“कैसे गरीब और ज्यादा गरीब, अमीर और अमीर होता जा रहा है”
भारत के लोग स्मार्ट और सृजनात्मक होते हैं. उन्होंने यह साबित किया है कि वे परिश्रमी और मितव्ययी होते हैं. भारत की धरती को कई तरह की नेमतें मिली हुई हैं, जिनमें एक अच्छी जलवायु और ढेर सारे प्राकृतिक संसाधन शामिल हैं. इस देश का लोकतंत्र शानदार है जिसकी जड़ें बेहद मजबूत हैं और यहां का शासन कानून-सम्मत है. लेकिन अब सवाल यह है कि आज़ादी के 53 साल बाद भी भारत एक बेहद गरीब देश क्यों है?
वे क्या कारण हैं जो भारत को गरीब और अमेरिका को एक अमीर देश बनाते हैं- ऐसे में जबकि एक समान राजनैतिक ढांचा है, काम के मोर्चे पर समान उदार विचारधाराएं और मान्यताएं हैं. इतना ही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों देशों में मेधावी और परिश्रमी मानव संसाधन के समृद्ध स्रोत हैं. ऐसा क्यों है कि भारत का प्रति व्यक्ति जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 500 अमेरिकी डॉलर है जबकि अमेरिका का करीब 40,000 डॉलर? क्यों एक अमेरिकी नागरिक 80 गुना अधिक उत्पादक है? एक शिक्षित भारतीय अमेरिका में बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक होता है, यह बात इस तथ्य से प्रमाणित होती है कि एक भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक का औसत जीडीपी 60,000 डॉलर है. दरअसल, ऐसा अमेरिका में क्या है कि ज्यादातर मामलों में वह भारतीयों को अपनी घरेलू जमीन से बेहतर प्रदर्शन करवाता है, वह भी इतना अच्छा काम कि कई मामलों में भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक अपने साथी मूल अमेरिकियों से भी ज्यादा अच्छा काम करते हैं.
मैंने सुना है कि भारत अपनी औपनिवेशिक वजहों के कारण गरीब है. लेकिन हकीकत यह है कि अपनी आजादी के 53 वर्ष के बाद भारतीय अमेरिकियों की तुलना में खराब स्थिति में हैं. ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब भारत की हालत भी एशियन टाइगर्स या चीन के समान ही थी. पिछले 40 वर्षों में इन सभी देशों ने भारत को पीछे छोड़ दिया है.
अपने तर्क को स्थापित करने की खातिर हम फिलहाल अपनी बात को अमेरिका और भारत पर ही फोकस करेंगे. मेरा मानना यह है कि भारत जान-बूझकर गरीब है और वह गरीब बने रहने के लिए कड़ी मेहनत करता है जबकि इसके विपरीत अमेरिका अमीर इसलिए है क्योंकि वह न केवल अपनी संपत्ति को बनाए रखने के लिए बल्कि हर रोज खुद को ज्यादा धनवान बनाने के लिए कठोर परिश्रम करता है. भारत गरीब इसलिए है क्योंकि उसने खुद को आत्मघाती रूप से गरीबी पर पूरी तरह केंद्रित कर रखा है. देश के अथाह संसाधनों का इस्तेमाल गरीबों को आर्थिक सहायता और रोजगार मुहैया करवाने में किया जाता है. दरअसल भारत में नौकरियों को अति पवित्र माना जाता है और यह देश अनुत्पादक नौकरियों को बचाने के लिए काफी हद तक कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है. इसके विपरीत अमेरिका में जहां उत्पादकता को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है और उत्पादक लोग सबसे ज्यादा कमाई करते हैं. संक्षेप में कहा जाए तो उत्पादकता से मिलने वाले फायदों के लिये किए जाने वाले अथक प्रयास अमेरिकी समृद्धि की हकीकत है जबकि नौकरियों को सुरक्षित बनाए रखना भारतीय गरीबी की असलियत है. इस बात को यदि और सरल शब्दों में कहा जाए तो अमेरिका उस राजनीति का अनुसरण करता है जिससे संपत्ति का सृजन होता है जबकि भारत उस राजनीति के पीछे बढ़ता है जिसमें संपत्ति का पुनर्वितरण होता है. राष्ट्रीय संपदा के अभाव में भारत गरीबी का पुनर्वितरण करता है और गरीब ही बना रहता है जबकि अमेरिका ज्यादा अमीरी से और भी ज्यादा अमीरी की ओर बढ़ता है.
नौकरियां बनाम उत्पादकता
भारत में जॉब एक ऐसी चीज है जिस पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दिया जाता है. मैंने वरिष्ठ मंत्रियों और नौकरशाहों (ब्यूरोक्रेट्स) से सुना है कि सरकार के लिए सबसे बड़ा काम है रोजगार उपलब्ध करवाना. भारत में कल-पुरजों को जोड़ कर असेंबल्ड गुड्स बनाने संबंधी असेंबली जॉब्स उपलब्ध करवाने की कवायद के लिए बड़े-बड़े पदों पर लोगों की नियुक्तियां की जाती हैं. अस्सी के दशक के शुरू में “स्क्रूड्राइवर असेंबली प्लांट” चलन में थे जब एक मैन्यूफेक्चरर महज एक ही पूंजीगत उपकरण (केपिटल इक्विपमेंट) की सप्लाई करता था, वह था पेंचकस यानी स्क्रूड्राइवर.
अत्यधिक संरक्षणवादी श्रम कानूनों ने अन्य सभी लोगों और पक्षों की कीमत पर संगठित श्रमिक क्षेत्र को अधिकतम संरक्षण दे रखा है. ऐसे कानूनों की वजह से कारोबार करने के लिए नौकरी देने वाले बहुत ज्यादा हतोत्साहित होते हैं. आगे बताई जाने वाली कहानियां मुझे अपनी यह बात साबित करने में मदद करेंगी कि क्यों अनुत्पादक रोजगार गरीबी की दिशा में ले जाते हैं.
मैं सबसे पहले 80 के दशक के मध्य की उस स्टोरी की चर्चा करूंगा जो मेरा अपना अनुभव है. कंप्यूटर नेटवर्किंग बोर्ड्स के सप्लायर्स के रूप में हमें एक भारतीय कंप्यूटर उत्पादक की ओर से 200 अनअसेम्बल्ड कंप्यूटर बोर्ड्स या जिसे भारत में “खुले हुए पुर्जों के किट्स” (“knocked down kits”) कहा जाता है, के लिए एक “निवेदन“ (“request for quote”) मिला. हमने अपने अनअसेम्बल्ड बोर्ड्स नहीं भेजे और 20 फीसदी स्पेशल हैंडलिंग चार्जेस की मांग की जिसे देने के लिए वे तैयार थे. भारत सरकार ने पूरी तरह असेम्बल्ड बोर्ड्स पर लगे 300 फीसदी आयात शुल्क की तुलना में पुर्जों पर 70 फीसदी आयात शुल्क लगा रखा था. ताकि स्थानीय स्तर पर लोगों के लिए रोजगार के अवसर मिल सकें. 20 फीसदी ज्यादा देकर कम हासिल करना, कैसा सौदा है यह? यानी बगैर असेम्बल किए, बगैर जांचे-परखे बोर्ड आर्थिक रूप से कैसे लाभप्रद हो सकते हैं? ऐसे जॉब्स को किस आधार पर उत्पादक माना जाए?
पिछले दिनों अपने भारत प्रवास के दौरान दिल्ली की कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने मुझे चर्चा के दौरान बताया कि भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर है. उन्होंने बताया कि आजादी के बाद हुई अपनी आर्थिक प्रगति पर भारत को गर्व है. मेरा यह मानना है, भारत की आबादी का 70 फीसदी हिस्सा कृषि आधारित आजीविका से जुड़ा है, इससे खेती करने वाला एक भारतीय अपने लिए पर्याप्त खाद्यान्न का उत्पादन करता है और जिस अतिरिक्त अनाज का वह उत्पादन करता है उससे महज एक व्यक्ति की आधी भूख मिटाई जा सकती है. खेती करने वाले भारतीय की खर्च करने योग्य औसत आय अगर देखी जाए यह औसतन आधे भारतीय के खाने के बजट जितनी है. यानी उसकी खर्च करने योग्य आमदनी इतनी भी नहीं है कि एक व्यक्ति भरपेट भोजन कर सके. इसलिए वह हमेशा गरीब ही रहेगा. अगर इसकी अमेरिका से तुलना की जाए तो दो फीसदी से भी कम अमेरिकी आबादी खेती या इससे जुडे काम करती है. एक अमेरिकी किसान खुद को मिलाकर 50 लोगों के लिए अन्न का उत्पादन करता है और इतना खाद्यान्न बच जाता है कि उसका निर्यात होता है. यानी तुलनात्मक रूप से अमेरिकी किसान बहुत ज्यादा उत्पादक और अत्यधिक धनी है. प्रसंगवश, यदि कोई व्यक्ति पिछले 53 वर्षों में भारत के रेकॉर्ड के बारे में गर्व का यदि कोई दावा करता है तो वह अपने बारे में ही अनजान और आत्मप्रशंसा करने वाला है.
मेरे पास इतने किस्से हैं कि वे खत्म ही नहीं होंगे. उदाहरण के लिए, एक आंकड़े की तुलना कीजिए- प्रति हवाई जहाज एयर इंडिया 800 से ज्यादा कर्मचारियों की नियुक्ति करती है जबकि युनाइटेड एयरलाइंस में प्रति हवाई जहाज करीब 40 लोगों को काम पर रखा जाता है. अमेरिकी कर्मचारी करीब 20 गुना ज्यादा उत्पादक हैं! अनुत्पादक रोजगार निश्चित रूप से गरीबी के गर्त में ले जाते हैं. फिर सवाल यह उठता है कि उन लोगों की उस भीड़ का क्या किया जाए जिसे रोजगार की जरूरत है? बहुत से लोगों का यह मानना है कि हमारी समस्याओं की जड़ में हमारी बहुत बड़ी आबादी या यूं कहें जरूरत से ज्यादा आबादी है. यह वही लोग हैं जो यह भी मानते होंगे कि इस समस्या का कोई समाधान नहीं है क्योंकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है. मैं इन मुद्दों को जायज मानूंगा यदि हम अपनी इन समस्याओं के समाधान के लिए वह सब कुछ कर रहे हैं जो कि किया जा सकता है और किया जाना चाहिए. हमारा नेतृत्व बेहद कमजोर है, जिसने गरीबों की मदद के नाम पर लंबे समय तक खराब साबित हो चुकी नीतियों को लंबे समय तक अपनाया. हमारा समाजवादी और राष्ट्र की महत्ता पर केंद्रित राष्ट्रीय एजेंडा विनाशकारी साबित हुआ है. आवश्यकता इस बात की है कि यह उद्यमिता को प्रवर्तित करने वाला एजेंडा हो जहां राष्ट्र की भूमिका उद्योग और वाणिज्य में कम से कम हो. फिर हम शायद आबादी को एक बहाने के रूप में इस्तेमाल न करें. इस समस्या का समाधान अपने आप हो जाएगा जब हमारा देश समृद्ध हो जाएगा, जैसा कि अन्य जगहों पर भी हुआ है. इसी बीच हमें अपनी जनता की उत्पादक और प्रतिस्पस्पर्धात्मक ऊर्जा को प्रवर्तित करने की जरूरत है. और महत्वपूर्ण बात यह है हमें यह काम इसी क्षण शुरू करना है.
एक नए राष्ट्रीय एजेंडा की मांग
संक्षेप में मैं यह कहना चाहूंगा कि भारत अपनी गलत आर्थिक नीतियों और दृष्टिकोण के कारण गरीब है. हम अपनी संपदा को अनुत्पादक कामों में जाया कर रहे हैं. हमने अपने यहां उद्यमियों का दमन किया है और नौकरशाहों की ताकत में इजाफा किया है. सरकार ने जिस उद्योग को छूआ उसने उसे अनुत्पादक बना दिया. हमने अपने लोगों को मछली खाना तो सिखा दिया लेकिन यह नहीं सिखाया कि खाने के लिए उसे पकड़ते कैसे हैं. क्या हमने इसी पैसे का इस्तेमाल लोगों को शिक्षा देने में किया, अगर हम प्रभावी ढंग से ऐसा करते तो आज हम एक समर्थ और सक्षम लोगों का समूह होते. मेरा यह मानना है कि भारत के पास वह सब कुछ है जो उसे एक महाशक्ति बनने के लिए जरूरी है, लेकिन इसके लिए बहत बड़े पैमाने पर राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ ही प्रभावी नेतृत्व की दरकार होगी ताकि हमारे देश को आगे बढ़ाया जा सके.
भारत के ज्यादा समृद्ध बनने का एक ही तरीका है कि वह अपनी श्रम शक्ति और भौतिक पूंजी की उत्पादकता पर अपना ध्यान केंद्रित करे. हमें अपने संसाधनों का भरपूर दोहन करते हुए अधिकतम उत्पादन करना होगा. यह एक गलत धारणा है कि उत्पादकता बढ़ाने से बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ेगी और यह बात दुनिया में कहीं भी साबित नहीं हुई है. जब हम आर्थिक विकास दर में 6 फीसदी बढ़ोतरी की बात करते हैं, और हमारी आबादी 2 फीसदी की दर से बढ़ रही है, तब हम हमारी मानव पूंजी की उत्पादकता में 4 फीसदी इज़ाफे की बात कर रहे हैं. कौशल या दक्षता (जैसे- शिक्षा) और प्रति व्यक्ति पूंजी निवेश को बढ़ा कर हम मानव उत्पादकता में काफी हद तक बढ़ोतरी कर सकते है. पूंजी की उत्पादकता तब बढ़ती है जब आप इस पूंजी का सर्वाधिक उत्पादक इस्तेमाल करते हैं.
प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाएं
उत्पादकता को तेजी से बढ़ाने वाला सबसे प्रमुख कारक है प्रतिस्पर्धा- मुक्त और निर्बाध. इससे लोगों पर अपनी दक्षता बढाने का दबाव रहता है ताकि वे प्रतिस्पर्धा में बने रहें. इससे पूंजी पर भी दबाव रहता है कि वह सही दिशा में लगती रहे ताकि इसके निवेश से अधिकतम रिटर्न्स हासिल हो सकें बजाए इसके कि राजनीतिज्ञ और नौकरशाह इसका इसका अपनी मर्जी से प्रबंध करते रहें. यदि आप किसी आदमी को एक ट्रैक पर दौड़ते हुए सबसे अच्छा प्रदर्शन करने के लिए कहें तो बड़े आराम से 15 मिनट में एक मील तक दौड़ेगा. लेकिन यदि आप इस पर एक और व्यक्ति को साथ में दौड़ने के लिए कहते हैं और यह चुनौती देते हैं कि दोनों में से कौन ज्यादा तेज दौड़ता है तो जो व्यक्ति हारेगा उसका प्रदर्शन भी उस दौड़ से बेहतर होगा जिसमें उसे अकेले दौड़ने के लिए कहा जाता. यानी प्रतिस्पर्धा में हारने वाले का भी प्रदर्शन बेहतर हो जाता है. बाजार में प्रतिस्पर्धा के अच्छे परिणाम मिलते हैं क्योंकि सप्लायर व्यापार में अपना स्थान बनाए रखने के लिए कम कीमत पर अच्छा सामान या सेवाएं देने के लिए बाध्य रहते हैं. यदि बाजार में मांग की गारंटी रहती है तो उत्पादों और सेवाओं की गुणवत्ता कमजोर होना तय है. भारत में लाइसेंस राज के दौरान हमारा अनुभव ठीक वैसा ही था जिसकी किसी अर्थशास्त्री ने कभी भविष्यवाणी की होती. लाइसेंस राज के सफल उद्यमी कौन थे- निश्चित ही न तो राष्ट्र और न ही जनता. भारत को चाहिए कि अर्थव्यवस्था को नियमों-कानूनों से बांध कर रखने की बजाए वह बाजार शक्तियों को बने रहने दे.
सीधे शब्दों में कहा जाए तो दुनिया में श्रेष्ठ होने के लिए हम दुनिया के श्रेष्ठ से प्रतिस्पर्धा करें. संयोगवश, हमें इस मसले पर किसी से घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमने यह दिखा दिया है कि दुनिया के बाजार में भारतीय बेहद प्रतिस्पर्धी हैं और हमें किसी के संरक्षण की जरूरत नहीं.
मैं इस बात का जिक्र भी करना चाहूंगा कि नौकरी की गारंटी का मतलब बाजार की गारंटी नहीं होता। अगर निजी तौर पर देखा जाए तो रोजगार की गारंटी व्यक्ति से अपने कौशल में बेहतरी के साथ समाज में उसकी तरक्की का माद्दा ही छीन लेती है। साथ ही उस व्यक्ति को नौकरी बचाने के लिए न तो कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और न ही उस पर किसी लक्ष्य को हासिल करने का कोई दबाव ही होता है। अनुत्पादक और आलसी कर्मचारियों से छुटकारा पाने के तौर-तरीकों में ज्यादा गुंजाईश का न होना ही कई कंपनियों की राह की एक बड़ी बाधा होती है। बचीखुची कसर नौकरी की गारंटी पूरी कर देती है। ऐसा होने के बाद लोग अनुत्पादक कामकाज में जुट जाते हैं और उनका उत्साह और आत्मसम्मान भी खत्म होता जाता है।
कृषि प्रधान समाज से दूरी
केवल अस्तित्व कायम रखने के प्रयास करने वाली अर्थव्यवस्था, जहां ज्यादातर लोग खाद्य उत्पादन और अन्य आजीविका से जुड़े काम में जुटे हों, मूलतः गरीबी की चपेट में होती हैं। इस हाल में पहुंचने के लिए उत्पादन क्षमता की ज्यादा जरूरत नहीं होती। आज गरज तो इस बात की है कि तमाम खाद्य सामग्री और जीवनोपयोगी सामान को कम से कम मानव श्रम के जरिये हासिल किया जाए। इससे हमारा मानव संसाधन दूसरे ऐसे नये कामों के लिए उपलब्ध हो जाएगा, जो पहले संभव नहीं थे। ये नये काम क्या हैं? यहां संभावनाएं अंतहीन हैं, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, सेनिटेशन, मनोरंजन, ट्रेवल, इंश्योरेंस, बैंकिंग और खेल जैसी सेवाएं शामिल है। समाज जब अधिक उत्पादक बन जाता है तो वह सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) पर ज्यादा ध्यान देने लगता है, जो अंततः उसके जीवन स्तर को सुधारने में अहम भूमिका निभाता है। एक आम आदमी का दिन तीन बार खाकर गुजर सकता है, लेकिन जहां तक सुविधाओं की बात है तो वह एक दिन में अनगिनत इस्तेमाल कर सकता है।
खरी-खरी कहूं तो सौ फीसदी मानव संसाधन को कृषि में ही झोंक देना हास्यास्पद है। अगर हम तरक्की करना चाहते हैं तो ऐसा केवल इन लोगों को खेतों से निकालकर उत्पादन क्षेत्र में लगाने से ही हो सकेगा। उन्हें किसानी की बजाय ज्यादा आर्थिक संबल देने वाले कामों में जुटना चाहिए। हाशिये पर खड़े इन लोगों को अगर सरकार से कुछ चाहिए तो वह है केवल शिक्षा। शिक्षा हासिल करने के बाद यही अकुशल श्रमशक्ति हमारे देश का कायापलट कर सकती है। ठीक अमेरिका की तरह, केवल खेती किसानी में भागीदारी कम होने के बाद लोग ऐसे दूसरे कामकाज से जुड़ेंगे जिससे उनका जीवन स्तर ऊपर उठ सकेगा। आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था मजबूत है तो मजबूत सर्विस सेक्टर के कारण। अमेरिका में सबसे बड़ा उद्योग है स्वास्थ्य सेवाएं, इसके बाद शिक्षा, फिर मनोरंजन। भारत को अमेरिकी अर्थव्यवस्था के मॉडल को अपनाकर उससे सीखना चाहिए।
नौकरियां बनाना, बचाना नहीं
नये उत्पादक रोजगार तैयार करना ही भारत की राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए। सारी ताकत केवल नौकरियों को बचाने की नीति में ही झोंक देना घाटे का सौदा साबित हुआ है। रोजगार निर्माण का ढोल 53 साल पीटने के बाद भी भारत उद्योगों में आज तक केवल एक करोड़ नौकरियां दे सका है, जो उसकी एक अरब की आबादी को देखते हुए कुछ भी नहीं है। इतने ही वक्त में चीन ने उद्योग क्षेत्र में 20 करोड़ लोगों के लिए रोजगार तैयार किया है। हमारे विकास के साथ ही हमारे यहां अनुत्पादक या कम उत्पादन वाले रोजगार कम होते जाएंगे और उत्पादकता रोजगार का मुख्य आधार बन जाएगी। यही वह बात है जिससे किसी देश की उत्पादकता का सर्वांगीण विकास होता है। अपने काम और कौशल में निवेश करने वाले लोगों को फायदा होगा और वह आर्थिक तरक्की भी करेंगे। जो काम को लेकर निरूत्साही होंगे वो पीछे छूट जाएंगे। विकल्प सबके लिए खुला होगा!
विदेशी निवेश और कारोबार को प्रोत्साहित करें
विदेशी निवेश में सुधार के लिए केवल दो ही मापदंड होने चाहिए। या इससे भारत में रोजगार का निर्माण होगा? या इस निवेश से भारतीय उपभोक्ता के लिए उत्पादों की गुणवत्ता और सेवाओं में सुधार होगा? अगर हम इन मापदंडों का खयाल रखेंगे तो हम जल्द ही जान जाएंगे कि खराब निवेश जैसी कोई बात होती ही नहीं है। भारत में तमाम निवेश समृद्धि और रोजगार ही लाएंगे। स्वदेशी के ही विकास का इकलौता रास्ता होने की धारणा गलत है। आर्थिक खुलेपन और दरवाजे खुले रखने की नीति के प्रति सौ फीसदी समर्पण ही भारत के विकास को गति दे सकता है।
मुक्त अंतरराष्ट्रीय कारोबार में कोई पराजित नहीं होता। देश अपनी तुलनात्मक बेहतरी का फायदा उठाते हुए ज्यादा कार्यक्षम बन जाते हैं। भारत की आयात के विकल्प खोजने और उचित प्रौद्योगिकी (मतलब पुरानी प्रौद्योगिकी) की पूर्व की कोशिश हास्यास्पद थी। इसने हमसे हमारे बेहद प्रतिभाशाली इंजीनियर छीन लिए और उन्हें फिर आदिम युग में पहुंचा दिया जहां से उन्हें पुरानी और उधार की प्रौद्योगिकी के साथ सब नये सिरे से करना पड़ा। जैसा कि हमारे यहां आईटी और हीरा पॉलिशिंग उद्योग में देखा जा सकता है, हम अच्छी तनख्वाह पर कई लोगों को रोजगार दे सकते हैं, ताकि पूरी दुनिया की मांग को पूरा कर सकें। इन उद्योगों में हम बेहतर स्थिति में हैं। मुझे लगता है कि ऐसे कई उद्योग हैं जिनमें भारत पूरी दुनिया को पछाड़ सकता है।
जहां तक भारतीय नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों की बात है तो वह मल्टीनेशन कार्पोरेशन (एमएनसी) को हेयभाव से देखते हैं। उन्होंने विश्व बाजार को भारत को सस्ते श्रम के केंद्र की तरह इस्तेमाल नहीं करने दिया है। इसके लिए उन्होंने भारतीय श्रमशक्ति के शोषण की आशंका को इस्तेमाल किया। जबकि भारत के पास मानव संसाधन की अकूत संपदा है जिसे उत्पादक काम में लगाए जाने की दरकार है। दुनिया भर के बाजारों के लिए उत्पाद बनाने में भारत को केंद्र बनाने की विदेशी रोजगारदाताओं को अनुमति दी जानी चाहिए। भारतीयों को हर बात में आर्थिक मदद से बेहतर होगा कि उन्हें रोजगार दिया जाए।
उद्यमिता का विकास करें
अर्थव्यवस्था की तरक्की के लिए जरूरी है कि सरकार नीतियों में खुलापन लाए और भारतीय उद्यमियों को भी खुलकर काम करने दे। उसे उद्यमिता को प्रोत्साहन देना चाहिए और लोगों को काम के लिहाज से नफा-नुकसान पाने का रास्ता खोल देना चाहिए। हालांकि हमारी लघु उद्योगों की नीतियां उद्यमिता को प्रोत्साहित करने का ही प्रयास हैं, लेकिन वास्तविकता में यह अजीबोगरीब नियामक प्रणाली के चलते तरक्की और अधिक उत्पादक बनने की राह में बाधा ही साबित होती हैं। इन नीतियों के तहत छोटे-बड़े का फैसला, आकार नहीं, लगाई गई पूंजी तय करती है। पूंजी निवेश कम रखने के लिए हतोत्साहित करने वाली कई बाधाएं हैं। बाजार में कामयाबी पर कड़े अर्थदंड का प्रावधान है। इन्हीं अजीब नीतियों के कारण भारत उस विश्व बाजार में भी नाकामयाब है जहां आसियान और पूर्व एशिया के ही उद्यमियों की तूती बोलती है। सरकारी नीतियों के कारण भारतीयों की प्रगति में बाधा का यह एक सटीक उदाहरण है। उद्यमी बुनियादी तौर पर मेहनती और किसी काम को बेहतर तरीके से करने के लिए समर्पित लोग होते हैं। उद्यमियों के बीच प्रतिस्पर्धा ही अर्थव्यवस्था को गति देती है। ऐसे में जहां वे खुद तरक्की करते हैं वहीं समाज के लिए रोजगार निर्माण करके उसे आर्थिक संबल देते हैं। अर्थव्यवस्था की ट्रेन को खींचने में उनकी भूमिका इंजिन की तरह होती है।
मुनाफे का सम्मान करो
समाजवादियों के शब्दकोष में मुनाफा एक नकारात्मक शब्द है। मुझे याद है कि 50 और 60 के दशक में हर बात की कमी से जूझ रहे भारत में मुनाफा कमाना घोर पाप माना जाता था। जबकि मुनाफा तो किसी की कार्यक्षमता और उत्पादकता का पैमाना है। यह मुनाफा ही तो है जो पूर्व तंत्र को आत्मनिर्भर बनाता है। उद्यमियों के लिए मुनाफा ही मुख्य लक्ष्य होता है और मुनाफे में कमी नाकामी की ओर ले जाती है। हमारी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का कम मुनाफा ही भारत की तरक्की की राह की बाधा है। मुनाफा कमाने की बजाय वो सरकारी खजाने को भी खाली करती जा रही हैं।
सरकार की भूमिका
रोजगार न दे या गरीबों को आर्थिक मदद न दे तो आखिर सरकार करे क्या? मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि अच्छी से अच्छी सरकार भी न तो उत्पादक रोजगार दे सकती है और न ही संपदा बना सकती है। ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जहां यह निरंतर हुआ हो। सरकार का काम तो एक स्थायी और निष्पक्ष माहौल देना है ताकि हर नागरिक अपने बूते उसमें जीवनयापन कर तरक्की कर सके।
जहां तक सरकार की बात है तो उसे सबको प्राथमिक और उच्चतर शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य और खासतौर पर प्राथमिक ढांचे पर पूरा ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। यहां पूरा जोर प्राथमिक शब्द पर है। उद्यमी अपने लाभ का कहां, कैसे इस्तेमाल करना चाहते हैं, यह उन पर छोड़ देना चाहिए। सरकार को तो उनके लिए बाजार में एक निष्पक्ष और स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता का माहौल सुनिश्चित करना चाहिए। साथ ही सरकार को उत्पादकता की राह में आड़े आने वाली नीतियों और नियमों को भी खत्म कर देना चाहिए।
अब हर तरह के अनुदान को खत्म करने का वक्त आ गया है। अनुदान अनुपयोगी हैं और ऐसी निर्भरता को बढ़ावा देते हैं जो न तो स्वस्थ है और न ही लंबे समय तक फायदेमंद। अनुदानों की बजाय इस धन का उपयोग समाज में निवेश के लिए करना चाहिए। एक पढ़ा-लिखा भारतीय ही एक प्रतिस्पर्धी भारतीय है।
अंत में, सरकार की नीति हर तरह के निवेश को बढ़ावा देने की होनी चाहिए। हमें किसी भी एक उद्योग विशेष को ही प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। 1998 में भारतीय जनता पार्टी का यह स्लोगन ‘आलू के चिप्स नहीं, कंप्यूटर चिप्स’ मुझे अजीब लगा। इसका साफ आशय था कि आलू के चिप्स नहीं कंप्यूटर के चिप्स में निवेश को ज्यादा प्रोत्साहन दिया जाएगा। जबकि भारत को कंप्यूटर चिप्स से ज्यादा आलू के चिप्स में निवेश की दरकार है, क्योंकि यह कृषि आधारित उद्योग है। भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को इस वक्त ऐसे निवेश की ज्यादा दरकार है जो उसके महत्व को और अधिक बढ़ा सके।
हमारा राष्ट्रीय मंत्र होना चाहिए ज्यादा उत्पादक रोजगार और नये निवेश के जरिये नये उत्पादक रोजगार।
भ्रमित विचारधारा के लिए कोई जगह नहीं
अपनी बात मैं इस निष्कर्ष के साथ समाप्त करना चाहूंगा कि कोई स्पष्ट आर्थिक दृष्टिकोण नहीं होने के कारण भारत ने आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही क्षेत्रों में काफी कुछ सहा है। अब हमें राष्ट्रीय उत्पादकता बढ़ाने वाली बातों पर ध्यान देने की जरूरत है। यहां आधे-अधूरे मन से तय या रूमानी विचारधाराओं के लिए कोई जगह नहीं है। समाजवाद के प्रति हमारा समर्पण एक गलत कदम था जो बुरी तरह से नाकामयाब रहा है। अब वक्त आगे बढ़ने का है और अभी भी देर नहीं हुई है। उद्योगों का सरकारीकरण सौ फीसदी फ्लॉप शो रहा है। अब वक्त आ गया है कि उद्योगों पर से सरकार का सर्वशक्तिमान नियंत्रण हटा लिया जाए। साथ ही स्वदेशी जैसे किसी निरर्थक विचार का भी यह वक्त नहीं है। भारत की जीडीपी की वार्षिक विकास दर छह फीसदी है। इस गति से तो हमें आज के मैक्सिको के करीब पहुंचने में पचास साल और लग जाएंगे। आखिर हम 10 फीसदी की वार्षिक विकास दर क्यों हासिल नहीं कर सकते? उस दर से भी हम आज के अमेरिका तक पचास साल में पहुंचेंगे।
53 साल के समाजवाद ने न तो हमें विकास दिया है और न ही समता। भारत सरकार को यह बात समझना ही होगी कि लोकतंत्र और मुक्त बाजार दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। आप एक के बगैर दूसरे को पूरी तरह से हासिल कर ही नहीं सकते। एक मुक्त बाजार आखिरकार बाजार का लोकतंत्र है, जहां उपभोक्ता अपने पैसे के तौर पर हर रोज वोट देता है।
अब भारत में संपदा समृद्धि की नीति का वक्त आ गया है। एक बार इसे हासिल करने के बाद इसके वितरण के लिए हमारे पास पर्याप्त वक्त होगा, लेकिन पहला काम पहले ही करना होगा।
(आज़ादी के 53 साल बाद, 2001 में भारत की आर्थिक दशा पर एक विचारोत्तेजक विश्लेषण में कंवल रेखी ने उन कारणों की सिलसिलेवार समीक्षा की थी कि क्यों है भारत गरीब और अमेरिका अमीर. दरअसल 2001 के बाद से सारी दुनिया के साथ भारत ने तरक्की की के मुकाम हासिल किए लेकिन इस गहन विश्लेषण में ऐसे कई विचारणीय मुद्दे हैं, जो आज भी प्रासंगिक हैं)