूल जब तैयार होता है, उस समय इसमें पाँच विद्युत बैटरियाँ होती हैं और 12 राकेट इन्जन जुड़े होते हैं। तीन आदमियों के लिए चौदह दिन की खाद्य सामग्री और पानी के भण्डार एवं मल के निष्कासन की व्यवस्था रहती है। इसमें पैराशूट भी रहते हैं। यात्रियों को बिना चोट पहुंचाये, यह कड़ी-से-कड़ी जमीन पर उतर सकता है।
अन्तरिक्ष यान का दूसरा भाग होता है सर्विस माड्यूल—यह औसतन आकार के ट्रक जितना होता है। इसमें दस लाख किलोमीटर की यात्रा करने के लिए पर्याप्त ईंधन था और 14 दिन तक तीन यात्रियों के साँस लेने लायक प्राण-वायु की व्यवस्था थी। यान को चन्द्र कक्षा में स्थापित करने के लिए उसकी गति कम करनी पड़ती है और सर्विस माड्यूल के शक्तिशाली राकेट मोटर दागकर ही ऐसा किया जाता है।
चन्द्रयान यानी अपोलो-11 का ईगल अन्तरिक्ष यान का एक भाग होते हुए भी अपने में पूर्ण था। इसमें दो खण्ड थे—अवरोह भाग और आरोह भाग। अवरोह भाग में 8200 किलो प्राणोदक था, जिससे 4500 किलो प्रघात के इन्जन को चलाया जा सके। चालकों के साँस लेने के लिए आक्सीजन गैस, पीने का पानी, चन्द्रतल पर यान को ठण्डा रखने की व्यवस्था की गयी थी। चन्द्रयान की सभी टाँगें समतल पर टिकनी आवश्यक नहीं, यह आड़ा-तिरछा भी खड़ा हो सकता है। अवरोही भाग में चार रेडियो रिसीवर, ट्रांसमीटर, बैटरियाँ, मूल यान से और पृथ्वी से संचार-व्यवस्था कायम रखने के लिए सात एरियल लगे थे। ईगल के दोनों भाग किसी भी समय अलग किये जा सकते थे। चन्द्रतल से वापसी के समय चन्द्रयान का नीचे का भाग प्रक्षेपण यन्त्र का काम देता है और उसे चन्द्रतल पर ही छोड़ दिया गया।
नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन ने चन्द्रतल पर 21 घंटे, 36 मिनट बिताये। चन्द्रतल पर इन दो यात्रियों ने पाँवों के ऐसे निशान छोड़े जैसे कि किसी हल चलाये खेत में पड़ जाते हैं। उन्होंने लाखों डालर का सामान भी वहीं छोड़ दिया।
दोनों चन्द्र-विजेताओं ने ऊपरी भाग में उड़ान भरकर चन्द्रकक्ष में परिक्रमा करते हुए मूल यान से अपने यान को जोड़ा। फिर वे दोनों यात्री अपने साथी माइकल कालिन्स से आ मिले। अब चन्द्रयान को अलग कर दिया गया और उसके कक्ष में ही छोड़ दिया गया। इंजन दागकर यात्री वापसी के लिए पृथ्वी के मार्ग पर बढ़ चले। ये यात्री प्रशान्त महासागर में उतरे।
इन यात्रियों को सीधे चन्द्र प्रयोगशाला में ले जाया गया। कई सप्ताह किसी से मिलने-जुलने नहीं दिया गया। उनके अनुभव रिकार्ड किये गये। वैज्ञानिकों को यह भी जाँच करनी थी कि ये यात्री ऐसे कीटाणु तो अपने साथ नहीं ले आये, जो मानव जाति के लिए घातक हों। उन यात्रियों के द्वारा लायी गयी धूल और चन्द्र-चट्टानों के नमूनों का अनुसंधान और प्रयोग करने के लिए विभिन्न देशों के विशेषज्ञों को सौंप दिया
अपोलो-11 की सफलता के पश्चात् अमेरिका ने अपोलो-12 में भी तीन यात्रियों को चन्द्रतल पर खोज करने के लिए भेजा। इसके बाद अपोलो-13 की यात्रा दुर्घटनावश बीच में ही स्थगित करनी पड़ी।
अभी चन्द्रमा के लिए अनेक उड़ानें होंगी। दूसरे ग्रहों के लिए मानवरहित यान छोड़े जा रहे हैं। अन्तरिक्ष में परिक्रमा करने वाला स्टेशन स्थापित करने की दिशा में तेजी से प्रयत्न किये जा रहे हैं। ऐसा स्टेशन बन जाने पर ‘ब्रह्माण्ड के रहस्यों की पर्ते खोलने में काफी सहायता मिलेगी।
यह पृथ्वी मानव के लिए पालने के समान है। वह हमेशा-हमेशा के लिए इसकी परिधि में बँधा हुआ नहीं रह सकता। अज्ञात की खोज में वह कहाँ तक पहुँचेगा, कौन कह सकता है?
हिन्दी के अन्य जीवन परिचय
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