आर्यभट्ट (Aryabhatta, 476-550) प्राचीन भारत के महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे, जिन्होंने ‘आर्यभटीय‘ ग्रंथ की रचना की। इसमें ज्योतिषशास्त्र के कई सिद्धांतों का वर्णन मिलता है। उन्होंने अपने जन्मस्थान को कुसुमपुर (वर्तमान पटना) और जन्मकाल शक संवत 398 बताया, लेकिन कुछ शोधों के अनुसार कुसुमपुर दक्षिण में स्थित था। एक अन्य मत के अनुसार, उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। वे भट्ट ब्रह्मभट्ट ब्राह्मण समुदाय से माने जाते हैं और उन्होंने अपनी रचनाएँ राजकीय संरक्षण में पूर्ण कीं।
Aryabhatta Biography in Hindi
पूरा नाम | आर्यभट (Aryabhatta) |
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जन्म | 476 ईस्वी, कुम्भी (वर्तमान बिहार, भारत) |
जन्म स्थान | कुम्भी, बिहार, भारत |
प्रमुख कार्य | गणित, खगोलशास्त्र, त्रिकोणमिति, बीजगणित, सौर और चंद्रग्रहण का अध्ययन |
प्रमुख ग्रंथ | आर्यभटीय (Aryabhatiya) |
गणित में योगदान | π (पाई) का अनुमान, त्रिकोणमिति की परिभाषा, बीजगणितीय समीकरणों का हल |
खगोल विज्ञान में योगदान | पृथ्वी की धुरी पर घूर्णन की व्याख्या, ग्रहणों की वैज्ञानिक व्याख्या, ग्रहों की गति |
समय की गणना | पृथ्वी का आयु और वर्ष के बारे में सटीक गणना, सौर वर्ष का मान निर्धारित |
महत्वपूर्ण शोध | शून्य की अवधारणा का परोक्ष योगदान, गणित में दशमलव प्रणाली का उपयोग |
मृत्यु | 550 ईस्वी (अनुमानित) |
प्रभाव | भारतीय गणितज्ञों और खगोलज्ञों पर गहरा प्रभाव, अरबी और यूरोपीय खगोलशास्त्र पर प्रभाव |
आर्यभट्ट का जीवन परिचय
आर्यभट्ट का जन्म 476 ईस्वी में कुसुमपुर (पटना) में हुआ था। वे सम्राट विक्रमादित्य द्वितीय के समय के विद्वान थे और उनके शिष्य वराहमिहिर एक प्रसिद्ध खगोलविद थे। उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर 23 वर्ष की उम्र में आर्यभटीय ग्रंथ लिखा, जिसकी ख्याति के कारण राजा बुद्धगुप्त ने उन्हें नालंदा विश्वविद्यालय का प्रमुख बनाया। लगभग 875 ईस्वी में आर्यभट्ट द्वितीय हुए, जिन्होंने महासिद्धांत ग्रंथ की रचना की। वे गणित और ज्योतिष के आचार्य थे और ‘लघु आर्यभट्ट’ के नाम से भी प्रसिद्ध थे।
प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा
हालाँकि आर्यभटीय में आर्यभट्ट के जन्म वर्ष का स्पष्ट उल्लेख है, उनके वास्तविक जन्मस्थान को लेकर मतभेद हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि उनका जन्म नर्मदा और गोदावरी के बीच स्थित अश्मक क्षेत्र में हुआ था, जिसे वे मध्य भारत (महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश) से जोड़ते हैं। प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथ अश्मक को दक्षिणापथ या दक्खन में दर्शाते हैं, जबकि अन्य स्रोत इसे सिकंदर के प्रतिरोधी क्षेत्र के रूप में उत्तर में स्थित मानते हैं।
हालिया अध्ययन के अनुसार, आर्यभट्ट केरल के चाम्रवत्तम (10°51′ उत्तर, 75°45′ पूर्व) के निवासी थे। शोध के अनुसार, अश्मक एक जैन प्रदेश था, जो श्रवणबेलगोल के आसपास विस्तृत था, और पत्थर के स्तंभों के कारण इसका नाम “अश्मक” पड़ा। चाम्रवत्तम इस जैन क्षेत्र का अंग था, जिसका प्रमाण भारतापुझा नदी है, जिसका नाम जैन परंपरा के राजा भरत के नाम पर रखा गया। दशगीतिका के पाँचवें श्लोक में भी राजा भरत का उल्लेख है, जिससे संकेत मिलता है कि आर्यभट्ट की विद्या कुसुमपुरा तक पहुँची और सराही गई।
यह सुनिश्चित है कि आर्यभट्ट उच्च शिक्षा के लिए कुसुमपुरा (आधुनिक पटना) आए और कुछ समय वहाँ रहे। भास्कर I (629 ई.) ने कुसुमपुरा को पाटलिपुत्र से जोड़ा है। गुप्त साम्राज्य के अंतिम दिनों में, जब बुद्धगुप्त और अन्य शासकों के शासनकाल में हूणों के आक्रमण शुरू हुए, वे वहीं निवास कर रहे थे।
आर्यभट्ट अपनी खगोलीय गणनाओं में श्रीलंका को संदर्भ बिंदु के रूप में उपयोग करते थे, और उन्होंने आर्यभटीय में कई स्थानों पर श्रीलंका का उल्लेख किया है।
आर्यभट्ट की कृतियाँ
आर्यभट्ट द्वारा रचित तीन प्रमुख ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है—दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। विद्वानों के अनुसार, उन्होंने आर्यभट्ट सिद्धांत नामक एक और ग्रंथ भी लिखा था, लेकिन वर्तमान में इसके केवल 34 श्लोक ही मिलते हैं। सातवीं शताब्दी में इस ग्रंथ का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था, लेकिन इसका लुप्त हो जाना रहस्य बना हुआ है।
उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति आर्यभटीय है, जिसमें वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी और विभिन्न समीकरणों का उल्लेख है। इसमें गणितीय सिद्धांतों को 33 श्लोकों में तथा खगोल-विज्ञान और यांत्रिकी से जुड़े सिद्धांतों को 75 श्लोकों में समाहित किया गया है। इस छोटे ग्रंथ में उन्होंने अपने समय से पहले और बाद के भारतीय तथा विदेशी सिद्धांतों पर क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए।
आर्यभटीय गणित और खगोल विज्ञान का एक संकलन है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धृत किया गया है और जो आज भी उपलब्ध है। इसके गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमें सतत भिन्न, द्विघात समीकरण, घात शृंखला के योग और ज्याओं की एक तालिका का विवरण भी मिलता है।
आर्य-सिद्धांत खगोलीय गणनाओं पर आधारित एक ग्रंथ था, जो अब लुप्त हो चुका है। इसकी जानकारी वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त और भास्कर I के लेखों से मिलती है। यह सूर्य सिद्धांत पर आधारित था और इसमें मध्यरात्रि-दिवस गणना का उपयोग किया गया था, जबकि आर्यभटीय में सूर्योदय-आधारित गणना पद्धति अपनाई गई थी। इस ग्रंथ में कई खगोलीय यंत्रों, जैसे शंकु-यंत्र, छाया-यंत्र, अर्धवृत्ताकार उपकरण, चक्र-यंत्र, यस्ती-यंत्र, छत्र-यंत्र और दो प्रकार की जल घड़ियों का उल्लेख किया गया है।
एक तीसरा ग्रंथ, जिसका अरबी अनुवाद अल-नन्तफ या अल-नन्फ़ नाम से जाना जाता है, आर्यभट्ट की कृति होने का दावा करता है, लेकिन इसका मूल संस्कृत नाम अज्ञात है। 9वीं शताब्दी के अभिलेखों में फारसी विद्वान और इतिहासकार अल-बिरूनी ने इसका उल्लेख किया है।
आर्यभटीय (आर्यभट्ट की पुस्तक)
आर्यभट्ट के कार्यों का प्रत्यक्ष विवरण केवल आर्यभटीय से प्राप्त होता है। यह नाम बाद के विद्वानों द्वारा दिया गया था, जबकि स्वयं आर्यभट्ट ने इसे कोई शीर्षक नहीं दिया होगा। उनके शिष्य भास्कर प्रथम ने इसे अश्मकतंत्र या अश्माका के लेखों में संदर्भित किया है। इसे कभी-कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट्ट के 108) भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें कुल 108 छंद हैं। यह ग्रंथ सूत्र शैली में लिखा गया है, जहाँ हर पंक्ति एक जटिल प्रणाली को याद रखने में सहायक होती है। इसके अर्थ की व्याख्या बाद के टिप्पणीकारों के योगदान से स्पष्ट होती है। इसमें 108 मूल छंदों के अतिरिक्त 13 परिचयात्मक छंद भी शामिल हैं, और पूरा ग्रंथ चार प्रमुख अध्यायों में विभाजित है:
- गीतिकपाद (13 छंद): इसमें समय की बड़ी इकाइयाँ—कल्प, मन्वंतर, युग—विवेचित हैं, जो वेदांग ज्योतिष से भिन्न ब्रह्मांडीय अवधारणाएँ प्रस्तुत करता है। इसमें जीवाओं (साइन) की एक तालिका शामिल है और ग्रहों की गति के लिए 4.32 मिलियन वर्षों की गणना दी गई है।
- गणितपाद (33 छंद): इसमें क्षेत्रमिति, गणितीय व ज्यामितीय श्रेणियाँ, शंकु और छाया से जुड़े सिद्धांत, सरल व द्विघात समीकरण, युगपत समीकरण और कुट्टक पद्धति (अनिश्चित समीकरणों का हल) शामिल हैं।
- कालक्रियापाद (25 छंद): इसमें समय की विभिन्न इकाइयों का विश्लेषण, किसी भी दिन ग्रहों की स्थिति की गणना, अधिकमास की अवधारणा, क्षय तिथियाँ, तथा सप्ताह के सात दिनों के नामों का विवरण है।
- गोलपाद (50 छंद): इसमें खगोलीय ज्यामिति, क्रांतिवृत्त, आकाशीय भूमध्य रेखा, पृथ्वी के आकार, दिन-रात के कारण, और क्षितिज पर राशियों के उदय आदि का वर्णन किया गया है।
कुछ संस्करणों में अंत में ग्रंथ की प्रशंसा और पुष्पिकाएं जोड़ी गई हैं।
आर्यभटीय ने गणित और खगोल विज्ञान में काव्य रूप में कई नवीन अवधारणाएँ प्रस्तुत कीं, जो सदियों तक प्रभावशाली बनी रहीं। इसकी संक्षिप्तता पर भास्कर प्रथम (600 ई.) और नीलकंठ सोमयाजी (1465 ई.) ने अपने भाष्यों में विशेष टिप्पणी की है।
आर्यभट का योगदान
भारतीय इतिहास में जिसे ‘गुप्तकाल‘ या ‘स्वर्ण युग‘ कहा जाता है, उस अवधि में साहित्य, कला और विज्ञान में अद्वितीय उन्नति हुई। इसी समय मगध में स्थित नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जहाँ देश-विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन हेतु आते थे। खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए वहाँ एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार, आर्यभट्ट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।
आर्यभट्ट का प्रभाव भारतीय और वैश्विक खगोलीय सिद्धांतों पर गहरा पड़ा। विशेष रूप से, उन्होंने केरल की ज्योतिष परंपरा को अत्यधिक प्रभावित किया। भारतीय गणित में उनका योगदान सर्वोपरि माना जाता है। उन्होंने अपने ग्रंथ आर्यभटीय में 120 आर्या छंदों में ज्योतिष और गणितीय सिद्धांतों को सूत्रबद्ध किया।
गणित में उन्होंने आर्किमिडीज़ से भी अधिक सटीक रूप से π (पाई) का मान निकाला, जबकि खगोलशास्त्र में सबसे पहले उदाहरण देकर यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
आर्यभट्ट ने अपने सीमित संसाधनों के बावजूद ज्योतिषशास्त्र में असाधारण खोजें कीं। कोपरनिकस (1473-1543 ई.) द्वारा प्रस्तुत सिद्धांतों को वे हजार वर्ष पूर्व ही प्रतिपादित कर चुके थे। अपने गोलपाद अध्याय में उन्होंने लिखा:
“नाव में बैठा यात्री जब जलधारा में आगे बढ़ता है, तो उसे तट पर स्थित वृक्ष और पर्वत पीछे जाते प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार, गतिशील पृथ्वी से स्थिर नक्षत्र उलटी दिशा में गतिशील दिखते हैं।”
इस प्रकार, उन्होंने सबसे पहले यह प्रमाणित किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
उन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान अवधि का माना। उनके अनुसार, एक कल्प में 14 मन्वंतर होते हैं, प्रत्येक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) होते हैं, और एक चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग समान होते हैं।
गणित में, उन्होंने किसी वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात 62,832:20,000 बताया, जो चार दशमलव स्थानों तक शुद्ध है।
संख्याओं को निरूपित करने के लिए आर्यभट्ट ने अक्षरों के समूहों पर आधारित एक अत्यंत वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया, जो गणितीय संकेतन में क्रांतिकारी योगदान माना जाता है।
गणित
स्थान-मूल्य प्रणाली और शून्य
स्थान-मूल्य अंक प्रणाली, जिसे सर्वप्रथम तीसरी सदी की बख्शाली पांडुलिपि में देखा गया था, आर्यभट्ट के कार्यों में भी स्पष्ट रूप से विद्यमान थी। यद्यपि उन्होंने स्पष्ट रूप से शून्य का प्रतीक नहीं अपनाया, फिर भी फ्रांसीसी गणितज्ञ जॉर्ज इफ्रह के अनुसार, आर्यभट्ट की अंक प्रणाली में रिक्त गुणांक और दशमलव स्थान-धारक के रूप में शून्य का उपयोग अंतर्निहित था।
हालाँकि, आर्यभट्ट ने ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया। उन्होंने वैदिक परंपरा का अनुसरण करते हुए संख्याओं को निरूपित करने के लिए संस्कृत वर्णमाला के अक्षरों का प्रयोग किया, जो गणना को याद रखने के लिए एक प्रकार की सांकेतिक विधि थी। यह विधि ज्याओं की तालिका जैसी मात्राओं को स्मरणीय बनाने के लिए प्रयुक्त होती थी।
अपरिमेय (इर्रेशनल) रूप में π
आर्यभट्ट ने π (पाई) के सन्निकटन पर कार्य किया और संभवतः यह समझ लिया था कि π एक अपरिमेय संख्या है। आर्यभटीय के गणितपाद के दूसरे भाग में उन्होंने लिखा:
चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥
“100 में 4 जोड़ें, इसे 8 से गुणा करें और फिर 62000 जोड़ें। इस नियम से, 20000 परिधि वाले एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है।”
इस गणना के अनुसार, परिधि और व्यास का अनुपात:
जो पाँच दशमलव स्थानों तक शुद्ध है।
आर्यभट्ट ने “आसन्न” (निकटतम मान) शब्द का उपयोग कर यह संकेत दिया कि यह केवल एक सन्निकटन नहीं है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि π एक अपरिमेय संख्या हो सकती है। यदि यह व्याख्या सही मानी जाए, तो यह एक अत्यधिक परिष्कृत गणितीय अवधारणा है, क्योंकि यूरोप में π के अपरिमेय होने का प्रमाण जॉन लैम्बर्ट ने 1761 में प्रस्तुत किया।
आर्यभटीय के अरबी अनुवाद के बाद (लगभग 820 ई.), मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज़्मी की बीजगणित पुस्तक में भी इस सन्निकटन का उल्लेख किया गया।
क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति
गणितपाद 6 में, आर्यभट ने त्रिभुज के क्षेत्रफल की गणना का सूत्र इस प्रकार दिया:
त्रिभुजस्य फलशरीरं समदलकोटि भुजार्धसंवर्गः
इसका अर्थ है: किसी त्रिभुज का क्षेत्रफल, उसके आधार और ऊँचाई के गुणनफल के आधे के बराबर होता है।
आर्यभट ने अपने कार्यों में द्विज्या (साइन) पर भी चर्चा की और इसे अर्ध-ज्या नाम दिया, जिसका अर्थ है “अर्ध-तंत्री”। बाद में, इसे संक्षेप में ज्या कहा जाने लगा। जब उनके कार्यों का अरबी अनुवाद हुआ, तो ध्वन्यात्मक समानता के कारण इसे जिबा लिखा गया। चूँकि अरबी में स्वरों का प्रयोग न्यूनतम होता है, इसका संक्षिप्त रूप ज्ब रह गया। बाद में, जब विद्वानों ने इसे पुनः जिबा के रूप में पढ़ा, तो इसका अर्थ “खोह” या “गुफा” निकाला, जो अरबी में एक तकनीकी शब्द था। 12वीं शताब्दी में, जब क्रीमोना के घेरार्दो ने इसे लैटिन में अनुवाद किया, तो उन्होंने जिबा के लिए लैटिन समकक्ष साइनस का प्रयोग किया, जिसका अर्थ भी “खोह” या “गुफा” होता है। यही शब्द आगे चलकर अंग्रेजी में साइन बन गया।
अनिश्चित समीकरण
प्राचीन भारतीय गणितज्ञों को विशेष रूप से उन समीकरणों में रुचि थी, जिनके पूर्णांक हल ज्ञात करने होते थे, जैसे कि ax+b=cy यह समस्या आधुनिक गणित में डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जानी जाती है। आर्यभटीय पर भास्कर प्रथम की व्याख्या में ऐसा ही एक उदाहरण मिलता है:
ऐसी संख्या ज्ञात करो जो 8 से विभाजित करने पर शेष 5, 9 से विभाजित करने पर शेष 4, और 7 से विभाजित करने पर शेष 1 दे।
अर्थात, समीकरण निम्नलिखित होंगे:
इसका सबसे छोटा हल N=85N = 85 प्राप्त होता है।
डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करना कठिन माना जाता है। इनका उल्लेख प्राचीन वैदिक ग्रंथ शुल्बसूत्र में भी मिलता है, जो 800 ई.पू. तक के पुराने हो सकते हैं। आर्यभट ने इन समस्याओं के हल के लिए एक विशेष विधि विकसित की, जिसे कुट्टक विधि कहा जाता है। संस्कृत में कुट्टक का अर्थ “पीसना” या “छोटे टुकड़ों में तोड़ना” होता है, और यह विधि समीकरणों को छोटे अंशों में विभाजित कर पुनरावर्ती गणनाओं के माध्यम से हल निकालती थी।
621 ईस्वी के बाद, भास्कर प्रथम ने इस विधि की व्याख्या की, और यह पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने की मानक पद्धति बन गई। इसे आज आर्यभट एल्गोरिद्म के नाम से भी जाना जाता है।
डायोफैंटाइन समीकरणों का आधुनिक उपयोग क्रिप्टोलॉजी में होता है। 2006 के RSA सम्मेलन ने विशेष रूप से कुट्टक विधि और शुल्बसूत्र के प्राचीन गणितीय योगदान पर ध्यान केंद्रित किया था।
बीजगणित
आर्यभटीय में आर्यभट ने वर्गों और घनों की श्रेणियों के रोचक निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं।
तथा
खगोल विज्ञान
आर्यभट की खगोल विज्ञान प्रणाली औदायक प्रणाली कहलाती थी, जिसमें दिन की गणना सूर्योदय से की जाती थी। उनके खगोल विज्ञान पर आधारित बाद के ग्रंथ, जो संभवतः एक अर्ध-रात्रिका प्रणाली (मध्यरात्रि से शुरू होने वाली) प्रस्तुत करते थे, अब उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि, ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक में हुई चर्चाओं से उनके विचार आंशिक रूप से पुनर्निर्मित किए जा सकते हैं। कुछ ग्रंथों में उन्होंने पृथ्वी के घूर्णन को आकाशीय गतियों का कारण बताया है।
सौर प्रणाली की गतियाँ
ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यभट पृथ्वी को अपनी धुरी पर घूमता मानते थे। यह विचार श्रीलंका के सन्दर्भ में दिए गए उनके कथन से स्पष्ट होता है, जहाँ तारों की गति को पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णित किया गया है।
अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्।
अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लंकायाम् ॥ (आर्यभटीय गोलपाद 9)
अर्थ: जैसे कोई व्यक्ति नाव में बैठा हो और आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की ओर जाते देखे, वैसे ही भूमध्य रेखा (लंका) पर स्थित व्यक्ति को स्थिर तारे पश्चिम की ओर गतिशील प्रतीत होते हैं।
अगले श्लोक में तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक बताया गया है:
उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्।
लंका-सम-पश्चिम-गस् भ-पंजरस् स-ग्रहस् भ्रमति ॥ (आर्यभटीय गोलपाद 10)
अर्थ: तारे और ग्रह निरंतर पश्चिम की ओर गति कर रहे हैं, जिससे उनके उदय और अस्त की घटनाएँ घटित होती हैं।
इस श्लोक में “लंका” का उल्लेख भूमध्य रेखा के संदर्भ बिंदु के रूप में किया गया है, जिसे खगोलीय गणनाओं के लिए मानक संदर्भ माना जाता था।
भूकेंद्रीय मॉडल
आर्यभट ने सौर मंडल का एक भूकेंद्रीय मॉडल प्रस्तुत किया, जिसमें सूर्य और चंद्रमा ग्रहचक्र के माध्यम से पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। यह मॉडल पितामहसिद्धांत (ई. 425) में उल्लिखित प्रणाली से मेल खाता है, जिसमें प्रत्येक ग्रह की गति दो ग्रहचक्रों—एक मंद (धीमा) और एक शीघ्र (तेज़)—द्वारा नियंत्रित होती है।
पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार था:
चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शनि, और नक्षत्र।
ग्रहों की स्थितियाँ और उनकी अवधि को सापेक्ष गति से गणना किया गया था। बुध और शुक्र पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य गति से चलते थे, जबकि मंगल, बृहस्पति और शनि राशिचक्र में अपनी विशिष्ट गति से गति करते थे।
खगोल विज्ञान के इतिहासकारों के अनुसार, आर्यभट का यह द्वि-ग्रहचक्र मॉडल यूनानी खगोलशास्त्र के टॉलेमी मॉडल के तत्वों को दर्शाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार, उनका सिघ्रोका मॉडल—जो ग्रहों की गति को सूर्य के सापेक्ष मापता था—एक संभावित सूर्यकेंद्रीय दृष्टिकोण का संकेत दे सकता है।
ग्रहण
आर्यभट ने बताया कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। प्रचलित मान्यताओं से भिन्न, जहाँ राहु और केतु को ग्रहणों का कारण माना जाता था, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा उत्पन्न छाया से जोड़ा। चंद्रग्रहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (गोलपाद 37), और उन्होंने इस छाया के आकार व विस्तार का विस्तार से वर्णन किया (गोलपाद 38-48)। इसके बाद उन्होंने ग्रहण के दौरान प्रभावित क्षेत्र के आकार और उसकी गणना की विधि बताई। बाद के खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किए, परंतु आर्यभट की पद्धति इस विषय में आधार बनी।
यह गणनात्मक विधि इतनी सटीक थी कि 18वीं सदी में फ्रांसीसी खगोलशास्त्री गुइलौम ले जेंटिल ने पांडिचेरी में देखा कि भारतीयों द्वारा 30 अगस्त 1765 के चंद्रग्रहण की गणना वास्तविक अवधि से मात्र 41 सेकंड कम थी, जबकि टोबियास मेयर (1752) के यूरोपीय चार्ट में 68 सेकंड अधिक त्रुटि थी।
पृथ्वी की परिधि
आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किमी थी, जो आधुनिक माप 40,075.0167 किमी से केवल 0.2% कम है। यह यूनानी गणितज्ञ एराटोस्थनीज (200 ईसा पूर्व) की गणना से अधिक सटीक थी, जिनके अनुमान में 5-10% की त्रुटि थी।
नक्षत्रों के आवर्तकाल
यदि आधुनिक समय की इकाइयों में तुलना करें, तो आर्यभट के अनुसार पृथ्वी का घूर्णन काल (स्थिर तारों के संदर्भ में) 23 घंटे 56 मिनट 4.1 सेकंड था, जबकि आधुनिक मान 23:56:4.091 है। इसी प्रकार, उनके अनुसार पृथ्वी का वर्ष 365 दिन 6 घंटे 12 मिनट 30 सेकंड था, जो आधुनिक मान से 3 मिनट 20 सेकंड अधिक है। उस समय अन्य खगोलीय प्रणालियों में नक्षत्र समय की अवधारणा ज्ञात थी, लेकिन आर्यभट की गणना सर्वाधिक सटीक मानी जाती थी।
सूर्य केंद्रीयता
आर्यभट ने कहा कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, और उनके ग्रहचक्र मॉडल के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि उनकी गणनाएँ एक अंतर्निहित सूर्य केंद्रित प्रणाली पर आधारित थीं, जहाँ ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं।
हालांकि, कुछ विद्वानों ने इस सूर्यकेंद्रीय व्याख्या को अस्वीकार किया है। बी.एल. वान डर वार्डेन की समीक्षा कहती है, “यह पुस्तक भारतीय ग्रह सिद्धांत को पूरी तरह अनदेखा करती है और आर्यभट के प्रत्येक कथन का खंडन करती है।”
कुछ विद्वानों का मत है कि आर्यभट की प्रणाली संभवतः किसी पूर्ववर्ती सूर्य केंद्रित मॉडल से विकसित हुई थी, जिसका उन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं था। यह भी दावा किया गया कि वे ग्रहों की कक्षाएँ अंडाकार मानते थे, परंतु इसका कोई ठोस प्राथमिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
यद्यपि सामोस के एरिस्तार्चुस (तीसरी शताब्दी ई.पू.) और कभी-कभी पोंटस के हेराक्लिड्स (चौथी शताब्दी ई.पू.) को सूर्यकेंद्रित सिद्धांत का श्रेय दिया जाता है, लेकिन प्राचीन भारतीय ग्रंथों में पाए जाने वाले यूनानी खगोलशास्त्र (पौलिसा सिद्धांत) में सूर्यकेंद्रित प्रणाली का कोई उल्लेख नहीं मिलता।
भारतीय खगोलीय परंपरा पर आर्यभट का प्रभाव
आर्यभट के कार्यों ने भारतीय खगोलशास्त्र पर गहरा प्रभाव डाला और अनुवादों के माध्यम से उन्होंने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (820 ई.) में उनका अरबी अनुवाद विशेष रूप से प्रभावशाली रहा। उनके कुछ निष्कर्ष अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किए गए थे, और 10वीं शताब्दी के विद्वान अल-बिरूनी ने उनका उल्लेख किया, जिन्होंने लिखा कि आर्यभट के अनुयायी यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
त्रिकोणमिति में योगदान
साइन (ज्या) और कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, आर्यभट ने वरसाइन (उक्रमज्या) और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या) की भी परिभाषा दी, जिससे त्रिकोणमिति की अवधारणा को बढ़ावा मिला। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 0° से 90° तक, 3.75° के अंतराल पर, साइन और वरसाइन की तालिकाएँ चार दशमलव तक की सूक्ष्मता के साथ तैयार कीं।
“साइन” और “कोसाइन” शब्दों की उत्पत्ति भी आर्यभट के “ज्या” और “कोज्या” शब्दों के गलत उच्चारण से हुई। अरबी में ये “जिबा” और “कोजिबा” के रूप में लिखे गए। जब क्रेमोना के जेरार्ड ने एक अरबी ज्यामिति ग्रंथ का लैटिन में अनुवाद किया, तो उन्होंने “जिबा” को अरबी शब्द “जेब” (जिसका अर्थ “कपड़े की तह”) से जोड़ दिया और इसे “साइनस” (1150 ई.) के रूप में लिख दिया।
इस्लामी और यूरोपीय विज्ञान में प्रभाव
आर्यभट की खगोलीय गणनाएँ अत्यधिक प्रभावशाली रहीं। उनकी त्रिकोणमितीय तालिकाएँ इस्लामी जगत में व्यापक रूप से उपयोग में आईं और अरबी खगोलीय तालिकाओं (ज़ीज) की गणना में प्रयुक्त की गईं। विशेष रूप से, अरबी स्पेन के खगोलविद अल-ज़रकाली (11वीं सदी) की गणनाओं को तोलेडो की खगोलीय तालिकाओं (12वीं सदी) के रूप में लैटिन में अनुवादित किया गया, जो यूरोप में शताब्दियों तक सबसे सटीक पंचांग के रूप में प्रसिद्ध रहीं।
पंचांग और तिथिपत्र पर प्रभाव
आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा विकसित तिथि गणना प्रणाली पंचांगों के रूप में भारत में लगातार प्रचलित रही। यह प्रणाली इस्लामी खगोलविदों तक भी पहुँची, जिनके आधार पर जलाली तिथिपत्र (1073 ई.) विकसित हुआ, जिसे उमर खय्याम सहित कई गणितज्ञों ने प्रस्तुत किया।
जलाली तिथिपत्र वास्तविक सौर पारगमन पर आधारित था, ठीक वैसे ही जैसे आर्यभट के सिद्धांतों में था। इस तिथिपत्र को 1925 में संशोधित किया गया और यह आज भी ईरान व अफगानिस्तान में आधिकारिक राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रचलित है। यद्यपि इसकी गणना जटिल थी, लेकिन इसमें ग्रेगोरियन कैलेंडर की तुलना में मौसमी त्रुटियाँ कम थीं।
सम्मान और विरासत
भारत के पहले कृत्रिम उपग्रह “आर्यभट” का नामकरण उनके सम्मान में किया गया। चंद्रमा पर स्थित एक गड्ढे (Aryabhata Crater) को भी उनका नाम दिया गया। भारत में खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान अनुसंधान के लिए नैनीताल के पास स्थापित संस्थान का नाम “आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (ARIES)” रखा गया है।
इसके अलावा, अंतर्विद्यालयीय आर्यभट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर आयोजित की जाती है। 2009 में, इसरो के वैज्ञानिकों ने “बैसिलस आर्यभट” नामक एक बैक्टीरिया की खोज की, जिसका नाम भी आर्यभट के सम्मान में रखा गया।
चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्विषष्टिरथ सहस्राणाम्।
अयुतद्वयव्यासस्यासन्नः परिधिर्वृत्तस्य।। (आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक १०)अनुलोमगतिः प्लवगः पश्यत्यचलान् विलोमगामिव।
अचलानि ग्रहाणि तद्वद्विपर्ययगानि लंकायाम्।। (आर्यभटीय, गोलपाद, श्लोक 9)
अर्थ: जैसे नाव में बैठा व्यक्ति जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तो उसे प्रतीत होता है कि स्थिर वृक्ष, पर्वत, और शिलाएं उल्टी दिशा में जा रही हैं। ठीक उसी प्रकार, गतिमान पृथ्वी से देखे जाने पर स्थिर नक्षत्र विपरीत दिशा में गति करते हुए प्रतीत होते हैं।