Vibhats Ras
वीभत्स रस : इसका स्थायी भाव जुगुप्सा होता है घृणित वस्तुओं, घृणित चीजो या घृणित व्यक्ति को देखकर या उनके संबंध में विचार करके या उनके सम्बन्ध में सुनकर मन में उत्पन्न होने वाली घृणा या ग्लानि ही वीभत्स रस कि पुष्टि करती है दुसरे शब्दों में वीभत्स रस के लिए घृणा और जुगुप्सा का होना आवश्यक होता है।
वीभत्स रस की परिभाषा / Definition of Vibhats Ras
परिभाषा: बीभत्स रस काव्य में मान्य नव रसों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इसकी स्थिति दु:खात्मक रसों में मानी जाती है। इस दृष्टि से करुण, भयानक तथा रौद्र, ये तीन रस इसके सहयोगी या सहचर सिद्ध होते हैं। शान्त रस से भी इसकी निकटता मान्य है, क्योंकि बहुधा बीभत्सता का दर्शन वैराग्य की प्रेरणा देता है और अन्तत: शान्त रस के स्थायी भाव शम का पोषण करता है।
वीभत्स रस के अवयव/उपकरण / Vibhats Ras Ke Avayav
- स्थाई भाव : ग्लानि or जुगुप्सा।
- आलंबन (विभाव) : दुर्गंधमय मांस, रक्त, अस्थि आदि ।
- उद्दीपन (विभाव) : रक्त, मांस का सड़ना, उसमें कीड़े पड़ना, दुर्गन्ध आना, पशुओ का इन्हे नोचना खसोटना आदि।
- अनुभाव : नाक को टेढ़ा करना, मुह बनाना, थूकना, आंखे मीचना आदि।
- संचारी भाव : ग्लानि, आवेग, शंका, मोह, व्याधि, चिंता, वैवर्ण्य, जढ़ता आदि।
भयानक रस का उत्पादक
- ‘भरत‘ (तीसरी शती ई.) के ‘नाट्यशास्त्र’ में बीभत्स रस को चार मुख्य उत्पत्ति हेतु रसों में माना गया है- ‘बीभत्साच्च भयानक:’।
- इसके अनुसार बीभत्स रस भयानक रस का उत्पादक है। बीभत्स रस का स्थायी भाव ‘जुगुत्सा‘ है, जो भयानक रस के स्थायी भय का मूल प्रेरक रहता है।
- भय यद्यपि आतंक आदि अनेक कारणों से भी उत्पन्न हो सकता है, पर सूक्ष्म दृष्टि से भयजनित पलायन के मूल में ऐसी किसी न किसी स्थिति की कल्पना अवश्य ही निहित प्रतीत होती है, जो भीतर से घृणा या जुगुत्सा का भाव जगाती है।
- ‘धनंजय‘ (दसवीं शती. ई.) ने रसों में कार्य कारण-सम्बन्ध मानने का विरोध किया है। ये उक्त हेतु भाव को ‘सभेद’ की अपेक्षा द्वारा सिद्ध मानते हैं।
- बीभत्स रस श्रृंगार रस का विरोधी समझा जाता है, क्योंकि जुगुत्सा उत्पन्न करने वाले प्रसंग के आ जाने से श्रृंगार रस में रसाभास की स्थिति आ जाती है। श्रृंगार ‘हृद्य’ है और बीभत्स ‘अहृद्य’ अर्थात् हृदय द्वारा अग्राह्य।
उत्पत्ति
बीभत्स रस का परिचय देते हुए भरत ने उसकी उत्पत्ति अहृद्य, अप्रियावेश, अनिष्ट-श्रवण, अनिष्ट-दर्शन तथा अनिष्ट-परिकीर्तन आदि विभावों से बतायी है।
- सर्वाहार, अर्थात् सब अंगों की निष्क्रियता, मुख-नेत्र-विघूर्णन, अर्थात् मुख-नेत्र का संकुचित होना, वमन, कम्पन आदि को अनुभाव माना गया है।
- संचारी या व्यभिचारियों में अपस्मार, वेग, मोह, व्याधि, मरण, आदि की गणना की गयी है।
- पुन: अनभिहितदर्शनश, रसगंधस्पर्श-शब्दकोश, उद्वेजन आदि से भी बीभत्स की उत्पत्ति निर्दिष्ट की गयी है तथा नयननासाप्रच्छादन, अवनमित मुख होने पर एवं अव्यक्त-पाद-पतन के द्वारा उसके अभिनय का आदेश दिया गया है।
- ‘नाट्यशास्त्र’ में ही बीभत्स रस का देवता महाकालतथा वर्ण नील माना गया है।
- शैली की दृष्टि से उसके वर्णन में गुरु अक्षरों का प्रयोग उचित बताया गया है। करुण रस में भी यही विधान है।
समस्या
करुण रस की तरह बीभत्स रस को लेकर भी आनन्दोपलब्धि की समस्या उठायी गयी है।
- आधुनिक मराठी लेखकों में वाटवे का मत तो यह है कि ‘स्वतंत्र आस्वादन के अभाव’ में इसे रस-व्यवस्था से निकाल ही देना चाहिए।
- केलकर ने भी लगभग इसका समर्थन किया है।
- बेडेकर की धारणा है कि यह बात बीभत्स रस को आधुनिक मनोविज्ञान की कसौटी पर तौलने और भरत-प्रणीत रस-व्यवस्था का मूल आधार न समझने के कारण ही हुई है।
- भरत ने रसों की कल्पना द्वन्द्वरूप में की है और इस प्रकार बीभत्स रस श्रृंगार रस के साथ मिलकर एक अविच्छेय ‘द्वन्द्व’ की सृष्टि करता है।
Vibhats Ras Ke Bhed / वीभत्स रस के भेद
वीभत्स रस के प्रकार अपने नाट्यशास्त्र में भरत ने बीभत्स रस के विभाजन की भी व्यवस्था कर दी है, यथा-
‘बीभत्स: क्षोभज: शुद्ध: उद्वेगी स्यात्तृतीयक:।
विष्ठाकृमिभिरुद्वेगी क्षोभजो रुधिरादिज:’।
इस कथन के अनुसार बीभत्स रस के तीन भेद होते हैं-
- क्षोभज
- शुद्ध
- उद्वेगी
- क्षोभज की उत्पत्ति रुधिराद्रि के देखने से मन में क्षोभ का संचार होने पर होती है और उद्वेगी विष्ठा तथा कृमि के सम्पर्क द्वारा उदभूत होता है।
- शुद्ध बीभत्स की व्याख्या भरत के इस तरह विभाजन में नहीं मिलती। जुगुत्सा का सामान्य भाव ही कदाचित उसका उत्पादक है, जिसमें किसी तात्कालिक स्थूल वस्तु की अपेक्षा नहीं होती।
- ‘भावप्रकाश’ नामक संस्कृत के ग्रन्थ के रचयिता शारदातनय (13वीं शती. ई.) ने उक्त भेदों में से केवल ‘क्षोभज’ और ‘उद्वेगी’ को ही मान्यता प्रदान की है। ‘शुद्ध’ उन्हें मान्य नहीं हुआ।
- धनंजय (10वीं शती. ई.) ने ‘दशरूपक’ में भरत के तीनों भेदों को यथावत् स्वीकार कर लिया है।
- भानुदत्त (13-14वीं शती. ई.) ने ‘रसतरंगिणी’ में करुण रस की तरह बीभत्स रस के भी ‘स्वनिष्ट’ और ‘परनिष्ठ’ दो रूप माने हैं।
- साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ (14वीं शती. ई.) ने भरत द्वारा निर्दिष्ट बातों को ज्यों का त्यों बीभत्स रस के लक्षण में समाविष्ट कर लिया है, पर उसके भेदों का कोई उल्लेख नहीं किया है।
वीभत्स रस का स्थायी भाव
- बीभत्स रस के स्थायी भाव जुगुत्सा की उत्पत्ति दो कारणों से मानी गयी है, एक विवेक और दूसरा अवस्था भेद। पहले को ‘विवेकजा’ और द्वितीय को ‘प्रायकी’ संज्ञा दी जाती है।
- विवेकजा जुगुत्सा से शुद्ध बीभत्स तथा प्रायकी से क्षोभज और उद्वेगी बीभत्स को सम्बद्ध किया जा सकता है।
- अधिकांश हिन्दी काव्याचार्यों ने ‘जुगुत्सा’ के स्थान पर ‘घृणा’ को बीभत्स रस का स्थायी भाव बताया है।
- भिखारीदास ने लिखा है- ‘घिनते हैं बीभत्स रस’।
- पर कहीं-कहीं कवियों ने दोनों ही शब्दों का प्रयोग किया है, जैसे देव ने-
‘वस्तु घिनौनी देखी सुनि घिन उपजे जिय माँहि।
छिन बाढ़े बीभत्स रस, चित की रुचि मिट जाँहि।
निन्द्य कर्म करि निन्द्य गति, सुनै कि देखै कोइ।
तन संकोच मन सम्भ्रमरु द्विविध जुगुत्सा होइ।’
इससे सिद्ध होता है कि घृणा या घिन को कवियों ने जुगुत्सा का पर्याय समझकर ही प्रयुक्त किया है। देव ने यहाँ जुगुत्सा की द्विवध उत्पत्ति मानी है, पर वह विवेकजा और प्रायकी के समान्तर नहीं है।
वीभत्स रस का चित्रण
- कभी-कभी बीभत्स रस का कुछ अन्य रसों से पृथक्करण कठिन हो जाता है।
- शान्त और भक्ति रस के प्रसंग में भी नारी के प्रति वैराग्य भावना व्यक्त करने की दृष्टि से अथवा क्षणभंगुर शरीर के प्रति मोह कम करने के लिए इनका बीभत्सतापूर्ण चित्रण किया जाता है ।
- संस्कृत के स्तोत्रों में ‘नारीस्तनभरनाभिनिवेशम्………एतन्मांसवसादिविकारम्’ अर्थात् नारी के विविध अंग मांस-मज्जा के विकार मात्र हैं, कहा गया है।
- सूरदास ने लिखा है-
‘जा दिन मन पंछी उड़ि जैहै।
ता दिन मैं तनकै विष्ठा कृमि कै ह्वै खाक उड़ैहैं’
- ऐसे स्थलों पर जुगुत्सा स्वयं स्थायी भाव न होकर शम का सहायक संचारी जैसा प्रतीत होता है। अतएव यहाँ बीभत्स रस नहीं माना जायेगा।
वीभत्स रस का मुख्य प्रयोग
- हिन्दी काव्यों में बीभत्स रस मुख्यत: युद्ध वर्णन के प्रसंगों में मिलता है।
- पौराणिक परम्परा की कथाओं के अन्तर्गत राक्षसों और दानवों के क्रिया-कलाप तथा नरक आदि के चित्रण में भी बीभत्स रस का विशेष समावेश रहता है और काव्य में उनका वर्णन भी प्राय: बीभत्स रस की कोटि में आता है।
- ‘कवितावली रामायण’ में तुलसीदास ने बीभत्स का एक स्थल पर अच्छा चित्रण किया है-
‘औझरी की झोरी काँधे, आँतनि की सेल्ही बाँधे,
मूँड के कमण्डल, खपर किये कोरिकै।
जोगिनी झुटुण्ड झुण्ड-झुण्ड बनी तापस-सी,
तीर-तीर बैठीं सो समरसरि खोरि कै।’
वीर काव्यों में युद्धभूमि के वर्णनों में इसका विशेष उपयोग हुआ है। इसी प्रकार हरिश्चन्द्र ने अपने नाटक ‘हरिश्चन्द्र’ में श्मशानभूमि का चित्रण किया है।
वीभत्स रस के उदाहरण / Vibhats ras ke udaharan
1.
शव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खाते
भोजन में श्वान लगे मुरदे थे भू पर लेटे
खा माँस चाट लेते थे, चटनी सैम बहते बहते बेटे
2.
खींचत जी भहिं स्यार, अतिहि आनन्द उर धारत
गिद्ध जाँघ कह खोदि-खोदि के मांस उचारत
स्वान आँगुरिन काटि-काटि के खान बिचारत
Easy Examples Of Vibhats Ras
3.
जनु ब्रह्म भोज जिजमान कोउ, आज भिखारिन कहुँ दियो
4.
ता दिन मैं तनकै विष्ठा कृमि कै ह्वै खाक उड़ैहैं’
रस के प्रकार या भेद
- श्रृंगार रस – Shringar Ras,
- हास्य रस – Hasya Ras,
- रौद्र रस – Raudra Ras,
- करुण रस – Karun Ras,
- वीर रस – Veer Ras,
- अद्भुत रस – Adbhut Ras,
- वीभत्स रस – Veebhats Ras,
- भयानक रस – Bhayanak Ras,
- शांत रस – Shant Ras,
- वात्सल्य रस – Vatsalya Ras,
- भक्ति रस – Bhakti Ras
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