वंशानुक्रम (Heredity) – परिभाषा, अर्थ, सिद्धांत, नियम और प्रयोग

वंशानुक्रम क्या है? (What is Heredity?)

वंशानुक्रम (Vanshanukram) शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘वंश + अनुक्रम‘, अर्थात वंश के क्रम अनुसार होता है। यह व्यक्ति के पूर्वजों और उनके वंशजों के बीच संबंधों को स्पष्ट करने में मदद करती है, जिससे पूर्वजों के गुणों की वंशजों में पहचान की जा सके। इस पोस्ट में Vanshanukram ka Arth, Paribhasha aur Siddhant के बारे में विस्तार से बताया गया।

वंशानुक्रम का अर्थ (Vanshanukram Ka Arth)

समस्त प्राणियों में मानव को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना जाता है। उसमें इतनी अधिक विशेषताएँ होती हैं कि वह अकल्पनीय कार्यों को भी कर सकता है। अत: यह प्रश्न उठता है कि ये विशेषताएँ उसमें कहाँ से आती हैं और किस रूप में आती हैं?

सामान्य रूप से यह देखने में आता है कि संसार के सभी स्त्री-पुरुष आपस में कुछ समानताएँ रखते हैं और कुछ असमानताएँ भी। जैसा कि एन. एनास्टासी ने कहा है- “व्यक्तिगत भेद किसी एक वंशानुक्रम के अन्तर्गत वातावरण की भिन्नता से प्रभावित होता है। साथ ही यदि वातावरण उत्तम है तो व्यवहार की असमानताएँ वंशानक्रम की विभिन्नता की ओर संकेत करती हैं।

अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वंशानुक्रम तथा वातावरण मानव/अधिगमकर्ता/छात्र के विकास को प्रभावित करता है।

छात्र में उत्पन्न विशेषताओं के लिये उसके माता-पिता को ही उत्तरदायी नहीं ठहराया जाता है बल्कि उसके सम्बन्धियों को भी। इससे निष्कर्ष निकलता है कि जो विशेषता उसके माता-पिता से मिलती-जुलती हैं, उनका हस्तान्तरण माता-पिता से होता है और जो माता-पिता से विषमता रखती हैं, उनका हस्तान्तरण उसके सगे-सम्बन्धियों से होता है।

जैसा कि डगलस और हालैण्ड ने विचार प्रस्तुत किया है- “एक प्राणी के वंशानुक्रम में वे सभी संरचनाएँ, शारीरिक विशेषताएँ, क्रियाएँ या क्षमताएँ सम्मिलित रहती हैं, जिन्हें वह अपने माता-पिता, अन्य पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करता है।

वंशानुक्रम की परिभाषा (Vanshanukram ki Paribhasha)

वंशानुक्रम की परिभाषाएँ कई विद्वानों ने दी हैं, प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

रूथ बैंडिक्ट के अनुसार वंशानुक्रम की परिभाषा- “वंशानुक्रम माता-पिता से सन्तान को प्राप्त होने वाले गुणों का नाम है।

पी. जिंसबर्ट के अनुसार वंशानुक्रम की परिभाषा- “प्रकृति में पीढ़ी का प्रत्येक कार्य माता-पिता द्वारा सन्तानों में कुछ जैविकीय या मनोवैज्ञानिक विशेषताओं का हस्तान्तरण करना है। इस प्रकार से विशेषताओं के संगठित हस्तान्तरण को वंशानुक्रम के नाम से जाना जाता है।

जेम्स ड्रेवर के अनुसार वंशानुक्रम की परिभाषा- “माता-पिता की शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं का संतानों में संक्रमित होना ही वंशानुक्रम हैं।

एच. ए. पेटरसन वंशानुक्रम के बारे में लिखते हैं- “वंशानुक्रम को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के माध्यम से पूर्वजों के जो कुछ गुण प्राप्त करता है, वही वंशानुक्रम कहलाता है।

बी. एन. झा के अनुसार वंशानुक्रम की परिभाषा- “व्यक्ति की जन्मजात विशेषताओं के समस्त योग को वंशानुक्रम कहते हैं।

वुडवर्थ वंशानुक्रम की परिभाषा देते हुए लिखते हैं, कि- “व्यक्ति के पूर्वजों में उपस्थित समस्त गुणों का उनके वंशजों में स्थानांतरण होना वंशानुक्रम कहलाता है। इसके लक्षण जन्म के समय नहीं बल्कि गर्भाधान के समय जन्म से लगभग नौ माह पूर्व ही व्यक्ति में विकसित होने लगते हैं।

उपर्युक्त विद्वानों के मतों से स्पष्ट होता है कि वंशानुक्रम की धारणा अमूर्त होती है। इसको हम व्यक्ति के व्यवहारों एवं विशेषताओं के द्वारा ही जान या समझ सकते हैं। अत: निष्कर्ष रूप में –

“मानव व्यवहार का वह पूर्ण संगठित रूप, जो छात्र (व्यक्ति) में उसके माता-पिता और पूर्वजों द्वारा हस्तान्तरित होता है, को हम वंशानुक्रम कहते हैं।”

वंशानुक्रम की यन्त्र रचना (Mechanism of heredity)

नर और मादा के सम्भोग के समय वीर्य के स्खलन होने पर नर के शुक्र कीट (स्पर्म) मादा के गर्भाशय द्वार पर जाकर टकराते हैं। वीर्य के इन अनगिनत कीटों में कोई कीट संयोगवश मादा के गर्भाशय में स्थित अण्डकोश (ओवम्) से अपना संसर्ग स्थापित कर उसे निषेचित (फर्टिलाइज) कर देता है। इस प्रक्रिया को निषेचन क्रिया कहा जाता है।

इसके पश्चात् शुक्रकोष और अण्डकोष के संयोग से एक संयुक्त कोष का निर्माण होता है, जिसे संयुक्त कोष (Zygote) कहते हैं।

इसके निर्माण के साथ ही बच्चे का अस्तित्व प्रकाश में आ जाता है और फिर भ्रूण रूप में उसका विकास होने लगता है।

Vanshanukram

संयुक्त कोष (Zygote)

ये गाढ़े एवं तरल पदार्थ साइटोप्लाज्म (कोशिकाद्रव्य – Cytoplasm) का बना होता है। साइटोप्लाज्म के अन्दर एक नाभिक (न्यूक्लियस) होता है, जिसके भीतर गुणसूत्र (क्रोमोसोम्स) होते हैं।

गुणसूत्र (Chromosomes)

प्रत्येक कोशिकाओं के नाभिक में डोरों के समान रचना पायी जाती है, जिनको क्रोमोसोम कहा जाता है। ये गुणसूत्र सदैव जोड़ों में पाये जाते हैं। एक संयुक्त कोष में गुणसूत्रों के 23 जोड़े होते हैं। जिसमें आधे पिता द्वारा प्राप्त होते हैं और आधे माता द्वारा। प्रत्येक गुणसूत्र में छोटे-छोटे कीटाणु होते हैं, जिनको ‘जीन्स‘ कहते हैं।

जैसा कि एन. एल. मन ने लिखा है- “हमारी असंख्य परम्परागत विशेषताएँ इन 46 गुणसूत्रों में उपस्थित रहती हैं। गुणसूत्रों में छिपे वंशानुक्रमीय कीटाणुओं को ‘जीन्स‘ कहते हैं, जो वंशानुक्रम के निर्धारक होते हैं।”

पित्रैक (Gene)

एक गुणसूत्र के अन्दर वंशानुक्रम के अनेक निश्चयात्मक तत्त्व पाये जाते हैं, जिनको पित्रैक (जीन) कहा जाता है। जैसा कि एनास्टासी (Anne Anastasi) ने लिखा है- “पित्रैक वंशानुक्रम की विशेषताओं का वाहक है, जो किसी न किसी रूप में सदैव हस्तान्तरित होता है।”

A gene is the carrier of a unit character of an hereditary factor which is always transmitted as a unit in all or none fashion.

एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पित्रैकों का हस्तान्तरण स्वतः होता रहता है। यही पित्रैक वंशानुक्रम सम्बन्धी सभी विशेषताओं और गुणों के वास्तविक वाहक और निर्धारक हैं। जैसा कि एन. एल. मन (N. L. Munn) ने लिखा है-“पित्रैक ‘रासायनिक पैकेट‘ माने गये हैं, जो क्रोमोसोम के साथ एक डोरे में पिरोये माता के दाने या फली में मटर के समान होते हैं।”

They were assume to be ‘Packets of chemicals’ strung along the chromosome like beads on a thread or peas in a pod.

अत: अपने माता-पिता और पूर्वजों से जन्मजात विशेषताओं के रूप में हमें जो भी प्राप्त होता है, वह माता-पिता द्वारा प्रदान किये गये पित्रैकों के माध्यम से माँ के गर्भ में जीवन प्रारम्भ होने (शुक्र कीट द्वारा अण्डकोष का निषेचन होने) के समय ही प्राप्त हो जाता है। यह स्वतः ही पीढ़ी में हस्तान्तरित होते रहते हैं।

वंशानुक्रम के सिद्धान्त और नियम (Laws and Theories of Heredity)

वंशानुक्रम की प्रक्रिया के सम्बन्ध में विभिन्न परीक्षण एवं प्रयोग किये गये हैं। हम वंशानुक्रम के स्वरूप को इन्हीं परीक्षणों के आधार पर परिभाषित कर सकते हैं। अत: विभिन्न विद्वानों द्वारा की गयी खोजों को हम सिद्धान्त एवं नियम मानते हैं। इनका वर्णन इस प्रकार से है-

1. मूल जीवाणु की निरन्तरता का नियम (Low of continuity of germplasm)

फ्रान्सिस गाल्टन ने वर्ष 1775 में बालक को उतना ही योग्य बताया था, जितना कि उसके पूर्वज। अपने अनेक अध्ययनों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले थे-

  1. वंशानुक्रम = 12 पिता + 12 माता पक्ष।
  2. दादा तथा परदादा आदि पूर्वजों के गुण निश्चित मात्रा में होते हैं।
  3. वंश-दर-वंश यह गुण कम होते जाते हैं, जैसे- 12, 14, 18 तथा 116 आदि।

गाल्टन का समर्थन करते हुए वीजमैन ने बालक की उत्पत्ति बीजकोष (Cells) से बतलायी है। मानव शरीर में कायकमोष और उत्पादक कोष होते हैं। ‘कायकमोष‘ (Somatic cells) शारीरिक विकास करते हैं और उत्पादक कोष (Germ cells) वंश परम्परा में हस्तान्तरित होते रहते हैं।

गाल्टन ने 25 पीढ़ियों तक चूहों पर प्रयोग किये। वे चूहों की पूँछों को हर बार काट देते थे, लेकिन बिना पूँछ के चूहे कभी भी पैदा नहीं हुए। अत: यह निष्कर्ष निकला कि अगली सन्तान में मूल जीवाणु हस्तान्तरित होते रहते हैं।

2. अर्जित गुणों का हस्तान्तरण (Inheritance of acquired traits)

लेमार्क, मैक्डूगल, पावलॉव एवं हैरिसन आदि प्रमुख विद्वानों ने वंशानुक्रम का आधार अर्जित गुणों का हस्तान्तरण माना है। लेमार्क ने जिराफ की गर्दन का लम्बा होना परिस्थितिवश बताया, लेकिन अब वह वंशानुक्रमीय हो चुका है।

इसी प्रकार से मैक्डूगल ने चूहों पर प्रयोग किया। आपने पानी से भरे बड़े बर्तन में चूहों को छोड़ दिया। बर्तन से बाहर आने के दो मार्ग थे- प्रकाशित मार्ग और अन्धकारयुक्त मार्ग। प्रकाशित मार्ग में बिजली का झटका लगता था और अन्धकारयुक्त मार्ग में नहीं। अत: सभी चूहे झटके से परेशान होकर अन्धकार वाले मार्ग से बाहर निकलते थे। 23 पीढ़ियों के अध्ययन में पाया गया कि पहली पीढ़ी में चूहों ने 165 बार त्रुटियाँ की और 23वीं पीढ़ी ने सिर्फ 25 बार। अतः स्पष्ट होता है कि अर्जित गुणों का अगली पीढ़ी में हस्तान्तरण होता है।

3. प्रत्यागमन का नियम (Low of regression)

प्रत्यागमन शब्द का अर्थ विपरीत होता है। जब माता-पिता के बच्चे उनके विपरीत विशेषताओं वाले विकसित होते हैं तो यहाँ पर प्रत्यागमन का सिद्धान्त लागू होता है; जैसे- मन्द बुद्धि माता-पिता की सन्तान का प्रखर बुद्धि होना।

विद्धानों ने इसके सन्दर्भ में निम्न धारणाएँ प्रस्तुत की हैं-

  1. यदि वंश सूत्रों का मिश्रण सही रूप से नहीं हो पाता है तो विपरीत विशेषताओं वाले बच्चे विकसित होते हैं।
  2. जागृत और सुषुप्त दो प्रकार के गुण वंश को निश्चित करते हैं। विपरीत विशेषताएँ सुषुप्त गुणों का परिणाम होती हैं।

4. मेण्डल का नियम (Low of Mendel)

वंशानुक्रम की विशेषताओं का पता लगाने के लिये ‘ग्रेगर जॉन मेण्डल‘ ने विभिन्न प्रयोग किये थे। आप चैकोस्लावाकिया में एक ईसाई मठ के पादरी थें। इनके प्रयोगों के निष्कर्षों को ही ‘मेण्डलवाद‘ या मेण्डल का नियम कहा जाता है।

वंशानुक्रम से सम्बन्धित मेण्डल के प्रयोग (Heredity Related Experiments)

वंशानुक्रम से सम्बन्धित निम्न प्रयोग हैं-

  1. मटरों पर प्रयोग
  2. चूहों पर प्रयोग

1. मटरों पर प्रयोग

मेण्डल‘ ने समान संख्या में छोटी तथा बड़ी मटरों को बोया। जो मटरें उत्पन्न हुई, वे सभी बड़ी मटरें थीं (डामिनेन्टट्रेट कारण)। फिर उसने इन वर्णसंकर मटरों को बोया, इससे वर्ण संकर मटरें पैदा हुई। जैसा कि निम्न रेखाचित्र से स्पष्ट है-

Matar Par Prayog

2. चूहों पर प्रयोग

इसी प्रकार से ‘मेण्डल‘ ने चूहों पर भी प्रयोग किये और पूर्व निष्कर्षों को प्राप्त किया। इन्होने सफेद तथा काले चूहों को साथ-साथ रखा। इनके समागम से पहले काले चूहे उत्पन्न हुए। फिर वर्णसंकर चूहों को एक साथ रखा गया, इनमें सफेद एवं काले दोनों ही प्रकार के चूहे उत्पन्न हुए।

मेण्डल का निष्कर्ष– ‘मेण्डल‘ के प्रयोगों से निम्न निष्कर्ष स्पष्ट होते हैं-

  • मेण्डल का नियम प्रत्यागमन को स्पष्ट करता है।
  • बच्चे में माता-पिता की ओर से एक-एक गुणसूत्र आता है।
  • गुणसूत्र की अभिव्यक्ति संयोग पर निर्भर करती है।
  • एक ही प्रकार के गुणसूत्र अपने ही प्रकार की अभिव्यक्ति करते हैं।
  • जागृत गुणसूत्र अभिव्यक्ति करता है, सुषुप्त नहीं।
  • कालान्तर में यह अनुपात 1:2, 2:4, 1:2 तथा 1 : 2 होता जाता है।