अकबर (जन्म: 15 अक्तूबर 1542; मृत्यु: 27 अक्तूबर 1605), जिनका पूरा नाम “जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर” (Jalal-ud-din Muhammad Akbar) था, वे तैमूर लंग के वंशज और मुग़ल साम्राज्य के तीसरे सम्राट थे। अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। अकबर का शासनकाल 16वीं सदी में 1556 से 1605 तक रहा था। अकबर को मुग़ल साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण सम्राट माना जाता है। और उन्होंने भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्हें अकबर-ऐ-आज़म (अकबर महान), शहंशाह अकबर, बादशाह अकबर, जलाल आदि नामों से भी जाना जाता है।
आगे विस्तार से पढ़िए मुग़ल शासक और बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (Jalal-ud-din Muhammad Akbar) का जीवन परिचय, उनके नवरत्न, मकबरा एवं उनका कार्यकाल और उस समय के युद्ध आदि के विषय में सम्पूर्ण जानकारी:
Jalaluddin Muhammad Akbar Biography and History in Hindi / Akbar Jeevan Parichay / Akbar Jivan Parichay / जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर :
नाम | अकबर (Akbar) |
पूरा नाम | जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (جلال الدین محمد اکبر) |
उपाधियाँ | अकबर-ऐ-आज़म, अकबर महान, शहंशाह अकबर, बादशाह अकबर, जलाल |
जन्म | 15 अक्तूबर, 1542 (उमरकोट किला, सिंध, पाकिस्तान) |
मृत्यु | 27 अक्तूबर, 1605 (फतेहपुर सीकरी, आगरा, भारत) |
समाधि/मकबरा | सिकन्दरा, आगरा, भारत |
शासनकाल | 27 जनवरी, 1556 से 29 अक्तूबर, 1605 |
वंश | तैमूर वंश |
माता | हमीदा बानो बेगम |
पिता | हुमायूँ (मुग़ल शासक) |
पत्नियाँ | रुक़इय्या बेगम, सलीमा सुल्तान बेगम, हरका बाई |
पुत्र | मुराद, दानियाल, समीर(जहांगीर) |
पुत्रियाँ | आराम बानो बेगम, मेहरुन्निसा, माही बेगम, शकरुन्निसा बेगम |
उत्तराधिकारी | जहाँगीर |
राजधानी | दिल्ली से आगरा स्थापित की |
प्रमुख युद्ध | पानीपत का दूसरा युद्ध (1556), थानेसर का युद्ध (1567), तुकारोई का युद्ध (1575), हल्दीघाटी का युद्ध (1576) |
राजकीय भाषा | फारसी |
अकबर का जीवन परिचय/जीवनी
अकबर का जन्म पाकिस्तान के सिंध प्रांत में 15 अक्तूबर, 1542 को राजपूत शासक राणा वीरसाल प्रसाद के उमरकोट महल में हुआ था। इनके पिता बादशाह हुमायुं थे, जो उस समय अकबर की माता हमीदा बानो बेगम के साथ उमरकोट महल में शरण लिये हुए थे। बाबर के पितृपक्ष का संबंध तैमूरलंग और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर तुर्क और मंगोल वंश से संबंधित था।
अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था, इसीलिए जन्म के समय इनका नाम ‘बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर‘ रखा गया था। बद्र का अर्थ होता है- ‘पूर्ण चंद्रमा’। और अकबर शब्द उनके नाना ‘शेख अली अकबर जामी‘ के नाम से लिया गया था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि भारत की जनता ने उनके सफल एवं कुशल शासन के लिए अकबर नाम से सम्मानित किया था। अरबी भाषा में अकबर शब्द का अर्थ “महान” या बड़ा होता है।
शेरशाह सूरी के कारण हुमायूँ ने अकबर को मध्यप्रदेश के रीवा के एक गाँव मुकुंदपुर नामक स्थान पर रहने के लिए छोड़ दिया, वहीं पर उसके हमउम्र राजकुमार “राम सिंह प्रथम” से गहरी मित्रता हो गई। वहीं रहकर उसने कुछ समय तक प्रारम्भिक युद्ध कला का ज्ञान लिया। उसके बाद वह अपने चाचाओं के यहाँ अफगानिस्तान, कांधार, काबुल, आदि में सूरी के डर की बजह से रहा।
अकबर पढ़ा-लिखा नहीं था। हुमायूँ ने मुल्ला असमुद्दीन, मौलाना बामजीद, मौलाना अब्दुल कादिर आदि मौलानाओं को नियुक्त किया परंतु कोई भी शिक्षक उसे शिक्षा नहीं दे पाया। क्यूंकी भाग-दौड़ के कारण अकबर की पढ़ने में रुचि नहीं रही। वह सिर्फ सुनकर ज्ञान का अर्जन करता था। कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रहता था। समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं। सन 1556 में हुमायूँ की मृत्यु के पश्चात अकबर दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा।
अकबर की तीन शादियाँ हुई थीं। पहली पत्नी का नाम “रुक़य्या सुलतान बेगम” था, जो उसकी चचेरी बहन थीं, और जन्म से मुगल राजकुमारी थीं, ये अकबर के चाचा हिन्दल मिर्ज़ा और चाची सुल्तानम बेगम की पुत्री थीं। दूसरी पत्नी का नाम “सलीमा सुल्तान बेगम” था, जो पहले बैरम खां की पत्नी थीं और 1561 में उनकी हत्या के बाद, सलीमा की शादी सम्राट अकबर से हुई। और तीसरी पत्नी का नाम “हरका बाई” था, जिन्हें “मरियम उज़-ज़मानी” नाम से सम्मानित किया गया था, एवं ‘मल्लिका-ऐ-हिन्दुस्तान‘ बनीं थी, वे राजस्थान राज्य के आमेर रियासत के राजपूत राजा भारमल की पुत्री थी। हरका बाई के गर्भ से मुगल सल्तनत के वलिहद और अगले बादशाह समीर “जहाँगीर” का जन्म हुआ था, इन्हें हीर कुंवारी, जोधाबाई, हरखा बाई या हरखू बाई आदि नामों से भी जाना जाता है।
अकबर एक कुशल शासक एवं योद्धा था, जिसका शासन 1556 से 1605 तक चला। अपने शासन के दौरान ही उसने अपनी राजधानी दिल्ली से पहले फतेहपुर सीकरी स्थापित की। बाद में उसने सन 1585 में उत्तर पश्चिमी भाग के लिए लाहौर को राजधानी बनाया। फतेहपुर सीकरी में पानी की कमी के कारण, अपने जीवन के अंतिम समय में सन 1599 में “आगरा” को अपनी राजधानी बनाया। जो मुग़ल साम्राज्य की राजधानी रही।
27 अक्तूबर 1605 को मुग़ल साम्राज्य के इस महान शासक अकबर की बीमारी के चलते मृत्यु हो गई। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव भारत के ही आगरा शहर में “सिकंदरा के मकबरे” में दफना दिया गया।
अकबर का राजनैतिक परिचय
चौसा के युद्ध (1539) में शेरशाह सूरी से हारने के बाद हुमायूँ को दिल्ली की गद्दी छोड़नी पड़ी। इसी बीच सन 1542 में अकबर का जन्म हुआ। शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायूँ ने “सरहिन्द के युद्ध 1555” में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी “ताहमस्प प्रथम” का रहा। इसके कुछ माह बाद ही 48 वर्ष की आयु में ही हुमायूँ का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालात में गिरने के कारण हो गया।
तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को कुशल शासन हेतु तैयार किया। 14 फ़रवरी, 1556 को अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। 13 वर्षीय अकबर का कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। ये मंच आज भी बना हुआ है। उसे फारसी भाषा में सम्राट के लिये शब्द “शहंशाह” से पुकारा गया। वयस्क होने तक उसका राज्य बैरम खां के संरक्षण में चला, जिसका प्रभाव उस पर 1560 तक रहा।
बैरम खां (अकबर के गुरु और संरक्षक) :
बिहार के बक्सर जिले में हुए चौसा के युद्ध (1539) में शेरशाह सूरी से हारने के बाद, हुमायूँ की जान उन्हीं के सेना का एक शिया मुसलमान युवक “बैरम खां” ने गंगा नदी को पार करवाकर उसकी जान बचाई। और उसका सेनापति मुहम्मद मिर्जा मारा गया। युद्ध के बाद हुमायूँ की रानियों और हरम की तमाम महिलाओं को उसने बंदी बना लिया, जिन्हें कुछ महीनों बाद उसने ससम्मान बापस भेज दिया था।
नदी पार करने के बाद भी अफगानी सेना हुमायूँ के पीछे पड़ी रही और आगरा तक उसका पीछा किया, और उसके बाद शेरशाह सूरी दिल्ली की गद्दी पर 1539 में ही आसीन हो गया।
चौसा के युद्ध में पराजित होने के बाद हुमायूँ कालपी होता हुआ आगरा पहुँचा, वहाँ मुगल परिवार के लोगो ने शेर खाँ को पराजित करने का निर्णय लिया। परिणाम स्वरूप हुमायूँ और शेरशाह सूरी के मध्य पुनः “बिलग्राम का युद्ध (1540)” कन्नौज में हुआ और हुमायूँ को मुंह की खानी पड़ी, और वैरम खान की ही मदद से मैदान छोड़कर भाग गया।
इसके बाद हुमायूं ने सिंध के राजा राणा वीरसाल प्रसाद के यहाँ शरण ली, तब उसके साथ उसकी पत्नी और मात्र 7 घुड़सवारों के साथ बैरम खां था। इसी किले में 15 अक्टूबर 1542 को अकबर का जन्म हुआ। यहाँ भी मुग़लों और वीरसाल के सेना में मतभेद हो गया और स्वामीभक्त बैरम खां ने हुमायूं और उसके नवजात शिशु “अकबर” की जान बचाई।
फिर हुमायूँ ने अकबर को मध्यप्रदेश के रीवा के एक गाँव मुकुंदपुर नामक स्थान पर शरण ली, वहीं पर उसके हमउम्र रीवा के राजकुमार “राम सिंह प्रथम” से गहरी मित्रता हो गई। यहाँ हुमायूँ ने अकबर को पढ़ाने के भरसक प्रयास किए परंतु, अकबर के लिए काला अक्षर भैंस बराबर था। अंत में अकबर को बैरम खां को सौंपकर हुमायूँ सैन्य अभियान के लिए काबुल चला गया। बैरम खां ने अकबर एक उम्दा सैनिक बनाया। रीवा में कुछ समय रहने के बाद उसका बचपन अपने चाचाओं के यहाँ अफगानिस्तान, कांधार, काबुल, आदि में सूरी के डर की बजह से बीता।
इसी बीच 12 बर्ष की आयु में अकबर को हुमायूं का उत्तराधिकारी और पंजाब का गवर्नर बनाया गया, तब उसके संरक्षक का दायित्व बैरम खां को सौंप दिया। 24 जनवरी 1556 को शेर मंडल के पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर हुमायूं घायल हो गया और 27 जनवरी को उसका देहांत हो गया। उसकी मृत्यु का समाचार बैरम खां ने 18 दिनों तक छिपाए रखा और बाद में 14 फरवरी 1556 को पंजाब के कालानौर कस्बे में बैरम खां ने अकबर को औपचारिक रूप से बादशाह घोषित कर दिया।
राजतिलक के समय अकबर मात्र पंजाब के आधे भाग का स्वामी था। पानीपत के दूसरे युद्ध (1556) की जीत के पश्चात बैरम खां की तलवार ने दिल्ली, आगरा, ग्वालियर, कालिंजर, जौनपुर, सम्भल, लखनऊ और मालवा को नतमस्तक कर दिया। सन 1560 तक बैरम खां के प्रयासों से अकबर यथार्थ में भारत सम्राट बन चुका था।
सन 1560 में अकबर ने एक राजद्रोह के झूठे आरोप में अपने संरक्षक और गुरु बैरम खां को मक्का की तीर्थयात्रा पर जाने और अपना शेष जीवन मक्का में ही बिताने के आदेश दिए। मक्का जाते वक्त 1561 में ही अफगानी नेता मुबारक खां लोहानी ने बैरम खां की हत्या कर दी, क्यूंकी मुबारक खां के पिता को मच्छीवाड़ा के युद्ध (1555) में मुग़ल सेना द्वारा मारा गया था, जिसका संचालक बैरम खान था।
बैरम खां की मृत्यु के बाद बैरम खां की पत्नी सलीमा सुल्तान बेगम और उसके पुत्र रहीम को वापस बुला लिया गया, और अकबर ने बैरम खां की सुंदर पत्नी से विवाह कर लिया। इसी कारण सलीमा ने अपने पुत्र अब्दुल रहीम ‘खान-ए-खाना’ को जालसाजी राजनीति से दूर रखा और एक विद्वान बनाया। जो आगे चलकर सलीम (जहांगीर) का अतालिक (शिक्षक) नियुक्त हुआ। सलीमा सुल्तान बेगम हरियाणा प्रांत के मेवाती राजपूत जमाल खाँ की सुंदर एवं गुणवती पुत्री थीं।
अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना या रहीम की ख्याति एक कवि, सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, एवं विद्वान के रूप में आज भी है।
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आंतरिक समस्याएं :
तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। 1563 में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, 1564-65 के बीच उज़बेक विद्रोह और 1566-67 में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई।
इसी बीच 1566 में “महाम अंका” नामक उसकी धाय माँ ने पुराने किले परिसर से शहर से लौटते वक्त अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला करवाया, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर ने प्रशासन शैली में कुछ बदलाव किया, और उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली।
हेमू और सूरी वंश (सत्ता में अस्थिरता) :
उस समय हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा।
दिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति “तारदी बैग खान” को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नहीं हुआ। कुछ प्रदेशो में तो अकबर के पहुँचने से पहले ही उसकी सेना पीछे हट जाती थी। अकबर की अनुपस्थिति में हेमू विक्रमादित्य ने दिल्ली और आगरा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। 6 अक्तूबर 1556 को हेमु ने स्वयं को भारत का महाराजा घोषित कर दिया।
दिल्ली की पराजय का समाचार जब अकबर को मिला तो उसने तुरन्त ही बैरम खान से परामर्श कर के दिल्ली की तरफ़ कूच करने का इरादा बना लिया। अकबर के सलाहकारो ने उसे काबुल की शरण में जाने की सलाह दी। अकबर की सेना और हेमु के बीच पानीपत का दूसरा युद्ध 1556 में हुआ। संख्या में कम होते हुए भी अकबर ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की, और बैरम खां ने हेमू की हत्या करके दिल्ली की गद्दी पर मुग़लिया परचम लहराया। इस विजय से अकबर को 1500 हाथी मिले जो मनकोट के हमले में सिकंदर शाह सूरी के विरुद्ध काम आए। सिकंदर शाह सूरी ने आत्मसमर्पण कर दिया और अकबर ने उसे प्राणदान दे दिया।
विवाह संबंध :
अकबर के तीन निकाह हुए थे, ये सभी विवाह संबंध राजनैतिक थे। पहला विवाह चाचाओं से मित्रता के लिए बचपन में ही रुकैय्या बेगम से हुआ। सन 1561 में बैरम खां मृत्यु के बाद, उनके समर्थकों को शांत करने के लिए सलीमा सुल्तान बेगम से अकबर ने दूसरा विवाह किया। राजपूतों से संबंध बनाने के लिए सन् 1562 में आमेर के शासक से उसने समझौता किया और उनकी पुत्री हरका बाई से तीसरा विवाह किया।
हरका बाई ने आगे चलकर अपनी कर्तव्यनिष्ठा और स्वामीभक्ति से अकबर का दिल जीत लिया और उन्हें ‘मल्लिका-ऐ-हिन्दुस्तान‘ के सम्मान से नवाजा गया। मुग़ल साम्राज्य को अगला शासक समीर (जहांगीर) देने के कारण उन्हें “मरियम उज़-ज़मानी” पद से सम्मानित किया गया था, यह मुग़लिया वंश की रीति का एक ओहदा था, जिसमें राजा के किसी आदेश को बदलने की शक्ति निहित थी।
इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया।
साम्राज्य का विस्तार :
दिल्ली पर पुनः अधिकार जमाने के बाद अकबर ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को 1562 में, गुजरात को 1572 में, बंगाल को 1574 में, काबुल को 1581 में, कश्मीर को 1586 में और खानदेश को 1601 में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में एक एक राज्यपाल नियुक्त किया।
राजधानी स्थानान्तरण :
अकबर यह नहीं चाहता था की मुग़ल साम्राज्य का केन्द्र दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो, इसलिए उसने 1571 में यह निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के मध्य में थी। 14 वर्षों तक यहाँ रहने के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारण था। सन 1585 में उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारू राज पालन के लिए अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाया। अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन 1599 में वापस आगरा को राजधानी बनाया और अन्त तक यहीं से शासन संभाला।
फतेहपुर सीकरी :
एक पुराने बसे ग्राम सीकरी पर अकबर ने नया शहर बनवाया जिसे अपनी जीत यानि फतह की खुशी में फतेहाबाद या फतेहपुर नाम दिया गया। जल्दी ही इसे पूरे वर्तमान नाम फतेहपुर सीकरी से बुलाया जाने लगा था। यहां के अधिकांश निर्माण उन 14 वर्षों के ही हैं, जिनमें अकबर ने यहां निवास किया। शहर में शाही उद्यान, आरामगाहें, सामंतों व दरबारियों के लिये आवास तथा बच्चों के लिये मदरसे बनवाये गए। शहर के अंदर इमारतें दो प्रमुख प्रकार की हैं- सेवा इमारतें, जैसे कारवांसेरी, टकसाल, निर्माणियां, बड़ा बाज़ार (चहर सूक) जहां दक्षिण-पश्चिम/उत्तर पूर्व अक्ष के लम्बवत निर्माण हुए हैं और दूसरा शाही भाग, जिसमें भारत की सबसे बड़ी सामूहिक मस्जिद है, साथ ही आवासीय तथा प्रशासकीय इमारते हैं जिसे दौलतखाना कहते हैं।
फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में घूमता रहता था इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनो पर उचित ध्यान देना सम्भव हुआ।
आगरा :
15 वीं शताब्दी (1455-1517) में सिकंदर लोधी ने के गाँव को एक शहर में बदल दिया, जिसका नाम आगरा पड़ा। सर्वप्रथम सिकंदर लोधी ने ही अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा स्थानांतरित की थी। अकबर ने लोधी वंश के कारण आगरा शहर का नाम बदलकर उस समय “अकबराबाद” कर दिया था, जो उस साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण व्यवस्था बनायी गई।
आगरे का लाल किला :
वर्तमान आगरा किला अकबर के पौत्र “शाहजहां” द्वारा बनवाया हुआ है। इसमें दक्षिणी ओर जहांगीरी महल और अकबर महल हैं। सन 1564 में आगरा में लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चारदीवारी को तोड़कर नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई। लाल दीवार के कारण ही इसका नाम लाल किला पड़ा। यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार सा बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं।
राजपूत राजा :
आंबेर के कछवाहा राजपूत “राजा भारमल” ने अकबर के दरबार में अपने राज्य संभालने के कुछ समय बाद ही प्रवेश पाया था। इन्होंने अपनी राजकुमारी हरखा बाई का विवाह अकबर से करवाया, और ‘मल्लिका-ऐ-हिन्दुस्तान‘ बनीं। मुग़लों को वारिस देने के कारण उन्हें मुग़लिया ओहदा “मरियम-उज़-ज़मानी” से नवाजा गया। मरियम-उज़-ज़मानी की मृत्यु 1623 में हुई थी। उसके पुत्र जहांगीर ने उनके सम्मान में लाहौर में एक मस्जिद बनवायी।
विवाह के बाद भारमल को अकबर के दरबार में ऊंचा स्थान मिला था, और उसके बाद उसके पुत्र भगवंत दास और पौत्र राजा मानसिंह भी दरबार के ऊंचे सामन्त बने रहे।
इससे पहले भी कई मुस्लिम राजाओं ने हिन्दू राजकुमारियों से विवाह किए, किन्तु अधिकांश विवाहों के बाद दोनों परिवारों के आपसी संबंध अच्छे नहीं रहे और न ही राजकुमारियां कभी वापस लौट कर अपने मायके आयीं।
हालांकि अकबर ने इस मामले को पिछले प्रकरणों से अलग रूप दिया, जहां उन रानियों के भाइयों या पिताओं को पुत्रियों या बहनों के विवाहोपरांत अकबर के मुस्लिम ससुराल वालों जैसा ही सम्मान मिला करता था, सिवाय उनके संग खाना खाने और प्रार्थना करने के। उन राजपूतों को अकबर के दरबार में अच्छे स्थान मिले थे। सभी ने उन्हें वैसे ही अपनाया था सिवाय कुछ रूढ़िवादी परिवारों को छोड़कर, जिन्होंने इसे अपमान के रूप में देखा था।
अन्य राजपूत रजवाड़ों ने भी अकबर के संग वैवाहिक संबंध बनाये थे, किन्तु विवाह संबंध बनाने की कोई शर्त नहीं थी। दो प्रमुख राजपूत वंश, मेवाड़ के शिशोदिया और रणथंभौर के हाढ़ा वंश इन संबंधों को कभी नहीं सराहा और ना ही इनको मान्यता दी।
अकबर के एक प्रसिद्ध दरबारी “राजा मानसिंह” ने अकबर की ओर से एक हाढ़ा राजा सुर्जन हाढ़ा के पास एक संबंध प्रस्ताव भी लेकर गये, जिसे सुर्जन सिंह ने इस शर्त पर स्वीकार्य किया कि वे अपनी किसी पुत्री का विवाह अकबर के संग नहीं करेंगे। अन्ततः कोई वैवाहिक संबंध नहीं हुए किन्तु सुर्जन को गढ़-कटंग का अधिभार सौंप कर सम्मानित किया गया।
अन्य कई राजपूत सामन्तों को भी अपने राजाओं का पुत्रियों को मुगलों को विवाह के नाम पर देना अच्छा नहीं लगता था। गढ़ सिवान के राठौर राजा कल्याणदास ने राजा राव उदयसिंह और जहांगीर को मारने की धमकी भी दी थी, क्योंकि उदयसिंह ने अपनी पुत्री जगत गोसाई का विवाह अकबर के पुत्र जहांगीर से करने का निश्चय किया था। अकबर ने ये ज्ञान होने पर शाही फौजों को कल्याणदास पर आक्रमण हेतु भेज दिया। कल्याणदास उस युद्ध में मारा गया और उसकी स्त्रियों ने जौहर कर लिया।
इन वैवाहिक संबंधों का राजनीतिक प्रभाव महत्त्वपूर्ण था। हालांकि कुछ राजपूत स्त्रियों ने अकबर के हरम में प्रवेश लेने पर इस्लाम स्वीकार किया, फिर भी उन्हें पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता थी, साथ ही उनके सगे-संबंधियों को जो हिन्दू ही थे; दरबार में उच्च-स्थान भी मिले थे। इनके द्वारा जनसाधारण की ध्वनि अकबर के दरबार तक पहुँचा करती थी।दरबार के हिन्दू और मुस्लिम दरबारियों के बीच सम्पर्क बढ़ने से आपसी विचारों का आदान-प्रदान हुआ और दोनों धर्मों में संभाव की प्रगति हुई।
इससे अगली पीढ़ी में दोनों रक्तों का संगम था जिसने दोनों सम्प्रदायों के बीच सौहार्द को भी बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप राजपूत मुगलों के सर्वाधिक शक्तिशाली सहायक बने, राजपूत सैन्याधिकारियों ने मुगल सेना में रहकर अनेक युद्ध किये तथा जीते। इनमें गुजरात का १५७२ का अभियान भी था। अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने शाही प्रशासन में सभी के लिये नौकरियों और रोजगार के अवसर खोल दिये थे। इसके कारण प्रशासन और भी दृढ़ होता चला गया।
पुर्तगालियों से संबंध :
1556 में अकबर के गद्दी लेने के समय, पुर्तगालियों ने महाद्वीप के पश्चिमी तट पर बहुत से दुर्ग व निर्माणियाँ (फैक्ट्रियाँ) लगा ली थीं और बड़े स्तर पर उस क्षेत्र में नौवहन और सागरीय व्यापार नियन्त्रित करने लगे थे। इस उपनिवेशवाद के चलते अन्य सभी व्यापारी संस्थाओं को पुर्तगालियों की शर्तों के अधीण ही रहना पढ़ता था, जिस पर उस समय के शासकों व व्यापारियों को आपत्ति होने लगीं थीं।
1572 में अकबर ने अपना निशाना गुजरात को बनाया और सागर तट पर प्रथम विजय पायी, किन्तु पुर्तगालियों की शक्ति को ध्यान में रखते हुए पहले कुछ वर्षों तक उनसे मात्र फारस की खाड़ी क्षेत्र में यात्रा करने हेतु कर्ताज़ नामक पास लिये जाते रहे।
1572 में ही सूरत के अधिग्रहण के समय मुगलों और पुर्तगालियों की प्रथम भेंट हुई और पुर्तगालियों को मुगलों की असली शक्ति का अनुमान हुआ और फलतः उन्होंने युद्ध के बजाय नीति से काम लेना उचित समझा व पुर्तगाली राज्यपाल ने अकबर के निर्देश पर उसे एक राजदूत के द्वारा सन्धि प्रस्ताव भेजा।
अकबर ने उस क्षेत्र से अपने हरम के व अन्य मुस्लिम लोगों द्वारा मक्का को हज की यात्रा को सुरक्षित करने की दृष्टि से प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1573 में अकबर ने अपने गुजरात के प्रशासनिक अधिकारियों को एक फरमान जारी किया, जिसमें निकटवर्त्ती दमण में पुर्तगालियों को शांति से रहने दिये जाने का आदेश दिया था। इसके बदले में पुर्तगालियों ने अकबर के परिवार के लिये हज को जाने हेतु पास जारी किये थे।
तुर्कों से संबंध :
सन 1576 में अकबर ने “याह्या सलेह” के नेतृत्व में अपने हरम के अनेक सदस्यों सहित हाजियों का एक बड़ा जत्था हज को भेजा। ये जत्था दो पोतों में सूरत से जेद्दाह बंदरगाह पर 1577 में पहुँचा और मक्का और मदीना को अग्रसर हुआ। 1577 से 1580 के बीच चार और कारवां हज को रवाना हुआ, जिनके साथ मक्का व मदीना के लोगों के लिये भेंटें व गरीबों के लिये सदके थे। ये यात्री समाज के आर्थिक रूप से निचले वर्ग के थे और इनके जाने से उन शहरों पर आर्थिक भार बढ़ा। तब तुर्क प्रशासन ने इनसे घर लौट जाने का निवेदन किया, जिस पर हरम की स्त्रियां तैयार न हुईं। काफी विवाद के बाद उन्हें विवश होकर लौटना पढ़ा।
अदन के राज्यपाल को 1580 में आये यात्रियों की बड़ी संख्या देखकर बढ़ा रोष हुआ और उसने लौटते हुए मुगलों का यथासंभव अपमान भी किया। इन प्रकरणों के कारण अकबर को हाजियों की यात्राओं पर रोक लगानी पड़ी। 1584 के बाद अकबर ने यमन के साम्राज्य के अधीनस्थ अदन के बंदरगाह पर पुर्तगालियों की मदद से चढ़ाई करने की योजना बनायी।
पुर्तगालियों से इस बारे में योजना बनाने हेतु एक मुगल दूत गोआ में अक्तूबर 1584 से स्थायी रूप से तैनात किया गया। 1587 में एक पुर्तगाली टुकड़ी ने यमन पर आक्रमण भी किया किन्तु तुर्क नौसेना द्वारा हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद मुगल-पुर्तगाली गठबंधन को भी धक्का पहुँचा क्योंकि मुगल जागीरदारों द्वारा जंज़ीरा में पुर्तगालियों पर लगातार दबाव डाला जा रहा था।
मुग़लिया हरम :
तत्कालीन समाज में वेश्यावृति को मुग़लों का संरक्षण प्रदान था। मुग़लों की एक बहुत बड़ी हरम थी जिसमें बहुत सी स्त्रियाँ होती थीं। इनमें अधिकांश स्त्रियों को बलपूर्वक वहां लाया गया था। उस समय में सती प्रथा भी जोरों पर थी। तब कहा जाता है कि अकबर के कुछ लोग जिस सुन्दर स्त्री को सती होते देखते थे, बलपूर्वक जाकर सती होने से रोक देते व उसे सम्राट की आज्ञा बताते तथा उस स्त्री को हरम में डाल दिया जाता था।
हालांकि इस प्रकरण में दरबारी इतिहासकारों ने लिखा है- बादशाह ने सती प्रथा का विरोध किया व उन अबला स्त्रियों को संरक्षण दिया। अपनी जीवनी में अकबर ने स्वयं लिखा है- “यदि मुझे पहले ही यह बुधिमत्ता जागृत हो जाती तो मैं अपनी सल्तनत की किसी भी स्त्री का अपहरण कर अपने हरम में नहीं लाता।” इस बात से यह तो स्पष्ट ही हो जाता है कि सुन्दर स्त्रियों को हरम में जबरन रखा जाता था। इसके अलावा अपहरण न करवाने वाली बात की निरर्थकता भी इस तथ्य से ज्ञात होती है कि न तो अकबर के समय में और न ही उसके उत्तराधिकारियो के समय में हरम बंद की गई थी।
“आईने अकबरी” के अनुसार ‘अब्दुल कादिर बदायूंनी‘ कहते हैं कि बेगमें, कुलीन, दरबारियो की पत्नियां अथवा अन्य स्त्रियां जब कभी बादशाह की सेवा में पेश होने की इच्छा करती हैं, तो उन्हें पहले अपने इच्छा की सूचना देकर उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती है; जिन्हें यदि योग्य समझा जाता है तो हरम में प्रवेश की अनुमति दी जाती है।
अकबर अपनी प्रजा को बाध्य किया करता था की वह अपने घर की स्त्रियों का नग्न प्रदर्शन सामूहिक रूप से आयोजित करे जिसे अकबर ने खुदारोज (प्रमोद दिवस) नाम दिया हुआ था। इस उत्सव के पीछे अकबर का एकमात्र उदेश्य सुन्दरियों को अपने हरम के लिए चुनना था।
गोंडवाना की “रानी दुर्गावती” पर भी अकबर की कुदृष्टि थी। उसने रानी को प्राप्त करने के लिए उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के दौरान वीरांगना ने अनुभव किया कि उसे मारने की नहीं वरन बंदी बनाने का प्रयास किया जा रहा है, तो उसने वहीं आत्महत्या कर ली। तब अकबर ने उसकी बहन और पुत्रबधू को बलपूर्वक अपने हरम में डाल दिया। अकबर ने यह प्रथा भी चलाई थी कि उसके पराजित शत्रु अपने परिवार एवं सेविका वर्ग में से चुनी हुई महिलायें उसके हरम में भेजे।
मुद्रा:
अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने में सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा में परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले।
अकबर का धार्मिक परिचय
अकबर एक मुसलमान था, पर दूसरे धर्म एवं सम्प्रदायों के लिए भी उसके मन में आदर था। जैसे-जैसे अकबर की आयु बढ़ती गई वैसे-वैसे उसकी धर्म के प्रति रुचि बढ़ने लगी। उसे विशेषकर हिंदू धर्म के प्रति अपने लगाव के लिए जाना जाता हैं। उसने अपने पूर्वजो से विपरीत कई हिंदू राजकुमारियों से शादी की। इसके अलावा अकबर ने अपने राज्य में हिन्दुओ को विभिन्न राजसी पदों पर भी आसीन किया जो कि किसी भी भूतपूर्व मुस्लिम शासक ने नहीं किया था। वह यह जान गया था कि भारत में लम्बे समय तक राज करने के लिए उसे यहाँ के मूल निवासियों को उचित एवं बराबरी का स्थान देना चाहिये।
जज़िया कर :
सर्वप्रथम मुहम्मद बिन कासिम ने भारत में सिंध प्रान्त के देवल में जजिया कर लगाया था। हिन्दुओं पर लगे जज़िया को 1562 में अकबर ने हटा दिया, किंतु 1575 में मुस्लिम नेताओं के विरोध के कारण वापस लगाना पड़ा, हालांकि उसने बाद में नीतिपूर्वक वापस हटा लिया। जज़िया कर गरीब हिन्दुओं को गरीबी से विवश होकर इस्लाम की शरण लेने के लिए लगाया जाता था। यह मुस्लिम लोगों पर नहीं लगाया जाता था। इस कर के कारण बहुत सी गरीब हिन्दू जनसंख्या पर बोझ पड़ता था, जिससे विवश हो कर वे इस्लाम कबूल कर लिया करते थे। फिरोज़ शाह तुगलक ने बताया है, कि कैसे जज़िया द्वारा इस्लाम का प्रसार हुआ था।
अकबर द्वारा जज़िया और हिन्दू तीर्थों पर लगे कर हटाने के सामयिक निर्णयों का हिन्दुओं पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि इससे उन्हें कुछ खास लाभ नहीं हुआ, क्योंकि ये कुछ अन्तराल बाद वापस लगा दिए गए। अकबर ने बहुत से हिन्दुओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध भी इस्लाम ग्रहण करवाया था। इसके अलावा उसने बहुत से हिन्दू तीर्थ स्थानों के नाम भी इस्लामी किए, जैसे 1583 में प्रयागराज को इलाहाबाद किया गया। अकबर के शासनकाल में ही उसके एक सिपहसलार “हुसैन खान तुक्रिया” ने हिन्दुओं को बलपूर्वक भेदभाव दर्शक छाप उनके कंधों और बांहों पर लगाने को विवश किया था।
सोने का छत्र और मंदिर की रहस्यमयी कहानी :
ज्वालामुखी मन्दिर के संबंध में एक कथा काफी प्रचलित है। यह 1542 से 1605 के मध्य का ही होगा तभी अकबर दिल्ली का राजा था। ध्यानुभक्त माता जोतावाली का परम भक्त था। एक बार देवी के दर्शन के लिए वह अपने गाँववासियो के साथ ज्वालाजी के लिए निकला। जब उसका काफिला दिल्ली से गुजरा तो मुगल बादशाह अकबर के सिपाहियों ने उसे रोक लिया और राजा अकबर के दरबार में पेश किया।
अकबर ने जब ध्यानु से पूछा कि वह अपने गाँववासियों के साथ कहां जा रहा है तो उत्तर में ध्यानु ने कहा वह जोतावाली के दर्शनो के लिए जा रहे है। अकबर ने कहा तेरी माँ में क्या शक्ति है? और वह क्या-क्या कर सकती है? तब ध्यानु ने कहा वह तो पूरे संसार की रक्षा करने वाली हैं। ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो वह नहीं कर सकती है।
अकबर ने ध्यानु के घोड़े का सर कटवा दिया और कहा कि अगर तेरी माँ में शक्ति है तो घोड़े के सर को जोड़कर उसे जीवित कर दें। यह वचन सुनकर ध्यानु देवी की स्तुति करने लगा और अपना सिर काट कर माता को भेट के रूप में प्रदान किया। माता की शक्ति से घोड़े का सर जुड गया।
इस प्रकार अकबर को देवी की शक्ति का एहसास हुआ। बादशाह अकबर ने देवी के मन्दिर में सोने का छत्र भी चढाया। किन्तु उसके मन में अभिमान हो गया कि वो सोने का छत्र चढाने लाया है, तो माता ने उसके हाथ से छत्र को गिरवा दिया और उसे एक अजीब (नई) धातु का बना दिया जो आज तक एक रहस्य है। यह छत्र आज भी मन्दिर में मौजूद है।
महान या क्रूर :
इतिहासकार दशरथ शर्मा बताते हैं, कि अकबर को उसके दरबारी ऐतिहासिक ग्रंथों जैसे “अकबरनामा“, आदि में “महान अकबर” की संज्ञा दी गई है। इसके अतिरिक्त अन्य ग्रंथ देखे, जैसे “दलपत विलास“, तब स्पष्ट हो जाएगा कि अकबर अपने हिन्दू सामंतों से कितना अभद्र व्यवहार किया करता था।
अकबर के नवरत्न राजा मानसिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर के निर्माण को अकबर की अनुमति के बाद किए जाने के कारण हिन्दुओं ने उस मंदिर में जाने का बहिष्कार कर दिया। कारण साफ था, कि राजा मानसिंह के परिवार के अकबर से वैवाहिक संबंध थे।
अकबर के हिन्दू सामंत उसकी अनुमति के बगैर मंदिर निर्माण तक नहीं करा सकते थे। बंगाल में राजा मानसिंह ने एक मंदिर का निर्माण बिना अनुमति के आरंभ किया, तो अकबर ने पता चलने पर उसे रुकवा दिया और 1595 में उसे मस्जिद में बदलने के आदेश दिए।
घ्रणा :
अकबर के लिए घ्रणा की हद एक घटना से पता चलती है। हिन्दू किसानों के एक नेता राजा राम ने अकबर के मकबरे, सिकंदरा, आगरा को लूटने का प्रयास किया, जिसे स्थानीय फ़ौजदार, मीर अबुल फजल ने असफल कर दिया। इसके कुछ ही समय बाद 1688 में राजा राम सिकंदरा में दोबारा आया और शाइस्ता खां के आने में विलंब का फायदा उठाते हुए, उसने मकबरे पर दोबारा सेंध लगाई और बहुत से बहुमूल्य सामान, जैसे सोने, चाँदी, बहुमूल्य कालीन, चिराग, इत्यादि लूट लिए, तथा जो ले जा नहीं सका, उन्हें बर्बाद कर गया। राजा राम और उसके आदमियों ने अकबर की अस्थियों को खोद कर निकाल लिया एवं जला कर भस्म कर दिया, जो कि मुस्लिमों के लिए घोर अपमान का विषय था।
अन्य धर्मों से लगाव :
बाद के वर्षों में अकबर को अन्य धर्मों के प्रति भी आकर्षण हुआ। अकबर का हिंदू धर्म के प्रति लगाव केवल मुग़ल साम्राज्य को ठोस बनाने के ही लिए नहीं था वरन उसकी हिंदू धर्म में व्यक्तिगत रुचि थी। हिंदू धर्म के अलावा अकबर को शिया इस्लाम एवं ईसाई धर्म में भी रुचि थी। ईसाई धर्म के मूलभूत सिद्धांत जानने के लिए उसने एक बार एक पुर्तगाली ईसाई धर्म प्रचारक को गोआ से बुला भेजा था।
अकबर ने दरबार में एक विशेष जगह बनवाई थी जिसे “इबादत-खाना” (प्रार्थना-स्थल) कहा जाता था, जहाँ वह विभिन्न धर्मगुरुओं एवं प्रचारकों से धार्मिक चर्चाएं किया करता था। उसका यह दूसरे धर्मों का अन्वेषण कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोगों के लिए असहनीय था। उन्हे लगने लगा था कि अकबर अपने धर्म से भटक रहा है। इन बातों में कुछ सच्चाई भी थी, अकबर ने कई बार रुढ़िवादी इस्लाम से हट कर भी कुछ फैसले लिए, यहाँ तक कि 1582 में उसने एक नये सम्प्रदाय की ही शुरुआत कर दी जिसे “दीन-ए-इलाही” यानी ईश्वर का धर्म कहा गया।
दीन-ए-इलाही और सुलह-ए-कुल :
“दीन-ए-इलाही” नाम से अकबर ने 1582 में एक नया धर्म बनाया जिसमें सभी धर्मो के मूल तत्वों को डाला, इसमे प्रमुखतः हिंदू एवं इस्लाम धर्म थे। इनके अलावा पारसी, जैन एवं ईसाई धर्म के मूल विचारों को भी सम्मिलित किया। हालांकि इस धर्म के प्रचार के लिए उसने कुछ अधिक उद्योग नहीं किये केवल अपने विश्वस्त लोगो को ही इसमे सम्मिलित किया।
कहा जाता हैं कि अकबर के अलावा केवल राजा बीरबल ही मृत्यु तक इस के अनुयायी थे। दबेस्तान-ए-मजहब के अनुसार अकबर के पश्चात केवल 19 लोगो ने इस धर्म को अपनाया। कालांतर में अकबर ने एक नए पंचांग की रचना की जिसमें कि उसने एक ईश्वरीय संवत को आरम्भ किया जो उसके ही राज्याभिषेक के दिन से प्रारम्भ होता था।
अकबर ने तत्कालीन सिक्कों के पीछे “अल्लाह-ओ-अकबर” लिखवाया जो अनेकार्थी शब्द था। अकबर का शाब्दिक अर्थ है “महान” और “अल्लाह-ओ-अकबर” शब्द के दो अर्थ हो सकते थे “अल्लाह महान है” या “अकबर ही अल्लाह हैं“।
दीन-ए-इलाही सही मायनो में धर्म न होकर एक आचार संहिता के समान था। इसमे भोग, घमंड, निंदा करना या दोष लगाना वर्जित थे एवं इन्हे पाप कहा गया। दया, विचारशीलता और संयम इसके आधार स्तम्भ थे। यह तर्क दिया गया है कि दीन-ए-इलैही का एक नया धर्म होने का सिद्धांत गलत धारणा है, जो कि बाद में ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा अबुल फजल के कार्यों के गलत अनुवाद के कारण पैदा हुआ था।
हालांकि, यह भी स्वीकार किया जाता है कि सुलह-ए-कुल की नीति, जिसमें दीन-ई-इलैही का सार था, अकबर ने केवल धार्मिक उद्देश्यों के लिए नहीं बल्कि सामान्य शाही प्रशासनिक नीति का एक भाग के रूप में अपनाया था। इसने अकबर की धार्मिक सहानुभूति की नीति का आधार बनाया।
सन 1605 में अकबर की मौत के समय उनके मुस्लिम विषयों में असंतोष का कोई संकेत नहीं था, और अब्दुल हक जैसे एक धर्मशास्त्री की धारणा थी कि निकट संबंध बने रहे।
सर्वधर्म मैत्री “सुलह-ए-कुल” सूफियों का मूल सिद्धांत रहा है। प्रसिद्ध सूफी शायर रूमी के पास एक व्यक्ति आया और कहने लगा- एक मुसलमान एक ईसाई से सहमत नहीं होता और ईसाई यहूदी से। फिर आप सभी धर्मो से कैसे सहमत हैं? रूमी ने हंसकर जवाब दिया- मैं आपसे भी सहमत हूं। सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने सुलह-ए-कुल का सिद्धांत दिया, जिसे अकबर ने प्रतिपादित किया।
नवरत्न: अकबर के दरबार के नौ रत्न
नवरत्न का अर्थ होता है- ‘नौ रत्नों का समूह’; अकबर ने अपने दरबार में 9 भरोसेमंद लोगों को रखा था, जिन्हें कालांतर में नवरत्न कहा जाने लगा। ये निम्न हैं-
1. बीरबल: ये अकबर के ‘सलाहकार‘ थे। उनका वास्तविक नाम महेशदास था। उनका जन्म महर्षि कवि के वंशज भट्ट ब्राह्मण परिवार में हुआ था वह बचपन से ही तीव्र बुद्धि के थे। माना जाता है कि 16 फरवरी 1586 को अफगानिस्तान के युद्ध में एक बड़ी सैन्य मंडली के नेतृत्व के दौरान बीरबल की मृत्यु हो गयी।
2. अबुल फजल : वह अकबर के शासन का ‘इतिहासकार‘ था। इनका संबंध अरब के हिजाजी परिवार से था। इनका जन्म 14 जनवरी 1551 में हुआ था। इनके पिता का नाम शेक मुबारक था। अबुल फजल ने अकबर की जीवनी “अकबरनामा” लिखी। इसने ही ‘आइन-ए-अकबरी‘ भी लिखी था। 1602 ई में सलीम (जहांगीर) के निर्देश पर दक्षिण से आगरा की ओर जा रहे अबुल फजल को रास्ते में वीर सिंह बुंदेलासरदार ने हत्या करवा दी।
3. मुल्ला दो प्याज़ा : वे भी अकबर के दरबार में ‘सलाहकार‘ थे, जिन्हे उनकी बुद्धि के लिए जाना जाता है।
4. फैजी: फैजी ने पंचतंत्र, रामायण और महाभारत का अनुवादन फारसी में किया था। फैजी अबुल फजल का भाई था। वह फारसी में कविता करता था। एक गणित ‘शिक्षक‘ के रूप में उसे नियुक्त किया गया था।
5. टोडरमल : टोडर मल शेरशाह सूरी के ‘राजस्व मंत्री‘ थे, जिन्हे अकबर ने अपने दरबार उसी पद पर कायम रखा। उन्होंने मानक बाट और माप, राजस्व जिलों और अधिकारियों की शुरुआत की।
6. अब्दुल रहीम खान-ए-खाना: ये एक ‘कवि‘ थे। अब्दुल रहीम खान-ए-खाना मुगल सेनापति बैरम खान के पुत्र थे। बैरम खान ने ही हुमायूं की मौत के बाद अकबर की देखभाल की थी। रहीम अपने दोहों के लिए प्रसिद्ध हैं। ये रहीमदास नाम से प्रसिद्ध हैं।
7. तानसेन (रामतनु पांडेय) : एक महान ‘संगीतकार‘ थे, जिन्हे मियां की मल्हार, मियां की तोड़ी और दरबारी कन्नड जैसे नए रागों के अविष्कार का श्रेय दिया जाता है। तानसेन का नाम अकबर के प्रमुख संगीतज्ञों की सूची में सर्वोपरि था।
8. राजा मान सिंह : राजा मान सिंह, अकबर के एक भरोसेमंद ‘सेनापति‘ और उनकी पत्नी हरका बाई के भतीजे थे। राजा मान सिंह ने कई मोर्चों पर अकबर को सहायता प्रदान की जैसे लाहौर में हाकिम (अकबर के सौतेले भाई) को आगे बढ़ने से रोकना। उन्होंने उड़ीसा के अभियान का नेतृत्व भी किया।
9. फकीर अज़ियाओ दीन : वे एक फकीर और ‘सलाहकार‘ थे, जिनकी सलाह का अकबर सम्मान करते थे।
विस्तार से पढ़ें:- अकबर के नवरत्न।
प्रमुख युद्ध
अकबर के शासनकाल में लड़े गए प्रमुख युद्ध इस प्रकार हैं-
1. पानीपत का दूसरा युद्ध (1556)
यह पानीपत नामक स्थान पर दूसरा युद्ध था, इसीलिए इसे पानीपत का दूसरा युद्ध कहते हैं। यह युद्ध कश्मीर के हिंदू राजा हेमू चंद्र विक्रमादित्य और अकबर की सेना यानी बैरम खां के मध्य लड़ा गया था।
2. थानेसर का युद्ध (1567)
थानेसर का युद्ध सन 1567 ई में हरियाणा में सरस्वती-घग्गर नदी के तट पर थानेसर क्षेत्र में अकबर और राजपूतों के बीच लड़ा गया था। इसे तपस्वियों के युद्ध के रूप में भी जाना जाता है।
3. तुकारोई का युद्ध (1575)
तुकारोई का युद्ध अकबर और बंगाल के बीच 1575 में ओडिशा के बालासोर जिले में स्थित तुकारोई नामक गाँव में हुआ था। इसमें मुग़लों की जीत हुई और उन्होंने बंगाल को मुगल साम्राज्य में मिला लिया। इस युद्ध में अकबर ने बंगाल और बिहार के सुल्तानों को हराया था।
4. हल्दीघाटी का युद्ध (1576)
हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 को लड़ा गया था। यह मेवाड़ के राणा, महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर की सेनाओं के बीच लड़ा गया था। मुग़लों की ओर से जिसका नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह प्रथम ने किया था।
मुग़ल शासन के दौरान लड़े गए अन्य प्रमुख युद्ध-
- पानीपत का प्रथम युद्ध (1526): 21 अप्रैल 1526 में बाबर एवं इब्राहिम लोदी के बीच, इस युद्ध में बाबर की जीत हुई, और बाबर द्वारा भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की गई;
- खनवा का युद्ध (1527): बाबर ने मेवाड़ के राणा शुंग और उसके सहयोगियों को हराया;
- घाघरा का युद्ध (1529): बाबर ने अफगान और बंगाल के सुल्तान के संयुक्त बलों को हराया;
- चौसा का युद्ध (1539): शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराया;
- सरहिन्द का युद्ध(1555): 22 जून, 1555 के इस युद्ध में अफ़गानों को हराकर पुनः हुमायूँ ने दिल्ली पर अपना शासन स्थापित किया;
- समुगढ़ का युद्ध (1658): औरंगजेब और मुराद बख्श ने दारा शिकोह को हराया;
- खाजवा का युद्ध (1659): औरंगजेब ने अपने भाई शाह शुजा को हराया;
- सराईघाट का युद्ध (1671): अहोम साम्राज्य के लाचि बोरुपखान ने राम सिंह के नेतृत्व वाली मुग़ल सेना को हराया;
- करनाल का युद्ध (1739): नादिर शाह ने मुगल बादशाह मुहम्मद शाह को हराया और मयूर सिंहासन और कोहिनूर हीरे सहित मुगल खजाना लूटा।
AKBAR द्वारा जीते गए उत्तर भारत के राज्य:
प्रदेश | शासक | वर्ष | मुगल सेनापति |
---|---|---|---|
मालवा | बाज बहादुर | 1561 | आधम खान, पीरमुहम्मद |
चुनार | अफगानों का शासन | 1562 | अब्दुल्ला खान |
गोंडवाना | वीर नारायण और दुर्गावती | 1564 | आसफ खान स्वयं अधीनता |
आमेर | भारमल | 1562 | स्वीकार किया |
मेड़ता | जयमल | 1562 | सरफुद्दीन |
मेवाड़ | उदय सिंह और राणा प्रताप | 1568 | अकबर खुद, मानसिंह और आसफ खान |
रणथंभौर | सुरजनहाड़ा | 1576 | भगवान दास अकबर |
कालिंजर | रामचंद्र | 1569 | मजनू खान काकशाह |
मारबाड़ | राव चंद्रसेन | 1570 | अधीनता स्वीकारी |
जैसलमेर | रावल हरिराय | 1570 | अधीनता स्वीकारी |
बीकानेर | कल्याणमल | 1570 | अधीनता स्वीकारी |
गुजरात | मजफ्फर खान | 1571 | सम्राट अकबर |
बिहार और बंगाल | दाउद खान | 1574-76 | मुनीम खानखाना |
काबुल | हकीम मिर्जा | 1581 | मानसिंह और अकबर |
कश्मीर | युसुफ, याकुब खान | 1586 | मानसिंह और कासिम खान |
सिंध | जानीबेग | 1591 | अब्दुर्रहीम खानखाना |
उड़ीसा | निसार खान | 1590-91 | मान सिंह |
बलुचिस्तान | पन्नी अफगान | 1595 | मीर मासूम |
कंधार | मुज्फ्फर हुसैन | 1595 | शाहबेग |
AKBAR द्वारा जीते गए दक्षिण भारत के राज्य :
प्रदेश | शासक | वर्ष | मुगल सेनापति |
---|---|---|---|
खानदेश | अली खान | 1591 | स्वेच्छा से अधीनता अधिकारी |
दौलताबाद | चांद बीबी | 1599 | मुराद, खानखाना, अकबर |
अहमदनगर | बहादुर शाह, चांद बीबी | 1600 | स्वेच्छा से |
असीरगढ़ | मीरन बहादुर | 1601 | अकबर |
AKBAR के कुछ महत्वपूर्ण कार्य:
कार्य | वर्ष |
---|---|
दास प्रथा की समाप्ति | 1562 |
अकबर को हरमदल से मुक्ति | 1562 |
तीर्थ यात्रा कर समाप्त | 1563 |
जजिया कर समाप्त | 1564 |
फतेहपुर सीकरी की स्थापना और राजधानी को आगरा से फतेहपुर ले जाना | 1571 |
इबादत खाने की स्थापना | 1575 |
इबादत खाने में सभी धर्मों के लोगों के प्रवेश की अनुमति | 1578 |
मजहर की घोषणा | 1579 |
दीन-ए-इलाही की स्थापना | 1582 |
इलाही संवत की शुरुआत | 1583 |
राजधानी लाहौर स्थानांतरित | 1585 |
अकबर शासन काल के महत्वपूर्ण तथ्य-
- अकबर की शासन प्रणाली की प्रमुख विशेषता मनसबदारी प्रथा थी।
- अकबर के समकालीन सूफी संत शेक सलीम चिश्ती थे।
- अकबर के काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल कहा जाता है।
- अकबर ने बीरबल को कविप्रिय और नरहरिको महापात्र की उपाधि दी थी।
- अकबर ने बुलंद दरवाजे का निर्माण गुजरात विजय के उपलक्ष्य में करवाया था।
- अकबर ने शीरी कलम की उपाधि अब्दुससमद को और जड़ी कलम की उपाधि मुहम्मद हुसैन कश्मीरी को दिया।
- अकबर के दरबार का प्रसिद्ध चित्रकार अब्दुससमद था।
- अकबर का शिक्षक अब्दुल लतीफ ईरानी विद्वान था।
- गुजरात विजय के दौरान अकबर पुर्तगालियों से मिला और यहीं उसने पहली बार समुद्र देखा।
प्रश्न उत्तर
AKBAR का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
अकबर का जन्म 15 अक्तूबर, 1542 को राजपूत राजा वीरसाल प्रसाद के महल उमरकोट (सिंध, पाकिस्तान) में हुआ था, क्यूंकी उस समय हुमायूँ से चौसा का युद्ध (1539) में शेरशाह सूरी ने दिल्ली की गद्दी छीन ली थी।
अकबर की मृत्यु किस युद्ध में और कैसे हुई थी?
अकबर की मृत्यु किसी भी युद्ध में नहीं हुई थी, उसकी मृत्यु 27 अक्तूबर, 1605 को फतेहपुर सीकरी (आगरा, भारत) में बीमारी के चलते हुई थी। कहा ये भी जाता है कि इसके पुत्र समीर(जहांगीर) ने जहर दिया था, क्यूंकी अकबर ने उसकी प्रेमिका जोकि एक निम्न परिवार से थी, को मरवा दिया था।
अकबर किस वंश का शासक था?
अकबर मुग़ल वंश का शासक था, इनके पिता हुमायूँ थे और दादा बाबर, जिनके पितृपक्ष का संबंध तैमूरलंग और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर तुर्क और मंगोल वंश से संबंधित था।
मुग़ल साम्राज्य में हरम क्या होता था?
मुग़ल साम्राज्य दूसरे राज्यों के हारने के बाद वहाँ की सुंदर स्त्रियों एवं राज्य की सुंदर स्त्रियों को जबरन जिस स्थान पर रखा जाता था, वह स्थान ही हरम कहलाता था। हरम को उस समय का सबसे बड़ा वेश्यालय कहा जाता है।
अकबर ने कौन सा धर्म चलाया था?
अकबर ने 1582 में “दीन-ए-इलाही” नाम से एक नए धर्म की स्थापना की, अकबर के अलावा केवल राजा बीरबल ही मृत्यु तक इस के अनुयायी थे। दबेस्तान-ए-मजहब के अनुसार अकबर के पश्चात केवल 19 लोगो ने इस धर्म को अपनाया।
अकबर के नवरत्नों के क्या नाम थे?
AKBAR के दरबार में नवरत्नों के नाम इस प्रकार थे- अबुल फजल, फैजी, तानसेन, राजा बीरबल, राजा टोडरमल, राजा मानसिंह, अब्दुल रहीम खान-ऐ-खाना, फकीर अजिओं-दीन, मुल्ला दो प्याज़ा।
complete article about akbar. thx
mujhe is akbar jivan parichay se poorn jankaari mili