संत कबीरदास (Kabirdas) या कबीर (Kabir), कबीर साहेब (Kabir Saheb) 15वीं सदी के हिंदी साहित्य में भक्तिकाल के सबसे प्रमुख कवि और विचारक माने जाते हैं। वे भक्तिकाल की निर्गुण भक्ति धारा की “ज्ञानमार्गी” उपशाखा से संबंधित थे। कबीर दास जी ने अपने दोहों और पदों के माध्यम से समाज में व्याप्त अंधविश्वास, आडंबर और पाखंड का विरोध किया और सरलता व भक्ति का संदेश दिया।
कबीरदास का विस्तृत जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, कवि परिचय एवं भाषा शैली और उनकी प्रमुख रचनाएँ एवं कृतियाँ आगे दिया गया है। जो प्रतियोगी और बोर्ड परीक्षाओं के लिए अति महत्वपूर्ण है।
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पूरा नाम | संत कबीरदास |
उपाधि | संत |
अन्य नाम | कबीरदास, कबिरा, कबीर |
जन्म | 1398 ई०, लहरतारा, काशी, उत्तर प्रदेश, भारत |
मृत्यु | 1518 ई०, मगहर, उत्तर प्रदेश, भारत |
माता | नीमा |
पिता | नीरू |
पत्नी | लोई |
पुत्र | कमाल |
पुत्री | कमाली |
शिक्षा | निरक्षर |
भाषा | अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी |
रचनाएं | साखी, सबद, रमैनी |
कार्यक्षेत्र | कवि, समाज सुधारक, बुनकर |
प्रश्न 1. कबीरदास का जीवन-परिचय देते हुए उनकी प्रमुख कृतियों का उल्लेख कीजिए।
कबीर के जीवन-परिचय का विवरण प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थ हैं- ‘कबीर चरित्र बोध‘, ‘भक्तमाल‘, ‘कबीर परिचयी‘ किन्तु इनमें दिए गए तथ्यों की प्रामाणिकता संदिग्ध है। इन ग्रन्थों के आधार पर जो निष्कर्ष कबीर के सम्बन्ध में विद्वानों ने निकाले हैं उनका सार इस प्रकार है:
कबीर दास का जीवन परिचय : Sant Kabir Ka Jivan Parichay
कबीर का जन्म सम्वत् 1555 (सन् 1398 ई.) में हुआ था। जनश्रुति के अनुसार उनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ जिसने लोकलाज के भय से उन्हें त्याग दिया। एक जुलाहा दम्पति नीमा और नीरू को वे लहरतारा नामक तालाब के किनारे पड़े हुए मिले जिसने उनका पालन-पोषण किया। उन्हें ही कबीर के माता-पिता कहा जाता है। कबीर के गुरु प्रसिद्ध सन्त रामानन्द थे। कबीर के जन्म के सम्बन्ध में एक दोहा बहुत प्रचलित है:
चौदह सौ पचपन साल गए चन्द्रवार एक ठाट ठए।
जेठ सुदी बरसाइत को पूरनमासी प्रगट भए॥
जनश्रुतियों के अनुसार कबीर की पत्नी का नाम लोई था जिससे उन्हें दो सन्तानें, पुत्र कमाल और पुत्री कमाली प्राप्त हुई, किन्तु कुछ विद्वान कबीर के विवाहित होने का खण्डन करते हैं।
कबीर की मृत्यु 120 वर्ष की आयु में सम्बत् 1575 (1518 ई.) में मगहर में हुई थी। मगहर में जाकर उन्होंने इसलिए मृत्यु का वरण किया, क्योकि वे जनमानस में व्याप्त इस अन्धविश्वास को गलत सिद्ध करना चाहते थे कि मगहर में शरीर त्यागने वाले व्यक्ति को नरक मिलता है और काशी में मरने वाले को स्वर्ग।
जीवन-पर्यन्त अन्धविश्वास एवं रूढ़ियों का खण्डन करने वाले इस सन्त ने अपनी मरण बेला में भी अन्धविश्वास का खण्डन करने का प्रयास किया और सही अर्थों में समाज-सुधारक होने का परिचय दिया।
कबीर का साहित्यिक परिचय
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, “मसि कागद छूयो नहीं, कलम गह्यौ नहीं हाथ।” वे अपनी अनुभूतियों को कविता के रूप में व्यक्त करने में कुशल थे। उनकी कविताओं का संग्रह एवं संकलन बाद में उनके भक्तों ने किया।
साहित्यिक रचनाएं एवं कृतियां
कबीर की रचनाओं का संकलन ‘बीजक‘ नाम से किया गया है, जिसके तीन भाग है- (1) साखी, (2) सबद, और (3) रमैनी।
- साखी– दोहा छन्द्र में लिखी गई है तथा कबीर की शिक्षाओं एवं सिद्धान्तों का विवेचन इसकी विषय-वस्तु में हुआ है।
- सबद– कबीरदास के पदो को ‘सबद’ कहा जाता है। ये पद गेय हैं तथा इनमें संगीतात्मकता विद्यमान है। इन्हें विविध राग-रागिनियों में निबद्ध किया जा सकता है। रहस्यवादी भावना एवं अलीकिक प्रेम की अभिव्यक्ति इन पदों में हुई है।
- रमैनी– रमैनी की रचना चौपाइयों में हुई है। कबीर के रहस्यवादी एवं दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति इसमें हुई है।
अवश्य पढ़ें: कबीर के दोहे।
भाषा शैली
संत कबीर दास जी एक विद्वान संत थे जिन्हें कई भाषाओं का गहरा ज्ञान था। साधु-संतों के साथ विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करने के कारण उन्होंने विभिन्न भाषाओं का अनुभव प्राप्त किया। कबीरदास जी अपनी वाणी में स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग करते थे ताकि आम लोग उनके विचारों और अनुभवों को आसानी से समझ सकें। उनकी भाषा में सरलता और स्पष्टता थी, और इसे ‘सधुक्कड़ी‘ भाषा के नाम से भी जाना जाता है।
हिन्दी साहित्य में स्थान
ज्ञानमार्गी कबीर दास का हिन्दी साहित्य में मूर्धन्य स्थान है। उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में सत्य और पावनता पर बल दिया। समाज सुधार, राष्ट्रीय और धार्मिक एकता उनके उपदेशों का काव्यमय स्वरूप था। तत्कालीन समाज की विसंगतियों और विषमताओं को उन्होंने निद्वन्द्व भाव से अपनी साखियों के माध्यम से व्यक्त किया। वे सारग्रही महात्मा थे। अनुभूति की सच्चाई एवं अभिव्यक्ति की ईमानदारी उनका सबसे बड़ा गुण था। भारत की जनता को तुलसीदास के अतिरिक्त जिस दूसरे कवि ने सर्वाधिक प्रभावित किया, वे कबीरदास ही हैं। उनकी शिक्षाएं आज भी हमारे लिए उपयोगी एवं प्रासंगिक हैं।
प्रश्न 2. “कबीर एक समाज सुधारक कवि थे” इस कथन की सोदाहरण समीक्षा कीजिए।
अथवा– “कबीर काव्य का मुख्य स्वर समाज सुधार है” सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
अथवा– ‘कबीर भक्त और कवि बाद में थे, समाज सुधारक पहले थे’ इस कथन की विवेचना उदाहरण सहित कीजिए।
अथवा– “कबीर की रचनाओं का महत्व उनमें निहित सन्देश से है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।
कबीर एक समाज सुधारक कवि – कबीर का सामाजिक परिचय
कबीर की प्रसिद्धि एक समाज सुधारक सन्त कवि के रूप में रही है। उन्होंने अपने समय में व्याप्त सामाजिक रूढ़ियों, अन्धविश्वासों का खण्डन किया तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रशंसनीय प्रयास किया। वे भक्त और कवि बाद में है, समाज सुधारक पहले हैं। उनकी कविता का उद्देश्य जनता को उपदेश देना और उसे सही रास्ता दिखाना था। उन्होंने जो गलत समझा उसका निर्भीकता से खण्डन किया। अनुभूति की सच्चाई और अभिव्यक्ति की ईमानदारी कबीर की सबसे बड़ी विशेषता रही है।
कबीरदास (Kabirdas) का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब समाज में छुआछूत, आडम्बर एवं पाखण्ड का बोलबाला था, हिन्दू-मुसलमानों में पारस्परिक द्वेष एवं वैमनस्य की भावना थी और समाज में जाति प्रथा का विष व्याप्त था। रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों के कारण जनता का शोषण धर्म के ठेकेदार कर रहे थे।
कबीर ने अपने दोहों और पदों के माध्यम से इन सब पर एक साथ प्रहार किया और सरलता एवं भक्ति का संदेश दिया। उन्होंने अपनी बात निर्भीकता से कही तथा हिन्दुओ आर मुसलमान को डटकर फटकारा।
वे सही अर्थों में प्रगतिशील चेतना से युक्त ऐसे कवि थे जो अपार साहस, निर्भीकता एवं सच्चाई के हथियारों से लैस थे। उन्होंने बिना कोई पक्षपात किए हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की बुराइयों पर प्रहार किया। उनके विचारों में ईश्वर की सच्ची भक्ति के साथ आत्मज्ञान और मानवीय मूल्यों पर बल दिया गया है।
वस्तुतः कबीर भक्त और कवि बाद में, सही अर्थों में समाज-सुधारक पहले थे। कबीर की शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी स्पष्ट कहा है कि, “कविता करना कबीर का लक्ष्य नहीं था, कविता तो उन्हें संत-मेंत में मिली वस्तु थी, उनका लक्ष्य लोकहित था।”
कबीर के समाज सुधारक व्यक्तित्व की विशेषताओं का निरूपण निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है:
मूर्ति पूजा का विरोध
मूर्ति पूजा से भगवान नहीं मिलते। वे कहते हैं कि यदि पत्थर पूजने से भगवान मिल जायें तो मैं पहाड़ पूज सकता है। इससे ता अच्छा है कि लोग घर की चक्की की पूजा करें:
पाहन पूजै हरि मिले तो में पूजूँ पहार।
घर की चाकी कोई न पूजै पीसि खाय संसार।।
जाति-पाति का खण्डन
जाति-पाति का विरोध करते हुए वे कहते हैं कि कोई छोटा-बडा नहीं है। सब एक समान है:
जाति पाँति पूछ नहिं कोई।
हरि को भजैं सो हरि को होई।।
ऊंचा वह नहीं है जिसने उच्च कुल में जन्म लिया है। ऊंचा वह है जिसके कर्म ऊँचे हैं। ब्राह्मण यदि नीच कर्म करता है तो निन्दनीय ही कहा जाएगा:
ऊँचे कुल का जनमिया करनी ऊँच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दत सोय।।
बाह्याडम्बरों का विरोध
कबीर ने रोजा, नमाज, छापा, तिलक, माला, गंगास्नान, तीर्थाटन, आदि का विरोध किया, माला का विरोध करते हुए वे कहते हैं :
माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर।
करका मनका डारि के मन का मनका फेर।।
हिंसा का विरोध
कबीर ने जीवहिंसा का विरोध करते हुए लिखा है कि अहिंसा ही परम धर्म है। जो व्यक्ति मांसाहारी हैं उन्हें उसका दण्ड अवश्य मिलता है :
बकरी पाती खात है ताकि काढ़ी खाल।
जे नर बकरी खात हैं तिनके कौन हवाल।।
हिन्दू-मुस्लिम एकता
कबीर चाहते थे कि हिन्दू-मुसलमान प्रेम से रहें, इसलिए उन्होंने राम-रहीम को एक मानते हुए कहा :
दुई जगदीस कहाँ तै आया।
कहु कौने भरमाया।।
ये धर्म के ठेकेदार ही हिन्दुओं-मुसलमानों को परस्पर लड़ाते रहते हैं। वास्तविकता यह है कि राम और रहीम में कोई अन्तर नहीं है।
सदाचरण पर बल
कबीर दास सदाचरण पर बल देते थे। उन्होंने जनता को सत्य, अहिंसा तथा प्रेम का मार्ग दिखाया, वे कहते हैं कि किसी को धोखा नहीं देना चाहिए :
कबिरा आपु ठगाइये आपु न ठगिए कोय।
सत्य का आचरण करने को वे श्रेष्ठ मानते हैं :
साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।
जाके हृदय साँच है ताके हृदय आप।।
कबीरदास ने सत्संग पर विशेष बल देते हुए कहा है:
संगति बुरी असाधु की आठों पहर उपाधि।
सामाजिक समन्वय पर बल
कबीर चाहते थे कि हिन्दू और मुसलमानों में भाई-चारे की भावना उत्पन्न हो। वे कहते हैं :
हिन्दू तुरक की एक राह है सतगुरु यहै बताई।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कबीर एक सच्चे समाज सुधारक थे। उनका मार्ग सत्य का मार्ग था। वे ढोंग तथा अन्धविश्वास को समाप्त करना चाहते थे। कबीर नैतिक मूल्यों के पक्षधर ऐसे सन्त कवि थे, जो जनता के पथ प्रदर्शक कहे जा सकते हैं। आचरण की पवित्रता का जो मार्ग उन्होंने जनता के लिए उचित बताया, उस पर स्वयं भी चलकर दिखाया। उन्होंने व्यक्ति के सुधार पर इसलिए बल दिया, क्योंकि व्यक्तियों से ही समाज बनता है। यदि किसी समाज में अच्छे आचरण वाले व्यक्ति प्रचुरता से होंगे तो समाज स्वयमेव ही सुधर जाएगा।
प्रश्न 3. ‘साखी’ का अर्थ स्पष्ट करते हुए कबीर की साखियों का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
अथवा– साखी से क्या अभिप्राय है? कबीर की साखियों में किन विषयों का प्रतिपादन किया गया है?
कबीर दास की साखियाँ
साखी का अर्थ– कबीरदास की रचनाओं को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है साखी, सबद, रमैनी। कबीर ने जो दोहे लिखे हैं उन्हें ही साखी कहा गया है। ‘साखी‘ शब्द मूलतः संस्कत के ‘साक्षी‘ शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है- प्रमाण। जीवन के जो अनुभव कबीर ने प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त किए उनका साक्षात्कार करके उन्हें ‘साखियों’ के रूप में व्यक्त किया है।
कबीर ने स्वयं साखी की परिभाषा देते हुए कहा है:
साखी आँखी ज्ञान की समुझि देखु मनमाँहि।
बिन साखी संसार को झगरा छूटत नाँहि।
अर्थात् साखी ज्ञान की आँख है, इसे अपने मन में अच्छी तरह समझ कर जांच-परखकर देख लो। साखी को बिना जाने हुए व्यक्ति इस भव बन्धन से छुटकारा नहीं पा सकता। सामान्यतः साखी का प्रयोग सन्त कवियों द्वारा प्रयुक्त उन दोहों के लिए हुआ है जिनमें उन्होंने अपने जीवन की अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया है और सामान्य जनता को उपदेश दिए हैं। अपने व्यावहारिक अनुभवों को वे इन दोहों में व्यक्त करते हैं और इनकी सत्यता के लिए स्वयं को साक्षी मानते हैं, जिससे जनता इन उपदेशों को ग्रहण कर ले, उन पर कोई शंका न करे।
साखियों की विषयवस्तु एवं महत्ता
कबीर ग्रन्थावली में साखियों को 58 अंगों में बांटा गया है। कुल साखियों की संख्या 809 है तथा परिशिष्ट में 192 साखियां और दी गई हैं। कबीर बीजक में कुल 353 साखियां हैं। साखी के कुछ प्रमुख अंगों के नाम हैं:
- गुरुदेव की अंग
- ज्ञान विरह की अंग
- विरह कौ अंग
- सुमिरण कौ अंग
- परचा कौ अंग
- रस कौ अंग
- चितावणी कौ अंग
- कामी नर कौ अंग
- सहज कौ अंग
- साँच कौ अंग
इन साखियों की विषयवस्तु विविध प्रकार की है। कहीं गरु की महत्ता का प्रतिपादन है तो कहीं विरह भावना का उल्लेख है। जैसे:
सतगुरु की महिमा अनत अनत किया उपगार।
लोचन अनत उघाड़िया अनत दिखावन हार।।
इस साखी में गुरु की महत्ता बताई गई है तो निम्न साखी में जीवात्मा रूपी विरहिणी की दशा का चित्रण है :
कै बिरहिन कौं मीचु दै के आपा दिखलाय।
रात दिना को दाझड़ा मोपै सह्यौ न जाय।।
कबीर ने साखियों के माध्यम से बाह्याडम्बरों का खण्डन भी किया है। मुसलमानों के रोजा रखते हुए भी हिंसक प्रवृत्ति की भर्त्सना करते हुए वे कहते हैं :
दिन में रोजा रखत है राति हनत है गाय।
यह तौ खून वह बन्दगी कैसें खुसी खुदाय।।
कुछ साखियों की विषयवस्तु दार्शनिक है जिनमें जीवात्मा एवं परमात्मा के अभेदत्व की अभिव्यक्ति हुई है, जैसे:
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी।
फटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तत कथेहु गियानी।।
जब जीवात्मा परमात्मा में विलीन हो जाता है तो वह अभेदत्व की स्थिति प्राप्त कर लेता, यथा :
हेरत-हेरत हे सखी गया कबीर हिराय।
बूँद समानी समुद में सो कत हेरी जाय।
साखियों की रचना के लिए पाखण्ड खण्डन के लिए तथा ऊंच-नीच की भावना का विरोध कराते हुए भी की गई है, जैसे:
ऊँचे कुल का जनमिया करनी ऊँच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दत सोय।।
निष्कर्ष यह है कि कबीर काव्य में साखियों का विशेष महत्व है। ये कबीर की साक्षात्कृत अनुभूतियां हैं। आध्यात्मिकता की भावना से ओतप्रोत साखियों में कवि स्वयं को साक्षी बताता है। इन साखियों में दिए गए उपदेश आज भी जनता के लिए प्रासंगिक हैं। कबीर की ये साखियां अत्यन्त लोकप्रिय हैं तथा जनता को कंठस्थ हैं।
संत कबीर जी के प्रसिद्ध दोहे (Kabir Ke Dohe)
कबीर के कुछ लोकप्रिय दोहे निम्नलिखित हैं:
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आप खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब।
गुरु गोविंद दोऊ खड़े ,काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो मिलाय।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।
जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश।
जो है जा को भावना सो ताहि के पास।
जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय।
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए।
पाथर पूजे हरी मिले, तो मै पूजू पहाड़,
घर की चक्की कोई न पूजे, पीस खाए संसार।
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय।
मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार।
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार।
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे।
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय।
और अधिक पढ़ें: कबीर के दोहे अर्थ सहित।
FAQs
1. कबीर का संक्षिप्त जीवन परिचय लिखिए।
कबीर का जन्म सन् 1398 ई. में में हुआ था। ये दंपति जुलाहे नीमा और नीरू को लहरतारा ताल (काशी) वाराणसी में एक टोकरी में मिले थे। अतः इनके जन्म के विषय में वास्तविक जानकारी ज्ञात नहीं है। अब्दुल्ला नीरू और नीमा को उनके माता-पिता के रूप में माना जाता है। बचपन में उन्होंने अपनी सारी धार्मिक शिक्षा रामानंद नामक गुरु से ली। कबीरदास का विवाह लोई नाम की कन्या से हुआ, विवाह के बाद कबीर और लोई को दो संतानें, लड़के का नाम ‘कमाल’ तथा लड़की का नाम ‘कमाली’ था। कबीर दास की मृत्यु सन् 1518 ईसवीं में मगहर (उत्तर प्रदेश) में हुई।
2. कबीर का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
संत कबीरदास का जन्म सन् 1398 में लहरतारा, काशी, उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ था।
3. कबीर की मृत्यु कब और कहाँ हुई?
कबीर दास की मृत्यु सन् 1518 ईसवीं में मगहर, उत्तर प्रदेश, भारत में हुई।
4. कबीर दास की प्रमुख रचनाओं के नाम लिखो।
कबीर की रचनाओं का संग्रह ‘बीजक’ है, जिसके तीन भाग हैं- साखी,सबद और रमैनी।
5. कबीर किस धर्म के अनुयायी थे?
कबीर का मातृ धर्म क्या था किसी को ज्ञात नहीं है, परंतु इनका पालन पोषण एक मुस्लिम परिवार में हुआ, परंतु कबीर दास व्यक्तिगत रूप से सभी धर्मों में समान विश्वास रखते थे।
6. कबीर के दो प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित लिखो?
कबीर के दोहे अर्थ सहित आगे दिये गए हैं –
- गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागौं पाय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।
इस दोहे का अर्थ– एक बार गुरु और ईश्वर एक साथ खड़े थे तभी शिष्य को समझ में नहीं आ रहा था कि पहले किसके पाऊं छुए, इस पर ईश्वर ने कहा कि तुम्हें सबसे पहले अपने गुरु के पाव छूने चाहिए। - ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।
इस दोहे का अर्थ– मनुष्य को ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जैसे दूसरों को शीतलता मिले और साथ ही साथ स्वयं का मन भी शीतल हो जाए अर्थात हमेशा अच्छी वाणी ही बोलनी चाहिए।
7. कबीर दास के गुरु का क्या नाम था?
कबीर के गुरु महान आचार्य रामानंद थे। स्वामी जगतगुरु श्री रामानन्दाचार्य जी मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के महान सन्त थे। उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के प्रत्येक वर्ग तक पहुंचाया। स्वामी रामानन्द का जन्म प्रयागराज में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
8. कबीर के भाषा शैली कैसी थी?
कबीर की भाषा अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी कही जाती है।
9. कबीर के माता-पिता कौन थे?
कबीर के वास्तविक माता पिता का नाम किसी को ज्ञात नहीं है। परंतु जिन्होंने इनका पालन पोषण किया वही इनके माता पिता कहलाये। इस प्रकार कबीर के पिता का नाम ‘नीरू’ और माता का नाम ‘नीमा’ था।
10. कबीर दास का विवाह किससे हुआ था?
कबीर दास का विवाह ‘लोई’ नाम की एक स्त्री से हुआ था जिससे इनके दो बच्चे भी हुए थे जिनके नाम हैं- कमाल (पुत्र) और कमाली (पुत्री) ।
हिन्दी साहित्य के अन्य जीवन परिचय
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