- आपकी प्रिय पुस्तक
- हिन्दी की लोकप्रिय पुस्तक
- श्रीरामचरितमानस की उपादेयता
- तुलसीदास की कालजयी रचना
- हिन्दी का प्रमुख महाकाव्य
निबंध की रूपरेखा
- प्रस्तावना
- श्रीरामचरितमानस का परिचय
- श्रीरामचरितमानस में नैतिकता एवं सदाचार
- लोककल्याण की भावना
- समन्वय की भावना
- मानव जीवन के आदर्श की प्रस्तति
- रामराज्य की परिकल्पना
- नीति एवं भक्ति
- श्रेष्ठतम महाकाव्य
- उपसंहार
मेरी प्रिय पुस्तक : श्रीरामचरितमानस
प्रस्तावना
प्रत्येक भाषा के साहित्य में कुछ ऐसी कालजयी रचनाएँ होती हैं जो अपनी विषय-वस्तु एवं शैली के कारण जनता का कंठहार बन जाती हैं और उस भाषा को बोलने वाले लोग उन कृतियों पर गर्व करते है। रामचरितमानस गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ऐसी ही कालजयी कृति है जिस पर प्रत्येक हिन्दी भाषी को गर्व है। इस कृति ने जन-जन को प्रभावित किया है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इसे प्रत्येक हिन्दू परिवार के ‘पूजा घर’ में स्थान मिला हुआ है। यही नहीं अपितु हिन्दू जनता इसके अखण्ड पाठ का आयोजन अमंगल की शान्ति हेतु करती है।
श्रीरामचरितमानस का परिचय
श्रीरामचरितमानस भक्तिकाल के यशस्वी कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य है। इसकी रचना सम्वत् 1631 विक्रमी में रामनवमी को प्रारम्भ हुई और दो वर्ष सात महीने छब्बीस दिन में अर्थात् सम्बत् 1633 वि. के मार्गशीष के शुक्ल पक्ष में यह सम्पूर्ण हुआ। रामचरितमानस राम के जीवन पर आधारित महाकाव्य है जिसमें सम्पूर्ण रामकथा को सात काण्डों में प्रस्तुत किया गया है। इन कांडों के नाम हैं – बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड।
रामचरितमानस में नैतिकता एवं सदाचार
रामचरितमानस में भले ही रामकथा हो, किन्तु कवि का मूल उद्देश्य राम के चरित्र के माध्यम से नैतिकता एवं सदाचार की शिक्षा देना रहा है। तुलसी ने स्वयं स्वीकार किया है कि इसमें नाना पुराणों, वेदों, शास्त्रों का सार है:
तुलसीदास ने इसकी रचना लोककल्याण एवं स्वान्तः सुखाय’ को दृष्टि में रखकर की है। उनकी मान्यता है कि राम उसी के हृदय में निवास करते हैं जो नैतिक मल्यों का समर्थक एवं सदाचारी हो। काम, क्रोध, लाभ, मोह, दम्भ से रहित हो, दूसरे की विपत्ति में दुखी रहने वाले तथा दूसरे की प्रसन्नता में सुखी रहने वाले व्यक्ति के हृदय में ही ईश्वर निवास करता है:
लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिनके कपट दम्भ नहिं माया।
तिनके हृदय बसहु रघुराया।।
वस्तुतः रामचरितमानस सदाचार की शिक्षा देने वाला एक महान ग्रन्थ है जो हमें यह सिखाता है कि हम रामवत आचरण करें और रावणवत आचरण न करें।
लोककल्याण की भावना
रामचरितमानस की रचना लोककल्याण की भावना से की गई है। तुलसी चाहते हैं कि लोग उनके इस ग्रन्थ को पढ़कर सदाचारी बनें, उनके हृदय का कलुष नष्ट हो, उनमें विश्वबन्धुत्व, सद्भाव, सहयोग, प्रेम की भावना विकसित हो। तुलसी का यह भी मत है कि कविता का मूल प्रयोजन लोककल्याण ही है। वे कहते हैं :
सुससरि सम सब कहँ हित होई।।
समन्वय की भावना
तुलसीदास लोकनायक थे तथा उनका रामचरितमानस समन्वय की चेष्टा करने वाला एक महान ग्रन्थ है। जिस समय तुलसी का प्रादुर्भाव हुआ उस समय समाज में विषमता व्याप्त थी। ऊँच-नीच का भेदभाव, ब्राह्मण-शूद्र का भेदभाव तो था ही साथ ही निर्गुण-सगुण का संघर्ष, शैव-वैष्णव का संघर्ष, ज्ञान-भक्ति का संघर्ष अपनी चरम सीमा पर था। तुलसी ने दार्शनिक क्षेत्र में समन्वय का प्रयास करने के लिए रामचरितमानस में कई प्रसंग कल्पित कर लिए हैं। राम, जो विष्णु के अवतार हैं, स्वयं कहते हैं :
सो नर मोहि सपनेहूं नहिं भावा।।
इसी प्रकार ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय करते हुए वे कहते हैं :-
उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।।
मानव जीवन के आदर्शों की प्रस्तुति
रामचरितमानस व्यवहार का दर्पण है। मानव को कैसा आचरण करना चाहिए इसका आदर्श रामचरितमानस के विभिन्न चरित्र है। आदर्श भाई, आदर्श पिता, आदर्श पत्नी, आदर्श पुत्र, आदर्श माता, आदर्श सेवक, आदर्श राजा एवं आदर्श प्रजा का स्वरूप रामचरितमानस में प्रस्तुत किया गया है। भरत आदर्श भाई हैं, तो राम आदर्श पुत्र है, लक्ष्मण और हनुमान आदर्श सेवक के उदाहरण हैं तो माता कौशल्या माता का आदर्श हैं। राम आदर्श राजा है तो अयोध्या की जनता आदर्श प्रजा है। कवि ने रामचरितमानस को एक ऐसे दीपक के रूप में प्रस्तुत किया है जो जीवन के अंधेरे पथ में हमें प्रकाश दिखाता है।
रामराज्य की परिकल्पना
रामचरितमानस में तुलसीदास ने रामराज्य की परिकल्पना करते हए एक आदर्श शासन व्यवस्था का प्रारूप प्रस्तुत किया है। कलियुग का चित्रण करते हुए उन्होंने अपने युग की बुराइयों का
उल्लेख किया तो रामराज्य का चित्रण करते हुए आदर्श शासन व्यवस्था को प्रस्तुत किया। राम के राज्य में क्या व्यवस्था थी इसका चित्रण निम्न पंक्तियों में किया गया है :
रामराज काहूहि नहिं व्यापा॥
सब नर करहिं परसपर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
नीति एवं भक्ति भाव
रामचरितमानस में नीति, भक्ति, वैराग्य का भी अनूठा संगम है। पारस्परिक व्यवहार की जो शिक्षा इस ग्रन्थ में दी गई है, वह अन्यत्र नहीं मिलती। मित्र के दुख को देखकर दुःखी न होने
वाला व्यक्ति नीच है:
तिन्हहिं विलोकत पातक भारी।
इसी प्रकार एक स्थान पर वे कहते हैं कि यदि मन्त्री, वैद्य और गुरु किसी लोभ लालच या भय के कारण चापलूसी करते हैं और सत्य वचन नहीं बोलते तो उस राजा का राज्य, रोगी का शरीर और व्यक्ति का धर्म शीघ्र नष्ट हो जाता है:
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगही नास।।
रामचरितमानस में तुलसी की भक्ति दास्य भाव की है। वे स्वयं को सेवक और प्रभु राम को अपना स्वामी मानते हैं तथा उनके चरणों में निरन्तर रत रहने का वरदान मांगते हैं:
जनम-जनम रति राम पद यह वरदान न आन।।
महाकाव्यों में श्रेष्ठतम
रामचरितमानस हिन्दी के महाकाव्यों में श्रेष्ठतम है। इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण विद्यमान हैं। कथा पौराणिक एवं विस्तृत है। राम धीरोदात्त नायक हैं। शृंगार एवं शान्त रस की प्रधानता है। यह ग्रन्थ अवधी भाषा में लिखा गया है तथा उद्देश्यपूर्ण रचना है। सात काण्डों में कथा विभक्त है। प्रबन्ध सौष्ठव, भाषा सौष्ठव, छन्द एवं अलंकार विधान की दृष्टि से यह अद्वितीय ग्रन्थ है। कवि को कथा के मार्मिक स्थलों की विशेष पहचान है।
उपसंहार
उक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि रामचरितमानस एक अद्वितीय ग्रन्थ है जो सबके लिए उपयोगी एवं शिक्षाप्रद है। यही कारण है कि आज से 438 वर्ष पहले लिखी गई यह रचना वर्तमान समय में भी पूर्णतः प्रासंगिक है। इसीलिए लोग इसे आज भी बड़े चाव से पढ़ते-सुनते हैं।
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