जीवन परिचय
सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म संवत् 1961 (सन् 1904 ई०) में इलाहाबाद जिले में स्थित निहालपुर मोहल्ले के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता रामनाथ सिंह सुशिक्षित और प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। बहुत छोटी अवस्था से ही इन्हें हिन्दी काव्य से विशेष प्रेम था, जो बाद में जाकर पल्लवित हुआ।
इनका विवाह खण्डवा (मध्य प्रदेश) निवासी ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान के साथ हुआ। विवाह के साथ ही सुभद्राजी के जीवन में एक नवीन मोड़ आया। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के आन्दोलन का इन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उससे प्रेरित होकर ये राष्ट्र-प्रेम पर कविताएँ लिखने लगीं।
इनके पिता ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेते रहे। सुभद्राजी ने असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण अपना अध्ययन छोड़ दिया था और पति के साथ राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेती रहीं, जिसके परिणामस्वरूप ये कई बार जेल भी गयीं।
ये मध्य प्रदेश विधानसभा की सदस्या भी रहीं। सन् 1948 ई० में एक मोटर-दुर्घटना में इनकी असामयिक मृत्यु हो गयी।
रचनाएँ
सुभद्राजी की काव्य-साधना के पीछे उत्कट देश-प्रेम, अपूर्व साहस तथा आत्मोत्सर्ग की प्रबल कामना है। इनकी कविता में सच्ची वीरांगना का ओज और शौर्य प्रकट हुआ है। हिन्दी काव्य जगत् में ये अकेली ऐसी कवयित्री थीं जिन्होंने अपने कण्ठ की पुकार से, लाखों भारतीय युवक-युवतियों को युग-युग की अकर्मण्य उदासी को त्याग, स्वतन्त्रता-संग्राम में अपने को झोंक देने के लिए प्रेरित किया। वर्षों तक सुभद्राजी की ‘झाँसी वाली रानी थी’ और ‘वीरों का कैसा हो वसन्त’ शीर्षक कविताएँ लाखों तरुण-तरुणियों के हृदय में क्रान्ति की ज्वाला फूंकती रहीं।
‘मुकुल’ और ‘त्रिधारा’ इनके प्रसिद्ध काव्य-संग्रह हैं, ‘सीधे-सादे चित्र’, ‘बिखरे मोती’ और ‘उन्मादिनी’ इनकी कहानियों के संकलन हैं।
भाषा
सुभद्राजी की भाषा सीधी, सरल तथा स्पष्ट एवं आडम्बरहीन खड़ीबोली है। मुख्यतः दो रस इन्होंने चित्रित किये हैं–वीर तथा वात्सल्य। अपने काव्य में पारिवारिक जीवन के मोहक चित्र भी इन्होंने अंकित किये हैं जिनमें वात्सल्य की मधुर व्यंजना हुई है। इनके काव्य में एक ओर नारी-सुलभ ममता तथा सुकुमारता है और दूसरी ओर पद्मिनी के जौहर की भीषण ज्वाला।
अलङ्कारों अथवा कल्पित प्रतीकों के मोह में न पड़ कर सीधी-सादी स्पष्ट अनुभूति को इन्होंने प्रधानता दी है। शैलीकार के रूप में सुभद्राजी की शैली में सरलता विशेष गुण है। नारी-हृदय की कोमलता और उसके मार्मिक भाव पलों को नितान्त स्वाभाविक रूप में प्रस्तत करना इनकी शैली का मुख्य आधार है।
झाँसी की रानी की समाधि पर
एक राख की ढेरी।
जल कर जिसने स्वतन्त्रता की,
दिव्य आरती फेरी।।यह समाधि, यह लघु समाधि है,
झाँसी की रानी की।
अंतिम लीलास्थली यही है,
लक्ष्मी मरदानी की।।
यहीं कहीं पर बिखर गये वह,
भग्न विजय-माला-सी।
उसके फूल यहाँ संचित हैं,
है यह स्मृति-शाला सी।।
सहे वार पर वार अंत तक,
लड़ी वीर बाला-सी।
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर,
चमक उठी ज्वाला-सी।।
बढ़ जाता है मान वीर का,
रण में बलि होने से।
मूल्यवती होती सोने की,
भस्म यथा सोने से।।
रानी से भी अधिक हमें अब,
यह समाधि है प्यारी।
यहाँ निहित है स्वतन्त्रता की,
आशा की चिनगारी।।
इससे भी सुन्दर समाधियाँ,
हम जग में हैं पाते।
उनकी गाथा पर निशीथ में,
क्षुद्र जंतु ही गाते।।
पर कवियों की अमर गिरा में,
इसकी अमिट कहानी।
स्नेह और श्रद्धा से गाती
है, वीरों की बानी।।
बुंदेले हरबोलों के मुख,
हमने सुनी कहानी।
खूब लड़ी मर्दानी वह थी,
झाँसी वाली रानी।।
यह समाधि, यह चिर समाधि,
है, झाँसी की रानी की।
अंतिम लीलास्थली यही है,
लक्ष्मी मरदानी की।।
महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को हुआ। इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई था। महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। लक्ष्मीबाई अपने बाल्यकाल में मनुबाई के नाम से जानी जाती थीं। इधर सन् 1838 में गंगाधर राव को झांसी का राजा घोषित किया गया। वे विधुर थे। सन् 1850 में मनुबाई से उनका विवाह हुआ। सन् 1851 में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। झांसी के कोने-कोने में आनंद की लहर प्रवाहित हुई, लेकिन चार माह पश्चात उस बालक का निधन हो गया। सारी झांसी शोक सागर में निमग्न हो गई। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को चल बसे।
यद्यपि महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंगरेजी सरकार को सूचना दे दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। 27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंगरेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। पोलेटिकल एजेंट की सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार हुआ। झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी व नगर के राजमहल में निवास करने लगीं। यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ। अंगरेजों की राज्य लिप्सा की नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजे-महाराजे असंतुष्ट हो गए और सभी में विद्रोह की आग भभक उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने इसको स्वर्णावसर माना और क्रांति की ज्वालाओं को अधिक सुलगाया तथा अंगरेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई।
खूब लड़ी मर्दानी थी वो तो झाँसी वाली रानी थी
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
डोर फिरंगी को करने की सब ने मान में ठनी थी।चमक उठी सन सत्तावन में, यह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
कानपुर के नाना की मुहन बोली बाहें च्चवीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वो संतान अकेली थी,
नाना के संघ पढ़ती थी वो नाना के संघ खेली थी
बरच्चि, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथाएँ उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वो स्वयं वीरता की अवतार,
देख मरते पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैंया घेरना, दुर्ग तोड़ना यह थे उसके प्रीया खिलवाड़।
माहरॉशट्रे-कुल-देवी उसकी भी आराध्या भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ बन आई रानी लक्ष्मी बाई झाँसी में,
राजमहल में बाजी बधाई खुशियाँ च्चाई झाँसी में,
सुघट बुंडेलों की विरूदावली-सी वो आई झाँसी में।
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
उदित हुआ सौभाग्या, मुदित महलों में उजियली च्छाई,
किंतु कालगती चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई है, विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मारे राजाजी, रानी शोक-सामानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
बुझा डीप झाँसी का तब डॅल्लूसियी मान में हरसाया,
राज्या हड़प करने का यह उसने अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौज भेज दुर्ग पर अपना झंडा फेहराया,
लावारिस का वेराइस बनकर ब्रिटिश राज झाँसी आया।
अश्रुपुर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकोंकि माया,
व्यापारी बन दया च्चहता था जब वा भारत आया,
डॅल्लूसियी ने पैर पसारे, अब तो पलट गयी काया
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महारानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
छ्चीणी राजधानी दिल्ली की, लनोव छ्चीना बातों-बात,
क़ैद पेश्वा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घाट,
उडापुर, तँजोरे, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ तट वज्रा-निपात।
बेंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
रानी रोई रनवासों में, बेगम गुम से थी बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कॅल्कटा के बाज़्ज़र,
सारे आम नीलाम च्चपते थे अँग्रेज़ों के अख़बार,
“नागपुर के ज़ेवर ले लो, लनोव के लो नौलख हार”।
यों पर्दे की इज़्ज़त परदेसी के हाथ बिकनी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
कुटिया में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वियर सैनिकों के मान में था अपने पुरखों का अभ्मान,
नाना घूँघूपंत पेश्वा जूता रहा था सब सामान,
बाहें च्चवीली ने रन-चाँदी का कर दिया प्रकट आह्वान।
हुआ यगना प्रारंभ उन्हे तो सोई ज्योति जगनी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगई थी,
यह स्वतंत्रता की चिंगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लनोव लपते च्छाई थी,
मेरात, कानपुर, पटना ने भारी धूम मचाई थी।
जबलपुर, कोल्हापुर, में भी कुच्छ हुलचूल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
इस स्वतंत्रता महायगना में काई वीरवर आए काम,
नाना घूँघूपंत, तांत्या, चतुर अज़ीमुल्लाह सरनाम,
आहमएदशाह मौलवी, ठाकुर कुंवर सिंग, सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो क़ुर्बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
इनकी गाथा छ्चोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दनों में,
ल्यूटेनेंट वॉकर आ पोहॉंचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ धंध आसमानों में।
ज़ख़्मी होकर वॉकर भगा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
रानी बढ़ी कल्पी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा तक कर गिरा भूमि पर, गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अँग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वेलियार पर अधिकार।
अँग्रेज़ों के मित्रा ससिंड़िया ने छ्चोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
विजय मिली, पर अँग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुंहकी खाई थी,
काना और मंडरा सखियाँ रानी के संघ आई थी,
युध क्षेत्रा में उन दोनो ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे हुघरोसे आ गया, है! घीरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैंया के पार,
किंतु सामने नाला आया, था वो संकट विषम अपार,
घोड़ा आडया, नया घोड़ा था, इतने में आ गये आवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, हनी लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी, इसे वियर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
रानी गयी सिधार चीता अब उसकी दिव्या सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वो सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेईस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हुमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता-नारी थी।
दिखा गयी पाठ, सीखा गयी हुमको जो सीख सीखनी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
जाओ रानी याद रखेंगे यह कृतगञा भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जागवेगा स्वतंत्रता अविनसी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमित निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लदी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करता रहा और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंततः उन्होंने वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने स्वातंत्र्य युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहूति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया।
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